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अक्रोध, विरोध, विबुद्ध, विशुद्ध ।
आदेयोदार स्फार तर वचन, टतात्यत सशीति निर्वचन । एव. गुरु ||४ | जो.
( ५६ ) तपोधना महासती साध्वी
पुण्यवति तपोधना, करइ देहनी साधना ।
सदैव भणिवा गुणिवा नउ आक्षेपु, नथी लागतउ विलेषु । श्राविका हृइं भणावद्द, धर्म भाव भावई ।
प्रत्युत्तम नारि, महासती चटनवाला नइ अवतार |
गच्छ चिन्ता चतुरि, विज्ञान विद्या विदुरि ।
नी कन्हलि प्रतिबोधनी शक्ति एवडी, रघु हुंतउ मान गजेन्द्र चडी । वचन छलि प्रतिबोध बाहुबलि ।
श्री युगादि देव नइ समवशरण प्राण,
केवल श्री अलकरतउ देखी नगडीसि वखाणउ । ते ब्राह्मी सुन्दरि, जेह श्राचार करी ऊधरी । एव विध महासती ॥ ८ ॥ जै.
(६०) साधु (१)
उत्तम नगर, गुरु क्रियानुष्ठान पर,
जिन वचन धुरंधर, सरस्वति लब्ध प्रसाद वर,
त्रिण तत्व पालन तत्पर ।
नकल गुण भंडार, विज्ञ श्रागम विचार,
सकल सब ग्राधार, शास्त्र ना लकार । जीवादि तत्व विचार, विद्वज्जन सभा शृंगार हार,
त्रिण गुप्ती कारक, पंच सुमति पतिपालक |
चैतालीस सटोप टालकं, प्रहार सहस्र स्त्री सीलाग रथ धारक । तेर काठीया जीपक, भ्रष्ट कर्म छीपक । त्रिगुण गुमि प्रवर्तक || ( पू० )
( ६१ ) श्रावक ( १ )
द्वादस व्रत धारक, शुभ ध्यान मन चालक । श्री बिनपाट श्राराधक, अगणित पुण्यकारक ।
दर्शन पोषक, दान शील तप भावना भावक ।
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