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(५८ ) अन्तरा (७) जेवड अंतर मोक्षनइ ससार, कृपणनइ उदार ॥ शोक नइ उच्छव,
शालिनइ कोद्रव ।। सन्सानिनइ परभव,
मेरुना सरसव ॥ साचिनइ कूड,
तेजन तुरी ने धूड ।। रामन रावण,
सुमत्रनइ कामण ।। राघणनइ टासि,
दूधनइ छासि ॥ स्वर्णनइ पीतल,
स्वर्ग नइ भूतल ।। रायनह राक,
मसकनइ वांक ।। नक्षत्रनइ शशाक,
तोलउनइ टाक ।। श्रातपन छाया,
लुभावीनइ माया ।। आदित्यनइ षअउ,
वइरागीनउ जूअउ ॥ लाषनइ रूपउ,
समुद्रनइ कूउ ।। एवडउ अंतर हूप्रउ ॥
इति अंतरावर्णन | कुल
(६०) परोक्षा दान दुर्भिक्ष परीक्षते, सुवर्ण कषपट्टे परीक्षते । पौरुप रणे, वृषभ वौरेयत्व पके । वाग्मिता पर सभाया, परीष साहसं दुर्दशायर्या परीक्षते ।। कुमित्रं आपदि प०, सन्मित्र व्यसनावस्थाया प० । पुत्रत्व वृद्धत्वे प०, भार्या सपत्नी समागमे निर्द्धनत्वे च परीक्षते । विनयोच्चये शिष्यः परो०, वाधवत्व पृथक् भावे परी । तपस्वित्व क्रोधे परी०, ज्ञान निरहकार वे परी० तथा धर्मोपि निर्दभत्वे प० । यतः-तद्भोजन यन्मुनिदत्त शेष सा प्राज्ञता या न करोति पाप । त-सौहट यस्क्रियते परोक्षेदभैविनायः क्रियते सधर्मः ॥ १८ । जो०
(६१) सहज वैर (१) सहन वैरं, जल वैश्वानरयोः । , देव दैत्ययोः, श्राखु' मानरियोः ।
१. सारमेय