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मथितस्य मथन वृथा, अचिंतित श्रुत वृथा । अखरे वारित वृथा, ममुद्रे वृष्टिर्वृथा । मुनीनामाभरणं वृथा, अधिरस्याग्ने वीणा वादनं वृथा। अधस्याने प्रेक्षणक वृथा, अभव्याया जैन धमों वृथा || ३६ ॥ (स० १)
(१०६) निरर्थक (३) कुपुरुष ने उपकार कन्यो निरर्थक नाणवो सुकी नटी नायाजनी परि, वेलु चावनानी परि । मृतकना शृंगारनीपरिं, अगनिहोमवानीपरि । भस्ममि नाखवानीपरि, भस्म श्राकाश कुहन परि।। तुस खाडवानो परि, पाणी विलोवानी परि ।। १ऊरवरना वरसवानीपरिं, शुक काट नासीवानी परिं। जूअटानाधननी परि, कुपात्री विद्यानोपरि । इत्यादिक जाणवो ।। (सू० ३) ।
(१०७) विहीन किसो प्रारति विहूणो काम ? किसो प्रेम विहूणो मान, किसी जाचक विहूणी जान । किसी हूँकार विण वात, किसो छयल विहूणो साथ । किसो बल बिहूणो बाण, किसो तरवर विण पान । किसी वादल विण वीज, किसी पोहच विण खोज । किसो विगर दीठा कहणो, किसो कागद विहूणो लहयो । किसी त्रीया परतीत, किसो कंठ विहूणो गीत । किसी निर्लज्ज नारी, किसो अवसाण चूको हथियार ।' किसी लूगडा विण चूंप, किसो वागा विण खूप । किसो उन्मान विण आघो, किसो सघण विण वागो। किसी चद विहूणी राति, किसी अमल विहूणी आय । फिसो छंडारो घर वासो, किसो नुखता विण हासो। किसो अतीत विण चोरो, किसो गर्त विण पोहरो। किसी पूंजी विण लाभ, किसो समझ्या पखे जाव । किसो पूत पखे घर, किसो संपत्ति पखे नर । किसो तीय पखे बन, किसी भाव पखे भोजन । सत्य शष्ट भविनन कहें, कहा जीव्यो जिन नाम विषा। (स० ४)
१. उपरना।