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क्रिया कलाप सावधान, सदा धर्मं ध्यान । महा एक तपोधना, करंत देह सोचना । एहवा मुनीसर, पीहर जीवना पीहर श्रनाथ जीवना नाथ, मेलइ मुक्ति नउ साथ | सकल जीव अभय दायक, सर्व श्रोपमा लायक || नाणी ससार असार, श्रोपण पइथ...।। उन्मार्ग कथापक |
नव.. थापक,
साधु भगती या पालइ, प्रतीचार सर्वथा टालइ || मेरुनी पर कंप, कासनी परे निराल ||
बायनी पर प्रतिबंधु भारंड पखीनी परइ श्रप्रमत्त ॥ सूरो इव तेन लेस्या, चंद्रो इव सोम लेस्या ||
सागर नी परे गभीर, कुंजरनी परे सोंडीर ।
खीरो इव खधारे, जलोइव सच्च फासे, सखो इव निरंगणे |
ससार समुद्र तारण तर गुण करड | सचरित्र, गंगाजलनीर नी परे पवित्र ॥ सर्व दोष रहित, चितव ́ सकल जीव हित ॥ चारित्र करी पवित्र गात्र, ससारोद्धि यान पात्र ॥ दुःकर्मवल्ली वन छेटन दात्र, सुकृत तणू एक पात्र । जेहनइ दर्शन हुइ पाप श्रन मात्र, तपइ करि साखित गात्र । वली ते तपोधन केहवा श्रागम माहे गुणधरे गुध्या जेहवा ।
(५५) मोक्षार्थी (१)
बाल लगी सिर मुंड मुडन कीनइ, खारा तोरा पाणी पीजइ । ग्रंत प्रान्त आहार लीजइ, सीत वात श्रातप सहियइ । एकत्र तदैव न रहिवइ, यथावस्थित धर्म कहियह एतदर्थस्य (स्व) कर्म उठहियि ।
शुक्ल ध्यान धरिउ श्रनंतर मरिउ, मुक्ति पय सरिउ ।
ईणहूं परि सिद्ध होइयद्द, सकल त्रैलोक्य टगमग जोईयर ||१|| -
इसके बाद चित्तवाला गच्छीय देवेन्द्रसूरि के नुसरा कथा की तपोधन के वर्णन वाली गाथा है ।