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( -१५८)
पाताल वलि तणा बंघ त्रोड़इ पर्वत ता शिखर फोड़इ इस महा मां थिकु शक्ति मंतु योगीन्द्र ॥
( ६ ) पूतली वर्णनम्
पूतली, जाणे काचइ कपूरि घड़ी, नाणे रंभा तिलोत्तमा श्राकाश हुंति पडी | जिसी श्रमृत सारिणी, इसी मनोहारिणी ।
निणि दीठि ऊपजइ रती, इमी पूतली ।
सा देखी नाणियइ चित्रामु चित्रितु, निमड पाषाण घटितु ।
जिसउ काष्ट उत्कीरितु, जिस मंत्रि स्तंभितु |
जितउ महाग्रह ग्रहित, जिसउ भूताधिष्टितु, जिसउ सन्निपात पूरितु । जिसउ मदन भिंभलु, इसउ हुइ प्रहिलु ।
न वेलई, न वेद्दं ।
न चालई, न हालई ।
न खेलइं, न बोलई |
- न नियई, न रमई ।
न नासई, न सम्मुख लागइ ।
-मन मध्यकरइ कमाउ || ३ ||
(१०) रोपातुर व्यक्ति
सोप नरः, भ्रकुटि ताडतउ ।
विकट चपेटाऊ पाड़तऊ, होठकरी फुरफरतउ ।
- वचन विन्यासि प्रमुख लतउ । विभीषणाकार मुखवरतउ, चारक लोचन फेरत । दुर्वाक्य बोलत, महा कोपि सयर डोलतड । जाणेकरि प्रज्वलत बड़वानल |
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प्रति रोपावण, निचिड रात श्रवण । निष्ठुर वदन क्रूर लोचन । सर्व स्फुटोप कुटिल |
कन्जल दल श्यामल, निर्नालित निह्ना युगल ।