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(२०१) प्रवहण आपणा समुद्र माहि घोले ॥ सोनातणे कारणे पीतल ल्यावें । अमृत नोजाइगा विस घोले ।। इत्यादिक जिन धर्म जाणवो ।। पू०
(४८) प्रमाद (२) अजइ व्यानि ससाईउ दीजइ, सर्पि सउं क्रीडा कीजइ । अनइ हालाहलु पीजइ, महाविष तणउ कवलु लीजइ । अग्नि मध्य पयसियइ, शत्रु सउं वसियइ । पुण प्रमादु न कीजइ ॥
(४६) जिन धर्म छोड़ मिथ्यात्व ग्रहण स्थिति यो जिन धर्म मुक्त्वा मिथ्यात्व प्रतिपद्यते, स स्वर्णस्यालेन रजः पुज मुद्धरति ।
, कल्पतरुणा छाया लाभ वाछति ।
चदन वन ज्वालनेन भस्म लाभं । अगरु काष्ठेन लागूलं । सुवर्ण पिंडेन कुशीं सभी। चिन्तामणिना काको डायन विधत्ते। अमृत धारया पाद शौचं चिंतयति। मत्त करीन्द्रेण काष्ट भारः। . कस्तूरीका वीणा' केन सिंखी। कदली स्तमेन गृह भार मुद्धतु मिच्छति । कमल तंतुभिः मत्त वारण बघ्नाति ,
(१६ जो०) (५०) असाध्य शुद्ध धर्म शुद्ध सर्वज्ञोक्त धर्म करी न सकीयइ । जिम मेरु पर्वत्त तुलानि धरी न सकीयइ २ । निम समुद्र भुना दडि तरी न सकीयह। जिम लोह मय चिणा चर्वण करी न सकी यह ।
१. वीणा कन मपी-त्रीणक्रेन मपों। • सकीइ। ३ तरिउ । ४ चावी ।