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गज गतिर चालतउ समस्त भव्य लोक तरणा लोचन नह श्रानंद उपजावतउ | भव्य जीव दराइ हृदय कमलि बोधि बीन वावतउ ।
पूर्व टिसि तणइ द्वारि पइसी, पूवाभिमुख सिंहासन वइसी । चतुर्मुख होइ, भविक सम्मुख जोइ ।
वारइ (१२) परिषद पूरी, मिध्यात्व मान मूरी, पापकर्म चूरी । सर्व सत्त्व साधारिणो, योजन नीहारिणी, अमृतानुकारिणी । वारणीयइ करी, लोक ऊपरि हित आदी ।
चतुः प्रकार, सर्वसार, जग त्रयनइ श्राधार ।
धर्म्म मार्ग उपदिसइ, भविक लोक तराइ हीयइ वसइ । श्रनेक भव्य जन आदरइ धर्म्म, त्रूटइ जिथी अशुभ कर्म्म | पामीयइ मोक्ष सम्म, इति समव सरण । (सू०)
(१०) समवसरण (२)
योजन लगइ खेहनुं विस्तार | देव कृत कचवरा पहार |
गंधोदक सींचवइ । सौचाम्यसार । पचवर्ण जानु प्रमाण जिह कुसुम सभार
देव कृत मणि कनक रूप्यमय त्रि प्राकार
विशाल शाल भंजिका सहित रत्न मय दो जेहनु द्वार |
यथा स्थान स्थित गणवर देव देवी प्रभृति वार सभा परिवार ।
उच्चैस्तर तोरण पताका किंकिणी नउ झात्कार ।
धूप घटिका निर्गछत् । कृष्णा गुरु कु ढरुक तुरुकनो निहाँ धूपोद्वार । चतुर्द्वार | एवं विघ समवसरण || छ || पु०
(११) समवसरण (३)
जानि इन्द्रादिक देव श्रावइ, समवशरण तणी भक्ति भावहि ।
एक देव स्कार नीपजावर, रुप्यमय प्राकार, एकदेव विस्तारित तेजः प्रकार निरजावर स्वर्णमय प्राकार |
एक देव मणि रतोद्योत विघटितांधकार निपजावइ, रत्नमय प्रकार |
एक देव श्रति उदास, नीपनावर प्रतोली द्वारा |
एक देव लोक लोचन समुल्लासन, नीपलावर सिहासन । एक देव प्रकाशित टिग्मण्डलु, नीपनावर भामडलु ।
एक देव वित्मापित जगत्त्रय, नोपजावर छत्र त्रय ।