Book Title: Agamoddharak Kruti Sandohasya Part 04
Author(s): Manikyasagarsuri
Publisher: Mithabhai Kalyanchandji Pedhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Now आगमोद्धारकग्रन्थमालायाः पञ्चदशं रत्नम् // णमोत्यु ण समणस्स भगवओ महावीरस्सः / आगमोद्धारक-कृतिसन्दोहस्य -चतुर्थो विभागः Serving JinShasan 050511 gyanmandir@kobatirth.org ना मारा वीरसं. 2491 वि. सं. 2021 आगमोद्धारकसं. 16 PSEARSWEARJEETINDIA प्रकाशक संशोधकःशान्तिचन्द्र छगनभाई झवेरी 1 परमपूज्य-आगमोद्धारक-आचार्यप्रवरगोपीपुरा श्रीआनन्दसागरसूरिपुङ्गवपट्टधरः सुरत, W. R. आचार्यश्रीमन्माणिक्यसागरसूरिः // M19 29 Mame ARAM MARAVA MASTI DURGUPOWEGORKानध्यापEND ATML Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रका वसन्तलाल रामलाल शाह प्रगति मुद्रणालय खपाटिया चकला,सुरत W. R. प्राप्तिस्थानो - / 1 श्रीजैनानन्दपुस्तकालय गोपीपुरा, सुरत 2 श्रीआगमोद्धारकग्रन्थमाला c/o शेठ मीठगभाईकल्याणचंदनी पेढी कपडवंज (जि. खेडा) बा. के. सा. कोबा प्रकाशकः शान्तिचन्द्र छगनभाई झवेरी गोपीपरा सुरत W. R. P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीयनिवेदन। // 3 // परम पुज्य गच्छाधिपति आचार्य श्रीमाणिक्यसागरसूरीश्वरजी महाराज आदि ठाणा वि. सं. ! 2010 ना वर्षे कपडवंज शहेरमां मीठाभाई गुलालचंदना उपाश्रये चतुर्मास बीराज्या हता। आ अवसरे विद्वान् बालदीक्षित मुनिराज श्रीसूर्योदयसागरजी महाराजनी प्रेरणाथी 'आगमोद्धारकग्रन्थमालानी स्थापना थएली हती आ ग्रन्थमालाए त्यारवाद प्रकाशनोनी ठीक ठीक प्रगति करी छ सूरीश्वरजीनी पुण्यकृपाए आ 'आगमोद्धारककृतिसंदोह'नो ४थो भाग के जेमां नानी मोटी 31 कृति छे. ते ग्रंथने आगमोद्धारकग्रंथमालाना 15 रत्न तरीके प्रगट करतां अमने बहु हर्ष थाय छे. आनी प्रेसकोपी स्व. गणिवर्य श्रीचन्दनसागरजी महाराजे करेल अने आनु संशोधन प. पू. गच्छाधिपति आचार्य श्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजी म. नी पवित्र दृष्टि नीचे थयेल छे. ते बदल तेओश्रीनो तेमज जेओए आना प्रकाशनमां द्रव्य आपवानी सहाय करी छे, ते बधा महानुभावोनो आभार मानीए छीए. लि. प्रकाशक // 3 // P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठम् 24 // 4 // 27 ก ข विषयानुक्रमः। विषयः 1] 16 लोकाचारः। 17 गुणग्रहणशतकम् / 6 18 गडंकृत्यम् / 19 धनार्जनषोडशिका / 20 सूतकनिर्णयपश्चविंशतिका। 21 वर्धापनानि / 22 सत्संगवर्णनम् / 23 शिष्टविचारः। 24 विवाहविचारः। 25 पापभीतिः। 26 रात्रिभोजनपरिहारः। 27 पञ्चासरपार्श्वनाथस्तवः / 28 जिनस्तुतिः। 29 जिनस्तुतिः। 30 इडरनगशान्तिनाथस्तवः। 31 पञ्चसूत्रवार्तिकम् / विषयः 1 दानधर्मः। 2 यथाभद्रकधर्मसिद्धिः। 3 धर्मोपदेशः। 4 सचूलचारित्रधर्माष्टकम् / 5 मौनषत्रिशिका। 6 भिक्षाषोडशकम् / 7 मासकल्पसिद्धिः। 8 वेसमाहप्पं / 9 शिष्यनिष्फेटिका। 10 क्रियास्थानवर्णनम् / 11 सदनुकरणम् / 12 शरणचतुष्कम् / 13 मोक्षपञ्चविंशतिका / 14 आर्यानार्यविचारः। 15 व्यवहारपञ्चकम् / urur,00 า ร 5 14 48 16 // // 56 21 23 59 थी 184 आ. के. सा. कोषा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 5 // शुद्धम् हरण नुकल्वं नुकल्यं 09 पृष्ठम् पक्तिः अशुद्धम् 2 परो 8 निदिश्य , 23 .बश शृणु० चाणक्य परिणाप्रमा० षोडशक: , 14 तृतीयोषध० कल्पावि० 12 5 माहप्प उवेक्खणज्जो मुसिक भुमुज्झि. 142 तुषल. निषेधो मातुक्षय शुद्धिपत्रकम् / शुद्धम् पुष्ठम् पक्तिः अशुद्ध परा 19 13 हरणा. निर्दिश्य बहुशः 21 7. शः शृणु० नायवि० चाणाक्य नेमिनं परिणामा० 24 5 समाचार्य षोडशकम् 25 5 मेतयाः / नृपः चाच्चं . तृतीयौषध. 26. 1 दाऽपूत कल्पवि. श्रद्धधानः महाप्पं पडूते० उवेक्वणिजो 27 છે वर्ण विष्ठाद्यपि भूसुज्झि तवल० दोपा० रुधि मातुश्चा० यः 5. मर्ता नार्यवि० नेमीन समाचर्य मेतयोः चोच्वं दोऽपूत श्रदधानः पडते. नृप वर्णः सुत्त. विष्टाद्यपि बुद्धी // 5 // निषेधे 8 2 दोषा० रुधिरं भर्ता P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्ठम् पक्तिः अशुद्वम् शुद्धम् पृष्ठम् पक्तिः अशुद्धम् शुद्धम् 33 9 46 कृति वर्याम् व्यरचं माय करो 34 36 37 27 4 3 . कृतिचेर्याम् व्यवरचं आय. करोः पर सूरीजातस्त० दारिका स्तुषोरेण सत्पुरु१० परो 47 11 48 4 नामोक्तेव मिथ्या जम्ब्वा० ना दडी० वैचित्र्यं सवृत्त - बद्धानां सुरीजाता त० दारिकाः स्तुषारेण 49 4 41 ', કર 5 16 2 सत्पुरुषै० वृन्दं नामाक्तो मिथ्या० जम्बा० . ना . दननी० वैचव्यं सद्वत्त० बद्वानां श्रतेः ज्ञानं, नियना कुरुयु भिदितम् सार्वश्य० तावतो पकारि० सवेषा० 50 17 7 वृन्द पटना तत्क्थं पङ्कित पक्ति० तत्कथं शिष्टा হিg . शिष्टो० , 15 शिष्ट समाहरः 17 , शुद्धये. 5 रुकतो ज्ञान नियमा० त्कुरुटयु भिरितम् सार्वश्या० तावता 'पकार० सर्वेषा० 65 25 // 6 // समादरः शुद्धये उक्तो० P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठम् पक्तिः अशुदम् शुद्धम् पृष्ठम् पक्तिः अशुद्धम् शुद्धम् प्रावना० श्रयते दामाक्ष० प्रार्थना श्रूयते 69 17 7. 9 72 3 74 10 77 16 838 108 9 दामोक्ष ऋजुत्व० भगवद्भ्य भकूट केवलि० परंन क्वा० महाशो० नुभावः तत्तत्त देशस्था गुर्च पमीयते किञ्चि० तद्वदत्रापि वगाहनाः दुःखपूर्णः 106 12 तत्त० देस्था 107 14 जुध्व० पमयते , 14 किश्च० 109 तदत्रापि 111 2 वहंगाना: 114 2 दुःखापूर्णः .., 13 फट्टेइ सायदि 120 1 वैचित्र्यं 121 3 मेक० 123 . 3. थायया०१२४ ऽस्थानं ___, 12 मनेन तक्त्व्याः 125 5 नपव० भगवयभ्य भकुट० केवल० परं क्वा মাহী नुभवः ईन्तः वोनन या जायते धराणा सव रस्मिन्त साधास्वादादि वैचित्र्य वोऽनेन यत् .98 99 8 1 न जायते धराण मेग० यथा या० ऽवस्थान भलेन तत्त्व्याः ऽव० 200 सर्व 104 5 105 13 रस्मिन्ने | P.P.AC.GunratnasuriM.S.. Jun Gun Aaradhak Trust Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धम् शुद्धम् पृष्ठम् परक्तिः अशुद्धम् शुद्धम् 126 // 8 // 2 कृत्यता 143 144 5 को घ० पूद्गः० 129 कृत्यां कर्मोघ० पूदग० ०पक्षमा० नैभि नग्तरं निषिद्वं सडखयाका जीविका पत्रण 5 व्यश्चेत्ये कोऽपि लम्भयन्ति सिद्धिभावः दर्शन लिङ्गेषु ०वर्ग परामा नैमि नन्तरं निषिद्धं सखयाका जीवका व्यश्चत्ये० कर्कोऽपि लम्भ्यन्ति सिद्धिमावः दशनं० लिङ्गषु ०वग ०काय थाधर० 147 . 2 147 13 148 2 151 11 152 2 154 2 15 कार्य थापर० पत्र मह महा ज्ञाणं 156 10 135 15 133 15 134 16 160 11 136 खारिका० लत्वात्त जिगे. हेमया रागद्वे दुःस्वा झाण खासिका. ०त्वात्तत् जिने हेममया० रागद्वेष० दुःखा साक्षित्वा० त्वस्वीका० पसेसु नश्येश्रे० दुर्लम त्रीण्येयेतानि चयः साक्षिकत्वा० ०त्वस्वीका० पत्तेसु नश्येच्चे दुर्लभ त्रीण्येतानि चयः // 8 // 137 139 142 5 163 5 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धम् पुष्ठम् पक्तिः अशुद्धम् शुद्धम् 167 // 9 // पृष्ठम् पक्तिः अशुद्धम् 164 14 निवाणं 165 7 ०क्षत्वें . 166 2 कि , 12 विप्राणा " 17 आयारि० निर्वाण ०क्षत्वे 170 171 176 177 ०हारणा० उवज्झा० जागो महा० अघभिन्न सहा. 11 4 विप्रणा० आरि० ०हाराणा उवज्झा० जोगे माहा० अणमिने सज्झा० // 9 // P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AD ___ आगमो द्धारककृति-KI दानधर्मः सन्दोहे दानधर्मः (1) परमायमाय(माण)मानं मानोदलितालिकालिदुरितालिं / अपचितपापोपचितिं चेतितलोकं जिनं यजत ॥शा धर्मो द्विविधो गीतः श्रावकयतिभेदतो जिनः शास्त्रे / तत्राद्यो ह्यपवादः परोऽसमर्थाय यद्देयः // 2 // यत्सङ्काशः श्राद्धो नादीक्षिदेवविभवभक्षयिता। केवलिनापि समर्थस्तद् व्याधिरिव बुधोन्नेयम् // 3 // न भवति दर्शनरहितः श्रामण्ये मोक्षदायके योग्यः / देवस्वभोगपीनो न दर्शनी जातुचिद्भवति // 4 // तादृशमपरं वा विभुरवेत्य नैवार्पिपत् श्रमणभावं / तस्मै परमियता नाधिकारिताव्यत्ययो रम्यः // 5 // यद्वा ज्ञान्यादिष्टं कार्यमर्वाग्दृशां विधेयं स्यात् / प्लवक इवाप्लवको गत आपगाया रये कथं जीवेत् 1 // 6 // असमर्थमृते मुनिताचरणेऽणुविरतिदेशने दुरितं / स्थावरवधानुमत्या गीतं नान्यत्र पसृतज्ञातात् // 7 // इच्छाविगमोऽणुव्रतकथने नोत्सहेताग्रतस्तेन / आदौ परं निदिश्यापरमसहिष्णोः समाख्येयम् // 8 // धर्मश्चतुर्विधोऽखिलकर्मामयनाशकोज जिनवैद्यैः / दानाचारतपस्याभाव विधानैः समादिष्टः // 9 // न ममीकारापगमं निजस्य लोके ऋते कृती रुचिरा। सर्वानर्थनिदानं जगति न तमन्तरा कश्चित् // 10 // तस्य निखिलस्य वर्जनमनगाराणां ममत्वरहितानां / देहोपकरणवृन्दे विश्वनिरपेक्षबुद्धिमताम् // 11 // येषां न तथा मोहो व्युच्छिन्नो देशतस्तु चरणस्य / आपत्क्षयमिह तेषां दानादिर्देशतो विरतिरो // 12 // साधूनां शीलतपोभावा एतत्त्रयं भवेन्मुख्यम् / दानं तु गृहस्थानामेकं द्रव्यादिसद्भावात् // 13 // निर्मम आचारलीन आचाराढयो दधीत तीव्रतपः / तपसा लीनविकारः समाप्नुयाद् भावनाः शुद्धाः // 14 // यस्तु गृहादिपरिग्रहसक्तो न तथा क्रियातपोभावान् / कर्तुमलं तत्तेभ्यो दिष्टो दानस्य विधिरिष्टथै // 15 // नासौ -naa केलानमागर भूरि ज्ञान मंदिर श्री महावार जेन माराधना केन्द्र, कोणा // 1 // HIPP.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागमोधारककृति - सन्दोहे (N विदधीत दानं किमेव कुर्यात्परं सुकृतमेष / अत एवौच्यत सुधियाऽदानो भ्रष्टो गृही धर्मात् // 16 // दानं यद्यपि चित्रं सुपात्रदानादिभेदतः सिद्धम् / द्रव्यव्ययमन्तरा न तेष्वेकं सिद्धिमाप्नोति // 17 // व्यतिरिच्याऽऽयं l दानधर्मः यो व्ययमनिशं वितनोति गतविवेकमतिः। शिमं गृही स भवति दूरोत्क्षेप्यो मदान्ध इव // 18 // निधिकरणे IA नीतिविद्भिरायस्यार्धं यथा विनिर्दिष्टम् / पादेन शेषकरणं व्ययेदर्थ विचार्याऽऽयम् // 19 // योऽनालोच्य निजाऽऽयं वैश्रमणायन् ददाति विभवचयम् / अचिरेणानेहसासौ वै श्रमणायन्नुपैति दासत्वम् // 20 // लब्धार्थस्योपयोगश्चत्यादिक्षेत्रसप्तके गीतः / न तदर्थमर्जनं चेणं तदर्थ कथं शस्यम् ? // 21 // न्यायोपात्तं - द्रविणं समामनन्तीद्धबुद्धयो धर्मे / योग्यतया गुर्वनुमतियुतं कथं तद्भवेदितरत् ? // 22 // निर्वाणफलं मुनिभिर्मतं महादानमेवमाचीर्णम् / अन्यदानं भवफलविवृद्धये तच्छुभे यत्यम् // 23 // नानुमतो धर्म यदि व्ययोऽसमीक्ष्याऽऽयमर्थनिचयस्य / किं युक्तो लौकिकेऽर्थे व्ययोज्यहेतावनाये नु:१ // 24 // शंसन्ति' दानमधुना येऽनाये दीयमानमज्ञेन / कर्त्तार एव हासं, विपाककालेऽधमणस्य // 25 // शस्तं बुधैर्यशस्तन्नायतिकालेऽयशोऽपयेद्यच्च / यन्न श्रवणच्छेदि. चार्वाकल्पं मतं तद्धि // 26 // भोजनशय्यावस्त्राभरणाचं भरणमाश्रितजनस्य / सर्वमालोच्य लाभं विदधीतार्थस्य योग्यतया // 27 // विहिते व्ययेऽविमृश्य ऋणाधुपघातमाश्रितो गच्छेत् / आत रौद्रं च नरो, ध्यानं दुर्गतिकरं बहुश // 28 // सुकृतं विहितं नश्यत्येनोभरितोऽसुमानुपैति लघु / कलुषितसंकल्पतया तद् व्ययनीय विचार्याऽऽयम् // 29 // धार्यमुभयावधारणमत्र बुधैर्मार्गसारिताशरणैः / / आयोचितमेव पुमान् व्ययेद्वथयेदेव यद्युक्तम् // 30 // यत्तु समुपार्जितमघसञ्चयमाचर्य विभवमविधिना। धर्मादिधपि व्ययति स एव सुगतेर्भवेत्पात्रम् // 31 // राय उपात्तस्य फलं, यो न गृह्णाति दानभोगाभ्याम् / तं AI भुङ्क्ते नर इतरः पिपीलिकाया यथा क्षुद्रः // 32 // तिस्रो गतयो विश्रुता अर्थस्य समर्जितस्य दुःखेन / दानं बा.क.सा. कोण %EORIA // 2 // WP.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्वारककृति दानधर्मः सन्दोहे | स्वपरोपकृत्स्वोपकारि उपभोग उच्छिच्च // 33 // आद्य द्वयं न येषां फलभूतं तैरवाप्यमन्त्यं हि / आत्तं तदर्थमेनो भुञ्जत आता निरयभावम् // 34 // अभिलष्यन्ति समे पि च सौख्यं दुःखेन वर्जितमनन्तम् / ईप्सापेतं तत्परमृतेऽव्ययं न भुवि कुत्रापि // 35 // तन्न विरहय्य चरणं सत्यपि युगले विबोधदर्शनयोः। चरणार्हो न च सममः का वार्ता बाह्यलुब्धस्य // 36 // कायविरुद्धास्तस्मिन् ये धर्मास्तान्निवुध्य मोक्षरुचिः। कुर्याद्वापं क्षेत्रे शाश्वत्पददायके शुद्धे // 37 // यत्नलभ्यो बहिवर्ती,कल्लोलालीव चञ्चलः। व्यतिरिच्य मनोभावं,न काचित्तेन संयुतिः // 38 // अत एव पुरा प्राहुरभियुक्ता जिनागमे / शीलादेः प्राक्तनं दानं, तद्वतोऽन्यत्त्रयं यतः // 39 // कृपणः श्रुणुयाद्धर्म, न तं रोचयते श्रुतं / न-विधत्ते मतश्चेत्स्याद् , विदधन्नोत्सहेत च // 40 // वितन्यमानमपरै दृष्ट्वा द्युम्नस्य स व्ययं / शिरोरुजाक्रमं प्राप्य, सादयत्यङ्गसंस्क्रियाम् // 41 // शृण्वानोऽसौ परैश्चीर्ण, दान भोगं व्ययं शुचिं / श्रद्दधीत न यत्स्वस्याकृतिः काचेऽपि निर्मले // 42 // उपदिष्टे दधीतासौ, क्रुधं दानादि सद्विधौ। आलोचते यतोऽसौ द्राग्मोमोषिषति मामयम् / / 43 // कथान्तरेऽपि प्रकृते, शङ्कां नोज्झति तन्मनः। दग्धो दुग्धेन तक्रं किं, न फूत्कृत्य पिबेच्छिशुः ? // 44 // नाप्नोत्यसौ समं भावं, न बोधं न चरित्रितां / स्वमेऽपि नेक्षतेऽसौ यद्धर्म द्रव्यावबद्धहत् // 45 // वितन्वानो जिनेन्द्रााँ , क्षणं वा समहर्दिकं / प्रतिष्ठा वा | सुनिष्ठाङ्गा, नासौ लुब्धो विमन्यते // 46 // नाऽस्यान्तःकरणे धर्मः, स्फुरेत्स्वर्गापवर्गदः। पौद्गलिकं यतो लाभ, पुरस्कुर्यात्स पापधीः // 47 // शुभायतिर्न संस्कारो, जायेतास्य तु मानसे / न भावना शुभा चेत्स्वा, कथं सा च तथाविधे // 48 // अभव्या आप्तचारित्रा, नापुर्यत्पदमव्ययं / कारणं नापरं तत्र, विना पौद्गलिकेच्छया // 49 // घातिकर्मक्षयो धर्मः, क्रमवृद्धः श्रुतेरितः / निर्वाणान्तफलोनेता, नित्यं चेयो मुमुक्षुभिः // 50 // अत एवोदितं सम्यगार्षे बोधिर्विवुध्यते / प्रत्याख्यानाद्वधद्रव्ययुग्मस्य ध्रुवसौख्यदः ॥५१॥तनालोच्य व्ययं कुर्या M P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दायं न कृपणो भवेत् / सत्याये दानभोगादा-वैदम्पर्यमिदम्मतम् // 52 // लोकं लोकं वदान्योद्धृतकुलनिचयं | आगमो- II स्वःशिवश्रीद्धवृत्त, ज्ञायं ज्ञायं कदर्यावलिजनितमघं श्वनितिर्यक्त्वदायि / बोधं बोधं स्वधर्म प्रकटितसुगुणं I | यथाभद्र धारककृति- सर्वसौख्यावतारं, कारं कारं जिनार्चाप्रभृति सुकृतिदं मोक्षमेतीह लोकः // 53 // जिनचैत्यबिम्बपुस्तकमुनिश्रा- धर्मसिन सन्दोहे वकयुग्मजीवरक्षाब्ये / साधारणार्थखचिते पुरेऽत्र नवसारके रचितम् // 54 // सिद्धिकाष्ठाकचन्द्राब्दे, प्रसत्तेः पार्थपादयोः। अनन्तानन्दकृद्रम्य-मानन्दाय महीस्पृशाम् // 55 // इति दानधर्मः॥ __ यथाभद्रकधर्मसिद्धिः (2) . देवपूजादिका श्राद्ध-क्रिया सम्यक्त्वपूर्विका / फलदाऽपरथा व्यर्था, यथोप्तं बीजमूपरे // 1 // कश्चिदाहेति सूत्रार्थ, न्यायतोऽनवधारयन / सम्यक्त्वं यन्मुनिश्राद्ध-व्रतानां धुरि कीर्तितम् // 2 // तत्रापि सूरयो मार्ग-प्रवेशाय सुहस्तिवत् / रङ्कायेव मुनेश्चर्या, दद्युर्मिथ्यादृशे व्रतम् // 3 // भवनैर्गुण्यमुद्बुद्धं, मुमुक्षोर्यस्य चेतसि / द्रव्यसम्यक्त्वमारोप्य, व्रतं देयं विपश्चिता // 4 // अणुव्रते चतुर्थेऽतः, कन्यादाने फलेप्सिता / अतिचारतया गीता, श्राद्धानां श्रुतपारगैः॥२॥ मुनीनामपि मौनीन्द्र, आगमे गणधारिभिः। कासामोहोA दयाधीना, चित्तवृत्तिर्विपश्चिता // 6 // आज्ञारुच्यादिभेदेन, सम्यक्त्वं दशधोदितं / सूत्रे तत्र क्रियारुच्याः, 2 सम्भवो नैतदन्तरा // 7 // दानादिना तु सम्यक्त्व-प्राप्तिः शास्त्रे निरूप्यते / साऽन्योन्याश्रयविष्टब्धा, लीयते तव वाग्भीरुः // 8 // धन्यश्च शालिभद्रश्च, सम्यक्त्वं दानतो गतौ / दशार्णों वन्दनाद्धया, दुर्गता जिनपूज- M नात् // 9 // सुतः श्रेणिकधारिण्योदयायाः प्राग्भवोडवः / मानुष्यादि प्रव्रज्यान्तं, लेभे तन किमु श्रुतम् ? // 10 // किं चान्त्यपुद्गलावतें, क्रियाया आदगे भवेत् / अपार्घपुद्गले शेषे, सम्यक्त्वं तद्विचार्यताम् // 11 // HP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust | ভাষা Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आगमोद्वारककृतिसन्दोहे यथाभद्र न सम्यक्त्वं विना कापि, क्रिया शुद्धेति चेद् बुध ! / अगिर्धाणुसंवर्तात् , शुक्लपाक्षिकता कथं ? // 12 // धर्मसि देवगुर्वादिसम्पर्कात् , सदृष्टिरिति हि श्रुतिः। सा क्रिया न च तत्माक्ते, सदृष्टिः किं फलं नहि 1 // 13 // गुणाः सन्तोऽप्यसन्तः स्यु-रसन्तः सन्त इत्यपि। चित्तस्य रोधेऽरोधे चेत्युक्तिर्मनो वशे यथा // 14 // तद्वदत्रापि सद्दष्टेमहिमा, विविधोक्तिभिः। व्यञ्जितः स्थेमता चास्या, निष्फलं तत् परं नहि // 15 // किश्च भव्या अभव्याश्च, मिथ्यादृशो मुनिव्रतात् / यान्ति अवेयकान्तेषु, देवेष्विति श्रुतोदितम् // 16 // AI बाह्यं फलं चेत्तद् विद्वन् ? तदेवान्तरसिद्धये / प्रत्यलं विकलाक्षाद्या, नाप्नुवन्ति सुदृष्टिताम् // 17 // यदोप्तमूषरे बीजं, न फलेद् वधूकेऽम्बुदे / तदा किं कृष्णभूमेऽपि, वर्षवापौ च निष्फलौ ? // 18 // नैवेति चेत् परेषां न, हेतुसन्दोह आप्नुयात् / सदृष्टेहेतुतां तत्कि, तथा भव्यात्मनां नहि ? // 19 // यथा जिनेशगीः सर्व-श्रोतषु प्रबलापि हि / न समानफला तद्व-दत्र स्यात्तत् किमद्भतम् ? // 20 // यत्कार्य |K विधिरागेऽपि, स्याद्विपर्ययतोऽन्तरा / तद्भावधर्मतामेति, भक्तिरागेण शोधनात् // 21 // बाध्यमानं ततो | - भाव-प्रत्याख्यानाङ्गतां व्रजेत् / प्रत्याख्यानं पुरा भक्त्या, संवेगेन समादृतेः // 22 // अत एव युगादीशोऽदाद् व्रतानि मरीचये। जमालये महावीरः, केवलज्ञानभास्करः // 23 // जलक्रीडाकृते दीक्षां, प्रादाद्वीरजिनेश्वरः। अतिमुक्तकुमाराय, तन्नायुक्तं निभालय // 24 // साधोरुत्कृष्टतः कालो-ऽप्रमादेऽन्तमुहूर्तिकः // 24 // भवे तथापि यत्सार्वः, ततो दीक्षयते जनम् // 25 // ज्ञात्वा मार्गमशेरवेदिगदितं संसारवैराग्यभाग, भक्त्युत्कर्षरतो विधानमुदितः कुर्याः क्रियायां मनः। वाचं कर्म च सर्वकर्महतये सद्भावनावासितो, येनाशेषमलान् विहाय रमसे आनन्दमार्गे सदा // 26 // इति यथाभद्रकधर्मसिद्धिः॥ R A .Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मोपदेशः (3) ... आगमो धर्मोपदश ____ भो नरवर ! संसारे पढम चिय दुल्लहो मणुयलम्भो / तत्थवि य निरुवचरिया कुलरूवारोग्गसामग्गी द्वारककृति-IM ISI // 1 // तीए वि परतुरयजोहरहनिवहभूमिभंडारं / भयवस-नमंतसामंतमंडलं नरवइत्तपि // 2 // तत्ववि सचूलसन्दोहे सत्थवियक्खणेहिं अञ्चतभवविरत्तेहिं / कुसलेहिं समं गोट्ठी दुल्लंभा थेवमेत्तावि // 3 // एयं च तए चारित्र सयलं संपत्तं पुण्णपगरिसवसेणं / ता एत्तो सविसेसं पाणवहाईण वेरमणे // 4 // जयसेवणमि सुगुणजणमि धर्माकष्टर करुणाय दुत्थियजणाणं / धम्मत्थविरुद्धविवजणे य परलोयचिंताए // 5 // भंगुरभवभावणंमि तहय वेसइयसुहविरागंमि / तुम्हारिसेण नरवर ! पयट्टियव्वं मणो णिचं // 6 // इति धर्मोपदेशः। सचूलचारित्रधर्माष्टकम् (4) नत्वा जिनेन्द्रं सुरराजसेव्यं, क्षीणाखिलापायमशेषबोधं / स्याद्वादधर्मप्रणयैकवीरं, धर्म स्वरूपेण IF! वदामि किञ्चित् // 1 // प्रोक्तः केवलिभिर्धर्मः, सर्वप्राण्यवनक्षमः / सत्येनाधिष्ठितो मूलं, विनयस्तस्य, MAI शिष्टगः // 2 // क्रोधशान्तिः प्रधानाज, स्वर्णरूप्यविवर्जनः / शमेनाढ्यः सुगुप्तश्च. नवभिर्बह्मवृत्तिभिः॥३॥ अपचो भिक्षया वृत्तिः, कुक्षिशम्बलतान्वितः / अग्निगेहैस्तु शून्योऽयमात्मक्षालनगर्मितः // 4 // त्यक्तदोषो / गुणग्राही, विकारैः सर्वथोज्झितः। हिंसादिविरतेरम्यो, रम्यः पञ्चमहाव्रतैः // 5 // सन्निधिर्न सुसंवादी, NI संसारोत्तारणे क्षमः / पर्यन्ते यत्र मोक्षोऽस्ति, धर्म एतन्मतोहंतः // 6 // द्वाविंशत्या लक्षणानामेवं पूर्णो जिने- Ki d श्वरैः। धर्मो नान्यैर्यतो नैते, स्वयमेतेष्ववस्थिताः // // धर्माष्टकं निर्मलता गुणाढ्य, धर्म निदेष्टुं तु शुभा शयेभ्यः। कृतं सदाप्ताग़ममन्दिरेणानन्देन रम्ये सुरते स्थितेन ॥८(कपच्छेदतपैः शुद्धो, धर्म आख्यात // 6 // Jun Gun Aaradhak Trust IDIP.AC.Gunratnasuri M.S.. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R ' आगमो. मौनषदः // 7 // आहेतः / हिंसाद्यघावलेरत्र, निषेधः सर्वथा खलु // 1 // ध्यानाध्ययनमुख्यानां, विधीनामेष देशकः। द्वारककृति तत्सम्भवाय रक्षाय, चेष्टा सर्वा जिनागमे // 2 // स्याद्वादाङ्किततत्त्वानां, जीवादीनां निरूपणं / सूक्ष्मसन्दोहे युक्तिशतोपेत-मवाध्यं परतीथिकैः // 3) इति सचूलचारित्रधर्माष्टकम् // त्रिंशिका __ मौनषत्रिंशिका (5) - अन्तरायफलं मौनं, कश्चिदित्याह तार्किकः / भोगोपभोगशून्यत्वं, परथा कथमीक्ष्यते ? // 1 // Iत तन्न, यत् शून्यता भोगो-पभोगे नान्तरायतः / भोगोपभोगतृष्णाया, अभावाद् यदुदीरितम् // 2 // अन्तरैप्रतीत्यन्तराय, जीवस्य भोग्यवस्तुनः / प्रत्याख्यानवतां तृष्णा, नास्तीति नान्तरायता // 3 // चारित्रD! मोहशमनात् , प्रत्याख्यानवतां सतां / भोगोपभोगयोः प्राप्ता-चपि तद्भोगशून्यता // 4 // भोगादीच्छा वतां भोगादेरमाप्तौ तदुदयः। प्राप्तौ वा रोगमृत्यादि-शङ्कया तद्विवर्जनम् // 5 // पापभीरुतया शास्त्र- / वाक्यानुसरणात्तथा / निजस्वभावतो वा य-तत्त्यागो नान्तरायता // 6 // यथा सुबन्ध्वमात्यस्य, चाणक्यस्य स्पृहावतः। भोगेप्सायामपि त्यागो, यावजन्म जिजीविषोः // 7 // तथा चेन् मौनमाप्येत, तदा स्यादन्तरायता / नैवं सर्वत्र सर्वेषु, तद्ध्यान्ध्यं तव दुस्तरम् // 8 // 'अच्छंदा ये न मुंजती'त्यादिसूत्रे गणी जगौ। अभोगेऽप्यन्तरायस्योदयो वाञ्छावतां ध्रुवः // 9 // स्वाधीनान् यस्त्यजेद्भोगान् , लब्धान् कान्तान् : मियान् बुधः। अध्याहृत्यापिशब्दं तु, सोऽपि त्यागीति कथ्यते // 10 // भेदोऽभोगेऽत्र चारित्र-मोहोपशमसम्भवात् / विरक्तिपरिणाप्रमादेरन्यथा न कथञ्चन // 11 // सिद्धानां सर्ववेत्तृणां, भोगोपभोगसम्भवा / सर्वा क्रिया न चैतेषा-मंशतो विघ्नवेदनम् // 12 // न च वाच्यं स्वपरयोस्तत्वबोधी यतो // 7 // P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gon Aaradhak Trust Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो. द्धारककृतिसन्दोहे. // 8 // मुनेः / आवश्यको न, सम्यक्त्वं तमृते न तु सम्भवेत् // 13 // विना सम्यक्त्वमखिलस्त्यागोंऽप्यत्याग एव हि / नहि मूलं परिहृत्य, वृक्षोऽप्युद्भवितुं क्षमः // 14 // दृश्यमानो भवेत्यागो, न किं विघ्नो- IN मोक्षषट् दयोद्भवः 1 / द्विधा ह्यभोगश्चरणा-दन्तरायाच नान्यतः // 15 // विना सम्यक्त्वमाप्येत, चरणं न il त्रिशिक यथातथम् / पारिशेष्यात्ततो मौनं, तस्यान्तरायकर्मजम् // 16 // असमञ्जसमेतद्धि, स्वकल्याणाभिलाषुकः। मुनिः सर्वोऽपि बहुशो, जिनदेवः कृपावृषः // 17 // कालौचित्यात् स्वचरणं, रक्षन् शुद्धमरूपकः / शासनं द्योतयन् साधोः, पदं किं बुध ! नार्हति // 18 // नोदना भाजनोन्नामे, दध्युन्नामस्य नोदने / यथा तथाज तत्वार्थ-श्रद्धानं गम्यते न किम् ? // 19 // बलधृत्याद्यपचितेर्या संयमने प्रमत्तता / सा न हन्ति मुनित्वं यत् , कुशीलबकुशौ मुनी // 20 // यावच्छासनमेतौस्तस्तत्सूत्रानुश्रितं ह्यदः / मौनं मान्यं मुनीन्द्राणां, साम्प्रतानामनाहतम् // 21 // किंच स्मरन् हृदा भोगान् , विरतो द्रव्यतो भवेत् / यदा तदापि साधुत्वं, द्रव्यतोऽमरताप्रदम् // 22 // अन्तरायफलेऽभोगे, दुष्टगत्यादिसम्भवः / न चैतद् द्रव्यभिसणा-मपि स्वर्लोकगामिता // 23 // न चान्यशासनं शास्ति, मनुते सेवतेपि च / येन लब्धो भवेत्तस्य लाभो व्याघ्रान्ध्यनाशनम् // 24 // निदानेन मुकुन्दाना-मधोगामित्वनिश्चये। सत्यप्युत्कृष्टनरता, शिवं च गमिता खलु // 25 // अनेके मुनयोऽजात-सम्यक्त्वाश्चरणे रताः। सदृष्टिं निर्मलां प्रापुस्तक्रियारुचयो यताः // 26 // K इत्थमेष्टव्यमेतद्धि, देशनाया यतः क्रमः। मौनादिमद्यमांसादि-विरत्यन्तो यतो मतः // 27 // द्रव्यतोऽप्या- 1 श्रवत्यागे, दुर्गत्यादि न तत्फलम् / ऊनाक्षाद्या यतो दीर्घ-स्थित्यादेबन्धका नहि // 28 // बुद्ध्वा HI // 6 // भवस्य नैर्गुण्यं, ये शक्त्या चरणे रताः। देवासुरनरैर्वन्यास्ते वन्द्या विश्वपावनाः // 29 // अङ्गारमर्दकोऽभव्यो, निर्वृति नेष्टवांस्ततः / वीरजीवेत्यादिनाऽसौ, तीर्थकृद्वेषदूषितः // 30 // अमुं तद्वाह्यत- अके, सङ्घात् स्पष्टाऽन्यदृष्टिता / सङ्घबाह्यकृतौ हेतु सम्यग्डक्त्रमात्रता // 31 // कासामोहोदयः शाखे, IN Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दोहे आगमो. THI निर्ग्रन्थानां मतस्ततः / अव्यक्तवादितैवं ते, समापयेत किं नहि 1 // 32 // आलयेन मुनि विद्याद्वारककृति- दित्यादि सूत्रनोदितम् / अभिप्राय निधायान्तः, सत्साधु मनसाऽऽश्रय // 33 // सत्सु भोगेषु तत्यागो, मौनषट् विश्लेषो योगपूर्वकः / एवं दारिधभाक् त्यागी, कथं भोगानवाप्तितः 1 // 34 // रम्यं नैतदपि ज्ञेयं, त्रिशिका ID यतोऽशेषा न कस्यचित् / कामा जगति जायन्ते, तत् सर्वविरतिः कथम् // 35 // कायबुद्धिभवं श्लेष, विश्लेष / // 9 // N/ च विचिन्त्य भोः। विरक्तं श्रमणं विद्याः, काष्ठहारकवजने // 36 // विरक्तं श्रमणं धीरं, शासनाम्बाप्रपाठिनं / गुर्वाज्ञायां रतं साधू, नमन्त्वानन्ददं बुधाः ! // 37 // इति मौनपत्रिंशिका / / भिक्षाषोडशकः (6) यथा स्वस्यामियं दुःखं, दाहशीतसमीरजम् // तथा सर्वात्मनां मत्वा, वर्जयेद्दःखमङ्गिनाम् // 1 // धर्मों जैनो भुवि श्रेष्ठः षट्कायवधवर्जनात् / मुनीनामभमप्याहु-रकृतादिगुणान्वितम् // 2 // अनिषेधः / व स्तुतिर्वासस्तैः सहानुमतिर्ननु / अत औदेशिकं वयं-माहाऽनादि जिनेश्वरः // 3 // आधाकर्मादिशंसापि, त वर्जनीयतयोदिता / वासस्तद्भक्षकैः सार्द्ध-मुदितो भववर्धनः // 4 // नन्वेवं गृहिमी राद्धं, कक्षीकृत्य | मुनिः सदा / अबादि भक्षयित्वा च, कथं नैवाघभाजनम् // 5 // दस्युभिर्राष्टिते, ग्रामे, स्वयं तत्पण्यसङ्ग्रही। किं न स्याहस्युवदण्ड्यः 1, स्यान्चेत्पाप्मा न किं मुनिः 1 // 6 // कथं च शुद्धम- 11 बादि, त्रिकोटीदोषवर्जितम् ? / असम्भवे तदुक्तेर्न, जिनस्य हितवादिता / / 7 // सत्यं किन्तु यथा स्तेनैः, II सुता पञ्चत्वमापिता / सपुत्रेण धनेनात्ता-ष्टव्यां जीवनहेतवे // 8 // न चानुमोदना तस्य, तस्या वधविकुत्सनात् / धनस्य तद्वदत्रापि, हिंसादोषोदितेर्मुनेः // 9 // यथा स्तेनाहृतं वित्त-मन्विषन् तत्ममुं नृपः / M Ac Gunratnasuri M.S. Jun.Gun Aaradhak Trust Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 10 // KI/ अनाप्य तं समाहर्ता, न दुष्टो दस्युवन्मतः // 10 // मुनीनुद्दिश्य यत्पक्वं, तस्याऽऽहारे तपस्विनां / प्रच्छन्नं थागमो कारणं स्यात्तदनुज्ञा वधगोचरा // 11 // औद्देशिके प्रसङ्गः स्या-द्धिसाया गृहिणो मुनेः / गृद्धयादि भिक्षाद्धारककृति- च स्वयं सिद्धाऽऽदाने नैव तदंशतः // 12 // यथा नृपः प्रजापुष्टये, करमात्ते ह्यपीडया / न च दुष्टस्तथा- षोडशकः सन्दोहे नाद्याऽऽददानः सत्कृपो मुनिः // 13 // हिंसाया दुष्टतां नित्य-माचक्षाणा दयायुताः। अदन्तो ग्लानबालादिव्यापृता वधवर्जितम् // 14 // गृहिदेहोपकारायाऽऽददाना गृद्धिवर्जकाः। संयमोपकृतेऽन्नादि, मुनयो मोक्षसाधकाः // 15 // तन्नासम्भवमाचख्युर्जिनाः किन्तु दयालवः / षट्सु जीवनिकायेषु, मुक्त्यै निर्दोषमाहृतम् // 16 // इत्थं सबमिनां विचिन्त्य नवधा शुद्धिं जिनेन्द्रोदिता, विद्वन्दमवैतु शुद्धपथगान् साधून विमुक्त्युद्यतान् / आराध्यान् भववासपाशविरतान् गुर्वन्तिके वासिनः, चारित्रानलदीपितापनिचयान् शुद्धान् सदानन्ददान् // 17 // इति भिक्षाषोडशकः // मासकल्पसिद्धिः (7) प्रणम्य परमार्हन्त्य-महिमोपगतं प्रभुं / वीरं, व्यवस्थां वक्ष्यामि, मासकल्पगतां श्रुतात् // 1 // D साधूनां दशधा कल्प-स्तृतीयोषधवद्धितः / आचेलक्यादिकस्तत्र, मासकल्पोऽपि वास्तवः // 2 // प्रतिबन्धा दिदोषाणां, परिहाराय साधुभिः / ऋतुबद्धे न काले तु, स्थेयं मासात्परं क्वचित् // 3 // ऋतुबद्धेषु || मासेषु, कल्पा अष्टाऽष्टसु प्रभोः / शासने, नवमो वर्षा-वास इत्यनगारिणाम् // 4 // नवकल्पविहारोऽयं, कार्योऽवश्यं मुनीश्वरैः / व्रतोपस्थापना मिथ्याऽन्यथेत्याहुर्विपश्चितः // 5 // सत्यप्येवं द्वितीयेन, पदेनाईन्ति | त साधवः / न्यूनाधिकमवस्थानं, दुर्भिक्षव्याध्यशक्तिभिः // 6 // संयमरक्षायै साधूनां, विहारः कल्पितो बुधैः।।। विहारे चाविहारेऽत्र, श्रेयो लोलुपतोज्झनम् // 7 // ततः कारणसद्भावे, विहारासम्भवे मुनिः। संस्ता- 1H // 10 // Jun oun Aaradhan us IMP.AC. Gunratnasuri M.S. Anantay ..... .... .........onlineKIRALW. . . .. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 11 // आगमो- रादिव्यत्ययेन, मासकल्पं ध्रुवं चरेत् // 8 // अत्र खरतराः प्राहु-युच्छिन्ना मासकल्पगा। मर्यादेति यतो भाष्ये, मासकल्प. द्वारककृति पञ्चकल्पे स्फुटं वचः // 9 // मासकल्पार्हक्षेत्राणा-मभावो दुषमारके / इति तनहि मर्यादा, मासकल्प- BI गताऽधुना // 10 // हरिभद्रसरिश्चाह,स्पष्टं श्रीपञ्चवस्तुके / मासकल्पाविहारस्याऽऽचीर्णत्वं तद्धधः श्रयेत् // 11 // सन्दोहे जिनदत्ताभिधानस्यौष्ट्रिकस्यैतन्मतं ननु / शासनं संश्रितास्त्वाहु-र्मुनयो वच ईदृशम् // 12 // स्त्रीणां यथा ! जिनार्चाया, निषेधस्तेन सूत्रितः। यथाच्छन्दतया तद्वन्मासकल्पस्य नास्तिता // 13 // वर्षाकल्पाईक्षेत्राणां, IN गुणाः कौतस्कुतोऽधुना / सम्भवेयुर्न चेन् मास-कल्पार्हस्याप्यसम्भव' // 14 // वस्तुतस्तु यथा पूर्व, in दुषमासुषमादिके.। प्राचुर्य तादृशां तद्वन्नाधुनेति विभाव्यताम् // 15 // क्षेत्रस्यान्वेषणापूर्व, यथा प्राग- HI मासकल्पिता / नियता, न तथेदानी, कल्पस्यासम्भवो नहि // 16 // कथं भाष्ये पञ्चकल्पे, मासस्यातिक्रमेण तु / प्रायश्चित्तं समादेशि 1, चूर्णौ तस्यापि तत्तथा // 17 // निशीथभाष्यचूादावप्येतदस्य KI नोदितम् / आयेऽङ्गेऽपि तथा पञ्चवस्तुके दिष्टलङ्घने // 18 // मासकल्पाविहारस्या-चख्यौ श्रीहरिभद्रराट् / IN आचीर्णतां किन्तु कैश्चिदकृते नास्त्यभाव्यता // 19 // किमन्यथोदितं पश्च-वस्तुके शमिनां पुनः / / मासकल्पं विहायान्यो, न विहारो जिनागमे // 20 // प्रव्रज्यायामुपेतायां, मासकल्पादिना मुनिः।। | नियमाद्विहरेदित्थं, हरिभद्रप्रभुजंगौ // 21 // एकेनाऽऽचीर्णमन्यैस्तत्स्वीकार्यमिति चोदिते / कथं व्युच्छेदधी-H | मसि-कल्पस्योच्छिदि सर्वथा // 22 // वस्तुतस्तु यथा पूर्व, नियमात् मासावस्थितिः। तथाऽधुना न. | यत्कार्ये, न्यूनाधिक्ये स्त आहिते // 23 // तथा च न्यूनताऽऽचीर्णा, स्यान्न चैवं व्यवच्छिदा / समस्तं युक्त- | DI मेवं स्या-द्विचार्य धीधनैरिति // 24 // कल्याणकानां षट्कं, निषेधो जिनपूजने। स्त्रीणां छेदो मासकल्पे, ISner . श्राद्धस्य प्रतिमासु च // 25 // इत्याधुत्सूत्रवाक्योत्का, गच्छे खरतरे भवाः। जिनदत्तादयस्तेषां, Thi HAPP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो // 12 // कियद्वक्तुं च शक्यते // 26 // श्रीमन्तो जिनशासनोक्तिनिरताः श्रीमत्तपोगच्छगाः, सद्धर्माचरणोद्यता 1 जा अविहताचार्यावलौ वर्तिनः। मान्याः साधुवराः गणीश्वरमुखाः सङ्घन शास्त्रानुगे नेक्ष्यन्ते भवभीरुभिर्जिनपतेमागे वेसमाइप्पं द्वारककृति-मा श्रयद्भिः सदा // 27 // मासकल्पस्य मर्यादां, मन्वानाः शक्तितः पुनः। कुर्वाणास्तां लभेयुर्दाग, मनोमा महानन्दपदं परम् // 28 // इति मासकल्पसिद्धिः। .. वेसमाहप्प (8) ___ अपौलिकतां बिभ्रदूपातीतोऽपि यो लसन् / निर्वेषो वेषनिर्देशी, स श्रिये वो जिनः सदा // 1 // व वत्थुणो दुविहं रूवं. बज्झमन्भंतरं तहा। संपवे नजइ(ए) मज्झं, वज्झाओ होई. संथवो // 2 // HI जगे जीवा तिहा वुत्ता, बालमज्झिमपंडिया / आइमा तत्थ बहवे, दुवे थेवा य सेसगा ॥३सा लिंगमेव HI समुद्दिस्स, बाला वत्थुविणिच्छयं / कुणं ति बज्झगं तेणं, विण्णा तं न उवेक्खए // 4 // अभिजुत्तेहि IA ID तो दिडं, बहिरायारसेवणं / बालाणं पुरओऽवस्सं, ते बोहिं तेण बुज्झए // 5 // जे उ निच्छयमल्लीणा, I ISi केवलं, न जिणाणुगा / ते जेण सत्यनिदिहा, दुवेत्थ साहगा गया // 6 // किंचोद्दिढ सुए लिंग, पसत्थं जो न धारए / देसओ नियमा मिच्छं, सोयारं सो उ पावए // 7 // हरिभद्देहि तो वुत्तं, देसणा ठाणवज्जिया / पावहेऊ भवभंतिकारणं सत्थसजिआ // 8 // जहा मग्गाणुसारीणं, जीवाणं मग्गदेसओ। संभंतोऽणंतसंसारं सुत्तसिद्धो गणीसरो // 9 // अण्णं च केवलं पत्तं, चकिणा भरहेणिह / आरिसावसहत्थेण, भावणाभिष्णकम्मुणा // 10 // सक्खं नाऊण तं सक्को, आगओ भत्तिनिब्भरो। सुस्मृसिङ // 12 // महानाणी, सोहम्माओ सुरालआ. // 11 // तहावि तेण सो वुत्तो, भयवं लिंगधारणं / करेह समणाणं Jun Gun Aaradhak Trust . 100P.AC. Gunratnasuri M.S! ...... Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 13 // THI जं, आयारत्थो णमामहं // 12 // नाणिणा लिंगमाइलु, सत्तबोहहमस्सियं / को तं उवेक्खए भव्वो, वेसमहप्पं आगमो- हुजाऽऽसण्णसिद्धिओ // 13 // अवरं तित्थणाहा वि, सयंबुद्धा जिणुत्तमा / जा न वेसं पवजंति, ता नाणं न चउत्थयं // 14 // लोगसिद्धा इमा मेरा, मणोनाणं न कस्सवि / विणा समणलिंगेणं, चउत्थं समुद्वारककृति | पज्जइ // 15 // आवस्सयाइसत्थेसु, टंकमुद्दाहि भाइए। वंदणे चंउभेएणं, सत्थो भंगो य आइमो K! सन्दोहे D // 16 // भवंतरे सई वेसं, द8 एत्थ समानयं। जायाणेगेसिं सा किं न, पेक्खिया वेसनिदिणा 1 // 17 // जइ वेसो सुसाहूणं, लोगसण्णुज्झियाण भो ! / उवगारकरो साहुधम्मस्सेवोदकरो // 18 // तया सामण्णTH लोगाणं, सामण्णरहियाण उ। उवेक्खणजो किमु वेसो, ववहारवियक्खणा // 19 // पीयत्तणं न कि सण्णे, धारयणे ण हि. सेइमा / पवाले रत्तया रिटे, कसिणत्तं परिक्खया // 20 // बज्झो वेसो तहा णेओ ववहारगुणाISI वहो। सहाए सोहए णेव राया वत्थविवजिओ // 21 // लोए परिक्खगाणंपि, दिट्ठी पिच्छइ बज्झओ। मट्टियाIN मझगं. सणणं, को गाम कसए बुहो // 22 // सुहदुक्खं जहा अप्पे, संठिअं नेत्तकम्मुणा / गम्मए णायतसत्तणं,तहा वेसेण.गारिओ॥२३॥ न चे वेसेण भो ! कजं, सत्येणं पव्वयंतु तो। किमड्ढजरईनायं, नोवहासाप्पदं जने // 24 // न वेसेण विणा कज्जं, तत्तेणंपि विणा तहा / दुद्धदा णेव पुट्ठा गो, वंझा गोवेण केणई // 25 // 4. पावसंकाकरो वेसो, पमाणं केवलो गहि / कुरुडुकुरुडा पत्ता जं पावा सत्तमी खिइं // 26 // वंदणे वि | रण मुद्दड्ढे, रुप्पंव अणगारिणं / केवलं वेसजुत्ताणं, जोग्गया मुत्तिसंमया // 27 // तं णो गुणज्जणं हिया, केवले वेसि आयरो / जुत्तो णेवोब्भडो वेसो, गिहत्थाण वि सव्वह्ना // 28 // अचंतं नम्मयं दटुं, जहा IS/ संकापयं भवे / कुलीणतं तहा वेसुब्भडं पिच्छिय माणुसं // 29 // जहड्ढिवेसधरणं; विस्सविस्सासकारणं / / पिणद्धभूसणा रम्मा, देवेसुवि कुमारया // 30 // रम्मा अभूसणा साहू, वत्त्यदेहभुसुज्झिया। जहा जोगं गि // 13 // TELP. Ac. Gunratnasuri M.S Jun Gun Aaradhak Trust Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IN/ हत्थाणं, धरणं तेसि सुन्दरम् // 31 // दुगावहारण एत्थ, दट्ठव्वं वेसहारणं / वित्ताणुरूवमेसो वि, IS भागमो. वेसमहप्पं अवस्सं वित्तमाणओ (ओत्ति य) // 32 // वित्तं तुवलक्खणाओ, जाईकुलसिप्पमाइयं / अणेगहा सयं धीइ, Ki द्धारककृति- करणे वेसकारणं // 33 // सपक्वपक्खवाओ जं, सव्वेसिं अणिवारिओ / गुणाहाणं, च साहेजं, तेण लभइ सन्दोहे || | सव्वसो // 34 // विस्सासस्स जओ हेऊ, वेसो ताव समीहिओ / तो सभूमिसमाजोग्गं, वेसं धारिज कोविओ // 35 // जहा कूडो कओ वेसो, लोगाणं गरिहापयं / तहा जोग्गो विसंभस्स, हेऊ संदेहवज्जिओ // 36 // तत्तो चेव जिणिदेहि, निग्गंथाणणगारिणं / अक्खाओ नियओ वेसो, भव्वाणं हियहे यवे // 37 // एवमेव गिहत्थेहि, निययं वेसधारणं। वित्तं जाई कुलं सिप्पं, समुद्दिस्स विहीजए // 39 // al अजोग्गे विहिए वेसे, विस्सासो केण किञ्जइ / भूवेणं हम्मएनेसिं वेसं काऊण वट्टओ // 38 // साहूणं वि जहारूवं, णेवत्थं वणियं सुए। तो गिहत्थेण विन्नेण, जइयव्वं तत्थ किं णहि ? // 40 // एवं, वेसमहप्पमप्पमइए भो ! विण्णया विक्खि विस्संभिकनिमित्तमप्पसुहयं सज्जाइसिप्पस्सियं / आणंदोदहिदेसियं विहविधाहारेण वेसं सया, धारेहत्थ जिणुत्ततत्तरुइला धम्मप्पयत्थुजुआ // 40 // इइ वेसमहप्पं // शिष्यनिष्फेटिका (9) नत्वा नम्यं सुरेशानां, सार्व विरतिदेशकं / शिष्यनिष्फेटिकां सम्यग्, वक्ष्ये भव्यानुकाम्यया // 1 // KI B. महाव्रतधराः शास्त्रे, गुरखो गदिताः बुधैः / पञ्च तानि वधादिभ्यो, विरतेः स्युर्महात्मनाम् // 2 // अत्राहुराईताः केचि-द्यथा संयमवृद्धये / हिंसादिषु पदद्वैतं, नादत्तविरतो किमु ? // 3 // संयमार्थ यथा नद्या, A // 14 // उत्तारः शास्त्रकृन्मतः / मृगादीनां च रक्षायै, साधोर्वादो मृषापि हि // 4 // तथा संयमवृद्धयर्थ, शिष्य- IA P. Ac. Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trust Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो. बारककृति सन्दोहे // 15 // निष्फेटिका यदा। क्रियते साधुभिस्तहि, किं न साऽपोद्यते श्रुते 1 // 5 // यथा बालस्थविरादि-पदेषु वा शिष्यपवादिता। तथात्रापि कथं शैक्ष-स्फेटिकायां न सम्मता ? // 6 // अनावधेयमेताव-धन्न स्वकमनीषया / अपवादपदं प्रेय, किन्तु शास्त्रव्यपेक्षया // 7 // यदि संयमवृद्धयर्थं शैक्षनिष्फेटिका मता / तर्हि सा निषेच्या निष्फेटिका स्यात् . संयमिनां श्रुते क्वचित् / / 8 // समानेऽपां यथा बाधे, नद्यां वर्षति वारिदे / तथापि नोपदेशार्थ, गतिवर्षति वारिदे / // 9 // नद्युत्तारे जिनानां नो-पदेशः किन्तु साधुभिः / स्वेच्छया स विधेयोऽस्ति, नयतोऽजामितो मयुः // 10 // स चेदाह्यो जिनाज्ञायाः किं त्रिभ्यः शबलात्मता ? / अग्नैिव निषेधोनानुज्ञेति प्राह बालिशः // 11 // यतो न चेनिषेधोऽवांगागताऽनुमतिस्तदा / अन्यथाऽऽज्ञाबहिर्भावः, साधूनां वज्रलेपवत् // 12 // मृषावादे समानेऽपि, सम्मतो हरिणावने / अपवादपदं तस्माच्छास्त्रोक्तं न हि कल्पनात् // 13 // अनुपासितसूरीणां, वाचो यन विदाम्यहं / इति वाच्यं यतस्तत्र, विधिौनस्य प्राक् स्मृतः // 14 // मौनाम चास्ति भेदोज ज्ञानभावस्य विप्लवे / तद्वाक्याथ समास्थाय, न विदामीत्युदीरयेत् // 15 // न शिष्यहरणं तद्वच्छास्वद्भिः पर पदं / मतं ततो न शिष्याणां, हरणं न निरागसम् // 16 // सत्येवं IT / ये प्रभोर्दीक्षा, रुध्यन्ते सर्वथा पितुः / मातुश्चनुमति हित्वा, ते बोध्या वितथोक्तय // 17 // शिष्यनिष्फे- 6 टिका तावद् , निशीथे पञ्चकल्पके / अब्देभ्योऽर्वाक् पोडशभ्यः, स्वायत्तः परतः पुमान् // 18 // नीतिशास्त्रे न च क्वापि, देश्य आङ्ग्ले च यावने / अस्वातन्त्र्यं कचां यावद् , नरागामुपवर्णितम् // 19 // न च लोकश्रुतादत्र, विशेषः कश्चिदस्ति यत् / अस्वातन्त्र्यं नवानां, मतं यावत्कचं भवेत् // 20 // शास्त्रे क्वचन यत्रास्ति, पितृभ्यामनुमाननं / तद्दीक्षार्थिकृतं नैव, शास्तृभिस्तदवेक्ष्यताम् / / 21 // न च वाच्यं नृणां // 15 // पूजाऽऽस्सदमेतौ गुरुत्तमौ / मान्यौ धर्मप्रपन्नानां, ध्रुवं माता पिताऽपि च // 2 // तदेतावननुज्ञाप्य, न दीक्षां OPP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IS दालुमर्हति / साधुराडिति यद्दीक्षा, प्रतिपत्तुरिदं भवेत् // 23 // दीक्षिण्यमाण आप्ताज्ञां, गृह्णीयान्न परं यदि / आगमो-आता अनुमतिं दद्युस्तदोपधिमुपाचरेत् // 24 // तथापि नानुमन्येते, चेन्मातापितरौ तदा / तयोर्व्यवस्थां ISI क्रियास्थानद्वारककृति-निर्वाह-विषयां तनुयात्ततः // 25 // तयोः कलत्रपुत्रादे-र्व्यवस्थामविधाय यः / आदत्ते मुनितां स. स्यात्तत्कृता-K सन्दोहे | नर्थभाजनम् // 26 ॥न कौटुम्बिकनिर्देशापेक्षणेन गृहे. वसेत् / नारण्येऽसहमात्रादे-रायात्मपरिच्युतिः 14 वर्णनम् // 27 // विपिनात्स्वयमुर्तीर्णो, यथा जातु प्रजीवयेत् / तांस्तथा स्वयमुत्तीर्णोऽन्यानुत्तारयति क्षमः // 28 // // 16 // IS ज्ञात्वैतत पञ्चसूत्र्युक्त-मुपदेशपदोदितं / यथायथं यतेतात्राऽन्यथा स्तेयेन लिप्यते // 29 // दृष्टान्ता विविधा | | अत्रानुज्ञानेतरयोः श्रुते। विधिमार्ग विहायाऽऽलम्बनं श्रेयो परस्य न // 30 // आश्रवः सर्वथा हेयः, स विवेकेन / | हीयते / अविवेककृतं हानं, मेकचूर्णायते पुनः // 31 // कुटुम्बं सर्वथा त्याज्यं, पत्तनं मोहभूपतेः / आरम्भा त | अर्थसम्बन्धा-वास्तु तत्सङ्गमोत्थिताः // 32 // पालनीयं विधायाघशतानीति न जैनगीः / किन्तु तन्ममतां I हित्वा, यथार्ह समतां श्रयेत् // 33 // इत्येवं जिनराजशासनगतां सीमानमुद्यद्धितां, भव्यानां पटुमार्ग10 बोधनपरां शिष्यप्रव्रज्याविधौ / आख्यन् मोहमलिम्लुचां निरसने बद्धादरः श्रेयसे, आनन्दोदधिरात्त- 15 जैनसमयोद्गीत्याऽमृताप्तौ रतः // 34 // इति शिष्यनिष्फेटिका // क्रियास्थानवर्णनम् (10) नत्वा नम्रसुराधीशं, वीरं शुद्धार्थदेशकं / त्रयोदशक्रियास्थानान्युच्यन्ते बालबुद्धिना // 1 // | अर्थानौँ हिंसाऽकस्साद्, दृष्टिभ्रषाहराध्यात्मे / मानो मित्रं माया लोभ-श्चर्यापथिक्यपि च // 2 // आत्मस्वज़नाद्यर्थ जीवनधोऽर्थे ततोऽन्यथाऽनर्थे / जिनपूजागुरुसेवा-द्या हिंसा न दण्डभूः // 3 // Jun Gun Aaradhak Trust iDP.AC. Gunratnasuri M.S. KH Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो ती कथमन्यथा महाफलमूचुर्जिनपूजनं गुरोः सेवां / सर्वारम्भनिवृत्ताः तदर्थमकार्षुः किमुत्सर्गम् ? ॥४॥क्रिय न पूजापञ्चाशक ऊचुरभयसूरयः किमु स्वल्पं / स्थानाङ्गविवरणेपि च पापं जिनसाधुसेवासु ? // 5 // वर्णनम् / द्वारककृति वाच्यं, यतोऽतिरिक्तं निश्रित्य वधं तदेतदुदितं नु / वैयावृत्त्येऽप्यशुदैर्भक्तजलैर्नान्यथा किश्चित् // 6 // सन्दोहे स्यादन्यथा मुनीनां नद्युत्तरणं विहारप्रमुखमपि / अल्पं सावधं तन्मतं तदा स्यादघोद्देशः // 7 // आवश्य॥१७॥ केपि सर्व पापं जिनपूजयोक्तमुच्छेद्यं / प्रापुश्चानन्ता अपि जिनगुरुसेवाभिरपवर्गम् // 8 // नैवाल्पपाप जन्यः स कदापि भवेत्ततो बुधैज्ञेयः / योग्यतया जिनगुरुपदसेवारम्भो न दण्डपदे // 9 // यद्यपि हिंसा-1 प्रभृतयो दण्डा उभयोर्भवेयुरेकस्मिन् / व्यक्त्याऽऽश्रवपरिहत्यै तथापि कथिताः पृथग्दण्डाः // 10 // नागादेः शत्रोर्वा भाविहिंसानिदानतां वीक्ष्य / यः क्रियते वध एपा हिंसा तृतीय क्रियास्थानम् // 11 // स्वेप्सितकार्ये हिंसा मताऽर्थदण्डे तु स्थावरासुमताम् / अत्र तु विकल्प्य हिंसां वधस्त्रसानां मता हिंसा // 12 // दण्डोऽकस्माजीवे त्रसेऽथवा स्थावरे परं जीवं / निघ्ननपरं हन्यान्मतस्तको ज्ञानिभिः शास्त्रे // 13 // हिंसा बुद्धिर्नास्मिन् ततो न द-डत्रये गतार्थोऽसौ / दृष्टेविपर्ययायो वधस्त्रसाानां चतुर्थोऽसौ // 14 // चौरेऽमित्र II ग्रामेऽप्यपराधिन इष्यते वधो पुभिः / तद्भ्रान्तेस्तदनाप्र्वासौ दण्डो नृभिश्चीर्णः // 15 // नात्र स्तोऽर्थानौँ न भाविहिंसानिवारणायापि / नाप्यकस्मात्तस्माद् गीतो मुनिभिः पृथक् तेभ्यः // 16 // मृषोदितिः | परार्था हरणं वधभावतः पृथक् स्पष्टे / अकृतेऽप्यागसि मनसो दूनत्वं सर्वतो भिन्नम् // 17|| मानोद्भ| वोऽपि तद्वद् दण्डः स्पष्टः पृथक् पुरोदितेभ्यः। पोष्ये स्वजने मित्रे तीब्रो दण्डोपि किं न तथा ? // 18 // // 17 // | सर्वेषां दोषाणां लोभो मूलं ततोऽर्थवनितासु / गृद्धो वधं विदध्यात् दण्डोऽसावश्नुते भेदम् // 19 // रागोदयो / P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Tru Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करणम् // 18 // न येषां तेषामीर्यापथा क्रियाऽऽप्येत / भिन्नस्वरूपभाक् सा पूर्वाः सर्वाः क्रिया रागात् // 20 // सुधियैवं आगमो-N | स्वधियाऽऽसां विभाव्य पार्थक्यमितरथा वापि / स्याद्वादो जिनदिष्टः ध्रुवमानन्दात् समास्थेयः // 21 // द्धारककृति-21 इति क्रियास्थानवर्णनम् // ... सन्दोहे सदनुकरणम् (11) TA प्रातर्मुनीनां तपसो विचारे, श्रीवीरनाथस्य तपोऽनुकार्यम् / व्याख्यानकाले मुनिपा जिनेशा-नुकारतः a ख्यान्ति सदर्थवार्ताम् // 1 // भिक्षाटने सञ्चरता मुनीश-वाचं समादीय ततोऽनुगम्यम् / यथा गृहीतं जिनशासने प्राग, मुनीश्वरैस्त्वं च तथाऽऽददीत // 2 // वीरेण निर्वस्त्रमभीप्सताऽपि, धर्म मुनीनामनुकारहेतोः / दह्येशुकं पात्रगता त्वभाजि, भिक्षापि तकि न मुनिस्तदर्थी ? // 3 // चीर्ण तपो ब्रह्म च तेन सुष्ठु, मत्वाऽपरे तत्र समादृताः स्युः / वीरेण सन्मार्गसमादृतास्तद्वयं सदा शुद्धधिया चरन्ति // 4 // मत्वा IPI ध्रुवं सिद्धिसमागमं स, तस्मिन् भवे ब्रह्म तपोऽभिजुष्टम् / समाचरत्तन्मुनिसत्तमानां, मार्ग तु मोक्षस्य निदर्श नाय // 5 // श्राद्धा जिनेशाकृतिशोचनादौ, कुर्वन्ति देवेन्द्रगणानुकारं / गदन्ति मार्ग विमलं जिनेशा-A नुकारतः शुद्धतमं. मुनीशाः॥६॥ आरोपयन्ति जिनपा व्रतसन्ततिं स्वे, तीर्थानुकारविधये व्रतमाददानाः। नैवास्ति शुद्धचरणाचरणं, द्वितीय, तेषां परं परमशुद्धतमात्मसिद्धेः // 7 // ये गोचराग्रं मुनयोऽवतीर्णाः, | स्कन्धे समय दवुरंशुकादि / पूर्व पुनः साम्पतसाधवोऽपि, वामे दधुरौर्णिकमंशुकं च // 8 // तत्तीर्थक- I द्भिश्चरणं दधद्भिर्यदेवदूष्यं सुरपैः प्रदत्तं / धृतं तु तत्रैव ततस्तदीयां, क्रियां प्रवृत्यात्र दधुस्तथार्षाः // 9 // य M एव मोक्षानुगुणः प्रयासो, जिनस्य गार्हस्थ्ययुते मुनित्वे / तमेव मोक्षाप्तिमवेक्षमाणो, भव्योऽनुकुर्याद्धृत धर्मबुद्धिः // 10 // अतो न नाग्न्ये न च कल्पवृन्दे तथा जिनानां चरणेऽनुकारः / अभिग्रहे साधुपदा HIR18 // P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trusi Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरणवरोधे, तीर्थे त्रयं नेदमुपेक्षितं जिनैः // 11 // जिना जिनानामनुकारमाप्तास्ततः श्रुते गीयत आहेतानाम् / / आगमो चतुष्कम् व्रतादि सर्व नितरां जिनायै-राचीर्णमित्यत्र न कापि चिन्ता // 12 // अनुकरणमाहात्म्य-मेतद्यच्चरमो जिनः।। द्धारककृति देशनां प्रथमां बन्ध्यां, जाननपि चकार यत् // 13 // इति सदनुकरणम् // सन्दोहे शरणचतुष्कम् (12) . // 19 // .: 'नमो विराग ! सर्वज्ञ !, शक्रपूज्य ! यथार्थवाक् ! / भगवॅल्लोकगुरोऽर्हस्तुभ्यं एवमुक्तवान् // 1 // जीवोनादिर्भवोऽप्यस्य, कर्मसंयोगजस्त्वयंः। दुःखरूपफलोद्वन्धश्छेदोऽस्य शुद्धधर्मतः // 2 // स पापक्लि यात्सोपि, भव्यत्वादिविपाकतः। चतुःशरणगमनं, गर्हणं दुष्कृतावलेः // 3 // स्तुतिः . सुकृतसन्तत्या अस्य हेतुत्रयः त्विदम् / तत्कार्यमेतद्भवितु-कामेनैवाग्र्यमन्वहम् // 4 // मुहुः क्लेशेऽन्यथा सन्ध्या-त्रितये | जीवनावधि / भेगवन्तोऽग्रपुण्याढ्या, गुरवो ये जगत्त्रये // 5 // क्षीणरागद्वेषमोहा, अचिन्त्यसुररत्नभाः। D भवोदधिप्रवहणाः, शरण्याः शरणं मम // 6 // चतुर्भिः कलापकं // प्रक्षीणजन्ममरणाः, कर्मापरि। वर्जिताः। नष्टव्यथाः समस्तार्थ-ज्ञानदर्शनसंयुताः // 7 // सिद्धिस्थिता निरुपम-सुखयुक्ताः कृतार्थकाः।। | सर्वथा- शरणं सिद्धा, भवन्त्वेते तथा सदा // 8 // युग्मम् // शान्तगम्भीरमनसः, सावद्ययोगवर्जका | : पञ्चधाऽऽचारनिपुणाः, परोपकृतितत्पराः // 9 // पद्माद्याहरणास्थाना ध्यानाध्ययनसङ्गताः। शुद्धाशयाः साधवो मे, F.-INI शरणं सन्तु सर्वदा // 10 // युग्मम् // सुरासुरनरेशाच्र्यो, मोहध्वान्तनभोमणिः। रागद्वेषविषे मन्त्री, हेतुः IN सर्वशुभागतेः // 11 // कर्मकक्षानलः सिद्धेः, साधकः केवलिस्मृतः। धर्मो मे भगवाञ्छरणं, सर्वदा II सर्वथा भवे // 12 // इति शरणचतुष्कम् // ...... Ac.GunratnasuriM.S. . Jun Gun Aaradhak Trus Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . आगो वारककृति, सन्दोहे // 20 // मोक्षपञ्चविंशतिका (13) मोक्षपञ्चकृत्स्नकर्मक्षयो मोक्ष, इष्टो यः शुलपक्षिणां / यदर्थं भाव्यते जैन-वचनं सर्वतोऽशतः॥१॥ तदर्थ Hविशतिका मच जिनैर्दिष्टे, पृथक् संवरनिर्जरे। अन्यथा न पृथग जीवा-जीवाभ्यां वस्तु विद्यते // 2 // कर्म द्विधा मतं पुण्य-पापभेदेन शास्तृभिः / तत्र पापं समागच्छद्, रुध्यते संवराऽऽदरात् // 3 // ईर्याद्यास्तस्य भेदा यद्धिसादीनां निरोधकाः / पुण्यं न रुध्यते तैस्तु, बन्धमायाति तत्ततः // 4 // यतः सातस्य बन्धार्हा, हेतवो ये मताः श्रुते / संयमस्तत्र साधूनां, भक्त्या युक्तः प्रगीयते // 5 / / पूर्वसंयमसामर्थ्याद्देवा जातास्तदायुपः / बन्धे हेतुद्वयं देश-सर्वसंयमयोगजम् // 6 // निर्जरायाच ये भेदा. गीता अनशनादयः। तेऽपि क्षिण्वन्ति पापानि, पुण्यानि तु प्रचिन्वते // 7 // गीतं संयमवच्छास्ने, तपः पुण्यस्य कारणं / तपःसंयमतो देवा, जायन्ते हीति गीयते // 8 // भेदद्वयं जिनधर्मतत्त्वे तवयमाहितम् / एवं धर्मस्त्रयं कुर्यात् , पुण्यसंवरनिर्जराः // 9 // एवं धर्मस्य कृत्यानि, क्षिपेयुः पापकश्मलं / परं पुण्यस्य किमपि, संवृत्यै निर्जराय न। भेद उक्तस्ततश्च स्याद्धर्मः स्वगैंककारणं। मोक्षस्य कारणं त्वन्यद्वाच्यं पुण्यक्षय- 1K ङ्करम् // 10-11 // सूत्रे सर्वत्र पापानां, क्षयः फलतयोदितः / धर्मस्य, न तु कुत्रापि, फलं पुण्यक्षयो Si | मतः // 12 // परमेष्ठिनमस्कारे, सर्वपापप्रणाशनं / फलं प्रोक्तं क्षयायैवोत्सर्ग उक्तश्च पाप्मनाम् // 13 // इति चेत् सत्यमाख्यातं, परं पापसमं मतं / कर्म पापं च पुण्यं च, यद् द्वयं भवकारणम् // 14 // यच्च संयमसाम्राज्यात् , पुण्यबन्धस्तपोऽन्वितात् / न तद्भवानुबन्धि स्यादानुकल्यं शिवे सृजेत् // 15 // भवो A RO नोच्छेदमायाति, यावत्तावद्भवार्णवे / मोक्षसाधनसम्पत्त्यै, न पुण्यात् साधनं परम् // 16 // प्रसत्वादिषु लब्धेषु, मोशस्ते सुकुनाद्भवाः / तदन्तरा न मोक्षोऽस्ति, स्थावरत्वादिसंसृतौ // 17 // तपोभेदेषु किं Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारककृति आगमो- नोक्तं, ध्यानं कर्मक्षयावहं ? / शुक्लं ध्यानं समारूढो, न सृजेत् साम्परायिकम् // 18 // न च तस्मिन् आर्शनार्थ | सुरादीना-मायुर्गत्यादि बध्यते / तदारुढश्च धर्मात्मा, क्षपेद्देवादिका गतीः // 19 // समुद्घाते च शैलेश्या, 'विचारः प्राग्वद्धं क्षीयते क्षणात् / पुण्यं पापं च ते धर्मस्तद्धर्मो द्वयनाशनः // 20 // किं चास्ति बन्धनं पुण्यासन्दोहे ID श्रितं. संसारसाधकं / कषायपापभावोत्थं, परस्मिंस्तु क्षणस्थिति // 21 // निर्जराकर्मणां नास्ति, न // 21 // मोक्षो निर्जरां विना / भेदिनीं नीतिमाधाया-धभेदाय वृषादरः // 22 // यथा न केवले पाप-प्रचये जन्म | संश्रयः / तथा न केवले पुण्य-प्रचयेऽपीष्यते बुधैः // 23 // ततः पापक्षयायोक्त उपायः पर्यवस्यति / पुण्यक्षयाय तद्धर्मः, पुण्यापुण्यक्षयङ्करः // 24 // विचार्य ज्ञः समं ह्येतत् , संवरे निर्जरायुते / सदोद्यतो भवन्ने स्यान् महानन्दधामभाक // 25 // इति मोक्षपञ्चविंशतिका / आर्यानायविचारः (14) आर्योत्तमं जिनं नत्वा, विधाऽऽर्यानार्यगोचरं / विचारं दर्शयाम्याप्त-शास्त्रसम्मतमाश्रितः // 1 // आर्याणां विषयाः सार्ध-पञ्चविंशतिसम्मिताः / सर्वविद्वन्मतं ह्येतन्नात्र कापि विचारणा // 2 // परं SI केचिद्वदन्त्येवं, भरतैरवतेषु ते / विदेहेषु समे आर्या, विषया इति यद्वचः // 3 // लोकप्रकाशगं साध . द्वयद्वीपेषु यन्मताः। सार्धद्विशतसङ्ख्याका, आर्यास्ते स्युःशस्वपि // 4 // तन चारु, यतः स्पष्टं, वृत्तौ / | प्रवचनस्य तु / उक्तं यदेते भरते. आर्या उक्ताः परं त्विमे // 5 // विदेहेष्वरवतेषु, आर्यानार्या व्यवस्थया।। | श्रीवीरचरितेऽप्याहु-गुणचन्द्रमुनीश्वराः // 6 // चक्रिणः प्रियमित्रस्य, षटूखण्डावनिसाधने / आर्यानार्यव्य- 2 वस्थां तद्, विदेहेषु द्विधाऽपि तौ // 7 // आदिदेवोदितां नीति, धारयन्तो यथार्यकाः / अत्रैवं स्युर्विदेहेषु, ISI // 29 // किं न भेदो नयोद्भवः ? // 8 // न च सर्वत्र विजये-वस्ति सत्ता तु चक्रिणः / सर्वदेति कथं तत्र, .AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / आगमो द्धारककृतिसन्दोहे | चैताढथेभ्यः परं नयः // 9 // न चत्ते वासुदेवाना, त्रिखण्डाधिपताया। आज्ञाप्रतिहत्ता तन्त्र, तत्र सर्वत्र सर्वदा // 10 // तदेवमार्यविषयां, निशम्योक्ति मनीषिणः / कुरुध्वमुद्यमं धर्मे, मत्वार्याप्ति मुदुर्लभाम् // 11 // आयोनार्यः केचिदाहुस्मेि आर्या, भरते वत्सदेशगां / कौशाम्बी दक्षिणां कृत्वा, ज्ञेया न परतः पुनः // 12 // यतो त विचार: बृहत्कल्पसूत्रे, कौशाम्बी दक्षिणादिशि / मर्यदायां तथा चेमे, सौराष्ट्राचा अनार्यकाः॥१शा तन्मृषा यदिशस्तत्र, विषयैर्यन्त्रिता यदि / किमत्र नगरीष्टेषां,विषयस्तदभिधो नहि // 14 // दक्षिणस्यां हरिः कालं गतो यत्र बने अतः। कोशाम्बे तदुपान्त्यस्थो, देशः कौशाम्ब एव सः // 15 // किश्च सम्पतिना राज्ञा, साधून घेण्याऽयंकाः कृताः। आन्ध्रद्रविडहुडुक्क-महाराष्ट्रा न तु परे // 16 // किञ्च तत्र मही साधो-स्तार्येति बचनं स्फुटं / नदीपञ्चक- I सङ्ख्याने, कलिङ्ग मध्यगा त्वियम् // 17 // किंचैतावद् मतं क्षेत्रमार्य तत्र ततोऽनघं। कौशाम्बदेश-AI ग्रहणाद् , व्याख्यानं साम्प्रतं सताम् // 18 // सौराष्टेषु जिनो नेमि-र्व्यहार्षीत् कृतशासनः। श्रीवीरो IA मालवे चण्ड-प्रद्योतं दीक्षितुं ययौ // 19 // स्पष्टमेतज्ज्ञानसूत्रे, श्रीवीरचरितेऽपि च / न चोत्पनविदामार्यान्विहाय विहतिर्भवेत् // 20 // विहाय नेमिनं शेषा, जिनाः सिद्धाचलं ययुः। विमृश्यं वाक्यमेतद्धि, मार्गानुसरणोद्यतैः // 21 // न चोयं वीरनाथस्य, वर्षारात्रोऽभवन्नहि / एकोऽप्यत्रेति, तन्मिथ्या, यतः / / सूत्रे खलु स्मृतम् // 22 // गमनं सिन्धुसौवीरेष्वभूद्वीरस्य दीक्षितुम् / उदायनं न तत्राभूद्वर्षारात्रो विभोः। पुनः // 23 // हित्वा स्वीयां कल्पनां तत् . सुधीर्मार्ग श्रुतोदितं / श्रयेचेत् शास्त्रसम्यक्त्वं, भवेदात्मनि मोक्षदम् // 24 // इत्येवं जिनशास्त्रवाक्यविदिताऽनार्येतराणां मया, मर्यादा गदिता शुभंयुरखिलज्ञोक्तौ / रतानात्मनः / श्रुत्वैतां भविका भवन्तु सततं धर्माथिनो नीति, येन स्याजननं सदा सुकृतदं नित्यं . महानन्ददम् // 25 // इति आर्यानार्यविचारः॥ .... कोषा // 22 // TO DIP.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार आगमो. व्यवहारपञ्चकम् (15) द्वारककृति प्रणम्य परमश्रेयः, साधनं जगतां पति / जिनं वक्ष्ये व्यवहार-विषयां वर्णनां श्रुत्तात् // 1 // सन्दोहे आगमः श्रुतमाज्ञा च, धारणा जीतमित्यमी। पञ्चधा व्यवहाराः स्युः, पापच्छेदे क्रियाविधौ // 2 // पञ्चकम् // 23 // A आगमो नवपूर्वान्तः, केवलादिमतः श्रुते / निशीथादिमतं छेद-शास्त्रं शासितसवृक्षः // 3 // देशान्तरीयगच्छे- 11 शालोचना गूढवाग्मयी। विषयान्तरस्थास्नूना-माचार्याणां पुरः परः // 4 // या साज्ञेति घुधाः आहुः, IN कर्मराशिप्रमर्दनाः। प्रायश्चित्तं पुराऽऽचाय-दत्तं साधोर्यदागसि // 5 // तत्प्रेधार्यान्यसाधूनां, तस्मिंस्तदान- मात्मना / धारणा सा मताऽन्त्यस्तु, व्यवहारः परम्परा // 6 // उत्सर्गः पूर्वपूर्वोत्र, तेनादावाममोदिता / तदभावे श्रुतोक्नैवं, यावजीतप्रणोदिता // 7 // सत्येवं किं जिनाधीश-प्रज्ञसे श्रुतसग्रहे / विद्यमानेऽपिता | गच्छेशैः, जीतेनाघं विशोध्यते ! // 8 // किश्च क्षमाश्रमणार्जिनभद्रैरुपोद्धृतं / जीतकल्पाभिधं सूत्र, श्रुतसङ्-11.. ग्रहसम्भवे ? // 9 // सत्यं किन्तु समानानां, धृतिबलजुषां त्विदं / पूर्वपूर्वस्य प्राबल्यं, मुनीनां संयमौकसाम् // 10 // न चास्ति कालिके शास्त्रे, निर्बलेतरयाभिदा / न च कल्पविशेषेण, भेदः शुद्धः प्रणोदितः // 11 // कालदोषेण दोषाणां, वैचित्र्याद्धारणाहतेः। स्थानकल्पाचारमेदैः. प्रणीता शोधिरर्थकृत् // 12 // ऐदयुगीन- 10 साधूनां, तथा श्राद्धगणस्य च / जीतेन क्रियते शुद्धिः, सत्यपि श्रुतसङ्ग्रहे // 13 // तथा क्रियाविधी जीतं, श्रुतवद्धलवत्तरं / प्राहुः शास्त्रकृतः सर्वे, शास्त्रार्थकृतनिश्चया // 14 // तथा च नान्यगच्छीयां, ब्रियामालोचनाविधिम् / अन्यगच्छीयसाध्वादिषयन शास्त्रसम्मतः // 15 // परं शास्त्रविरुद्धार्थदेशनं नैव मन्यते / यथा खरतरा वीरे, पटू कल्याणानि मेनिरे // 16 // स्त्रीमिः कार्या जिनेशार्चा, न न ! मासप्रमाणतः / मुनिभिविहृतिहेयः, श्राद्धैश्च प्रतिमोहः // 17 // श्रद्धानगोचरं शास्त्र, न विपर्यासमेत्ति HRI DIP.P. Ac Gynratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बागमो. द्धारककृतिसन्दोहे રષ્ટા च / न चैतिह्याऽऽगतो लोप्यः, कैश्चनापि क्रियाविधिः // 18 // इत्येवं श्रुतराशिसङ्गतमिदं मार्गाश्रितः सेवितं, शुद्धं सद्व्यवहारपञ्चकमुपावर्ध्यात्मशुद्धिप्रदं / ज्ञात्वा भो ! श्रमणाः सदोदितवृषाः सच्छ्रावका भावतः, लोकाचारः स्वाचारं दयतां यथायथमघोच्छित्यै महानन्दनाः // 19 // इति व्यवहारपञ्चकम् // . . लोकाचारः (16) . . देशाचारं समाचार्य, श्रमणाचारसंयुतं / दिष्ट्वाऽऽपनिर्वृतिं पायात्, स युगादिजिनोत्तमः // 1 // | द्विविधाश्चेतनापन्तो-ऽध्यक्षा नियमवर्जिताः। आधाः, परे व्रतोद्युक्ता द्वयेषां देश आश्रयः // 2 // देशेन A न विरुध्याद् यद्धर्मोपकरणादयः / आदेया लोकतो ह्या,आहारथाखिलैरपि // 3 // लोकमाश्रित्य तत्कार्य-मखिलं || तत्त्ववेदिभिः / लोकाश्रितसमाचारे, यत्समौ बालपण्डितौ // 4 // व्याख्यातं वाचकैलॊकविरुद्धादति- . वर्जनं / धर्मचार्याश्रयतया, लोकस्यास्य सदातिः // 5 // जिनेन्द्रैरपि साधूना-माख्यातं पिण्डवर्जनम् / जुगुप्सनीयगोत्रेषु, तत्रान्यन्नहि कारणम् // 6 // देशसिद्धसमाचारो, जन्तुर्धर्मादृतो भवेत् / तत्प्रशंसादिना धर्मे, जन्तूनां बोधको बहु // 7 // अन्यथा दुश्चरं कुर्वन्नाचारं लोकनिन्दितः। शासनम्लानितो याति, बोधिदुर्लभतां जनः // 8 // धर्मलिङ्गमतो भद्रं, हरिभद्रेण सरिणा / जनप्रियत्वमाख्यातं, तद्वांस्तद्धर्मबोधका // 9 // आचार्य. कालिकः पर्व, चतुर्थी वात्सरं दधौ / राज्ञो लोकानुवृत्त्यर्थ, नोपेक्ष्योऽयं ततो बुधैः // 10 // आददानो जिनो दीक्षां,युगादौ युगसत्तमः / शक्राभ्यर्थनयाऽरक्षन्मुष्टिमेकां कचस्य न 1 // 11 // अन्यस्मिन्स्थण्डिले काम्यन्नन्यस्मात्स्थण्डिलात्पदोः। विभाषां मार्जनं वीक्ष्य, किरपेक्ष्यो बुधैरयम् 1 // 12 // उज्ज्वलं बिभृयाद्वस्त्रं, सुरिः शासनवर्धकः / आख्यातधर्मवापि, तत्रान्यत्कारणं किमु ? // 13 // अधमर्णो न गृह्णीयाद्यान् साध्वालयमार्हतः / गत्वाऽऽददीत तत्रैव, समायमिति यत्स्मृतम् // 14 // तत्र लोकापवादस्य, | // 24 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak True Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो- ध्रुवं कारणता मता / त्यक्तलोकापवादस्य, तत्यागे किं प्रयोजनम् // 15 // देशाचारो न मान्यश्चेत्, लोकाचारः कथं स्याद् गणधारिणोः। कुलीनत्वं यतस्तौ हि, भिन्नवप्नसमुद्भवौ // 16 // नियोगो ब्राह्मणेष्विष्टश्चेनासौ द्वारककृति-K मस विपर्ययात् / तयोर्गोत्रं यतो भिन्न-माम्नातं सूरिपुङ्गवैः // 17 // ब्राह्मणानां कुलं शास्त्रे, नीचगोत्र___ सन्दोहे तयेष्यते / कथं चरमतीर्थेश-गर्भसक्रान्तिरन्यथा // 18 // तत्रोत्पन्नाः समे वीर-जिनस्य गणधारिणः / // 25 // कुलीनत्वं कथं तेषां ?, साधूनां खलु पूज्यता ? // 19 // सत्यं सूरिभिराम्नायि, विरोधः परमेतयाः। विरोधः परिहर्तव्यो, महात्मा न विरुद्धवाक् // 20 // ब्राह्मणानां कुलं नीचं, तीर्थपोत्पत्यपेक्षया / तददात न | तत्तेषा-अवतारोऽत्र दानिनाम् // 21 // अन्यत्रापि क्वचित्तेषा-मुदिता नीचगोत्रता। विप्राणां या श्रुते | सातु, प्रोक्ताद्धतीने तात्विकी // 22 / / केचित्तु प्राणिहिंसात्मा, यज्ञः स्वर्गाय तैर्मतः / मतं स्वस्य कुलं चाचं, तत्तेषां नीचगोत्रता // 23 // ते तत्राप्युत्तमाचारान्वया यद गणधारिणः / कुलीनत्वमियत्तेषां नेक्ष्वाक्वादि कुलाश्रितम् // 24 // उग्रभोगादिलोकानां, कुलानि पुंशलाकिनां / संकुलानि यशोभिस्तत्तज्जातानां 10 कुलीनता // 25 // यदस्पृश्या न भूदेवाः, पश्चेन्द्रियवधोद्यताः। आमिषाहारिणोप्यत्र, लोक एवात्र कारणम् // 26 // म्लेच्छानां यवनानां च, तथाऽन्येषामपीह यत् / तथाविधानां स्पृश्यत्वं, लोक एवात्र कारणम् // 27 // दुग्धादीनां च पेयत्वं, न गोः प्रश्रवणादिनः / गम्यागम्यविभक्तिश्च, लोकादेवान्यतो न हि // 28 // दूषणं दीयते तीघ्र, व्यवहारोच्छिदात्मकं / सर्वैरपीह सर्वत्र, वादिभिस्तज्जनाश्रितम् // 29 // | शय्याया यः पतिः शय्या-तरोऽ स्यैव न कल्पते / अशनाद्यं यतीनां यत्प्रतिक्रुष्टं जिनैः श्रुते // 30 // पतित्वं व्यवहारात्तु, स च लोकाश्रितो भवेत् / अमानतायां लोकस्य, कथं धर्मो भवेद्यतेः 1 // 31 // मृतस्य | सूतकं शास्त्रे, व्यवहारेण मन्यते / न चेदसौ प्रमाणं स्या-च्छास्त्राणां मानता कथम् ? // 32 // इदं पूतम // 25 // VIIP.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Tru Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बागमो द्धारककृतिसन्दोहे दोऽपूत-मित्यपि व्यवहारतः / ब्रादेर्मूत्रस्य लेपेऽच्छीक्रियतेऽर्थो न गवादिनः // 33 // चैत्ये नोपानहाय / यचर्मजातं प्रवेश्यते / मृदंगादेः प्रवेशेज्यो, हेतुर्न व्यवहारतः // 34 // जन्तुकायोद्भवं रक्त-मपवित्रं तथा लोकाचारः न तु / कस्तूर्यादि ततोलान्यो, हेतुर्न व्यवहारतः // 36 // यच्चादिमागमे प्रोक्ता, लोकसज्ञातिरस्क्रिया। चाचकैरपि स्पष्टोक्त्या, स्पष्टिता स्वोदितौ स्फुटम् // 36 // सा सर्वा तत्त्वश्रद्धान-विपरीता यकेक्ष्यते / सञ्जा श्राद्धादिका ज्ञेया, न पुनर्व्यवहारिणी // 37 // यद्वा धर्मक्रियां कृत्वा. रिरञ्जिषति यो जनं / आत्मार्थबाधतात्तस्य, दर्शिता तु तिरस्क्रिया // 38 // यो वा वंशक्रमायातां, नैव हिंसां जिहासति / वृणुते || सत्यमस्तेयं, न न ब्रह्माहतो भवेत् // 39 // शुद्धं देवं गुरुं धर्म, विदन्नपि न संश्रयेत् / लोकापवादमीत्यास्तं, IKI प्रतीत्यैतभिषेधनम् // 40 // गुरोर्मूले जिघृक्षुर्यो, व्रतानि नाग्न्यभीरुकः। लोकापवादतो लाति, न तं विधिरयं श्रितः 1415 // याचिष्ये वा कथं त्यक्त्वा, सर्वारम्भपरिग्रहम् / इति लोकापवादेन, भीतानां ! विधिरेष तु // 42 // श्रद्धधानः शुभं धर्म, लज्जया नैव मुञ्चति / मिथ्यात्वसेवनं वंश-क्रमाप्तमितिप्रज्ञया // 43 // तं तादृशं परं वाप्याश्रित्य शास्त्रे तिरस्क्रिया। वर्णिता धर्मबाधिन्या, लोकपकतेन सर्वथा // 44 // अत एवोदितं धर्म-विरुद्धस्य विवर्जनं / सह लोकविरुद्धेन, वाचकैः शमपद्धतौ // 45 // प्रणिधाने प्रवचने, ख्यातं लोकविरोधि यत् / मद्यातादि तच्यागः, प्रार्थितो भवनावधिः // 46 // देशाचारसमाचारः, प्रशस्तोजाहतो यतः / लोकसञ्ज्ञा श्रुते ख्याता, न सा श्रेया न तद्ग्रहः // 47 // विरुद्धमपि लोकेषु, तत्याज्यं यन्न भवप्रदं / तदैकयमनयोरत्र, कथञ्चिदाहृतं बुधैः // 48 // यद्वा चर्या विरुद्धा स्यादेशेनेति तनुं श्रितः / विधिस्तत्राङ्गिनं त्वत्र नैश्येनापि प्रयोजनम् // 49 // प्रसिद्धामाचरँश्चयाँ, लोके तत्त्वत्रिलोककः / अझै धर्माय द्राग्लाता, सुखं नृखःशिवालये // 50 // कमठवितवदुःखश्रेणिपाथोरयेण, न गत्ययविनाशि ध्यानमंशेन Jun Gun Aaradhak Trust KI DI // 26 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकम् // 27 // आगमो. Ki हानि। समरुचिकृतसौख्योदन्वदन्तर्निमग्नो-ऽभवदनणुसुखानामालयेऽसौ जिनेशः // 51 // नवसारे ततसारे द्वारककृति-H | रचितं स्मारितसुरर्द्धिसञ्चारे / पार्श्वक्रमपूततारे सिद्धरसाङ्केन्दुवर्षारे (1968) // 52 // इति लोकाचारः // | गुणग्रहणसन्दोहे गुणग्रहणशतकम् (17) नत्वा नरामराधीशा-वर्णवादविलोपकम् / अचिन्त्यवर्णदातारं, जिनं किञ्चित् अत्रे तयम् // 1 // वर्णश्लाघा | विधेयोऽसौ, गुणितां गुणधारिणा / गुणाप्तये यतो मुक्ताः, स्तूयन्ते सर्वसाधुभिः // 2 // गुणानुरागतो / जीवा, गुणिनः पाप्पसङ्ख्यात् / स शुभाध्यवसायात्स्यात् , तमृते च भवेदसौ // 3 // अवर्णस्तत्सतीपः स्याद्वस्तु- 1 तो न शून्यता। अदुःखं कीत्यते वस्तु-भूतं यदन्न तुच्छकम् // 4 // निन्दा परिभवः कुत्सा, जुगुप्सेD त्यादिपर्यकः / अवर्णवादस्त्याज्यो य-माश्रितो अद्दात्मभिः // 5 // अशुचेर्भक्षणं विज्ञा, जुगुप्सन्ते कथं तु IN ते / परदोषाशुचौ कुर्याद्वदनं शुचिसम्भावे / / 6 / / अपवित्रो न दोषेभ्यो, ऽन्योऽत्रास्ति भुवनत्रये / रंजो ISI गुरुपदास्पृष्टं, 'पूतं दोषो न कश्चन // 7 // पृथ्वयादिभिर्भवेच्छुद्धं, विष्ठाद्यपि च विश्वसात् / नत्वंKI शेनापि. दोषाणां, शोधकं जगतीतले. // 8 // कविगुण्मलायाः स्युः, पावनाः सनराश्रयात् / जीवानामौषधीभूता, न तु दोषाः कदाचन // 1 // ख्यातं ततो बुधैः सारं, श्रुते भव्यविबुद्धये / / Hशोरपि गुणा ब्राह्मा, कन्या दोषा गुरोरपि // 10 // अबुधा अत्र वाक्याथै-मन्यथा माहुरादात् / / | कार्या रिपोर्गुणाशंसा, गुरोदोषावहेलना // 11 // त्रिमशन्ति न तेत्रोक्त्या, रहस्यं तु बुधवाः / निन्दा-- IN यामाता सूरेविस्मृत्य गुणकारिताम् // 12 // शंसन्ति नु कि तेऽज्ञाः, स्वस्नुषादेः कदाचन / पुरः पण्या 2 . - MP.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकम् सन्दोहो गनारूप-वेषादिरचनाप्रथाम् // 13 // दोषप्रसक्तेश्वेनैतत्तदा मिथ्यादृशां किमु / प्रशंसनं सुखाधायि, I बागमोजायेताऽऽर्हतधर्मिणाम् ? // 14 // महिमाज ततो दोष-गुणयोः ख्यापितो बुधैः। शत्रुग्रहान दुष्टाः स्यु गुणग्रहणशारककृति गुणा अन्यक्रियादिवत् // 15 // गुरुपहात्सम विश्वे, पावनं विबुधैर्मतं / न गृहीताः परं दोषा-स्तैः स्युः / पावित्र्यभाजनम् // 16 // किश्चाऽन्येषामपीष्टा ना-वहेला शास्त्रवेदिभिः। किं स्याद् गुरूणां सा युक्ता ?, प्रोच्यमानाऽनघागमे // 17 // तत्त्वतस्तत्र सूर्युक्तिमा॑ह्या वाच्यात्मिका द्वयी / गुणानां ग्राह्यतामाख्यद्दोषाणां निन्द्यतां पुनः // 18 // न दोषनिन्दनेऽवर्णोऽवर्णों व्यक्तिनिदर्शने / निंदा सर्वत्र दोषाणां, गुणिनां तेन शंसना // 19 // दोषनिन्दाङ्गिनां कुर्या-दोषहानि ततो जिनैः। विपाकापायविचयौ, धर्मध्यानतया RI मतौ // 20 // मोक्षहेतुरिंदं धर्म-ध्यानं वाचकसम्मतं / ' मोक्षहेतू ' यतः सूत्र, तत्त्वार्थे ते जगुः शुचि // 21 // अन्यत्र नाकहेतत्व-मस्य यत्कीर्तितं श्रुते / तत्फलं तदनाहत्य, परं शक्तं न चान्यथा / // 22 // ज्ञानादयोऽपि मोक्षार्था, एवं स्वर्गनिमित्ततां / यान्ति चेत्क्षायिकं भावं, प्रादुष्कुर्युन जीविते / // 23 // तथा च मुनिना नित्यं, निन्द्या दोषाः प्रयत्नतः / येन पापे न वृत्तिः स्यात् , स्यादेव दुरि-14 तक्षितिः // 24 // दुष्टानां निन्दने ताव-यदि सत्या न दुष्टता / तदाऽलीककलङ्केन, स्याद्भवान्तरबम्भ्रमिः / // 25 // सत्यानामपि निन्दायां, को गुणोऽभिमतः सता। पराभवः परेषां चेत् , स ते भावी भवे भवे II // 26 // परेषां परिवादात्, पराभवादात्मशंसनादेश्व / बध्नाति कर्म तद्येन, नाप्नुयादुचमिह गोत्रम् // 27 // अन्यच्च दोषनिन्दा वितरति गुणवृन्दमात्मनो विमलं / द्वेषं वैरं क्लेशं दुष्टजुगुप्सा ध्रुवं तनुते // 28 // HI // 28 // अध्यक्षा इतरेऽपि च द्विविधा दुष्टास्तदादिमा नैवं / बुध्येयुः प्रत्युत, पातो ग्रहश्च दोषेषु स्यात्तेषाम् | // 29 // इतरे द्विविधा दुष्टाः, सान्वया अन्यथा न तत्राद्याः। ज्ञानादियोग्या न चेत्तथोक्त्या तदा Jun Gun Aaradhak Trus N IMPP.AC.Gunratnasuri M.S. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमी गुणग्रहण- . किं स्यात् // 30 // बोधार्थ तु परेषामभियुक्ताः शुद्धमार्गसंसक्ताः / सामान्येनैव चक्रुजिनानां स्तुति | शतकम् सङ्गताम् // 31 // व्यक्तेनिन्दात्मनः कुर्यात् , सद्वेष प्रस्तुते नरि। तथा च धर्मभूभीनां, मैत्र्यादीनां H द्वारककृति- कथं भवः ? // 32 // मैञ्यादिरहितं सर्व, स्यानिरर्थकमेव तत् / मैन्यादिभावयुक्ता यत्, कृतिसन्दोहे धर्म इतीरिता // 33 // अदेवा ऽ गुर्वधर्माणां, या व्याख्या साऽपिनो हिता। व्यक्तिद्विषत आख्याता, किन्त्वन्योपकृतीप्सया // 34 // अत' एमोदितं देश-कालक्षेत्रसभानरान् / अपेक्ष्य विदिशेद्धर्म, क्रोधं यायात्परोऽन्यथा // 35 // ब्रूयाद्धर्म मुनिः सम्यग्ज्ञानाद्याचारपावितं / तत्रापि रोषपोषश्चेद् , दुष्टानां ते हताः स्वयम् // 36 // या तु शर्वादिनाम्नास्ति, वार्ता तद्वृत्तवाचिनी / सापि भव्यावबुद्धयै न, पराभूत्यै कथश्चन // 37 // विद्याज्जन्तुरनिर्दिष्ट, नेति प्रोक्ताऽभिधाऽस्य च / तथा च मतमाश्रित्य, सामान्येन समं वदेत // 38 // अन्यच्च कारणं प्रोक्तं देवत्वादौ परैर्यकत। तकदृष्टत्वहेतश्चेत, तत्कथा नार्थबाधिनी II // 39 // तोलयेत्स्वास्यतुलया, गुगस्वर्गोच्चये सति / कोऽन्यदोषाऽयसां पिण्डं, लाभालाभविचक्षणः ? // 40 // N विदन्नात्मानमगुण-मनादितोऽस्य यत्स्थितिः / गुणलेशमवाप्यासौ, कुर्याद्रिक्त पुनः कथम् ? // 41 // IM कर्मणां बलीयस्त्वं स्याद् , यावत्तावन्न बोधिभांक् / सर्वेष्वदः समं मत्वा, न द्विष्यानिर्विजेन च // 42 // प्रयोजनमनुदिश्य, न मन्दोपि.प्रवर्तते / इति न्यायपदं जानन् , कोन्यावर्णे प्रवर्तते ? // 43 // न नाम निन्दका ह्यास्या-द्वाग्गरं पतितं भुवि / स्वस्यान्येषां हिताधायि, तदवणे फलं किमु ? // 44 // नैवं स्यादु नतिः स्वस्य, विरसा स्याद् विपाकतः। परात्मनिन्दाशंसादि-नीचैगोत्रेऽङ्गिनं क्षिपेत् // 45 // नैवं गुणागुणौ IS तुल्यौं, न नेक्ष्यौ तौ मनीषिभिः। स्वान्यलाभप्रदां बुद्धया, विचार्याऽयतिमाचरेत् // 46 // सतां जन्मो पकाराय, कोऽसौ स्याद्दोषभाषणे / स्वस्य स्याचेन्न कि चक्ति, दोषानात्मनि संस्थितान् ? // 47 // P.P.AC.Gunratnasuri M.S. ' Jun Gun Aaradhak Trust Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा 1 यथा स्वस्याऽस्तुतौ द्विष्या-त्तथा किंमपरो नहि ? / आत्मवत्सर्वभूतेक्षी, किमेतावन्न पश्यति ? // 48 // . आगमो- स्वस्मै यद्रोचते धीमाँस्तदन्यस्मै समर्पयेत् / न्याय्यं मार्गमिदं वीक्ष्य, कुर्यादाऽऽयतिलाभदम् // 49 // गुणग्रहणद्वारककृति- कुर्वन्धर्म फलं नाप, प्रापाकुर्वन्मतिं शुभां। भ्रात्रोयोऋते निन्दा, तत्रान्यत्किमु कारणम् ? // 50 // शतकम् दुस्तपस्तप्यमाना ना-वापुस्तल्लाभमुज्ज्वलं / यदाप कूरघटभुग्धेतुनिन्दामृतेऽत्र कः? // 51 // सर्वार्थसिद्धिसन्दोहे | तश्युत्वा, यत्तु नारीत्वमापतुः / अत्र पीठमहापीठौ, हेतुनिन्दामृतेऽत्र कः ? // 52 // मुनिन निन्योऽयमिति | // 30 // प्रचख्यौ, मुनीन समाधिस्थितचित्तवृतीन् / वीरो विराद्धक्षितिपानकायः, पास्यत्ययं तानघनाशनो यत् // 53 // (उपजातिः) उक्त्वा पुरा पौषधमत्र देशा-त्ततश्चकाराखिलतोपि तद्यत् / तदापि निन्दा विभुना न युक्तोदिता तदा ब्रूत कथं शुचीयम् ? // 54 // न दर्शनं वोधयुतं चरित्रं, न चापि शीलं निखिलं न दानं / ति तपो विचित्रं शुभभावनायुक्, फलेन चेन्नैव पराभवोज्झितिः // 55 // (उपेन्द्रवज्रा) लोकास्वायैर्विविध- IAI रसभृत्पत्रपुष्पैः समृद्धो, नम्रोऽत्यन्तं वचनविपयातीतसौख्यैः फलैर्यः / स्कन्धावारैनियतमनिशं सेवितच्छायया चेद् वह्निर्मूले विटपिनमिमं कः श्रियेतार्द्रचित्तः ? // 56 // (मन्दाक्रान्ता) किं भो ! दृष्टा तापशान्तिः / कृशानोवान्तध्वंसः सैहिकेयादनन्ते / धर्मप्लोषो सविम्बात् कदाचिद् , देवात्स्यानो धर्मलेशोऽप्यवर्णात // 57 // लुब्धः पले वेत्ति दयां न विद्या-द्वोपादिशेन्नैव प्रशंसयेद्वा / अवर्णवादव्यसनः परेषां, गुणानने- / काननघाञ्जगत्याम् // 58 // (उपजातिः) दिवा यथा नेक्षते कौशिकः प्रभाः, सहस्रभानोस्तिमिराक्तलोचनः। तथा परेषामगुणान्विलोकयन् , गुणान्गुणाढ्यस्य गुणेषु मत्सरी // 59 // नेत्रविहीनो न हि निन्द्यतामियाच्छु भाशुभं कर्मवशादपश्यन् / निन्यो बुधैर्यो गुणमाह दोष, गुणेक्षणेऽसौ सततं विनेत्रः // 60 // मक्षिका चन्दनं / / // 30 // त्यक्त्वा, विष्ठायामधिरोहति / गुणाँस्त्यवत्वा तथादोषे ऽधिरोहेनिन्दकः सदा // 61 // विहाय चालिनीP.P. Ac Gunratnasuri.M.S. Jun Gun Aaradhak Trust(! RER TING Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो. शतकम् झर ककृति __ सन्दोहे Ki क्षोद-मादत्ते कर्करादिकम् / खलस्तथा जने दोषान, गृह्णीयात्सद्गुणांस्त्यजेत् // 62 // शुद्ध रक्ते जलौका IN मय-दशुद्धं रुधि पिबेत् / शुद्धे गुणे खलो लाति, दोषं स्वास्यविभूषणम् // 63 // और्वो विभावसुनैति, गुणग्रहण यथा शान्तिं सरित्पतेः। सलिलेन तथा दोषान् , गृह्णन् कर्णेजपः सदा // 64 // यथा तैमिरिको AI वेत्ति, दीपेऽध्यारोपमण्डलम् / अविद्यमानमेव स्व-चक्षुर्दोषेण दूषितः // 65 // तथाऽन्यावर्णकथने, A | नदीष्णः सद्गुणावलौ। देवे गुरौ तथा धर्मेऽवर्णमेव समीक्षते // 66 // शुद्धे व्योम्नि यथे- II | क्षन्ते, नरा. रेखाविमिश्रतां / तैमिरिकास्तथा तुच्छाः, शुद्धेऽप्यध्वनि दुष्टताम् // 67 // कपिर्यथा | न वेत्ति स्वं, बद्धं स्वेनेह लोलुपः। निन्दको न तथा हानि, कुर्वन् स्वस्मिन्नपीक्षते // 68 // न देवान्न गुरूनापि, सुहृदो न चं बान्धवान् / उपाध्यायान् मुनीन् पितॄन् , मन्वते नैव निन्दकाः // 69 // सर्व एव गुणाः स्वस्मिन् , दोषलेशाकलङ्किताः। परेषु न गुणाः केचिद्गाध्माताः खला इति / | // 70 // गुणागुणौ समीकुर्वन, प्रोच्यते बाह्यदृक्छूते / स्वदोषानन्यसुगुणान् हुते तस्य कथा हि का ? | | // 71 // हेयानाऽऽहाऽत्र यो ग्राह्यान् ,ग्राह्यान्वया॑जडो वदेत् / स मिथ्यादृष्टिमूर्धन्य-स्तथा ज्ञश्चेत्तदा किमु ? // // 72 // कलिकालजिनो मिथ्या-सम्यग्दृष्टयोः समानता / ख्याता दोषाय चेदाहा-सत्यवादे तु का || कथा ? // 73 // नित्यं गृणन्ति शुचयः परबोधनाय, मध्या धनादिविधये तनुसौख्यसिद्धथै / हास्यादिकर्तुमधमा गतधर्मसाराः, के वादिनोऽनिशमनर्थमुचां कुवाचाम् 1 // 7 // (वसन्ततिलका ) स्पर्शे रसे सुरभिगन्धयुते सुरूपे, वेण्वादिनादनिचये च सुखं पशूनां / देवे गुरौ वृषविधौ नमनात्सुरनोवियो न | तान्य इह दोषकथासु लीनाः // 7 // न पापानां कथां कुर्यान् , न चेत्पापफले स्पृहा / अपापानां कथा ! कुर्यान चेत्पापफले स्पृहा // 76 // सर्वसिद्धमिदं भद्रा, घुष्टमेत्य सकृत्स्मृति / प्रवृत्तिरपि संस्मृत्य, तन्न // 31 // P.P.AC.'Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापकथा हिता // 77 // न प्रतिक्रान्तिवैयर्थ्य, तीर्थकृद्गुरुसंस्तवात् / व्रतोदितेः समायाादात्मखरूप- 12 आगमो. संस्मृतेः // 78 / किं चाढयमेतनिदे-नानुबोभूयते किल / परावर्णेन तल्लेशस्तत्तत्राचं निकाचितम् // 79 // I गुणग्रहणद्वारककृति- | प्रतीच्छ्यो न विधेयोऽसौ, यो जुगुप्सेत माग्गुरुं / भ्रष्टमप्यात्मना मिथ्या-वर्णे तर्हि कथैव का ? // 8 // KI सन्दोहे . मातुर्वप्तुः शुद्धविद्यापदातु-राचार्याणां -पाठकानां श्रुतानां ! वैयावृत्त्ये व्यापूतानां मुनीनां, कुर्यात्स्मृत्यांत शतकम् // 32 // म निन्दकः श्रेष्ठतां नो // 81 // दोषेक्षिणे न कुरुते ऽर्थकयां धनाढयो, धो कथां गुरुमुखो- . ASI ऽपरकार्यकारी / कौटुम्ब्यपीह सुखदुःखकथां विचित्रां, लीनो भवेत्कथमसौ . परमाप्तमार्गे ? // 82 // ISI योग्याद् गुरो-विन्दति वाङ्मयंनो, सङ्गं न कुर्युर्व्यवहारिणस्तैः / नावर्णवक्त्रा क्रियते तपःस्थिती, रिक्तं l चतुर्थ इह निष्फलो ना (तुर्ये स किं वीक्षत आत्मनोऽन्ते) 1 // 8 // मृत्योः काले सविधमटति कोन्व वर्णोदितीनां, दत्ते पथ्यं विविध रटति योगबुद्धानयानां / सर्वैनित्यं विहितविविधराटिदुःखोज्वलानां, स्मृत्वा | भव्याः सुचिरमटत सज्जनानां भणित्याम् // 84 // स्मृतोऽधिकार्यागमवाचने नो, क्षेत्रादिप्रेक्षाकरणेपि | नैव / ग्लानोपचारे गणसङ्घकार्ये, यतः खलः कुत्र भवेद्विनेयः (सनेयः) // 85 // अवर्णवादिनो वर्ण-श्रवणे स्यात् / | (वर्णश्रूते ऽन्यस्य) शिरो व्यथा। प्रियंकरो यथा खक्खा-ऽऽलापेन विपिनेऽवसत् // 86 // कर्म बघ्नीत बोधिघ्न महदादेवज्ञया / अटत्यनन्तं संसारं तेनाऽवर्णब्रुवो भवे // 87 // ज्ञानदर्शनसम्पन्न-चैत्यसङ्घमुनीश्वरान् / / | निन्दन् ज्ञानादिवधक, कर्म बध्नाति बाधकम् // 88 // लोके लोकोत्तरे मार्गे, यतनाः पिशुनस्य याः।। सामान्येनेरिता बद्धा, विशेषः श्रुत ईक्ष्यताम् // 89 // प्राप्यतेऽहन्नमस्कृत्या, तीरं संसारखारिधेः / ज्ञाना- IA // 32 // याप्त्या तथाऽवणे, बध्यते पातकं महत् // 9 // ध्रुवत्वमात्मरूपित्व-मव्याबाधसुखेशितां / सिद्धस्तुतेरेत्य- TA वर्णे, बध्यते पातकं महत् // 91 // विद्यागुरोः स्तुतेः साध्या, मन्त्राश्च विविधा भुवि / तादृशानामवर्णेन, IMPP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ आगमोबध्यते पातकं महत् // 13 // परिग्रहारम्भमुक्ता, देशका मोक्षवर्त्मनः। पूजेषां मुक्तिदाऽवणे, बध्यते पातकं 11 गीकृत्यम् द्वारककृति- महत् // 94 // पृथिव्याः पालको भूपः, स्तुतो वाञ्छितमर्पयेत् / निन्दित्ता विदधीतात्रावार्यो पीडां वधा-11 सन्दोहे ता दिकाम् // 95 // सामन्तस्तनुते पक्षपाती चेद्राजयोजनं / सुखेन खेदितो राज्याचित्रां वांधां प्रदापयेत् // 16 // l अमात्यो मानितो दत्ते, विविधा राज्यजीविकाः। उद्विजितोन किं कुर्यादपहारोऽर्थसञ्चितेः।।९७॥सेनानी ग्रामणी॥३३॥ | देष्टो, यथार्ह रक्षति व्यथां / तस्यावणे न किं कुर्याद् , रक्षणकृतिविच्छिदाम् 1 // 98 // श्रेष्ठीमर्ता स्तुतः / सम्यगर्थोपार्जनमर्पयेत् / रोपितो विघ्नकर्ता न, व्यवहारे भवेत् किमु 1 // 99 // इत्येवं भषिका विचार्य | सुजनाऽवणे व्यथापूर्णतां, हानि सर्वगुणेषु लोकविदितां निन्दा तथा दुष्टताम् / आत्मा दुर्गतिपञ्जरायदि भवेदिष्टोऽत्र निष्काशितुं. नित्यं तजिनराङ्मुखाङ्गिगुगितां श्लाघश्चमतर्हृदि // 10 // नवसार्यों IS वरपुर्यां नवमरसास्वादलीनतनुगुया / जिनपादपावितोव्यों गुणकृतमरचं कृतिचर्याम् (व्यवरचं गुणकृद्र| माभूर्याम् ) // 101 // इति गुणग्रहणशतकम् // गीकृत्यम् (18). .. | योऽस्थाद्य पदं त्यक्त्वा, त्रैलोक्याराधिते पदे / तस्मै अगwधर्माय, निनाय सततं नमः // 1 // अशुचिस्थाने यद्वत्पतिता न ध्रियते शिरसि / माला यच्चम्पकसुमनस इष्टाकृतो गर्दै // 2 // यद्यपि चित्रा गर्दा, लोके चित्रक्रियानुगतिकत्वात् / जनसाया मतभेदस्तथापि न विवेकिनां गयें // 3 // अज्ञान तिपिरलुप्ताक्षयो न लोकन्त इष्टमिह सम्यक् / तत्किं नटं तदरुचिमीतेस्तस्याप्यभीष्टत्वम् ? // 4 // यदि | IM मेक्षते दिवान्यो, 'भानुं दशशतमयूखपरिकरितं / स्वर्भानवत्यसौ कि, कर्णायतलोचनचणानाम् 1 // 5 // एवं HOT P.P. Ac. Gunratrasuri M.S. Jun Gun Aaradhak TruR Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IS विवेकिजनतासिद्धं चेदईतेऽविवेकिजनः / न भयात्ततोऽस्य हानं, यद्वत्सिचयस्य मलमीतेः // 6 // लौकिक- 15 आगमो लोकोत्तरयोर्मार्ग इह लोकवाच्यतापनः / विज्ञो भणितो विज्ञैर्न नामस्तावत्तत्समस्तोपि // 7 // तैर्वचनीयं यत्स्या-गकृत्यम् द्वारकति तदेव गह्यं न तदितरनियमात् / कथमन्यथा जडानां मार्गेऽवृत्तेः सतां सत्त्वम् // 8 // मात्सिको निन्द्यते | मात्स्यै-रनिघ्नन्मीनसश्चयान् / तथापि सदगीत्वान्नासौ गर्हितवृत्तिमान् // 9 // पापीनां कुले जातो, निन्द्यते / सन्दोहे / पशुरक्षणे। तथापि. सदगत्त्वान्नासौ गर्हितवृत्तिमान् // 10 // मोषकानामभूदंशे, न चेन्मुष्णाति निन्द्यते / / // 34 // / तथापि सदगत्वान्नासौ गर्हितवृत्तिमान् // 11 // कर्पूणामन्ववाये यो, निन्द्यते भूम्यदारकः / तथापि / | सदगत्विाबासौ गर्हितवृत्तिमान // 12 // एवं समैः कुले स्वस्योत्पन्नोऽपरकुलोद्भवां / क्रियां कुर्वनरो IS निन्द्यो, गण्यते यत उच्यते // 13 // स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः / तदपेक्ष्य कुलारूढं, धर्म K ज्ञेयं न चान्यथा // 14 // कुलधर्मो विभिन्नो हि भिन्नगोत्रभृतां नृणां / सत्पुरुषसमाचीर्णस्त्वेकधैव परं भवेत् .. // 15 // तथा चापरपीडाकुन धर्मो महिमाखनिः / कुलायातोऽपि तत्याज्योऽसौ चेत्स्यात्परघातकः॥ 16 // एवं च युद्धनिर्विष्ण-मर्जुनं व्यत्ययं ब्रुवन् / कृष्णास्येन निरस्तः स्याद् , व्यासो व्यत्ययधीरतः // 17 // क्षत्रियापेक्षमेतच्चेन्न तद्व्यत्ययदेशना / युज्यते सन्नराणां यत्सन्तो नालीकवादिनः // 18 // 'अन्तवन्त इमे II देहा' इत्यादिवचनवजः / कथमास्तिकसङ्घात-घातकश्चारुतां व्रजेत् 1 // 19 // अन्यथा शौर्यपुष्टिर्न, चेदलं ldl तकया न किं / वस्तुतः शूरतापोषः, न किं क्षत्रियतेजसा // 20 // अनृतं वचनं सन्तः, सार्थमर्थेन वाचिना।HI न ब्रुवन्ति यतः श्रेयस्तरुभङ्गेऽनिलोपमम् (लायत) // 21 // न मिथ्यावचनं सन्तः, शंसन्ति क्वचनापि हि / H em न च रेखागतो वक्ति, पुमान्मिथ्योपदेशनम् // 22 // उद्वाहोआप्तवयसः, कुमारीभिश्च क्रीडनं / व्यय...... I आयमनालोच्य, वेषो मलिनोऽथवोद्भटः // 23 // अबाल्ये मन्मनोल्लापाः, क्रीडनं तादृशं परं / प्रोषितपतिका PUPP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्वारककृतिसन्दोहे // 35 // . विधवावेश्यादिभिश्च सङ्गमः॥२४॥द्यूतमद्यपलासक्ति-जनमान्यावहेलना। नृपामात्यपुरश्रेष्ठि-सेनानीदलकुत्सनम नमूगीकृत्यम् // 25 // ज्ञातिवृद्धकलाचार्य-भर्तृसब्रह्मचारिणां / अनादरो भक्तिहानिस्तेषामेव च गोत्रिणाम् // 26 // मातापित्रोरनमनं, विनयस्याप्रयोजनम् / आन्तराप्रतिबद्धत्व-मवर्णों भक्तिशून्यता // 27 // महतो बान्धवस्यापि, तज्जायाया लघोरपि / सोदराणां लघूनां सभार्याणां योग्यताक्रमात् (त्ययः) // 28 // विश्वस्तवञ्चनं गर्या, क्रिया द्रव्यसमजने / गौँः क्रिया व्यवहृतेः, परभालविदर्शिता // 29 // प्रकटं स्वस्त्रिया सार्थ, संलापादिक्रिया चिरं / प्रीतिक्रियामतिक्रम्य, वर्तनं च तया सह // 30 // तीवो ग्रहः समाचार-लोपो लजा-IA विहीनता / पुत्रादेः क्रीडनं व्यक्त-तमं त्यक्त्वा क्रियां पराम् // 31 // स्त्रीणां स्वातळ्यमर्थस्य, योगो मानातिगस्य यः। नीतिलजासदाचारा-शिक्षितिः साम्यशून्यता // 32 // सदेवानां गुरूणां या, मानभक्ति क्रियाक्षतिः। सत्यर्थे या तदर्चायां, कार्पण्यं लोभतः द्वयम् // 33 // जीर्णशीर्णस्य चैत्यस्य, पौषधावसथस्य च / अनाथानां निराधार-बालानां निलयस्य च // 34 // सत्यां शक्तावनुद्धारो, नूतनस्य त नया क्रिया। न ज्ञानसाधनोद्धारो, लेखशाला क्रिया नया // 35 // अशक्तानां पशनां या. रक्षा नाति | शिष्टितः / भारोद्वाहोऽनपानादि-क्रियाया यदुपेक्षणम् // 36 // सम्बन्धिनामसत्कार-मनुद्धारश्च दुःस्थितेः / / निर्धनानां कुलीनाना-मनिर्वाह उपेक्षणम् // 37 // भ्रातॄणां भ्रातृपत्नीनां, भगिन्यास्तत्पतेरपि / नोद्धारः / / सति निःस्वत्वे, पितृव्यादेर्यथोचितम् // 38 // दासस्य श्रेष्ठिनः सख्युर्विपत्तेह्यनुतिः। कलाचार्याः || सहाध्याया, नोद्धियन्ते बलोद्भवे // 39 // रक्षकीभूय विभवे, परेषां तस्य भक्षणं / नाशस्योपेक्षणं II | कार्ये, स्वस्य व्यापारणं तथा // 40 // देवादिद्रव्यरक्षायां, नियुक्तोऽनुचितव्ययी / कदर्यः सति द्रव्येपि .. त तनियुक्तः स्वकार्यकृत् // 41 // विक्रीणीतेऽनवद्यां यो, विद्यां धर्मक्रियां तपः। दानादितीर्थयात्रांच, In DEP.AC.Gunratnasuri M.S. . . Jun Gun Aaradhak TruSTI Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो-] व्रतं यूनो धनेप्सया // 42 // विझो परागुणोल्लेखी, धर्मी चान्यापहेलनः // अन्यावज्ञापसे ज्ञानी, पाचको II द्धारककृति ISI मुहुरर्पितेः // 43 // केवलां कीर्तिमाश्रित्य, धर्मकर्ता मुदोज्झिता व्रती सौख्यरसाविष्टो, मार्गोत्तीर्णस्य / धनाजेन देशकः // 44 // वस्त्रपाबादिसशाही, स्थास्नुर्बद्धे पुरे सदा। कार्येषुः गृहिणां सक्तः, स्वाध्यायध्यानवर्जितः षोडशिका सन्दोहे // 45 // वस्त्रपात्रशरीरोपकृतिशोभाकरोः हसे / प्रसक्तः सह रामाभिर्वार्तालापकरोज्वहम् // 46 // भववृद्धिकरं . // 36 // ख्याता, स्वानुमानां विशां वृषे / धनधान्यगृहग्रामा-रामकूपादिधारणम् // 47 // ममीकारो गृहस्थेषुः / / शिष्येषु वसतिष्वपि / अबुद्धिरात्मबोधस्य, विकथारतिता पुनः // 48 // अन्त्ये शय्यासनाहार-प्रभृतेर- 10 विसर्जनम् / उचितो. न व्ययो धर्मे, यस्तदागारिणां धने // 49 // वृद्धेनोक्तं व्ययेदन्त्ये, न पुत्रः किन्तु | सङ्ग्रहे / स्थापयेद् वृद्धविभवे, गर्धिष्णुश्चापि जायते // 50 // अप्रिनं भाषणं निन्दा, मर्मोक्तिश्चाटु-ति कारिता / स्वावस्थास्वनपेक्षित्वं, नर्वेषु प्रवरं समम् // 51 // हाय हायं जाति जनतान्यत्कृतं स्थानमादौ, / दायं दायं करणनिकरोन्मन्थने चित्तचर्याम् / दर्श दर्श सुजनपदवीं सद्गुणालिप्रक्लप्सा, वारं वारं त्रिदशसु-8 खितां मोक्षसौख्यं भुनक्ति // 22 // ध्यायं ध्यायं सुमतिमुनिपोद्भावितं सूत्रसन्धां, पायं पायं समयबचसोद्भावितं तत्वमर्थम् / श्रावं श्रावं गुरुनिगदितं विक्रियाभूमिसीरं, ख्यातं पुर्यो वसुरसनबभूहायने | वक्ति बोध्यै // 53 // इति गपकृत्यम् // धनार्जनषोडशिका (19) ... ननु धर्माय नेष्टव्यां, धनमित्युच्यते बुधैः। प्रक्षालनाद्वरोऽस्पर्शः, पङ्कस्येति निदर्शनात् // 1 // उपयोगोऽस्य नान्योऽस्ति, लष्टो धर्मे व्ययात् परः / इत्युक्तेर्न तदर्थाय, प्रवृत्तिः शास्त्रकृन्मता // 2 // N Til उपाय॑ते स्वयं लोभात् , पुरग्रामधनादिकं / प्रभूत स्वल्पमेवात्र, धर्मे व्ययति सन्मतिः // 3 // Jun Gun Aaradhak True P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. INI Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POST __ आगमो- तन्नाधिकं धर्मनाम्नो-पाज्यं धनमिहोत्तमैः। तात्पर्यमविचार्यैवं, कश्चिदाहात्र वस्तुनि // 4 // विरतान् / सुनका द्वारककृति सर्वपापेभ्य, आश्रित्येदं वचो वरं / प्रक्षालनाद्वरोऽस्पर्श, इति ते यच्छिवोद्यताः // 5 // नार्थ वाञ्छन्ति ते . सूत्र स्वेभ्यः, केवला तत्स्पृहा पुनः / धर्मायेति निषेध्यास्ते, धर्मायार्थार्जनं प्रति // 6 // पर यः स्याद् गृही || निर्णयपञ्चसन्दोहे श्राद्धः, पूजाविभवसन्मतिः / ग्रासाच्छादनसन्तुष्टः, स किं धर्माय नार्जयेत् 1 // 7 // साधर्मिकस्य भुक्त्यै कि // 37 // किं, पूणीयाख्यः पुरा सुधीः / प्रत्यहं न व्यधाद्यत्नः, न किं स संमतो बुधैः // 8 // आरामायेषु ISI किं श्राद्धा, न पुष्पेभ्यः प्रयान्त्यलं ? / विरताः पुष्पभोगेभ्यश्चेदोम् किं रस्यते मुधा // 9 // श्रयते जिनपूजायै, दुर्गता पुष्पहेतवे / अगाद्वनं सूरीजातस्तदैवेयं ततो वृषात् // 10 // किं न धर्मी पुरा तन्वन् , व्यवहारं विचिन्तयेत् / लब्ध्वाऽत्रार्थ मुदा सप्त-क्षेच्याः पोषं तनोम्यहम् // 11 // प्राकालेऽर्थस्य सम्पत्तेः, IN | क्षेत्रपोषविचारणं / किं स्यादनर्थकचेन्नो, किमेवं रव्यते वृथा ? // 12 // भवनं मूर्तिमर्चाद्या, जिनानां सुधियो न किं / सृजन्ति धर्मवृद्धयर्थ, स्वयं तद्भोगवर्जिताः // 13 // अन्यत्रारम्भवत इत्येतावच्छूते मतं / सामान्येन | ततो नैव, धर्मायाज्यं धनं न हि // 14 // सामान्येन हि धर्मार्थ-मधिकारी वधे मतः। न स्याद्विमलHI बुद्धियों, भीतः स्थमाङ्गिहिंसनात् // 15 // अत एवोपवासादौ, वैयावृत्त्यं मुनेर्मतं / साम्भोगिकेभ्य KI आहृत्य, दाने भक्तादिवस्तुषु // 16 // देशनाऽतो बुधैः कार्या, तात्पर्य श्रुतसंहतेः / अवगम्याविरोधेन, I D| स्यादानन्दपदं यतः // 17 // इति धनार्जनषोडशिका // __सूतकनिर्णयपञ्चविंशतिका.(२०) स्तुत्वा नरामराधीश-स्तुतपादयुगं जिनं / सुतके निर्णयं वक्ष्ये, जन्मनः सूत्रसङ्गतम् // 1 // शुचिर्देवार्चनं / // 37 // कुर्याच्छुचिः स्वाध्यायसंश्रयं / संयमी सर्वदा शुद्धः, स्नानादेरॅहमेंधिनः // 2 // देवानां वन्दनं II Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus GR Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूतक A कुर्वनशुद्धोऽबोधिमाप्नुयात् / तच्छौचस्य श्रुते प्रोक्तो-अनुवादः सूरिपुङ्गवैः // 3 // अत एव दिविषदः, आगमो- स्वचैत्यप्रतिमार्चने / निर्मला अपि मज्जन्ति, स्ववापीजलसञ्चयैः // 4 // जायते द्रव्यसंशुद्ध- वशुद्धिरनुत्तमा / द्धारककृति- ततः स्नात्वार्चयेद्देवा-नितिशास्त्रविदो विदुः // 5 // जिनागमेहतामाप्ती, वन्दनाय निरीयुषां / श्राद्धादीनां / निर्णयपञ्चसन्दोहे जगौ स्नाना-लङ्कारादिगणोणमः // 6 // स्वाध्यायादौ जगादापि, क्षालनं ह्यशुचेर्मुनेः / किमु श्राद्धादिवर्गस्य, 1 विंशतिका भवेदशुचिता हिता ?: // 7 // स्वकायजाऽशुचिं क्षिप्त्वा, यथा धर्मविधिक्रिया। तथा परपदार्थोत्यं, त्यजन्तु રેઢા गुणकाशिणः // 8 // तत्र स्वाध्यायकरणे.जह्यात् हस्तान्, मुनिः शतं / जन्यालयं, गृहस्थोपि, देवार्चायां विधिः पुनः // 9 // अपत्यं प्रसवित्री स्त्री, दिनानेकादशैव तु / अशुचिर्वादशे घने, शुचिरित्यागमोदितिः // 10 // | कल्पे जिनेश्वराख्याने, तच्चेत्तद् व्यवहारतः / अन्यथा नैव तद्र्भ-रुधिराद्यशुचीष्यते // 11 // पुद्गलानामशुचीनां, | | योऽपहारो निवेदितः। सोपि च व्यवहारेण,लेखावस्थामपेक्ष्य वा।।१२॥ कुलस्थितिं न च सार्व-मपेक्ष्य वर्णयेद्गणे।। शौचमाख्यायि सिद्धान्ते, मातापित्रोयोरपि // 13 // द्वादशाहनि निजक-मुखानां भोजनादिकं / कारित | स्थापितं नाम, महोत्सवपुरस्सरम् // 14 // तत्सर्वं शौचमाश्रित्य, पूजामुख्यमपि विधि / व्यधातां तौ न सच्छ्राद्धौ, पूजयेतां कुदेवताम् // 15 // किञ्चाशुचिः कुदेवानां, पृजनेऽनर्थमश्नुते / स्पष्टं स्पष्टक्रुधस्तेषु, | नामो मृष्यन्ति यत्क्षणम् // 16 // व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रेपि, महाबलकुमारके / राजप्रश्नीयसिद्धान्तयौपपातिकवाङ्मये // 17 // दृढपतिज्ञजनने, तदेवाननमीरितं / न तत्र तीर्थकृदाख्या, तत्तोष्टव्यं तदीक्ष्य / भोः। // 18 // किंच ये लौकिकाः शौच-वादग्रस्तमनीषिकाः। तेऽप्याचख्युर्जननजा, दशाहाशुचितां // 38 // ... स्मृतौ // 19 // न चास्ति चिररात्राय, वर्जनं जिनपूजने / आप्तोदितागमे पूर्वा-ख्यातानि वचनानि च / // 20 // तन्नाख्येयं श्रुतोत्तीर्ण, मुनिभिर्मोक्षकाद्धिभिः। आगमानुसूतिर्मोक्ष-पुरमापणवर्तनी // 21 // ये Jun Gun Aaradhak Trust IP.P.AC. GunratnasuriM.S. SocialKI Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमी . द्धारककृति सन्दोहे // 39 // वर्धापनानि नाशौचमिति ख्यान्ति, ये त्वाख्यान्ति चिरं तकत् / ते द्वयेऽपि जिनेन्द्रार्चा-शातनापातकाविलाः // 22 // आद्ययाऽऽशातनाऽपूते-द्वितीये विनिता सका। यतस्तदत्र सुधिया, वाच्यं सत्राक्षरानुगम् // 23 // यत्तु क्वापि 11. दिने शास्त्रे -ऽक्तिने प्रतिपादितम् / अर्चादि तन्न चालम्ब्य, तीर्थादेः कारणात्तकत् // 24 // पुरुषेषु . विधा भिन्ना. तन्न श्रेणिककृष्णयोः। नियमे दुष्टता सेन-प्रश्नीयाऽपि न दोपभाक् // 25 // इत्थं | विचिन्त्य जिन ! ते वचनानि सम्यक्, ख्यातो मया शिशुहिताय विधिस्तु शौचः / जातं यदत्र वचनातिगमाई| तास्तन् , मृष्यन्तु शास्त्रगदितं. वच एव तथ्यम् // 26 // इति सूतकनिणेयः॥ वर्धापनानि (21) लोकानुभावा भवितव्यता च. द्वयं समालोच्य निगोंदवासात् / निष्काश्य मां निन्यतुरग्राशि, यो गीयते झर्व्यवहारनाम्ना // 1 // निगोदभावेनः परेण तो मां, भावेन नामं पुनरावृतेस्तु / विशेषतश्चक्रतुरात्मनीन। स्वभावमाश्रित्य पुनः पुनस्तु // 2 // अनन्तकालं मम तं स्वभाव-मेकेन्द्रियत्वाख्यममू प्रधानौ / कृत्वाऽहमा कासित ऊनजातो. कालं त्वसंख्यं स्वयमेव ताभ्याम् // 3 // अनन्तदुःखौघमुपानयन्ता-वकामपापौघ- HI विनिर्जरातः। नरत्वभावं समुपाय॑ जाति, परामहं तावनुयातवन्तौ // 4 // तत्रापि मोक्षाध्वनि देशकानां, 4 . जिनेश्वराणां सुपथं विचारात् / उभौ च मां निन्यतुरात्तरूपौ, ततस्तयोः सम्प्रति सादरां क्रियाम् // 5 // (करोमि तत् ) तंत्रापि शुद्धाद् गुरुवर्ययोगात् , शिवस्य मागं शुचिमानयेतां / मां स्यामहं येन शिव- SI प्रयायी, वर्धापनं तद्विदधामि भाविनः // 6 // इति वर्धापनानि / / PF AJA DIR395 W P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus II Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 40 // भागमो. सत्सङ्गवर्णनम् (22) सत्सङ्गद्धारकृति- नत्वा त्रिधा सदाचार-शिरोरत्नं महोदयं / सङ्गतिर्या सदाचारैः, सैव प्रस्ताव्यतेऽनघा // 1 // वर्णनम् A शोभनोज जने शुद्धो, विवेकिजनपावितः / लोकोत्तरस्तु साध्योऽत्रा-चारस्तेन न दुष्टता // 2 // तत्र ये न I | कुलाचार-हीना न पारदारिका / न च द्यूतादिसंसक्ता, न मद्यपिशिताशिनः // 3 // न नास्तिका न | द्विषन्तो, धर्म त्यागान बिभ्यति / न कुचेला न दुर्दान्ता, न च निर्व्यवसायिनः // 4 // नासद्व्ययोद्यता आये, नाव्ययिनोऽधमणकाः / कुटुम्बल्लेशिनो दीर्घ-रोपिणो द्रुह आत्मनः // 2 // न नेपथ्योद्भटास्तुच्छ-वस्त्रा न मलिनाम्बराः। क्लेशप्रिया न नो माता-पित्रादिविनयोज्जिताः // 6 // न मित्रद्रोहिणः स्वामि-द्रोहिणो न मलिम्लुचः / मिथ्योपदेशिनो नैव, न बहुभिर्विरोधिनः // // न राजदेशगोत्राणां, द्विषन्तः साधुनिन्दकाः। वृद्धविद्वेषिणो नार्चा-लोपका जगदीशितुः // 8 // नासुमद्धननोद्युक्ता, न छविच्छेद उद्यता / रोहका नातिभारस्य, नानपाननिरोधिनः // 9 // नासदोषाभिधातारो, नैव न्यासापहारिणः / न कूटलेख्यकर्त्तारो-ऽसत्कार्ये साक्षिणो न च // 10 // स्तेनं योक्ता न मुषितं, गृह्णन्ति धनकाम्यया / कूटमान al तुला नैव, न प्रतिरूपविक्रियाः // 11 // न नाटकोयता दाह-प्रयता न वनादिषु / कदर्या नानपाने ये, Hन रहिता धिया तथा // 12 // न निरर्थ वधे युक्ता, नान्यप्राणगतस्पृहाः / सर्वभूतेषु दुःखादे- नन्वे| ष्टार आहिताः // 13 // परार्थे कर्मठा ये स्युः, सघृणा दीनदुःखिनोः / स्वपरार्थ च वक्तारो, धर्मवाञ्छा- JALA कृतः खलु // 14 // कुटुम्बैकरसा दुःस्थ-सम्बन्धिभरणोद्यताः / भगिन्या: पोषका पत्या, रहिताया सुखेन IS/ ये // 15 // ये लोके न मताः, श्रेष्ठा-निर्देशेशाः कुले स्वके / सत्कथापक्षसंयुक्ता, गुरुदेवजनार्चकाः // 16 // // 4 // कोषा DI P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus/ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TV सत्सङ्ग आगमो. NI पाठने पुत्रपौत्राणां, परेषामपि पाठिनम् / यथाशक्ति कृतोद्योगाः, पुत्रीणां शिक्षणोद्यताः // 17 // प्रत्यहं / क्षारककृति- प्रतिदेष्टारों, गेहेऽविनयकारिणाम् / सत्कारिणः सुशीलानां, जामराः सर्वपालनें 18 सलजाः सदया - अक्ष-वातदान्तिपराः सदा / युक्ताः गुणः धिया युता, गुणग्रहमनीषया पुनः // 19 // इत्यादयों लोंक-- सन्दोहे सिद्धाः, सदाचारान्विता नराः। भवत्यलं वृषायासौं, यः सङ्गं कुरुतेऽमीभिः // 20 // दुग्धं तक्रेण गङ्गाम्बु, . // 41 // लावणेनाम्बुनायसा / कनकं लवणेनायो, धान्यं कीटेंन नाश्यते // 21 // घुणेनैवस्तुषोंरेण, पङ्कजं स्वर्ग-IN S| भानुना / सूर्याचन्द्रमसौं, नागैरमृतं चन्द्रिका दिवा // 22 // कुसङ्गत्या तथा माप्ता,अपि प्राक् सद्गुणाः समें। ISH / नाश्यन्ते पुनराप्यन्तें, सत्सङ्गत्या महागुणाः // 23 // स्वात्यम्भों मौक्तिकं शुक्तौं, सुवर्णीस्थादयो स्यात् / स्पर्शेन, स्वर्णतां याति, तानं कल्याणबिन्दुना // 21 // उद्योततेऽमिना काष्ठ-मङ्गारोपि च भासते / आकृत्या | नवख्या मृत्स्नाः। (रोहतीहाबलाशिरः // 2 // लिपिना पुस्तके प्रावा, देवाकल्या नमस्यते / स्वर्ग सिद्धिं / च के नापुर, सज्जा: सज्जनोन्मुखाः // 26 // काष्ठतण नयसारोपि; सस्वर्ग प्रामः दर्शनम् / चक्रवतिगृहे-- IST जन्म, चक्रितामचक्रिताम् // 27 // तीर्थकृत्त्वं च तस्वगवितारान्तरितं पुनः / / नृपः प्रदेशिनामा धर्मितां स्वगितान्विताम् / / 28 // सर्वधाविस्तौ कृष्ण-श्रेणिको भूभुजा पुनः आरम्माद्धनधान्याच जिनौं तौ च भाविनौ // 29 // एषमनेके आपत्ये, भद्रः स्वःशिवसौख्यदं / तत्सम शमसाम्राज्यसङ्गत्या | तज्जुषाफि वा // 30 // आस्तां या परेषां यत्साधकोऽपि कुसङ्गमाः येन वन्या. यदादिष्ठं श्रुतेः ज्ञात सुमावले INT // 3 // चौसादीनां समायोयो बुद्धि क्रियाः च तादृशी / नः चेत्तथापि लोकानां न विश्वासो यथोरगेआता सजल्या सत्पुरुपैसयास्यनजनस्य गुणवृन्दं भवति च भुवि विश्वास्यो, लभतेः पदमव्यायं - ISMAIN वृषाद. // 3.3 // सत्सङ्गो नहि येषां तेषां कथमायतिर्भवेत् सुखदाः / चक्षुविकलो रूपं किंतु निरीक्षेत दीपालौं / .. P. Ac Gunratnasuri M.S Jun Gun Aaradhak Trust Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दारककृति विचार HIછરા 3 // एकाक्षोऽपि च पश्यत्यविकलमन्धे तमिस्र इह पुरुषः / दीपेन सता यस्तद्वत्सामान्योप्यर्थवृन्दना भागमा // 35 // हीनो लेभे पतनं नन्दनमणिकार ऋषिदृशिक्रियया / ग्रहणं व्रतस्य सरेर्मूले परिणामपरि- 'शिष्ट |वृद्धः // 36 // गीतस्यागीतस्य च सत्साधुभिरन्वितत्वमाख्यातम् / जातः समाप्तकल्प, आमव्येशः समा- ता सन्दोहे चष्टः // 37 // मोक्षाध्वनि परिमन्थो गुणरहितो न गणे समावेश्यः / दुष्टः कुर्वन्गुरपि स्याचाक् तस्य | |शास्तापि श्रावयिता) // 38 // गङ्गाया वन्द्यते वारि, रथ्यायातं गुरोः पदः। संस्पर्शिरज आत्मार्थ, जनैः शिरसि धार्यते // 39 // भस्मोमेशेऽनम्बरत्वमेतः किं वन्द्यतां नहि / लब्धिमाजो मलामर्श-मुखमौषधसौरव्यदम् // 40 // विनाश्य दोषान्कुरुते समग्रां, शर्मावली यो गुणपडिक्तयुक्तां / सङ्गे सतां भव्यजना ! | रमध्वं, तरैति वृत्तान्तनिलीनचित्ताः // 41 // प्राप्य प्रभोः प्रार्थितपूरणस्य, पार्श्वस्य पूर्ण विमलप्रसादं / आनन्दवाधिनवसारिपुर्या-माख्यातवान्सर्वसुखार्थकोऽदः // 42 // इति सत्सङ्गवर्णनम् // शिष्टविचारः (23) . . .. . शिष्टवृन्दनतं शिष्ट श्रेष्ठ शिष्टव्रतोद्वहम् / तत्त्वार्थदेशकं-वीरं, नत्वा शिष्टक्रियां (विधि) AI ब्रुवे // 1 // शिष्टाः शिष्टत्वमायान्ति, शिष्टमार्गानुवर्तनातू / भाविभद्रा महाभागा, क्षीणदोषा यतस्तके IS // 2 // यच्च वेदोपगन्तृत्वप्रमुख लक्षणं मतम् / अन्यैः स्वमतमागृह्य, तदनीक्षितसुन्दरम् // 3 // बौद्धैर्यदन्यKI दुक्तं तत्क्थं नान्योन्यघातिता / अज्ञानिनोपि शिष्टत्व-मेवं सति प्रसज्यते // 4 // श्रद्धावन्तो यदज्ञाना, KI ईक्ष्यन्ते भूरिशो भुवि / शिष्टास्ते चेदन्धपारम्पर्यात् कापि न भिन्नता // 5 // पुराणं मानवं वेदोवैद्य चेति चतुष्टयं / हेतुना नोहनीयं चेत्परीक्षा प्रस्थिता वने // 6 // प्रामाण्यमपि किश्चकविधाशयवतां / I PP.AC.Gunratnesuri M.S. Jun Gun Aaradhak TrustMI . . Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 43 // IA शिव‘आगमो- व भवेत् / अन्येषां वाऽऽद्यकल्पेत्रान्योन्यं शिष्टत्वघातनम् // 7 // अन्त्ये सर्वेपि शिष्टाः स्यु-र्यत्स्वाभिप्रायतः विचार द्धारककृति | समे। व्याख्यान्ति वेदवाक्यं यच्छब्दा नानार्थतान्विताः // 8 // किंनु वेदोपगन्तृत्वे, शिष्टा न श्येन याजिनः। मुक्ताश्चैषां न शिष्टा यत्तेषां ज्ञानं न मन्यते // 9 // तथात्वाने न शिष्टोश्चेन्मुक्तिरुच्छिष्टताविधिः। सन्दोहे: विपरीताश्च वः शिष्टाः, सत्यं सदृकुसमागमः // 10 // म्लेच्छाश्चेत्स्युस्तथा तेषां, तथात्वं मन्यते किमु / शिष्टैः शिष्टस्य नायोग्यो, योगो जात्या न शिष्टता // 11 // अन्यच्चैषां निषिद्धो यो, वेदपाठोऽभि- DA युक्तकैः। शिष्टत्वाप्तिस्ततो नैषां, कः दुरितस्य तत् प्रभुः // 12 // वेदानां यदि सत्यत्वात्तथा ते सत्य- | सङ्ग्रहात् / शिष्टत्वं तच्च मान्यं नो, यत्सरागादिहानितः // 13 // भावमालिन्यहेतूनां, रागादीनां क्षयात् किल / शिष्टता स्वाग्रहानैषा, नैप केषां यतो भुवि // 14 // पवित्रचेतसः सन्तः, रागाद्याश्चित्तकल्मपाः मुषितं तैस्तदान्तर्यरत्नं चेद्द.खपात्रता // 15 // क्रोधादीनामनन्तानु-बन्धिनां क्षयतो मताः। सदृष्टयोपि शिष्टा यन्न तेऽशिष्टाध्वरागिणः // 16 // क्षयोऽप्येषां सत्प्रसादान चान्योन्याश्रयोद्भवः / अनादिकाः स्वयं शिष्टाः, केचिच्च कर्मलाघवात् // 17 // ' नासत्यं ख्यान्ति शिष्टा यत्मट्टकाख्यानके श्रुतम् / अनुमानेन जानन् स, आह धर्माद्यबोधताम् // 18 // अभिन्नदशपूर्विभ्य, आरभ्यास्ति सुदृष्टिता / निश्चिता | तेन तद्वाक्यं, सिद्धान्त इति वेदिनः // 19 // कथं समस्तपूर्वाणां, निगोदेषूद्भवो भवेत् / वैमानिकं विना HI यत्रायुर्वघ्नन्ति सुदृष्टयः // 20 // सत्यं त्यक्तसुदृष्टीनां, नियमोऽयं न तत्तदा / तथा ते तेन नः / | कापि, क्षति गममानिनाम् // 21 // अतः शास्त्रनिषिद्धपि, तद्वचः शिष्टसम्मतम् / आगमव्यवहारित्वं, तेषां चातोपि गीयते // 22 // सरागा अपि ते मिथ्योपदेशश जातु चिन्न यत् / दर्शननी न तेषां सा, ISI // 43 // रागिता नियमान्मता // 23 // शेषाः सदृष्टयोप्येव-मेव सत्त्वसाधकाः / अभिन्नात्कर्मणोभाव-शून्यैषां भव IMPP.AC.Gunratnasuri M:S. Gun Gun Aaradhak Trust Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्ट // 44 // PO कृत्तिताः // 24 // गुणस्थानेषु परतो, रागादीनां यथा यथाः। क्षयस्तथा तथाः शिष्टा,, मतास्तद्वतिनो आगमो नमः // 25 // मोहप्रेमद्विषों नाशे, सर्वथा पूर्णशिष्टताः॥ तद्वन्तो निर्वृताः सार्वा, शिष्टाः सर्वेऽतिः बता द्धारककृति- शायिनः // 26 // यो या प्रकर्षतस्तद्वान्स सोधस्त्यस्याः शंस्थतां / यातिः प्रारभ्या सन्दृष्टयवित्सिद्ध- विचारः सन्दोहे दशानघाः // 27 // सयोगायोगसिद्धेषु, समो मोहक्षयो यतः। अविसंवादिमन्तव्याः, समे ते. शिष्ट IA ID तास्पदम् // 28 // अतः श्रीमन्महावीरा-दारम्य स्वावधिः श्रुतेः॥ पर्युषणासमाचासो दर्शितो. युक्तिः पूर्वकम् // 29 // नः चः तदा निषिद्धं य-दुपदिष्टं नवागमे / विधानो गाणी तब, प्रमाण. शासनैषिःणाम् // 30 // ऋजुप्ताज्ञा ऋजुजडा, जीवा वक्रजडा इति) त्रिघासयविधास्ते च, स्वयोग्याचारधारिणः || // 31 // कल्पभेदो यथा. तीर्थे, तथेदमपि भाज्यतां / आज्ञाचरणयालय, जीतं. शुद्धय च तत्मतमा // 2 A यो यथा बुध्यते जन्तुस्तं. तथाः बोधयेत् यथाः। तथान भावक्षेत्राद्वावैचित्र्याधिविधाकृतिः // 33 // सूत्रं / तत्कालभावादि-योग्यमाप्त प्रषञ्चितः / / ज्ञानादिवृद्धिकारक्षेत्र विहाई मतं ततः // 4 // प्राचीनत्वेनKM शिष्टा न न च वृन्दं प्रमाणभूः / आचीर्णः यदसंविम-जनैस्तच्छोधिकृनाहि // 3.5.7. अतः एवोदितः / IS पाश्चिररूढं नः लक्षयेत् / आगमाविहितं दृष्ट्वा, काले योग्यं समाचरेत् // 36 // अन्यथा परतीथिनां DI भूयस्त्वात्तन्मतादरः। सज्येत. च. कुदृष्टीना-मनादित्वात्समाहरः // 37 // वृत्तानुवृत्तमित्यादि-संविमा- . | जीतसंश्रित / ज्ञेयं कल्पोक्तमेतद्यजीवानां शुद्धये भवेत् // 38 // भिन्नग्रन्थिर्मार्गोन्मुख-पतितौ चोप-- चारतः। शिष्टौः शास्त्रेऽधिकृता धर्मे, तेलि तस्वाच्च सरिभिः // 39 // वप्तादिलौंकिका शिष्ट सनिशक्तोः गुरु व्रजः / भक्त्योः द्रव्यसो यस्मान्न: तस्यापि प्रतिक्रिया // 40 // शिष्टाः शिष्टैः स्वच्छचासस्वभावा, झेया एवं- . ... .. पारिपाट्याः क्रियादिः॥ शंस्यं चैषामात्मशुद्धथे यदर्ह स्तुत्या सम्पत्माऽयते ।लिकेव // 4 // इति शिष्वविचार Meen INTPP.AC. Gunratnasuri M.S. mosalman Jun Gun Aaradhak Trus Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पह 45 // भागमो- :..:... ... .." विवाहविंचारः" (24) वारककृति- : :. :: .... ........! विवाहितोपि यस्त्यागी, घृतः सिद्धचा तथागतः। विवाहविधिमादिक्षन्मुक्तोप्यर्हन्नमामिः तम् // 1 // विवादः •सन्दोहे सिद्धिश्रिया सहोद्धाहो, व्रतनार्याकृते . तथा।। भवे तया. समायोगः, साधनन्तोनपात्मनाम् // 2 // शस्तस्तेन / स. आचार्य-योलम्भूष्णुर्न तस्य. तु / श्वभ्राह्यतर्थरक्षायै-रुक्तोद्वाहक्रियाऽनघा:॥३॥ न च संसारमूलत्वाद, बाधकत्वाच्च जन्मिनां रागाप्रकर्षहेतुत्वान्मथुन दोषकद्यतः॥४॥ तत्तदर्थिक कार्येऽस्मिन् , वाच्यं सूरेन विद्यते / अनिषिद्धं मतं स्याचेत्कारणे किं न तद्भवेत् ? // // तथात्वेऽष्टादशब्रह्म-विरतेः खण्डना ना किं. 1 // 121 सुधोद्गारो विषाचौ न, कल्यादेस्तु कथैव का // 6 // न चागमे भगवानाह, कुत्राप्युद्वाहवेदनं / निष्पाप- di कार्यसदिष्ट कार्य तस्य ध्रव मतसा तदभावेपिलचेदेत-दनदिष्टमथेष्यते। ततस्तद्विहितं सर्व.न विधिर्यद्वचोतसादात्र प्रतिविधानं स्यान्याय्यं मैथुनवर्जन।। सर्वथा तेन सन्दिष्टा-रम्भे सर्वबतो. दितिः॥8॥ तत्राचेन क्षमा नास्यात्तदा नाविरतो.भवेत. असंस्कासदसामर्थ्यान्नायतौ स्यात्स संयतः॥१०॥ HI क्रमेण तु व्रताश्यासे याप्नुते सर्वसंयम विरति तद् गुरोः पार्थे, देशतोप्याददीत स्राकू // 11 // दत्ता च | श्रीमहावीरेत्याप्तेन श्रावकाय सा / आनन्दादिमुखायांगे, सप्तमे सा तस्य ते // 12 // स्थूलहिंसाधनुमतिः TAI स्याचनादौ परं प्रतं / / दिशेत्तद्देशनेऽशक्ती, तदादाने तु तत्कथा // 1 // तब-तुर्ये व्रते स्थूले, स्वद्वारा नितिराश्रिताः। विवाहिताः स्वदाराः स्युएन्यथा ना स्वकान्यता // 14 // विवाहादि च लोकोक्त मिति: तचितं / नाहि / अनुवाद्य विधौ विज्ञा, लोदीन्ते : विधेयताम् // 15 // अपेक्ष्य योग्यता वाच्योऽनुद्योपि स्वाक्क- IN दाचन। पूजार्थ स्नानमाचर्य, यथोक्तं पूर्वसरिभिः // 16 // वेदाश्च व्यवहाराणां, श्राद्धानां झापनाय / / LAPP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trum Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो प्राग् / भरतेन. तताश्चक्रि-णायेनर्षभसेविना // 17 // न चर्ते नियमं स्वान्य-दाराणां व्यवहारिता / पूर्णा भवेन्नुः तत्सोज, निश्चितो नैव किं भवेत् // 18 // किं चादित उपादत्तं, येन सम्यक्त्वमार्हतं / विवाहे I विबाहद्धारककृति किं स विशं. नमस्कर्याद्विचक्षणः // 19 // तदाश्रवालयोदिष्टिविधेरन्यस्य सत्कृतौ। विवाहेपि ततो विचार योग्यो-ऽहनामाक्तो विधिः श्रिये // 20 // सम्यक्त्ववांश्च भगवा-निन्द्राद्या अपि.ते तथा। किमद्वाहविज्ञ सन्दोहे कुर्युर्यः स्यान्मिथ्वात्वपोषकः // 21 // जम्बाद्याश्च महात्मानः, ससम्यक्त्वा विवाहिताः / कथं चक्रुर्गणेशे ते, // 46 // नतिं सम्यक्त्वनाशिनीम् // 22 // हेमचन्द्रप्रभुश्वाह, सर्वज्ञां कुलदेवताम् / इति तन्न जिनाधीश-मृतेज्यस्य | विशेषणम् // 23 // आर्हतोऽतो विधिः श्राद्धैः, स्वीकार्यः सत्फलावहः / विवाहो गृहिणां मुख्यं, कार्यमेवं | भवेच्छुचि // 24 // बिवाहो नियमाय स्यात्, स्त्रियाः पुंसश्च सत्कृतः। दृढः स च कुलशील-युताना| मेव नान्यथा // 25 // गतापायो भवेत् कामो, लाभश्च सन्ततेः शुभः / गृहरक्षा च लज्जादे-रेवं पीडाऽन्यथा H परा // 26 // नाकार्य कुलजः कुर्याच्छीलवान्नाभिसन्धयेत् / वैकल्ये विकलं सौख्यं, तवयं सुखसङ्गमः / | // 27 // दुष्कुला विधवा कुर्या-द्धित्वा पुत्रादिकं समं / विषयावेशविवशा, सङ्क्रान्तिमपरे गृहम् // 28 // | अशीला तु सदा सङ्गो-ज्झिता शीलविलोपनं / कृत्वा क्षयं नयेत् सर्व, कुलमृद्ध्यादिसंयुतम् // 29 // 1 नियतं युगलं नैव, जायेत स्वाधीना न च / कन्येति मातापितृभ्यां, न कार्यमस्या विवाहनम् // 30 // न वा पक्षद्वयसंयोग-जन्यो योगो भवेद्यदि / न भिन्नगोत्रता मान्या, बलवन्नेकगोत्रजः // 31 // आबाल्याद्विषयावेगो, त H विषमश्च प्रवर्तते / राजयक्ष्मादयो रोगा, एवं स्युः सकले कुले // 32 // मात्रादिजनिता रोगा, अपि स्युरेक- Ruru | गोत्रजे / विवाहे तच्छुचि प्रोक्तं, विवाहो परमोच्चगैः // 33 // न कुटुम्बकलिश्चैवं, न च द्रोहः स्वके कुले | ID एवं च योग्यतेप्सुः स्या-ज्जनः सर्वः समाहितः // 34 // भिन्नभाग्यभराणां च, योगः स्यादेवमेव हि . IDPP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह // 47 // INi दरिद्राणां समावेशोऽन्यथा तु स्यादुरुत्तरः // 35 // विवाहाहं वयः शास्त्रे, मतं यौवनमेव यत् / न बाल्यं / आगमोKi कामचेष्टाई, नोदूढस्य कलार्थिता // 36 // वयस्याये कलाभ्यसति, द्वितीये विषयादरः। तृतीये विरति-1 विचारः द्धारककृति थारु, स तुर्ये स्वेष्टभाग्यकृत् // 37 // तृतीये वयसीहोढा, कन्या दुःखप्रदा चिरम् / धनधान्यादिहानि च, त ___ सन्दोहे H कुर्यात्कारयतेऽपि च // 38 // नेच्छा वयस्यतीते चेत् कथं दद्याद्धनं वहु ।.वं च पुत्रपौत्राणां, दुःखदारिद्य | सङ्गतिः // 39 // विवाहः स्नेहसन्तान-वृद्धये न च सा धनात् / न तद्धनक्रीता कन्या; कुलोद्धाराय ISI जातुचित् // 40 // योग्याय तत्प्रदेया : स्वा, कन्या नर्द्धिमते परं / ग्राह्याप्यहाँ यतस्तस्या, गृहभारोद्वहः सुखः // 41 // शिक्षितैषा सदा कार्या, लोकलोकोत्तराध्वनि / अन्यथा कुलशीलानां, रक्षा स्वप्नान्तरेऽपि न // 42 // सर्वेषां संहतिः श्रेयस्करीत्यादौ विबोधयेत् / शीलं च स्वर्गमोक्षाय, सौख्यदं सर्वसम्मतम् D४॥.विद्वानेव वरः कार्यः, कन्यासौख्येप्सुना सदा। नद्धिः शान्तिकृते चित्ते, व्यग्रे जायेत.यत्ववचित् IN // 44 // नद्धिः स्थाष्णुर्भवेद्धालेऽसतीमेतां बुधोर्जयेत् / सौख्यं दत्तेबहुविद्या, नद्धिः सा यन् निकेतमा // 45 // PI ना सन्ताननं सौख्यं, नापि सन्तानविज्ञता / समाजयोऽपि न तया, नैव तत्वपथादतिः // 46 // न सतां सङ्गमस्तस्य, सुखो धर्मधनो न सः / अनात्मनीन ऋद्धिमान, विज्ञे साध्विनीनता // 47 // Hऋद्धो दानाधिकारी स्याद्विज्ञः सर्वाधिकारखान् / ऋद्धो दर्शनदेशोत्को, विद्वान् सर्वशिवाध्वभाग- // 48 // द्रव्यप्रभावनाद्यर्थी, ऋद्धोऽखिलप्रभावनः / निखिलाचारगो बुद्धः, पञ्चाचारक्रियोद्यतः // 49 // विदुषोर्मातापित्रोवंशो भवतीद्धसत्त्वसंहननः। धर्मार्थकाममोक्षाः,सिद्धयन्त्येवं विगतबाधाः॥५०॥ उद्वाहोऽनेहसि प्राग्रेऽहयाईस्यान्यगोत्रयोः। शस्तस्तद्वान् भवेद्धर्म-साधनकमनाः सना // 51 // स्मारं स्मारं जिनगुणनिधि सर्वसौख्या 11800 वतारं, ध्यायं ध्यायं वचनममलं वादिगर्वाद्रिवज्र / प्रासं प्रासं निबिडदुरितं. पार्श्वपादावलम्बात्, कारं (PP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak TruslI Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HIN ::. ., पापभीतिः (29) : ... आगमो- I कार त्रिगुणरुचि भल्याति हर्षाधिरेषम् // 12 // नवसारे पुरे। पार्षप्रतिमास्थानपावने / अविक्रिया IS धैर्युक्ते, धर्मेऽतिमिषाधरैः // 53 // इति विकाइविधारः॥ ' :::: मापभीतिः - :: द्वारककृति सन्दोहे ... ... _lzen नवे सारै द्रङ्गे सकलजगदनङ्गीष्टजनने, प्रभुर्लेखानां दुनिखिलविपद्रविघटने / स्वरु पायध्वान्ते खरकर निभर्चिभवलता. (वनप्र)विदाहे.यो दावो दुरितहरणे ते जिन नतिः (नम:). // 1 // जीवाजीवनिः / रूपणकनिपुणं स्याद्वादविद्यालयं, जन्मान्तध्रुवजातजल्लनचणं दुर्चादिवृन्दोमंथे / निर्वाधोक्तिधरं शुभाशुभ: गतिज्ञामैकचिन्तामणि- जीयाच्छासनमाईतं भवजले निस्तारणकोडंप: शाभूतेभ्यो विसहर जीव-चैतन्याश्वि: तरूपभाक् / स्वसंवेद्यः प्रतिपाणि, सुखदुःखानुभूतिमान् // 3 // जीवत्वे सति' सामान्ये, न. दुःखा: दिविचित्रता / सत्या पाध्यक्षसिद्धेयं नापरकारणमन्तरा // 4 // वैचत्र्यं जगतो भ्रान्त, चेप्रत्यक्षं तदा अवि..।। नास्तिकोध्यक्षसिद्धोक्तिर्मवात्प्रत्यक्षलोपकः // 5 // अपन्हुवानः प्रत्यक्ष, चेद्भवानास्तिको पतः / अपलपस्त्वनध्यक्षं चाको नास्तिकः कथम् 1. // 6 // न. चाद्वैतमते कोपि; शास्ता शिष्यश्च वाङ्मयं / / जवा. :मानममानं वा, ख्यातोन्मत्ताहतस्य तु ॥७॥-आगासीनास्तिक श्रेष्ठो, जैमिनिः स्वर्गदर्शकः / पशून नेता मला- | दानां धर्मार्थ जनकस्तवा।। तत्रानातिरध्यक्षा, धर्मेऽभूत्पुण्यवर्जिते / निरीश्वरे निरध्यात्म जनि-व्यासेन त्वं तदा / ज.गोभूमोद्भवो जातु यवाधद्वन्तथा भवाम। कथं स्यादास्तिको येनाध्यक्षदृष्टमुपश्रयेत् 20 परमार्थेन चे अझैकत्वं नानृतं तकत् / द्रन्यस्य नास्त्यंभावोऽत्रेक्ष्यमागस्य जडस्य हि // 1.1 / / ज्यव- Musi PISM हारेतरौ मायौं, कथं / नेकान्ततामियानु: / यायाचेत्तन्मत: जैन, स्वीकृतं स्याठादपि // 12 // - HAPP.AC. Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak TrollNCIL. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो- तथाच शङ्करोऽभाणीघदेकस्मिन्नसम्भवात् / व्यावृणोच्छङ्करो यच्च, तत्सर्वं जल्पितं मुधा // 13 // तथैवासम्भ- पापभीतिः al वीयश्च; जलादेर्मनुजोद्भवः / मृत्तिकायाच दृष्टान्ता, नैकान्ते ब्रह्मणि हताः // 14 // द्वैतं वैराग्यप्रोन्मा- I द्धारककृति थीत्यद्वैतं श्रीयते त्वया / चेन तयन्मुधा ज्ञानं, न सद्वैराग्यकारणम् // 15 // वैराग्यमुदितं भद्र.!, बाह्येच्छात्याग-, सन्दोहे 'सङ्गतं / सद्वत्तबृंहितं विज्ञः, शान्तत्वं ज्ञानसङ्गतम् // 16 // औपचारिकमद्वैतं, चेन तत्सत्यमन्तरा।। // 49 // अर्थ तथा च नो भग्नो, विवादोऽद्वैतगोचरः // 17 // स्थूलाः सूक्ष्मा द्विधा धर्था-चेतनारहिता सताः। न स्थूलचित्रतासिद्धि-रन्तरा सूक्ष्मभिन्नताम् // 18 // तद्भेदो जीवपरिणामात्स च भिन्नस्ततः पुनः / बीजाङ्कुरनिभा 'क्षत्यै, नानवस्था मता सताम् // 19 // न कर्म निश्चलस्य स्यात्सिद्धेष्वपि तथा मतेः / अन्त्ये गुणे II तथाऽस्थाने, सादृष्टक्षयो हि न // 20 // तथानन्त्येषु सर्वेषु, गुणेषु कर्मवन्धनं / चाश्चल्यात्मत्रकृत् / आह, बन्धं तथैजनावधि // 21 // यदि स्यात्कर्म फलदं, नियतं न तदा भवेत् / दीक्षादि सार्थकं भोग्याभोग्यमेतत्ततो द्विधा // 22 // अभोगे सर्वथा दृष्ट, निष्फलं चेन्न तत्तथा। सर्व वेद्यं प्रदेशेन, भाक्त / तद्यद्विपाकतः // 23 // एवं च पूर्ववद्वानां, कर्मणामुदये सति / स्यात्क्रोधादेर्बलीयस्त्वं, हिंसादेश्वादरस्ततः // 24 // अत्र चाभ्यर्णसिद्धीनां, क्षेत्रादियोग्यताभृतां / शुश्रुपा गुरुसंयोगे, आईत्याः 'श्रवणं अतेः // 25 // il मीमांसनं यथावञ्चेसदा स्यात्पापभीलुकः / एष एव च सर्वेषां, भद्राणां भाजनं भवेत् // 26 // त्रिसन्ध्यमहतां पूजा, प्रत्यहं सर्वसम्पदा / शासनोद्भासन सम्यक्, फलदश्चेत् पापभीरुता // 27 // गुरुसेवा कृतिनित्यं दानं च सत्कृतिशुभा / शुश्रुषाविनयो भक्तिः, फ०। // 28 // दानं शीलं तपश्चापि, भावना भव्यपा| वनाः / साधर्मिकाणां वात्सल्यं, फ० // 29 / / सानां स्थावराणां च, हिंसात्यागस्त्रिभिस्त्रिधा। अमा- ISI 1149 // / रिपटहोद्घोषः,०॥३०॥ खल्लोषाऽसत्कारहीं-न्तरोदितिवर्जनम् / परपीडाकूद्वचस्त्यागः, // 31 // स्वामि-10 AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak'Trus Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भागमो. // 50 // Ki जीवजिनाचार्या-दत्तत्यागः सभावनः। कारणानुमती नास्य, फ०॥३२॥ वैक्रियौदारिकाङ्गानां, प्रवीचा | रस्य वर्जनं / त्रिभित्रिधाऽममीभावः, फ० // 33 // त्यागो गाय॑द्विषोः, पञ्चस्विन्द्रियार्थेषु वस्तुनः / पापभौतिः द्वारककृति- यमानुपकारस्य द्राक्, फ० // 34 // परिहारो निशाभुक्ते-राहारेषु चतुर्व पि / सन्निधेश्वारसाहारः, फ० // 35 // - सन्दोहे अभ्युत्थानमभिगमोऽञ्जलिः स्वसनं नतिः / अनुगमः क्रिया सर्वा, फ० // 36 // गृहेवस्थितिरारानयानमङ्गादिसंवृतिः। परेषां प्रेरणं नैव, फ० // 37 // वस्ते वासोऽनवं शीर्ण, कर्मादानानि संत्यजेत् / सकृत्प्राशुकमप्यत्ति, फ० // 38 // नान्यतप्तिन विपये, स्पृहा नो हिंस्ररक्षणं / अहोरात्रं श्रुते सङ्गः, DIF0 // 39 // रक्षन्मनोवचम्कायान, सामायिकत्रतातिः। क्षगकाले व्रतस्थायी. फ०॥४०॥ दिन पक्ष परं | दीर्घ, कालं स्यान्नियतो व्रते / सामायिकव्रतस्थो वा,फ० // 41 // सर्वथा पौषधं तिथ्यां, चतुर्धा विदधच्छूते। रतः प्रमार्जनालीनः, फ० // 42 // श्रद्धासत्कारयुक्छय्या-हृतिभैषजवस्त्रदः / यथाकालमनीष्यश्च, फ० // 43 // A युगमात्रविलोकी सैल्लोकक्षुण्णेऽध्वनि व्रजन् / सत्त्वं कश्चिन मर्दयति, फ० // 44 // मौनी मितोदितिर्वाचा, | सत्यसर्वप्रियोदितिः / वाचंयमवचोलीनः, फ० // 45 // द्विचत्वारिंशता दोपैभिक्षायाः पञ्चभिः शुचिं / / ग्रासे आहरन्नीरसं भक्तं, फ० // 46 // प्रमृज्य प्रतिलिख्यैव, गृह्णन्मुञ्चन् भियांहसां / संयमाङ्गं यदंगादि, IST फ० // 47 // शुद्धेऽजन्तौ तलेऽजन्तु, वस्तु जीवोद्भवो यथा / न, तथा व्युत्सृजेद्यत्नात् , फ० ॥४८॥न निजस्यापरेषां वा, चिन्ता विकालसम्भवा / समत्वे प्रवलं चित्ते, फ० // 49 // सञ्जानीते न कस्यापि, ब्रूयाद्वा नैव किञ्चन / अयथार्थ न वक्त्यर्थ, . फ० // 50 // आयात्युपसर्गसङ्घाते, न स्थानादिभिदा मनाक् / कायोत्सर्गक्रिया नित्यं, क० // 51 // क्षुत्तृट्छीतोष्णदंशारत्यङ्गनाचेलचारिताः। शय्यानषेधिकी10 याश्चाः,फ० // 52 // वधाक्रोशामयालाभतृणस्पर्शाऽऽदरागमाः / मलो मिथ्यात्वमज्ञानं, मित्यादि परीसहनं फल // 50 // :: | PP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust L . Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो. IN // 53 // तैरवो मानुजान् देवा-नात्मीयांश्च चतुर्विधान् , उपसर्गान् सोढवानात्मा फ० // 54 // दुर्जनोक्ति- II | पापभीतिः द्वारककृति- शराघातो, ज्वलितस्ताडनामिना / शान्तिं च विविधां विभ्रत् फ० // 55 // जातिलाभकुलैश्वर्य-बलरूपतपः. सन्दोहे श्रुतैः / सम्पन्नो मार्दवं धर्त्ता, फ० // 56 // पुत्रपौत्रादिनाशेपि, मरणस्यापि वागमे / क्षुत्क्षामो नार्जवं जह्यात् , फ० // 27 // त्यक्त्वा पुत्रकलत्रादि, धनधान्यालयादि च / विभृयान्न च कोपीनं, फ० // 58 // महाव्रतधरो धर्मी, समिती गोपने रतः। अभिग्रहे रतो घोरे, फ० // 59 // स्वाध्यायं विदधानोपि, चतुःकालं सदा ऋजुः / वाङ्मयानां जिनोक्तानां, फ० // 60 // षण्मासान्तं चतुर्थादि, तपः कुर्वस्त्य- II जन्समाः। विकृतीर्लीनकरणः, फ० // 61 // हा हन्त ! गर्भधरणं खलु दुःखहेतुः, स्वार्थैकलीनमखिलं जनकादि दृष्टं / पुष्टं शरीरमशुचीतिविचित्रभावस्तन्निष्फलं निखिलमेव न. पापभीतिः // 62 // विविधैर्वाक्यसम्भारै-भव्यसत्त्वान्विबोधयन् / सद्धर्माध्वन्यानयिता, फ० // 63 // प्रत्यहं स्वर्णराशीनां, दाता मार्दव| संयुतः। दीनानाथेभ्य आयाद्भ्यः , फ० // 64 // पापं दुःखकृदेव स्यात्, पुण्यादेव सुखोद्भवः।। | न तत्र कापि शङ्कवं, सर्वशास्त्रेषु संस्थितेः // 65 // कालकूटान्न कुत्रापि, जीवनं सुधया मृतिः। तथा | सुखोद्भवो नास्ति, पापादशुभपुद्गलात् // 66 // अनुग्रहोपघाताथै, कर्म तत्पौद्गलं भवेत् / आत्मनां काय-ल सम्बन्धो, यथादृष्टेऽप्यसौ तथा // 67 // पापोदयादेव हिंसा-द्यादरः पापसम्भवः / अरघट्टघटीयन्त्रेतिवद म भ्रान्तिर्मवेऽङ्गिनाम् // 68 // सिद्धिरस्य जिनोक्तत्वात्तत्त्वतोऽतीन्द्रियत्वतः। सर्वस्मिँस्तद्विधौ मानं, तादृशि | वचनं भवेत् // 69 // तथापि . दुःखिहिस्रादि-बाहुल्याद्विरलत्वतः। सुखिव्रतयुजां. दृष्टे-नुमान न किं भवेत? // 70 // सुषमारे सुखालीने, किमनेके न दुःखिनः / न च तदा पापोद्भवो भरि, न चासत्यं ततो. इदा // 71 / / कुर्वन्पापमपि प्राणी, चित्रं तेन न लिप्यते / पद्मपत्रं जले मग्नं, नाई पापभीरुस्तथा // 72 // // 51 // DIP.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 52 // IN अरुच्या विविधाहारं, भुञ्जानोपि न सुस्थतां / यया याति तथा लीनो, में पापे पापभीलुकः // 73 // आगमो त मोक्षमाप्नोत्यविस्तः, क्षपकश्रेणिमाश्रितः / पापभीर्यतिनैवानन्तशोपि न चेत्तथा // 74 // पापभीर्म- रात्रिभोजनद्वारककृति-सहारम्भोष्या अर्धासिध्यति ध्रुवं / पुद्गलावर्त्ततः साधु-र्न कोटीभ्रान्तितोऽपि च // 75 // श्राद्धानात्पाप- IN/ परिहारः सन्दोहे भीरुत्वं, श्रद्धानं धर्मकारणं / नाश्रद्धानो भवेद्मीरः, न कदाचित्तथेतरः // 76 // अविरतोपि यन्नेति, व परत्राशुभजन्मनि / प्रभावोऽसौ समस्तोपि, पापभीतेन चान्यथा // 77 // मैनिकाधा अवापुर्ये, केवलं विश्वISI वेदकं / पापभीतेरते तत्र, किमन्यत्कारणं भवेत् // 78 // मोषकः स्वामिविद्रोही, वनितायाश्च घातकः / तिरस्कर्ता मुनेः प्राप, पापमीतेः शुभां गतिम // 79 // उत्सृज्य सर्वनियना-नुपद्रोता विभोरपि / अवाप निर्मला जाति, तान्यत्किमु कारणम् ? // 8 // अनिघ्नन्याणिनं कश्चित् , कूपमध्यगतोऽपि हि / कालसौकरिको लिप्तस्तत्रान्यत्किमु कारणम् 1 // 81 // प्रत्यहं जिनभक्तोपि, महद्धर्था वन्दको विभोः। अवाप- HI | मरकं घोरं, तवान्यत्किमु कारणम् // 82 // अप्रधृष्यतपस्त्तप्ता श्वभ्रगोऽतिशयश्रुतः / कुरुटोत्कुरुयुगली, तत्रान्यक्किम कारणम् // 83 // उपस्रष्टा जिनेन्द्रस्य, भूरिजन्तुविहिंसकः / सम्यक्त्वं निर्मलं प्राप, कारणं तत्र पापभीः // 84 // इत्यवेत्य जिनराण्मतानुगाः, सद्गुणान्दुरितभीतिसङ्गतेः। प्रत्यहं | दुरितबन्धभीलुका, मानसं कुरु सत्पथानुगम् // 86 // इति पापभीतिः। रात्रिभोजनपरिहारः (26) रात्रिभोजनदोषज्ञा, नादन्ति घटिकाद्वये / दिनस्याद्यान्तके यस्मान, नक्तत्वेनाऽपि तन्मतम् // 1 // प्रत्याख्यानं नमस्कार-सहितस्य भवेत्तदा / तेनैव तन्निशात्यन्तो, गदितो देवसरिणा // 2 // मुहर्तमान- 1 // 52 // MP.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो. द्वारककृतिसन्दोहे पावनाथ // 53 // ताऽप्यस्य, तज्जघन्यतयेरिता / अन्यथा कालहीनत्वात् , साङ्केतिकं प्रकीर्तयेत् // 3 // नाप्यादित्योदयस्यार्वाक, al पञ्चासरकिञ्चिदवधिमद्भवेत् / उद्गतेऽर्के प्रतिज्ञादौ, येनोक्तं गणधारिणा ॥४॥न चार्कोऽप्युदितोऽदृश्यो-न्यत्रेत्य- II त्रोदयावधि / प्रत्याख्यानं यतः शिष्टः, भरतेऽर्कोदयः सदा // 5 // दिनमानं च स्वक्षेत्र-सूर्योदित्याद्य- पाश्वनाथ पेक्षया / सर्वैर्मतं ततो भानू-दयात्तद्घटिकाद्वयम् // 6 // निशाशनेऽन्यथा भङ्गा-तिचारौ कथमादिशेत् A स्तषः अस्मन्मते मुहूर्त्तान्त जिनो न द्वयं पुनः // 7 // मुनीनामपि शुद्धयेत् त-दिवाकरत्विषाञ्चितं / मार्ग चक्रमतामीर्या-शुद्धस्तदपि नान्यथा // 8 // तदुष्णरश्मेरुदयाद् घटिद्वय-मतीत्य भुञ्ज्यान्नियमार्द्रचित्तः। भङ्गः प्रतिज्ञात इहोग्रदोषकन् , मत्वेति भव्या दुरितं विजह्यात् // 9 // .. पञ्चासरपार्श्वनाथस्तवः (27) तं पञ्चासरपार्श्वनाथमनिशं स्तौम्याप्तवयं मुदा॥ आस्यं यस्य निकामशान्तिसुभगं युग्मं प्रसन्नं दृशोयोषित्सङ्गमवजितोऽङ्क उदितो योग्यासनः सस्थितिः। हस्तद्वन्द्वमशस्त्रमालममला निर्मोहता सङ्गता, |तं. // 1 // चञ्चचन्द्रकला निरङ्कविमलैश्चापोत्कटेशो नृपो, निस्सामान्यपदं गुणैरनुगतो नीत्यधिचन्द्रमभः। आर्चद् यं वनराज आईतमतप्रोद्भासनो भक्तितः, तं० // 2 // श्रीपञ्चासरतोऽनयत् नरपतिः शीलाङ्कसूरीशितुः, पादाब्जे भ्रमरायितो निजपुरे श्रीपत्तने नूतने / कृत्वाऽतिष्ठिपदादराज् जिनगृहं तत्राचिंचद् यं सुधीः, स तं० // 3 // श्रीजैनाकृतियुक्स्वमूर्तिमनघां राज्यादिचिह्नान्वितां, 'शीलाङ्कादिमरीश्वरेण निजके चैत्ये / मुदाऽस्थापयत् / यस्य श्रीवनराजभूप उदितार्हद्धर्मभावव्रजः, तं० // 4 // चन्द्राश्मोचितिबन्धुरं विधुर- // 53 // विप्रोद्यत्प्रभाव नभो-तिक्रान्तुं शिखरैरमानसिचयप्रान्तैः समुद्भासितं / चैत्यं यस्य चकार पत्तनपुरे चापोत्क P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 14 // टायो नृपः, तं० // 5 // तीर्थेषु प्रचुरेषु भ्रान्त इह हा! लोके मुधा नर्तितो, मिथ्याज्ञानकुवासनातरलितो आगमो मनोद्धारको वीक्षितः। संसाराम्बुधितारको जिनपविर्भाग्याद् य आप्तोऽधुना, तं० // 6 // शिक्षं नेतरतीर्थ-जिनस्तुतिः द्वारककृति नायकगणाः प्राप्ता यदीयाकृते-यस्तापाङ्गशो विमुग्धमतिका योषित्तनौ सायुधाः / रागद्वेषपरायणाः परिगता। मालाभिरनानिनः, तं० // 7 // अन्ये जगत्तनुभृतः प्रवितारयन्ति, क्रोधेन मानकपटविलोभनैश्च / यस्त्वात्म- 12 सन्दोहे रूपरमणो जगदीशरूपः,०॥८॥ हेत्वाभासभिद्रो जगाद निपुणं सत्यार्थतासिद्धये, नैकान्ताख्यमसिद्धताजुषमथो | तद्वद् विरुद्धामिधं / पञ्चास्य प्रविमेदिताः परमता येनाफ्नर्माहतो,तं० // 9 // हेतुं यो निजगाद वस्तुविधये साध्या| न्यथाऽमाधिनं, व्याप्तिं ज्ञातविभावितां प्रितथतालीढां समीक्ष्यात्मना / कैवल्येन यथायथं प्रकटितं सत्वेतरैः / संश्रितं,तं० // 10 // अन्ये चेतनतामुशन्ति परतो जीवेषु सम्बन्धत-चैतन्यस्य न तावतोऽव्ययपदे तेषां कथं ज्ञानिता ? / यस्त्वाहामतिपातिबोधकलितं जीवं पदेऽप्यच्युते, तं० // 11 // यस्मिन्नेति समुच्चयोऽक्षविषये / | हृद्येऽपि हृद्यपि चोक्त्यादीनां किमु तत्र नाखिलमतिश्चेतोऽर्थसंयोगतः। सश्चिन्त्येति यथार्थमाह विदितिं कर्मक्ष- IST RI यानाविनी, तं० // 12 // अन्ये देवपदान्विता जगति ते जीवाननेकान क्रुधा, मोहोन्मादभरैः प्रपञ्चनपरा IN IN/ लोभैविमूढाः स्वयं / यः शुद्धात्मदशां सदा-दधदरं भव्यात्मनां तत्पदा, त० // 13 // जिनस्तुतिः (28) . . यो योगिनामप्यवधेयवाक्यो, मौनीन्द्रदेवेन्द्रनताङ्घ्रिपद्मः। समस्तभावावगमो जिनेशस्वं स्तौमि S सम्यक्त्वविशोधनाय // 1 // अनन्तविज्ञानमुखा न ते के, स्तुत्या गुणा वेदविदां प्रकृष्टाः। बृचं समाऽदृष्टविनाशनोत्कं, स्तुत्यं च किं नान्तररातिशस्त्रम् // 2 // तथापि तीर्थेश ! यथास्थितार्था, वाचः स्तुवे ते ग्रमित // 54 // P.P. Ac Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीर्षशेषाः (आप्तजनत्व सिद्धथै) (न पक्षपातेन बुधैःश्रितोयत्) ताः स्वीकृतौ ते बुधवोत्यहेतु-रिमा न यद् रागवशं- आगमो. जिनस्तति: वदानाम् // 3 // न द्रव्यतो विश्वविधेर्विधाताहेतोर्नचोत्पत्तिविनाशता यत् / कर्मापि न प्राक् फलदं द्वारककृति-KI खतन्त्रश्चेदुःखहेतुः क इवोपकारी // 4 // प्राणा नृणां नेह विहीनसाधना [जलादिहीनाः] आदौ / सन्दोहे D कायोऽस्य कथं विधाता / शुद्धस्य लीला न न दुःखभावात, कृपा न बेच्छाऽनियताऽस्य नार्थः // 6 // लयेण्य-M भोगाद्विफलं स्वकर्म / कृतप्रणाशाकृतभोगदोषौ / जन्मन्यदृष्टात्सुखदुस्खलामे, ततः कथं तन्न यतोऽयमाल: // 6 // स्वकर्मनुन्ना अचलादिरूपा, जीवास्ततो लोक इहास्तु तत्कृतः / स्वर्गापवर्गावुपदेशतोऽध पातोऽन्यथेत्थं विहितास्तु भक्त्या // 7 // पर्यायतोऽयं तु कृतो मतो यत्, सामादिनीति: कुलकुत्प्रयुक्ता-आत्मेश्वर या निजकर्मनुन्नः, कर्ता समन्ताद् यदयं व्यरीरचत् ॥बा आराधितोऽयं विधिवद्विदध्यात, मृति विराद्धस्तु भवं चतुर्धा / आराधना तत्र रतिर्जडे तु, विराधनैवत् समयाब्धिफेणः // 9 // द्रव्याद् गुणान व्यतिरिक्तरूपा, न धर्मधर्मित्वमिहास्ति भेदे / न चाप्यभेदे मिलितं द्वयं तव, सत्या तवोक्तिः सुनयेव / सिक्ता // 10 // न योजिताः किन्तु तदुद्भवास्तेऽङ्गलौ यथर्जुत्वमुखाः समक्षं / शब्दो गुणो नैव समीर-17 वाहा-नुगोऽयमक्षे गुणबाधकर्ता // 11 // ग्राह्यो न चैष श्रवणेन यनो, गुणे क्रिया नैव वियच्च तद्वत् / / नान्तोऽस्य खं सर्वगतं स्मृतं यत् , शब्दाच शब्दप्रभवं गदन्ति // 12 // धर्मेतरौ नैव गुणौ यतस्ता-वनु ग्रहे बीजमथोपघाते। आकाशमेतद् गुणवन्न दृष्ट, युक्ताविमौ भूतमयौं भवाङ्गम् ॥१शा वियातको हौ नं परस्परं च, एकत्र युक्तौ जडतोष्णतावत् / गुणौचितीदं परिभाननीयं, तस्वार्थसिद्धि नहि पक्षपातात् // 14 // व्याप्तोऽयमात्मा निखिलेपि विश्वेऽदृष्टं तु यत्रैव कृतं च तत्र / भोगः कृतः केन गतं क्षयं किं, विडम्बने IN . यं वितथार्थवादे // 15 // ज्ञानादिवनात्मगुणः शरीरे, विकारदर्शी न च रूपहीनं। अभ्रादिवत्तद्विलयो IN | PP.AC.Sunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बागमो. द्वारककृति - सन्दोहे // 56 // दिगादे-रियोचितो नेति च भौतिकौ तौ // 16 // संयोगे गुणता क्रियानुभवनं प्रोश्येतरस्मिँस्तथा, भावार्थो न विचार्यते यदि तदा स्वेच्छाप्रलापों न किं ? / जन्यं कर्म न कर्मण इति मतेराकुश्चने दुष्टता, A जिनस्तुतिः जातं तन्न किमंशतोऽशिनि यतोऽस्याङ्गीकृता कर्मता / // 17 // गुणकर्मणी अभिन्नौ भिन्नौ च स्यांविशेषणोत्पत्तेः। नैकान्तेन हि किचिल्लोपः सद्यो व्यवहृतेः स्यात्तु / / न च समवायायोगः कल्पितताऽस्येयताऽक्षतः सिद्धा। | न लाघवात्पदार्थः क्वचिद्भवन्केनचिदृष्टः // 18 // . जिनस्तुतिः (29) * वन्दे नम्रसुरासुरेन्द्रसमिति कैवल्यचेतोमयं, जीवाजीवनिरूपणैकनिरतं मोदादिदोषोज्झितम् / श्रीमन्तं जिनराजमच्युतगतिं ब्रह्माणमीशं स्मरो-द्रेकत्यक्ततनुं सदा शममयं सर्वाङ्गिसातङ्करम् // 1 // परोपकाराय जिन ! त्वदास्या-दाविर्भवन्ती त्रिपदी गणेशम् / अवाप्य मिथ्यात्वमगं प्रमथ्य, तीर्थ पुनाना वितताङ्गवाहा // 2 // जिनेश ! तच्छास्त्रमुखे त्वदीयगणेशगा विनमपाकरोति / स्मृतिर्न विद्या फलतीद्धकार्या-धिष्ठातनत्या रहिता जगत्याम् // 3 // समाप्यते नाथ ! भवाङ्गिभीतेर्मेत्त त्वदीयागमपाठनादि / न चापरेषां मनसा भवेत्तत्पारः कथं तद्द उदीर्णबोधः // 4 // विघाभावाच्छास्त्रसम्पूर्णताऽऽद्यात् , स्थैर्य मध्याचान्तिमात् शिष्यवंशे। वाहो नामात्ते त्वदृक्ताश्रितानां, सत्यः स्वामिन् स्वाश्रिते ते प्रभावः // 5 // भावाः सर्वे ! स्वेन रूपेण सन्ति, सत्ता नैषामन्यरूपेण विश्वे / तत्ते शास्त्रे वस्तु भावेतराढयं, न स्वीकुर्यात्सोऽपि तत्पक्षपाती // 6 // (कुर्यात् कार्य सैकतोऽशेषमिष्टम् ) धर्मांस्त्यक्त्वा धर्मिणो नैव लोके, तत्तेऽन्योन्यं मिलिता इत्युवाच / // 56 // युक्त्येष्थ्योक्तं ज्ञानशून्या न चैवं, ब्रूयान्मार्ग सत्यमन्धो न मत्तः // 7 // न कल्पितो भाव इहोदितस्त्वया, व्य- II PP.AC. Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trum Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INI धायि भावस्य न चाप्यपाकृतिः। विकल्पनाते जिनवाग यथास्थित-पदार्थवादप्रतिबद्धलक्ष्या ॥८॥न पुद्गलानां Dil इडरनगआगमी KI विभिदा मिथोऽस्ति, यतः परावृत्तिभृतः सदैते / तन्नायथार्थ प्रविभागमाख्य-स्त्वं शेषवादीव सुरेन्द्रपूज्य ! ॥९॥शान्तिनाथ द्धारककृति छायातमस्त्वे प्रतिपद्यमाने, द्रव्ये तपोद्योतसमे न लुप्ते / अनन्तभावं प्रतिभावमाख्यन् , कथं विभो ! NI स्तषः सन्दोहे ते न समग्रवित्ता ? // 10 // न भिन्ना दिग् व्योम्नः परमपरमस्तीह नभसो, बहोरल्पस्याप्तेरनुगतिरथो मूर्त निचितेः / न सर्वत्रार्केन्दू निजभवनवृत्तिस्त्वखिलगा, न पृथ्व्यब्वाय्वग्निप्रह( ते )तमसुभिर्देहिभिदितम् // 11 // वायुर्जलीभावमुपैति योगात्, तत्पार्थिवं बीजमुखप्रयोगात् / नरादितां च ज्वलनस्वभावं, ! विचिन्त्य नाख्यो विभिदां तदेषाम् // 1 // मनुष्यमुख्य भवने विभिन्नो, जन्मी कमेः शक्तिविभेदभावात् / तथा मिथोऽमीषु समेत्य सार्व ! ब्रवीषि जीवान् रसमङ्ख्यकायान् // 13 // सर्वे प्राणभृतः स्वभावभवनाः सज्ञाप्तिदृष्टिवतै-युक्ताः कर्मविभेदतोऽचलपदे प्राप्तप्रतिष्ठास्त्विमे / शुद्धाः कर्ममलीमसा भवपथे पान्थाः IN समाहत्य ते. सूत्रोक्तं दरितं विभिद्य पदवीमापुः परां शाश्वतीम् // 14 // न ज्ञप्तिकायें विभिदा IN IDII प्रमायास्तत्त्वेन नादृष्टहतौ चिकीर्षा-कतिर्न तन्वा रहिते नचात्मा, जडोऽस्ति कश्चित्तव तीर्थनाथ // 15 // आत्मा ज्ञानसुखानन्त्य-युक्तस्तत्कर्मकर्त्तरी / दीक्षां भव्यो भवोद्विमोऽधात्ते ज्ञप्तिसुखोन्मुखः // 16 // इडरनगशान्तिनाथस्तवः (30) श्रीमन्तं जिमशान्तिमिड्डरनगे भक्त्या स्तुवे तं सदा // आदौ यद्वचनामृतं सुमनसां लभ्यं निमेषोIS मिषै-राहित्ये हृदि सुस्थिरे कलुषतात्यक्ते शुभे जीविते। पुण्यौधेन विनिर्मिते विबुधताजन्मन्य जस्रं रयात् , श्री• // 1 // तत्वातचविचारणैकचतुरः प्राप्नोति यस्माद्धनान् , चिन्तारत्नसमान् विवेकविभवान // 5 // VIP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो. स्तवः * // 58 // र्थान् मणीनां गणान् / तत् स्याद्वादविबोधकं जिनपर्यस्यारत्यन वचः, श्री० // 2 // मूर्तिर्यस्य न योषिता | परिगता व्याप्ता न चास्नाकरै-ौलाभिन च मालितं करयुगं दृष्टया प्रसन्नः प्रभुः। रागद्वेषविमोहमुक इडरनगद्धारककृतिप्रतिपदं पूज्योऽमरेशैः कजैः, श्री० // 2 // येनादेशि समस्तसत्त्वनिकरे रक्षामयः सद्वृषो, हन्त्येषोऽङ्गिचयं AI शान्तिनाथ स्वयं न न परैस्तं घातयत्यात्मना / मन्तं कश्चिदपि प्रमादकलितं नैवानुजानात्ययं, श्री० // 4 // सत्या वाच सन्दोहे उदीरिता गुणपदं त्यक्तं परस्वं सदाऽ-दत्तं स्त्रीपरिवर्जनं धनकणस्वर्णादिसङ्ग जहौ। त्रेधा त्रैवमिति प्रमादविकलो यथोर्णवान् सव्रतं, श्री० // 5 // क्रोधः सत्क्षमया यदि प्रथमतो. दूरीकृतः सर्वथा, मानादीन् प्रसभं जघान किमिति निष्क्रोधमा गतः। सत्यं बीजमशेषमुद्धृतमुदासीनेन येनैनसः, श्री॥६॥k | त्यक्त्वा मोहमुपाजगाम नितरां ख्यातं मुनित्वं यथा, ज्ञानाद्यावृतिरस्तमाप निखिला किं भिन्नतूद्भवा / / | मिथ्यैतन्न न यत्समीरणमृतेऽनिस्तेन यः सर्ववित् , श्री० // 7 // यः सर्वज्ञतया मतां न विदुषोपेत्यात्म| पक्षं ननु. किन्त्वन्यादृशमन्त्यपुद्गलजलध्वन्यभ्रकालात्मगाम् / वीक्ष्यान्यैरहतां विदं प्रतिपदं ज्ञानी मतः | सर्वगः, श्री० // 8 // सत्यां यो गतरागतामधिगतो जीवातुरूपं चिदः, प्राणिभ्याऽपि दिदेश तत्पढ़करं | | हेतुव्रजं प्रत्यहं / जाता तेन विरुद्धता न परवद्वाकायवृत्त्योः क्वचित्, श्री० // 9 // मूर्छा कर्मकलङ्क| संहतिकरी निर्धूय शुद्धात्मता-माप्य स्थापितवान् यको भविहितं तीर्थ विरोधं त्यजा / यः साधुपभृतीन | शिवैकनिरतान् संस्थापयन् सत्पदे, श्री० // 10 // योगान् द्वन्द्वपदं विहाय जिनराट्र शैलेशितामाप्तवान, तत्रापि प्रविपातितोऽधनिकरो मोक्षं च यातोऽक्रियः / इत्यन्योऽन्यविरुद्धवृत्तमगमद्यः स्वात्मसामर्थ्यभाकू, श्री० // 11 // यद्धेयः चरमे गुणे शिवपदप्राप्त्यै पराथं कृतं, तीर्थेशादिपदावलीनतिमुखामाराध्य शुद्ध क्रियां / येनान्याङ्गिहितोडुरेण जनिफु प्रास्तस्वसाध्यं मुद्रा, श्री० // 12 // यः कर्माणि निरास सिद्धि // 58 // INP.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्तिकम् आगमा- ISI विधये सौख्यपदान्यन्वहं, स्वात्मारामभवं न पुद्गलकृतं यत्तत्सुखं साधितुं / आलोच्याप्रतिघातिघाति- पञ्चसूत्रद्धारककृति विषयं भेदं शिवे संसृती, श्री० // 13 // यः संसारनिरासमद्भुततरं कृत्वा शिवं लब्धवान, साद्यन्तेन IN विवर्जितं सुखमयं साध्यं पदं धर्मिणां / जन्मव्याधिनरान्तकादिरहितं चिढ्स्व रूपं स्वयं, श्री०॥१४॥ सन्दोहे इत्थं सत्रसुखालिसाधनपरो बिम्बेन साक्षात्मभुः; शान्तिः स्वेन कलङ्कलेशरहितः स्तुत्यः सुरेशावलेः। // 59 // शान्तिप्राप्तिविधौ सदा प्रगुणतां धत्तेऽद्रिशृङ्गे स्थितो, नीतः स्तोत्रपदं . सनाऽमृतपदं स्कानन्द-12 प्राप्त्यर्थिमिः // 15 // पञ्चसूत्रवार्तिकम् (31) वीरं विश्वेश्वरं नत्वा, बालानां बोधहेतवे। टीप्पणं पञ्चसुत्रस्य, यथावगममुच्यते // 1 // भगवद्भयोHऽहद्भयो नम इत्यभिधेयं, एकमविकबद्धायुष्काणामहतां न व्यवहारेण सर्वेषां नमस्करणीयतेति मोक्षगा म्यन्त्यभवस्थाहग्रहाय 'भगवद्भय' इति, भगवत्ता च शक्रस्तवप्रोक्तादिकरत्वादिगुणसम्पत्पककलितत्वेन समग्रेश्चर्यरूपयश:श्रीधर्मप्रयत्नातिशयवस्चात् / एवं भगवत्तयाऽहंतो नत्वा परमेष्ठितया नमनार्य भावान्त्य | रूपमतिशयचतुष्कं वीतरामेभ्य' इत्यादिभिर्दशितम् / स्वसमये एवमेवातिशयानां भावाईन्त्यनिबन्धनानां IH Dil भावात क्रमश्चतुर्णी, नहि. क्षपिते मोहरूपे क्षपक श्रेणिप्राबल्येनापाये मस्तकशूचिनाशे तालनाशवत ज्ञानाव रणीयादीनां प्रयाणां नाशोऽसम्भवी चिरकालान्तरितो वेत्यवश्यं वीतरागत्वेनावाप्तापायापगमातिशया अर्हन्तः सर्वज्ञा एव भवन्ति, तथापि जिनभवे उपशमश्रेणेरभावात् क्षपकच्छमस्थवीतरागा एवार्हन्त इति वीतरागा- I // 59 // वस्थानाप्तेरवन्तरमवश्यं सर्वज्ञा एक ते इति 'सर्वज्ञेभ्य' इत्यनेन द्वितीयो ज्ञानातिशयः प्रतिमादितः। IP.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 6 // सावश्यं चाभ्युपगन्तुमर्हा जैना एव, यतः प्राक् तावत्ते जीवं ज्ञानमयमभ्युपगच्छन्ति / ज्योतिर्मय इव | आगमो- प्रकाशः। अपरे तु शरीरेन्द्रियविषयोत्पन्नस्य ज्ञानस्याधिकरणमात्मानमभिमन्यन्ते, न चानन्तेनाप्यनेहसा- IN पश्चसूत्रद्वारककृति ज्जन्तानन्तसङ्ख्याकसर्वद्रव्यक्षेत्रकालभावानां बोधो भवितुमर्हति, न चालौकिकप्रत्यक्षगम्यान्य(अ)शब्दवर्ण- बार्तिकम् | गन्धरसस्पर्शाः पदार्था गम्या इन्द्रियाणां / एवं च यदपरैरात्माद्यतीन्द्रियं वस्तु प्रत्यपादि स्वस्वशास्त्रेषु, / सन्दोहे / तत्सर्वं भगवद्भिर्जिनेश्वरैरेवालौकिकप्रत्यक्षोत्तमकैवल्यधारिभिरेव साक्षादवलोकितं, तस्माद्यदनन्तांशोऽभिINI लाप्यानां गणधरैः श्रुत्वा भगवदेशनां द्वादशाङ्गे श्रुतरूपे निबद्धः, तदनुकारेणैवान्यैः स्वस्वशास्त्रेष्वात्माद्या il अलौकिकप्रत्यक्षगम्याः पदार्था निबद्धाः। अत एव मुष्ठूच्यते-'सव्यप्पवायमूलं दुवालसंग मिति / किञ्च| जैनानामेव सार्वक्ष्यस्वरूपाः सर्वे जीवा इत्यभ्युपगमः, यतस्ते तदावरणीयं ज्ञानावरणीयं कर्माभ्युपगच्छन्ति, | अभ्युपयन्ति यथाक्षयोपशमं तस्य देशज्ञानानामाविर्भाव क्षपकश्रेण्या निहत्य मोहं तद्घातप्रभावेणेव निहत्य A | समूलं ज्ञानावरणीयं केवलज्ञानस्य सार्वज्ञ्यापरपर्यायस्याविर्भावं / ततः साश्यमभ्युपगन्तुमर्हा जैना एव, नापरे / इति / तादृशा निर्मोहा अलौकिकसर्वप्रत्यक्षज्ञानवन्तश्च भगवन्तोऽर्हन्त इति मोहमहारिविष्टब्धान्तःकरणेदेशतोऽलौकिकप्रत्यक्षज्ञानधारकैः सेव्यन्तेत एवेन्द्रः, यतस्ते गुणबहुमानिन इति / अपरे तु इन्द्रादेशकरानपि देवान् प्रसादयितुमिच्छन्ति, तदर्थ स्तुवन्त्यपि चानेकथा। भगवन्तोऽर्हन्तस्तु न देवादितुष्टिप्रेप्सवः, न च ति | तत्साहाय्यमपि स्वीकुर्वन्ति, प्रसिद्ध श्रीवीरस्य ततिमुपसर्गाणां निवारयितुं कृतेन्द्रेण विज्ञप्तिरवमता भगवतेति / पठ्यते च-'तस्मादर्हति पूजामहन्नेवोत्तमोत्तमो लोके। देवर्षिनरेन्द्रेभ्यः पूज्येभ्योऽप्यन्यसत्त्वानाम्' // 1 // किञ्च-लोकानुभाब एवैष-यदुत्पन्नकेवला अर्हन्तो देवेन्द्रः पूज्या एवेति / अत एवाभावितां पर्षदं देवमयत्वात् ज्ञात्वा भगवान् महावीरः क्षणं स्थितवान, यावता देवेन्द्राः केवलज्ञानोत्पादकल्याणकोचितां पूजां प्रतेनुः, P. Ac. Gunratnasuri M.S. // 6 // Jun Gun Aaradhak Trust - 141 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IN चचाल च पूजाक्षणसमाप्तेरनन्तरं रात्रावपि मध्यमामपापां प्रतीति भगवतामर्हतां देवेन्द्रैः कृता पूजा / | पञ्चसूत्रआगमो KI या प्रातिहार्याष्टकसमवसरणाद्यैः सार्वइये, मागुत्तरमपि च्यवनजन्मदीक्षामोक्षकल्याणकेषु यथायथं सा. बार्तिकम् द्धारककृति जिननाम्न उदयादेव / अत एव ‘धम्मदेसणाइहिंति पाठः। आदिशब्देन पूजादेराक्षेपश्चोदीरितः / सन्दोहे | शास्त्रकारैरनेकत्र / अत एवाविच्छेदेन प्रातिहार्याष्टकेनाहतां विरचनेऽप्यभूतपूर्वसमवसरणस्थाने इन्द्रायाः / // 61 II रचयन्त्येव देशनायै अर्हतां समवसरणं, तथाकरणेन च जिननाम्न उदयाजगज्जन्तुजातोद्धाराय प्रवृत्तानां / भगवतामर्हतां स्यादेवानुकूल्यं / रचितायां च समवसरणपूजायां क्षीणकषायो सर्वज्ञोऽर्हन् विदधाति एव / | धर्मदेशनामिति देवेन्द्रपूजातिशयादनन्तरं यथास्थितवस्तुवादित्वपदद्वारा भगवतामईतां . वचनातिश्यस्य al कीर्तनं सङ्गतमेव, सर्वज्ञानामेव भगवतामहंतामशेषरूप्यरूपिमुक्ष्मेतरान्तरितदूरादिपदार्थानामलौक्तिकसर्व प्रत्यक्षेणावलोक्य देशनात् सम्भवति, न शेषाणां, तथाज्ञानाभावादिति / न च वाच्यं 'यथास्थितवस्तु| वादी'त्यन्त्येन भावाईन्त्य निबन्धनानां चतुर्णामपायांपगमादीनां कीर्तनात् व्यर्थ 'त्रैलोक्यगुरुभ्य' इति | पदमिति / यत एते भगवन्तो यथास्थितानि वस्तूनि स्वयं वदन्तोऽपि न केवलं समवसरणमुपेता- IN नामार्याणामेव धर्मदेशनां कुर्वन्ति किन्त्वन्नाम्न एक प्रभावतो वाणी भगवतामष्टादशदेशीभापामिश्रतया स्वरूपेणार्ध / | मागधभाषामय्यपि सन्ती देवानां देवीतया अनार्याणामनार्यभाषातया आर्याणामार्यभाषातया यावत्तिस्थामपि तिर्यग्भाषातया परिणमति / तत एव जगदुद्धारकरणप्रवृत्तिर्जगद्गुरुता च भगवतामर्हतां भवति / / ततश्च वस्तुतस्त एव त्रैलोक्यगुरखो, नापरे मृषाविरुदधारिणः कतिचिनरमात्रावगम्यभाषाभाषका इति / आवश्यकतैव त्रैलोक्यगुरुभ्य' इति पदस्य पञ्चमस्यापि, परं न तत् स्वतन्त्रोऽतिशयः, किन्तु / // 6 // यथावस्थितवस्तुवादिपदस्यालङ्कारभूत इति / वस्तुतस्तु 'रागाद्वा द्वेषाद्वे'त्यादिवचनप्रामाण्यात् वीतराग KOP.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ भागमोद्वारककृति सन्दोहे . // 62 // द्वेषमोहानां वीतरागाणामेव सत्यवादित्वेऽधिकारः / तत्रापि सार्वश्यभावे अलौकिकप्रत्यक्षगम्यानामात्मादीनामतीन्द्रियाणां मोक्षावसानानां वचनं स्वतन्त्रतयोच्यमानं न कदापि निश्चितसत्यं स्यात् , तत आवश्यक सार्वयं, सत्यपि तस्मिन् आदेयता लोकानां तदैव स्याद्यदा.. स्यादिन्द्रादीनां पूजास्पदमिति कृतायां कन समवसरणरूपायां पूजायामवश्यमहन्तो देशयन्ति स्वस्वभाषागामिन्या भाषया धर्ममिति क्रम एषोऽविच्छेद्यो भावार्हन्त्यातिशयानामिति / प्रस्तुते पापप्रतिघातगुणवीजाधानरूपे आये सुत्रे प्रायेणादिधामिका एव 'सदन्धमार्गगमन'न्यायेनाधिकारिण इति तेषामित्थम्भूतमेव प्रणिधानमादौ योग्यमिति स्पष्टतया-1 भावार्हन्त्यनिबन्धनमतिशयचतुष्कं कथितमिति / एवमादिधार्मिकाणां प्रणिधानस्यादाववश्यङ्करणीयत्वान्न त क्रियापदेन क्त्वान्ताव्ययेन नमस्कारः, किन्तु द्रव्यभावसङ्कोचवाचिना पूजार्थकेन नम इत्यव्ययेनैव / तथा च नेदं शिष्य शिक्षायै मङ्गलं, किन्तु ग्रन्थस्यादावाचरणाय मङ्गलस्येदं सूत्रं नम इत्यादितोऽरिहंताणं भगवंताणमित्यन्तमिति / यदि च स्यात् तेषां मोहनीयापायानां स्वरूपभेदरोधादिषु क्षपकश्रेणौ ज्ञानानां स्वरूपे केवलस्य सर्वद्रव्यादिविषयसकलस्पष्टप्रत्यक्षे देवलोकतदधिपेन्द्रतत्कृतभगवदर्हदतिशयसन्दोहस्वरूपे | जीवादीनां पदार्थानां यथार्थत्वे तथाविधवादाय स्याद्वादस्य स्वरूपे स्वस्वभाषापरिणामस्यावश्यकत्वे : विशेषज्ञाने जिज्ञासा तदा तत्तत्पदार्थस्वरूपनिरूपकाणि तन्त्राणि तेषां तेषां श्राव्यानि / यतस्तथाविध- KI तत्तत्तत्राणां सम्यक् परिभावनात्तेषां तेषां 'भाविजंतं तु तंतनीईए / सइयपुणबंधगाणं कुग्गहविरहं लहुं कुणइत्तिवचनात् सकृद्धन्धकमार्गाभिमुखमोर्गपतितमार्गानुसारिणां सर्वेषां तत्तत्तन्त्रपरिभावनया कुग्रहविरह-| भावात् / न च वाक्यं वाच्यं यदुत-सकृद्वन्धकादेरादिधार्मिकतयोक्तिः सा बाधति / यतः 'शेषस्याप्युपचारतः / इत्यस्य व्याख्यायां शेषशब्देनापुनर्बन्धकविलक्षणसकृद्वन्धादेरेव पूर्वसेवादावधिकारितया ग्रहणादिति आवश्यक-12 P.P.AC.Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak True IYAN Al // 2 // Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NO 63 // आगमो- ISI मादिधार्मिकाणां शास्त्रसम्यक्त्वं तदर्थ च तत्तत्तन्त्रपरिभावनं, तन्त्राणां च शुद्धिर्वक्तशुद्धिसाध्येति स || पञ्चसूत्रहारककृति भावार्हन्त्यनिबन्धनातिशयचतुष्टयवत्तया भगवतामर्हतां नमस्कारः। एवं च नात्र प्रेक्षापूर्वकप्रवृत्तिमतां वार्तिकम् हिताय कथयितुं योग्यस्यानुबन्धचतुष्टयस्यावयवरूपेण मङ्गलतयाऽयं नमस्कारः, किन्तु शास्त्रसम्यक्त्वार्थ / सन्दोहे तन्त्रपरिभावनस्यावश्यकत्वात् तद्वक्तशुद्धिज्ञापनपूर्वकभगवदहत्प्रणिधानार्थोऽयं नमस्कारः। अत एव च | 'जे एवमाइक्खती'त्येवंरूपमग्रेतनं यत्पदाङ्कितं प्रोक्तस्वरूपभगवदहदुद्देशकं सूत्रमिति / तथाच नैष समग्रप्रकरणस्य पापप्रतिघातगुणवीजाधानरूपस्याद्यस्य सूत्रस्य वा मङ्गलार्थको नमस्कारः, किन्तु जीवस्याना- 1 दिकतादिप्रतिपादकतंत्रस्य सम्यपरिभावनार्थ तद्वक्तृशुद्धिज्ञापनार्थोऽयं भगवदर्हत्स्वरूपनिरूपणपूर्वको | नमस्कार इति प्रमोदभावनास्थानमेवतेऽर्हन्त इत्यादरस्यावश्यकतादर्शनार्थ च नमस्कारः, गुणवदुपबृंहणादेरकरणस्यैव दर्शनाचारातिक्रमरूपत्वात् , तथाविधोऽपि कृतो नमस्कारः 'एसो पंचनमुक्कारो' त्यादिना सर्वपापनाशप्रथममङ्गलहेतुतयाऽऽर्षसमाजे निश्चितत्वाद्विघ्नविद्रावणेष्टसिद्धिहेतुर्भवत्येव, यथा कश्चिदप्येकमर्थ-12 माश्रित्य कृतो दीपोऽर्थान्तरप्रकाशायोपयोगी भवत्येव, तथा प्रमोदार्थकोऽप्येष नमस्कारो मङ्गलार्थको | भवत्येव / 'जे एवमाइक्खंती'तिनिर्देशाद् भगवदर्हत्स्वरूपख्यापनार्थमेवैतत् सनमस्कारमपि सूत्रमिति | धीधनैः सूक्ष्मधियोद्यमिति / तार्किकाणां वचनविश्वासेनैव वक्तुर्विश्वास इति सम्भवेऽपि यदत्रादौ वक्तुर्भक्त्युत्पादनाय विश्वासस्योत्पादस्तदादिधार्मिकत्वेन श्रद्धाप्रधानत्वात् / अत एव चोद्देशात्नाग्निर्देश इति / एवं भगवत्स्वईत्सत्पाद्य वक्तृषु विश्वासमथ तद्वचनमाह-'जे एवमाइक्खंती'त्यादि / एकस्यैवाईत एकदा भावे वक्तुरप्येकाकिन एव भावेऽपि यदत्र 'जे एवमाइक्खंतीति बहुवचनं,, तत्- 'नानीदृशं I कदाचिजगदिति न्यायात् सर्वदा जगतो जीवादिमयत्वात् सर्वकालीना अपि भगवन्तोऽर्हन्तोऽविषमरूपP.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trul! Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 6 // तयैव जीवादितत्त्वख्यायिन इति दर्शयित्वा सर्वक्षेत्रकालभुवां भगवतामर्हतां समग्ररूपणा जीवादितत्त्वआगमो. सङ्गतेति दर्शनार्थ / ततश्च न हि देशक्षेत्रादिभेदेन जीवादीनां स्वरूपभेद' इति साधितं / आदिधामिकाधि- / द्वारककृति- कारादेव 'आइक्खंती'त्येतावन्मात्रमेवोक्तं, न भासंतिप्रभृति। आख्यान-भाषण-प्रज्ञापना-प्ररूपण-दर्शनोपदर्श- वार्तिकम् नानामेवं भिदा-यथा धर्मो मङ्गलमित्याल्यानं, भावधर्मत्वादुत्कृष्टं मङ्गलमिति भाषणं, अहिंसासंयमतपसि सन्दोहे म तद्भेदाः स्वरूपं चेति प्ररूपणा, सातिशया जगतां देवा इति जगत्प्रसिद्धिमनुसत्यः धर्माध्यव सायिभ्योऽपि सदा देवा नमस्यन्तीति प्रज्ञापना, 'जे लोए संति साहुणो'त्युक्त्वा धर्माध्यवसायप्रधान-2 त देवपूजास्पदसाधुसद्भावदर्शनं दर्शनं, पश्चात्तेण वुच्चंति साहुणो' ति सर्वोपसंहारं कृत्वा कथाया विराम उपa दर्शनमिति / अन्यत्राप्येतदनुसारेण बोध्यं बुद्धिमतेति / श्रोतृणां विशेषावधानाय जीवानां वक्ष्यमाणस्वरूपेषु | भागेव 'जे एव'मित्याद्याख्यानं, आदिधामिकत्वादेव. नादावावश्यकमपि जीवानां सचं प्रमाणादिना | साधितं, न च तेषामनादित्वादिस्वरूपस्यापि प्रमाणादि न्यस्तं, तेषां हि स्वभावत एव जीवानामस्तित्वाद्यागमगम्यमेव, तथा च आगमगम्यानामपि सति दृष्टान्तसाध्यत्वे दृष्टान्तेन साधनमावश्यकं, एष एव / चाराधनाविधिः कथाया इति / सत्यपि दृष्टान्ते 'यो यथा बुध्यते जन्तु'रित्युक्तिमाश्रित्यात्र जीवानामस्तित्वानादित्वादिकमागमगम्यतयैव प्रतिपादितं, विचित्रत्वादादिधार्मिकाणां / यदि केषाञ्चित्तेषां स्याजी-त वानामस्तित्वाद्रिसिद्धौ जिज्ञासा तदा साऽवश्यमेव पूरणीयेति / जीवानामस्तित्वसाधने आदान 1, परिभोग 2, योगो 3, पयोग 4, कपाय 5, लेश्या 6, श्वासे 7, न्द्रिय 8, बन्धोदयनिर्जरा 9, लक्षणा हेतवः अयस्कार 1 कूर 2 परश्च 3 नि ४सुवर्ण 5 क्षीर 6 नर 7 वास्या 8 हारलक्षणैदृष्टान्तैम्पबृंहिताः त्रिकालबिषयबोधरूपचित्तप्रत्यक्षरूपचेतनाऽनुस्मरणरूपसद्भाऽनेकभेदविज्ञानसङ्ख्येतरकालीनधारणाऽर्थोहा- I // 6 // / !P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak True Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसूत्र आगमो. | रूपबुद्धिचेष्टारूपेहाऽर्थावगमरूपमतिसम्भावनारूपतर्करूपजीवाभिन्नगुणरूपाणि .. साधनानि दर्शनीयानि / द्वारककृति- अहंप्रत्ययाज्जीवविषयकसंशयाच्छुद्धशब्दत्वात् प्रतिनियताकारशरीरविधानादपि जीवानामस्तित्वसाधनं / सत्त्वा- वातिकम कारणाविभागात् कारणानाशादकारणसत्त्वाच्च नित्यत्वं प्रसाध्य भवकारणपारम्पर्येण चानादिभववचासन्दोहे साध्येति / आङ्गा ख्यातेविशिष्टता तु प्रमाणनयनिक्षेपसप्तभङ्गीसापेक्षं स्याद्वादमर्यादयार्थकथनस्य ज्ञापना। // 65 // तेन कश्चिन्नित्यानित्य-भिन्नाभिन्नादिस्वरूपाणां कर्तृता-भोक्तृता-संसर्तृत्व-मुक्तत्वादिधर्मविशिष्टानां IN जीवानामाख्यानं . साधितं भवति / वीतरागाणां जन्माभावात् 'अज्ञानपांशुपिहितं, पुरातन कर्मवीजमविनाशि / तृष्णाजलाभिषिक्तं,मुञ्चति जन्माङ्कुरं जन्तो // 1 // रितिवचनाच्च भवभावस्य कर्मसंयोगनिर्वतितता, भवश्वाध्यक्षमेव जन्मजरारोगशोकाधिव्याधिमृत्यादिभिराकीर्णो निःसारोऽशरगश्चेति दुःखरूप एव। नायं विद्याध्ययनधनार्जनादिवद्धर्मानुष्ठानादिवच्चेत्याह-'दुःखफल' इति / यतोऽलब्धस्वाख्यातधर्माणो जीवा मिथ्यात्वाविरत्यादिपरिणामेन हिंसाद्याश्रवप्रवृत्या च दुर्गदुर्गतिदुःखफलक र इति तेषां दुःखफल एव भव इति / सातिचारधर्माचारानुष्ठायिनां जीवानां कतिचिद् भवा अशुभा अनन्तरं भवन्त्येवातिचारफल| भोगादन्वेव धर्मानुबन्धप्राप्तेरस्ति भवस्य दुःखफलताऽपीत्याह-'दुःखानुबन्ध' इति / अप्राप्ताकलङ्कस्वाख्यात| धर्माणां भवत्येवानवदग्रकालं यावदनन्तेषु भवेषु परिभ्रमणमिति तादृशां जीवानां भवो दुःखानुबन्ध / एवेत्यत्र * कोऽपि न विवाद इति / 'तिकालमसंकिलेसे' इत्यम्तो जिनाख्यानानुवादग्रन्थः। परतस्तु विवरणग्रन्थ इति सम्भावना, तावतो मूलरूपत्वादतीन्द्रियार्थदृग्वचनरूपत्वाञ्च तथासम्भावना, तथा च. अत्र पापप्रतिघातगुणबीजाधानाख्यस्यायसूत्रसमुदायस्येदमादिसूत्रं, जैनं शासनं न निग्रहानुग्रहपरायणं, न ISI // 65 // . चादेशकं, किन्तु सूर्यप्रदीपादिवद्यथार्थतया: पदार्थोपदेशकमिति जीवानामनादित्वादिनिरूपणं / अनादित्वमनादि Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Tr Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 66 // पर्यवसानपदार्थावलोकनपटुकेवलज्ञानज्ञाफ्तिं / अन्यच तदभावे भवस्य कर्मणो का निर्हेतुकल्याऽसम्भवः / __ आगमो वीजाकुरवदनादिसन्ततिर्भवकर्मणोः, नासतां प्रादुर्भाको द्रव्याणां, न च सतां नाश इति जीवद्रव्याणां पञ्चसूत्रभारतिय सिद्धेऽनादित्वे भवकर्मसंयोगयोरनादित्वं स्वभावसिद्ध, सिद्धेश्वेतेषु च त्रिषुः भवस्य दुःखरूपफलानुवन्धिता- 1 वासिकम | निर्धारणं न दुष्करं, तथा. चैतन्छूद्धानसारमेव जैनशासन; एवं श्रद्धानं अनन्तानुवन्धिदर्शनमोहानां / सन्दोहे करणत्रयेण भेदे जाते एव सम्यक्त्वे एव भवति, परप्रवादिभिः कथचिदनुकृत एतावानुपदेशः / ततश्च परप्रवादवासितान्तःकरणानामप्यादिधार्मिकाणामल्पायासेन खसमये आक्षेपः, आदावाक्षे-पिण्या एव II प्रयोगो हितकर इति तदृक्तिः। विक्षेपण्यास्तु वैकल्पिकं हित। तत एव च न | कुदेवनास्तिकादीनां व्युदासोऽधिकृतः। यच व्यवच्छेदप्राधान्येन व्याख्यानक्रिया क्वचिदेताशे | प्रसङ्गे सा न विक्षेपिका, परस्पर व्यवच्छेयव्यवच्छेदकत्वोक्तेर्गुणाधिकस्तुतावेव तस्यास्तात्पर्याद, IP लोकोद्योतकरव्याख्यावदिति / लौकिकानामपि कर्मसंयोगतन्निर्वर्तितदुःखादि सम्मतमस्ति / तत एव च / विपाकक्षमाया लौकिकतयाऽऽख्यानं सङ्गच्छते। एताकमात्रश्रद्धाने जीवास्तित्व-तनित्यत्व-कर्मकर्तृत्व-तो- 1 क्तृत्वलक्षणानि चत्वार्यास्तिक्यस्थानान्यधिगतानि भवन्ति / तत्त्वेष्वपि जीवाजीवाश्रक्वन्धलक्षणानि तत्त्वानि || समधिगतानि भवन्ति, परमेतावानुपदेशः सिद्धानां जीवकर्मतत्संयोगतजदुःखानां दर्शनपरः। यथा il चादर्श समं प्रतिबिम्बितं भवति, स्थान संसारः प्रतिविम्बितः, परं हितोपदेशकता नैतावता पर्याप्यते, किन्तूपादेयहेयानां पदार्थानां हेतुस्वरूपफलानुक्धा चेत् ज्ञाप्यन्ते, छद्मस्थज्ञानानां विशेषेणहेयोपादेयहा| नोपादानप्रवृत्तिफलत्वात् / अत एव च जीवाजीवमात्रमनुक्त्वा शासने आश्रवादीनां मोक्षान्तानामुपदेशादि। अत एव भवस्य दुःखस्वरूपत्वाद्युक्त्वा हेयोपादेयपदार्थस्वरूपादिदर्शनार्थमाह-'एयस्सा णं वोच्छित्तीत्यादि। Jun Gun Aaradhak Trust // 66 // P.P.Ad Gunratnasuri M.S. BON Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसूत्र धारककृति आगमो / एतदः प्रयोगात् एतस्य दुःखस्वरूपादिकस्य भवस्येति / यद्वा दुःखरूपादिकस्य भवस्यापि हेतुः कर्म- Pil संयोग इति स एव प्रधान इति प्रधानस्य कर्मसंयोगस्यैतदा ग्रहणं / अतः सन्निकृष्टार्थकस्वेदमो न / वार्तिकम् प्रयोगः। किञ्च-कर्मोच्छेद एव दुःखादिरूपस्य भवस्यान्तः स्यात् , उद्योतवत् दीपादिद्वारोत्पादनाशौ। त सन्दोहे यथोद्योतस्य न स्वयं, तद्वदत्र कर्मोत्पादनाशद्धारैव दुःखादिरूपस्य भवस्योत्पादनाशाविति / पापकर्मणो / // 67 // वियोगस्यैव शुद्धधर्मप्राप्तिहेतुतयाऽम्नायात तथाभव्यत्वादेरपि पापकर्मण एव व्युच्छित्तिभणनात् / एतच्छब्देन | भवानुसन्धानं तु भवस्यैव दुःखरूपत्वादेरनुभवादनिष्टतानुसन्धानेन शुद्धधर्मप्रवृत्तावुत्याहस्य जननाय स्वातु, IN न च तदसम्बद्धमिति / ब्युच्छेदश्च 'विपाकोऽनुभवः ततश्च निर्जरे तिः कड्यपाकिस्मात्या ना मोबस्तु अस्थि / K नन्नत्य वेयइत्ता तवसा (वा) झोसइत्तेति च वचनात् / सर्वसंसारिणामनुक्षणं भोगेन भयभावेऽपि तत्क्षपस्य। कर्मानुबन्धित्वादत्र निरनुबन्धी क्षयो यः सोऽनुसन्धेयः / भवस्य व्युच्छेदोऽपि सर्वसंसारस्य मरणपर्यवसानत्वादस्त्येव प्रतिभवं मवविच्छेदः, परं शुद्धधर्मसम्पाद्यो भवविच्छेदो भवान्तराननुबन्धीति भिकान्तसननुबन्धी भवस्य विच्छेदो' ग्राह्य इति / पापकर्मणां भवस्य : वा.. व्यवच्छित्तिप्रसङ्गादत्रः शान्त्यादिको ! दशविधः स्वाख्यातधर्मो ग्राह्यः / सायग्दर्शनज्ञानवास्त्रिाणां तत्तत्पतिवन्धकपापविच्छेदात्प्राप्यत्वेऽपि / तेषां निःश्रेयसमार्गत्वादपवर्गेऽपि सचादुपादाकारणत्वात् / : किच-तत्कारणभूतस्य पापकर्मविगमस्य / र तथामव्यत्वहेतुकत्वभणनात् मोक्षे च भन्यत्त्वस्यैवाभावादिति / : मोक्षमार्गत्वेन ' ख्याततयाः पापकर्म- विलयतया सम्यग्दर्शनादीनां शुद्धधर्मतया ग्रहेऽपि न काचिद्धानिः। न हि प्रकाश्यान्तरस्यामाचे दीपस्यमा प्रकाशस्वभावो विलीयते इति / किञ्चन सम्यग्दर्शनज्ञानयोः 'शुद्धधर्मेण प्राप्तिः, ताभ्यां प्राग 167 // | मिथ्यात्वाज्ञानयोरेक भावात् , प्रागपि तदुत्पत्तेस्तत्तत्क्षयोपशमादेर्भावात्तस्य शुद्धधर्मत्वेन. ग्रहे वा न P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 68 // विरोधः / लौकिकानामुपकारिक्षान्त्यादीनां निरासार्थ धर्मस्य 'शुद्ध'ति. विशेषणं, सुप्रणिधानयुक्त औचिभागमो. त्येन सततं. सत्कारविधिसेवित एव शुद्धधर्मः कुशलानुवन्धिनिर्जराप्रापकः / इति प्राप्तिरपि विशिष्यते / पञ्चसूत्र 'समे'ति, 'सव्वेसि सावगाण. मुक्खसाहणजोगे'क्यादिवचनादनन्तानुबन्ध्यादिविलयजन्या अपि. क्षान्त्यादयो द्धारककृति कि ग्राह्याः धर्माः, एकोनसप्ततिकोटाकोटिसागरोपमाधिकमोहस्थितिक्षयप्राप्यत्वात्तेषामपि. तथाभव्यत्वजन्य---DI सन्दोहे पापकर्मविगमजन्यता न विरुद्धेति / यद्यपि, आत्मनो भवकूपे पातनादवगुण्ठनाद्वा सर्वाणि कर्माण्येव पापं,. तथाप्यत्र परिभाषितं पापकर्म: गृह्यते, तस्य शुद्धधर्मसम्माप्तेः प्रतिबन्धकत्वात् , तद्विगमादेव च शुद्धधर्मसम्प्राप्तेर्भावादिति / 'पापः पापेन कर्मणे त्याद्युक्तेः पापशब्दस्य पापभूयिष्ठे पाणिनि प्रवृत्तः ‘पापकर्मे - HI त्युक्तं / 'खेटं पापमपसद मिति पापशब्दः सामान्येन नीचवाच्यपीति ‘पापकर्मेति / सर्वेषां कर्मणामन्तःकोटीकोटीसागराधिकस्थितेः क्षयाय 'विगम' इति / तथा च विशिष्टो शुद्धधर्ममाप्तेरनुगुणो नाशो .ग्राह्यः, IAL वेदनजन्यपापकर्मनाशस्त्वशेषाणामसुमतामस्त्येवेति विशिष्टनाशग्रहणं / यद्यपि शुद्धधर्मपापकर्मविग़मतारतम्यकारिण्येव कर्मविच्छित्तिशुद्धधर्मसम्प्राप्तिलब्धिस्तथापि पञ्चमीकरणमात्माध्यवसायस्यैवासाधारणकारणत्वेन . साधकतमतेति ज्ञापनार्थमिति / भव्यत्वं हि पारिणामिको भावः, जीवाजीवेषु जीवाजीवत्ववत् / नहि केनचिदौदयिकादिना निर्वतितः मुद्गराशौ ककटुकवत् , भव्यत्वं च मोक्षप्रापकधर्माहत्वं / तच्च सर्वेषां भव्यानां समानमेव / बीजोद्भवकारणता यथाऽमुरे, यथा वा बीजेडरोद्भवकारणता, तच्च सर्वेषामेव भव्यानां समानमेव / परं कालक्षेत्रपुरुषसाधनप्रभृतिभिर्भेदैस्तीर्थकृद्गणधरमूककेवलिपID भृतिहेतरूपैः चिराल्पकालीनादिभिर्मेदैश्च बीजसम्यक्त्वचारित्रमोक्षप्राप्तीनां वैचित्र्यात अनन्यनिबन्ध नवाच्च तेषां प्रतिभव्यं यद्विचित्रभव्यत्वं स्वीकार्य, .. तदेव तथाभव्यत्वमिति / आदिना-ISH 68 // " P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Tr Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mi बादरत्रमपश्चेन्द्रियत्वादीनि साधारणकारणानि प्रान्त्यावर्तकालेऽपि सुषमादिकः यथाप्रवृत्यादि- KI पञ्चसूत्र___आगमो-IN करणत्रिकोथमो . यत्न इत्यादीनि चासाधारणानि कारणानि ग्राह्याणि / भावशब्दोज सद्भावस्य वाचकः, kil वार्तिकम् द्धारककृति | न प्रवृत्तिहेतुर्धर्मस्य, तथाभव्यत्वादेरकृत्रिमताख्यापनार्थ च सद्भाववाचको भावशब्द इति / तथाभव्यत्वसन्दोहे स्यानादित्वादेवाव्यवहारराशावपि वर्तमानानां जिनानां सर्वजीवेषूत्तमत्वं गीयते, स्तूयते च 'पुरुषोत्तमेभ्य' इतिपदेन तत एव शक्रस्तवे। अनादिस्वभावस्थं हि तथाविधं मव्यत्वं न शुद्धधर्मसम्पाप्तिहेतोः पापविगमस्य कारणं, किन्त्वङ्कुरं प्रति सोच्छूनतावस्थवीजवत् परिपाकमांगत / ततश्च तथाभव्यत्वस्य परिपाके ये हेतवस्ते ज्ञेया आचरणीयाश्चेत्याहुः प्रकरणकाराः / 'तस्स पुण विवागसाहणाणी'तिं अधिकारान्तरताज्ञापनाय प्राग् / 'एयस्स ण'मित्यत्र णंकारस्योपन्यासस्तथान पुनःशब्दस्य णकारस्यालंकृतवाक्यार्थ उपन्यासः। तत्र हि वाक्ये संवरनिर्जरामोक्षाणां सूचा। 'अत्र हि प्रागलब्धलाभस्य तथा: भव्यत्वस्य परिपाकरूपस्येति पुनःशब्दोपन्यास इति / शरणगमनोक्तेमङ्गलत्वं लोकोत्तमत्वं चामुंगतमेव / निर्विघ्नमिष्टानां प्राप्तिस्थैर्याविच्छेदकरत्वस्य लोकातिशायित्वस्य चानवगमे शरणशब्दवाच्यभक्तिप्रवताया असम्भवात् / अर्हद्व्यतिरिक्तानां सर्वेषां केवल्यादीनामपि साधूनां साधुपदेन ग्रहः / आचारविनयसहायहेतूनामविवक्षणान्नाचार्यादयो भेदेनोक्ता इति पयुपास्यानां 'कल्लाणं मंगल'मित्यादिवचनात् पञ्चपरमेष्ठिन मस्कारे गुणानां साक्षादनभिधानं गुणिद्वारैव ग्रहः। अत्र तु भक्तेराश्रयणाद् गुणरूपस्य धर्मस्य साक्षात् A. ग्रह इति पदानां न्यूनाधिक्यविचारोत्र . फलेग्रहिः। सर्वज्ञोक्ताश्चमे क्रमा इति आराधनासोपांनान्येतानि चतुर्णा शरणस्याईदादीनां पुष्टालम्वनत्वात् संसारादुर्तुकामानां, न च जैन शासनं जिनेश्वराणामभिष्टवादि- 2 // 9 // भिरुत्तमबोधिविनावसानैर्मोक्षप्राप्तौ केवलैः कृतार्थतामानी, अतो दुष्कृतानां निन्दनं .. सुकृतानां चानुमोदनं // 69 // P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - // 7 // मते जैनेज्ञावश्यकं, जीवानां प्रमादबाहुल्यादनादिभमादपासनापशचानीसतामपि प्रमादास्तजनितानि च आगमो. | पापानि दुरन्तानि भवन्ति, तत्र नाश्चर्य, परं जातानां दुष्कतानां निरनुबन्धिता सदैव स्थायदा | पञ्चसूत्रद्धारककृति तेषां निन्दनादि क्रियते, प्रतिक्रमणस्यैव सर्वातिचारशोधनस्य मूलभूतत्वात् / अत एव ता वार्तिकम कृतसामायिका अपि निन्दादिना भूतकालीनान् सावधयोगाभिन्दन्त्येव, तपश्चाभ्यन्तरं प्रतिक्रमणमिति / सन्दोहे निकाचितानामपि दुरितानां क्षयाय अभ्यन्तरमेव तपोऽलं / ततश्चातीतकालीनानां सर्वेषां गुणाधानाय | गर्दाऽऽवश्यकीति / यथैव हि दुष्कृतानां पुराकतानां निन्दनेन निरनुबन्धिता भवति, कृतानां मुकतानाम| नुमोदनेनैव पुष्टानुबन्धिता भवतीत्याह-कृतानुमोदनरूपस्य सुकृतवरस्याचरणाय सुकृतानुसेवनमिति / इद शरणगमनदुष्कृतगर्दासुकृतानुसेवनरूपं त्रितयं सर्वेषां प्रपन्नजैनशासनानामवश्यं कर्तव्यमिति सूत्रेष्वप्यङ्गो पाङ्गादिषु तद्भवसिद्धिकादीनामप्येतत्त्रिकमप्येवान्त्याराधना श्रयते / अत एव च वक्ष्यति-'कर्तव्यमिदं | भवितुकामेने'ति, एष उपदेशः सप्ततव्याः सारः, आराध्यानां देवगुरुधर्माणामाश्रयः, आसेव्यानां सम्यग्दर्शनचारित्राणामनन्यस्वरूपश्च / यतोत्र हेयानामाश्रव-बन्धानां विगमः पापकर्मविगमेन, संवर-निर्जस्यो यता शुद्धधर्मसम्पत्तेः सम्पादनेन, भवविच्छेदेन मोक्षश्च स्पष्टतया कथितः। उपदेश्यत्वेन जीवस्तु साक्षात्कृतोऽस्त्येव / आराध्यपादानामाराधनं तु शरणगमनस्य दुष्कृतगर्हायुक्तसुकृतानुसेवनात् प्रागेवाख्यातं, न च विरहय्याईनसिद्धसाधूनन्य आराध्यः शासने जैने,सम्यग्दर्शनादिरूपत्वमस्यैवं-यथास्थिततच्चानां जीवानामनादित्वादीनां / श्रद्धाने बोधे च सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं, दुष्कृतत्यागसुकृतसेवे तु विहाय न किमपि चारित्रमिति / म तत एव चाह-'भवितुकामेनेति / अनादिकर्मजनितानादिभवेन रहिततया भवितुमिच्छता सिद्धिप्राप्तु| मनसेत्यर्थः, कर्तव्यं कर्तुं योग्यमेव इदं चतुःशरणगमनादिकं प्रयमिति / 'नमो वीतरागेभ्य' इत्यत डोबा // 70 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्वारककृति सन्दोहे // 72 // आरभ्य यो वाक्यमबन्धः स प्रकरणक; जिनानुवादेन प्रतिपादितः। परतश्च पापप्रतिघातगुणवीजा- पश्चसूत्रधानप्रतिपादनपरं सत्रं सदनुष्ठात्रुक्त्यनुवादेन वक्ष्यति / अतोन चतु:शरणगमनादीनां कर्तव्यताकालं निदि- वार्तिकम् शति-सङ्क्लेशकालश्चातकोपसर्गाभिभवादियुतः, तद्रहितस्त्वसक्लेशकालः। तत्रातकादौ सततमन्यया त्रिसन्ध्यमवश्यं कार्य सिद्धिमाप्तुमनसेति योगः। अथ प्रकरणकारकृतस्य सनमस्कारस्य जिनानुवादसूत्रस्य व्याख्या-निनोक्तानुवादपरत्वात्प्रस्तुतस्य सूत्रांशस्य न मङ्गलाद्यनुबन्धचतुष्टयस्योपन्यासः, जिनोक्तौ तस्यासम्भवात् , परमाप्तत्वादेव जिनानां तद्वचनेष्वादरेण प्रेक्षावतां प्रवृत्तेः सिद्धत्वात् , स्वयं देवाधिदेवत्वामान्यनमस्कारेण निर्विधपारगमनादि, किन्तु धयादेवान्तरायाणां उदयादेव च जिननाम्नः स्वतःसिद्धविधात्यन्तामावा एते, न चैते इष्टसिद्धयनिष्टनिवारणमन्तरा ब्रुवन्ति इति नार्थः प्रयोजनाभिधेययोर्दर्शने नेति / यच्चात्र नमो वीतरागेम्य इत्यतोऽरुहंताणं भगवंताणामित्युक्तं, तदनुवादकेन प्रकरणकारेणानूद्यानां IA जिनानां परमगुरुत्वेन नमनादिविनयस्यावश्यं कर्तव्यत्वादुक्तं, नानुबन्धाङ्गत्वेनेति / अधुना व्याख्याकारा I द्वितीये पदकरणनाम्नि व्याख्याभेदे स्त्यादीनि पदामि भेदयित्वा व्याख्यान्ति / प्रात्र्यास्तु पदानां SI नामिकाख्यातिकोपसर्गिकनैपातिकमिभेदयित्वा पदव्याख्यां कुर्वाणा अन्यतमं भेदं निर्धारयामासुः / / अत एव नियुक्तौ- णमो इति णेवाइयं'त्युक्तं, आख्यातिके नमधातुजाते पदे प्रहत्वमात्रं स्यात् , नैपाति-H कनमःपदाच निपातानामनेकत्वाद् द्रव्यभावसङ्कोचः पदार्थ इति पदार्थनाम्नि व्याख्यामेदे सष्टितं / तत एव च पूजार्थे नमसः क्यन् क्रियते, पठ्यते च-'देवावि तं नमसंतीति / अहद्भ्यो नम इति वाच्ये | 'देवतानां गुरूणां च नाम नोपपदं विनेत्युक्तेर्भगवद्भ्य इत्युपपदं / यथा शकस्तवे 'णमोत्थुणं अरिहंजाणं भगवंताण'मिति / तथा च भगवद्भ्योऽईयो नस इत्यभिधेयं शक्रस्तवे, समग्रैश्वर्यादीनां भगवच्छब्दP.P. Ac. Gunratnasuri M.S. 4171 Jun Gun Aaradhak Trust Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्वारककृति: सन्दोहे // 72 // वाच्यानां षण्णामर्थानां सम्पदाक्रमेण वाच्यत्वात् आदिकरत्वादीनि विशेषणानि पश्चादुक्तानि / अत्र तु स्वतन्त्रतया भावार्हन्त्यनिवन्धनानामतिशयानां चतुर्णां वाच्यत्वात् प्रागेव विशेषणानि / यद्यपि भगवच्छन्देन पञ्चसूत्रभावार्हन्त्यमागच्छेत् परं च्यवनादामाक्षगमनमपि भावार्हन्त्याभिगमपक्षे कैवल्यदशावर्तिभावाईत्परिग्रहाया-A वार्तिकम् वश्यकानि वीतरागादीनि चत्वारि विशेषणानीति / यद्यपि उपशान्तमोहावस्थायामस्ति वीतरागता, परं ! न सात्र, यतः प्रतिपातपर्यवसाना सा। न च जिनानां छाद्मस्थ्येऽपि तथाप्रतिपातितेति क्षपकश्रेणिजन्यैव वीतरागावस्था स्वरूपतो ग्राह्या / किश्च-वीतरागतेयं सर्वज्ञताप्रापणप्रत्यला ग्राह्या, पुरतः सर्वशेभ्य इत्युक्तेः / सार्वश्यं च क्षीणमोहानामेव वीतरागाणां भवतीति क्षीणमोहवीतरागतैव वीतरागपदेन | ग्राह्येति / सूर्योदये उदितेऽरुणोदयकथनं निष्प्रयोजनं यथा, ततः पूर्व तस्यावश्यम्भावात् / इत्थमेव मायालोभरूपरागस्य क्षयात् प्रागेव क्रोधमानरूपस्य द्वेषस्य हास्यादिषट्करूपस्य मोहस्य च क्षयोऽवश्यं भवतीति वीतद्वेषमोहवचनेन न कोऽप्यर्थः कोविदानां, तथापि स्वरूपदर्शनार्थमितरतीर्थीयदेवतानां च व्यवच्छेदार्थ / यदि च वीतद्वेषवीतमोहोक्तेरावश्यकता तर्जुपलक्षणतया वीतद्वेषवीतमोहता. ग्राह्या, उपलक्षकता च वीतरागपदस्य रागक्षयात् प्रागवश्यं तयोः क्षयस्य भावात् , मोहादित्रिकस्य क्षय एव सार्वस्योत्पत्तेरिति / यद्यपि सर्वज्ञविशेषणेन विशेषितेषु भगवदर्हत्सु नाथों वीतरागपदेन, सार्वश्यात् / प्रागवश्यं वीतरागताया भावात् , परं मुधा सर्वज्ञतावा दिनां निरासाय सर्वज्ञताया अवश्य पूर्वभावि| तायाः 'केवलियनाणलंभो नन्नत्थ खए कसायाण'मितिवचनादर्शनायैव वीतरागेति पदमुक्तमावश्यक च तदिति / सहचरत्व नियमात् सर्वदर्शिभ्य इत्यपि। साकारोपयुक्तस्य लन्धिप्राप्तेरादौ सर्वज्ञत्वं, विशेष| गुणो हि ज्ञानमात्मन इति सर्वज्ञत्वोपन्यासः, आत्मनो ज्ञानमयत्वात् केवलज्ञानस्यैवात्मखरूपत्वाच | // 72 // W P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Irni. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चसूत्र आगमो क्षीणज्ञानावरणीयस्य स्यादेव केवलवत्त्वं सायं चेति / सार्वयाभावे ह्यहंप्रत्ययग्राह्यस्य शब्दादिरहितद्वारककृति-II स्यात्मनः सुखदुःखवेदनानुमेयस्य सातासातकर्मण एवमादीनामनेकानामलौकिकप्रत्यक्षगम्यानामध्यक्षज्ञानं ID वार्तिकम् | न स्यात् / अनुमानगम्यत्वमप्येषां प्रत्यक्षदर्शिनिर्दिष्टसम्बन्धानुसार्येवेति / सर्वमपरिशेष द्रव्यक्षेत्रकालभाव- 1 सन्दोहे | विशिष्टं द्रव्यपर्यायात्मकं सामान्यविशेषरूपं वस्तु जानन्तीति सर्वज्ञाः / एतानपेक्ष्यैव 'मानाधीना मेय॥७३॥ सिद्धि'रिति नियमः, तदज्ञातस्यासन्चात् अनाद्यनन्तपदार्थगोचरत्वाच्चैतज्ज्ञानस्यानाद्यनन्ततया ज्ञानं, समन्ततो ज्ञातस्यापि वृत्तस्य नाद्यन्त्यभागव्यपदेशस्तथारूपत्वादेव वृत्तस्येति / किञ्च-द्रव्याणामनाद्यनन्तत्वाभावेऽनुपादान|स्योत्पत्तिः निरन्वयो विनाशश्च प्रसज्यते / द्रव्याण्यपेक्ष्यैव च 'नासतो जायते भावो नाभावो जायते सत' इति ISI | विद्वत्पर्षत्सु गीयते इति / एताभ्यां च द्वाभ्यां विशेषणाभ्यां श्रीमदहतां भगवतामाप्तत्वसिद्धिर्दर्शिता। | यत आप्तिमन्त आप्ताः, आप्तिश्चात्यन्तिकी हानिर्दोषाणां, दोषाश्च रागद्वेषमोहा अज्ञानं च, क्षीणमोही / भूत्वा यथार्थ सार्वयमाप्तानां नैकोऽप्येषां मध्यादोषो भवति / सिद्ध चाप्तत्वे तद्वचनानां निस्संशयं / / प्रामाणिकता गीयते / न च साश्येन वक्तृता विरुध्यते. यथार्ह श्रोतृणां प्रतिबोधायारक्तद्विष्टतया | जीवादीनां तत्त्वानां ज्ञेयहेयोपादेयधर्मवतामुपदेशे वाधालेशस्याप्यनवकाशात् / अन्यथा गमनागमनादीना मपि. विरुद्धतामसङ्गात्, अलौकिकसर्वप्रत्यक्षगम्यानां जीवपुण्यपापस्वर्गनरकमोक्षादीनां ये प्रतिपादका | आगमास्तेषां सर्वेषां कल्पितत्वप्रसङ्गात् / एवं क्षीणकषायतायाः सर्वज्ञतायाश्चाऽऽख्यानेन श्रीमदर्हतां भगवतां | सम्पूर्णा स्वार्थसम्पत्तिः प्रतिपादिता। जगति च गुणसम्पदामधिगमे एतदेव बीज-यद् गुणवतां पूजाबहु| मानभक्त्यादि क्रियते, विशेषतश्च गुणसम्पदथिनो देवा इति योग्यमुक्तं 'देवेन्द्रपूजितेभ्य' इति / यद्यपि DI | देवेन्द्रानुवृत्त्यादिभिः कारणैः सर्वैरपि भवनवास्यादिभिर्देवैरप्यर्हन्तो भगवन्तो जन्मादिषु कल्याणकेषु P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारककृतिमा ||74 // dl पूज्यन्ते, परं प्राक् तावत् सर्वेषु देवेन्द्राणामासनानि चलन्ति, ततो ज्ञात्वा तत्तच्च्यवनादि वस्तु जिनानां __ भागमो महाकल्याणकारि यथाविधि शक्रस्तवेन स्तुवन्ति, पश्चात्तु तदादेशादपरदेवानां पूजाप्रवृत्तिर्जायते इति / पञ्चसूत्र देवेन्द्रपूजिता इत्युक्तं / किञ्च-देवेन्द्राः सर्वेऽपि सम्यग्दृष्टयः स्युः, सम्यग्दृष्टीना. मैव्यादिभावनाचतुष्कं वार्तिकम A स्वभावसिद्धं, तत्र प्रमोदभावानायां गुणवद्वहुमानस्यावश्यं कर्त्तव्यत्वात् उपबृहंणाप्रभावनयोश्च दर्शनाचार. सन्दोहे ISI वादवश्यं भवति जिनेषु सदा पूज्यतावुद्धिः, समाचरन्ति चानन्यसदृशया भक्त्या तामिति योग्य- IN मुक्तं 'देवेन्द्रपूजितेभ्य' इति / यद्यपि श्रीमदर्हतां भगवतां सेवायै सततमिन्द्रा उपयुक्तास्तथापि च्यवनादिषु कल्याणकेपु तेषां नन्दीश्वरमहादिकामपि प्रतिपत्तिं कुर्वन्ति, परं सविशेषां भक्तिं शक्रादयो धर्मतत्त्वदेशना- भूमौ कुर्वन्ति, शृण्वन्ति चात्यादरात् सह नरादिभिर्निपद्य भगवतां तां देशनामिति प्रोक्तं-'यथास्थित वस्तुवादिभ्य' इति / वस्तुभूतौ द्रव्यपर्यायौ, अतीतानागतवर्तमानपर्यायपरिणामि द्रव्यं,पर्यायास्तत्तदवस्थारूपाः, अवस्थातद्वतोश्च कथञ्चिदेव भिन्नाभिन्नत्वे / नहि ऋजुवक्रत्वाद्या अगुल्यादिभ्यः सर्वथा भिन्ना अभिन्ना वा, ध्रुवांशस्तत्र द्रव्यं / 'तद्भावाव्यय'मिति यदुच्यते / उत्पादव्ययांशाः पर्यायाः 'तद्भावः परिणाम' इति IN य उच्यते / एवं चातीतानागतपूर्णज्ञानवानेवैकमपि द्रव्यं तत्तत्सर्यायपरिणामितया जानाति / अत एवोच्यते'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइति / तथा च नासर्वज्ञा यथास्थितस्यैकस्यापि वस्तुनो ज्ञातारः, तथाज्ञानाभावे. तथावस्तुवादिता तु दूगपास्तैव / किञ्च-ये न सर्वज्ञतां वृताः परतीर्थीयेश्वरास्ते आत्मानं साक्षात्कारेणाजानानाः कथङ्कारं तत्स्वभावभूतान् ज्ञानादिगुणाननन्तान् पश्येयुः, तत आत्मनस्तद्गुणानां च चेन्न साक्षात्कारस्तदा तत्तद्गुणानामावारकाणि उपष्टम्भकानि च कथं / विद्युरिति विहायाऽऽर्हतशासनाधीश्वरान् न केऽप्यन्यतीर्थीयेश्वरा ज्ञानावरणीयादीन् कर्मणो विचित्रान् 15 // 74 // P.P.Ac, Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust 114 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 75 // आगमो. 8 भेदानभिधातुमीशा बभूवुः। प्राकृतजनवत् पुण्यं पापं च कर्मतया केवलं जगुः। अत एव तेषां | हरककृति-III ज्ञानावरणीयादीनामाश्रवान् बन्धकारणानि च यथार्थतयोऽविदन्तः कथङ्कारं तेषामाश्रवाणां रोधने प्राग्वद्धानां I पञ्चसूत्र सन्दोहे च निर्जरणे चोपयोगि सम्यग्दर्शनादिकं कथं विद्युर्जगुश्च / एवं श्रीमदहन्तो भगवन्त एव वार्तिकम् सर्वज्ञतयाऽऽत्मादीनां साक्षात्कारं कृत्वा केवलेन तज्ज्ञातमेव जीवादिकं मोक्षावसानं तत्त्वसमूह यथाज्ञातमाचख्युर्भगवद्गणधरादीन् प्रति, तत एवावश्यके नन्यां च केवलाधिकारेऽपि 'केवलनाणेणऽत्थे गाउं जे तत्थ पण्णवणजोगे। ते भासइ तित्थयरो'त्ति स्पष्टतयोच्यते / तथा च ये केवलज्ञानवन्तः सन्तः केवलेनैव ज्ञातान् जीवादीन् पदार्थान वीतरागतया यथाज्ञातानेवाचख्युस्त एव यथास्थितवस्तुवादिनः, IN एवम्भूताश्च श्रीमदहन्तो भगवन्त इति तनमस्क्रिया। अन्यतीर्थीया यथा श्रीमतामर्हतां भगवतां देवत्वेन | त्रिलोकीमान्यानां तीर्थेशत्वमनुसृत्य स्वं प्रतिबिम्ब पूज्यतापदवीमानयन्तोऽपि नासानियतदृष्टयास्यप्रसन्नताचक्षुनिर्विकारतापर्यङ्कशयितादिकं देवलक्षणं न तस्मिन्नादर्तुं शक्ता जाताः, तथा भगवतामर्हतामेव / साक्षात्केवलेनालोक्य कृतां तत्वदेशनामपि नानुचक्रुः। प्राक् तावद् भगवद्भिरर्हद्भिर्जीवाजीवरूपं तत्त्वद्वयमेव निर्दिष्टं, तद्द्वयस्य जगति सदा परस्परविविक्तस्वरूपतया भावात् , तदतिरेकेण तृतीयस्य II कस्यापि पदार्थस्य अभावात् / विद्यमानयोरेव याथातथ्येन प्ररूपणेनैव यथास्थितवस्तुवादिता।। | कल्पितानां पदार्थानां युक्त्या प्रसाध्यापि स्थापना तुरङ्गशृङ्गोत्पादसमानैव / उपदिष्टयोश्च जीवाजीवतत्त्वयोः | केचित्तथाविधा जीवा एवावबुध्येयुः सभेदप्रभेदी जीवाजीवौ जीवानां शुद्धस्वरूपं तस्याविर्भावतिरोभावत| जनकहेतुसमुहं च / ततोऽदग्धदहनन्यायेन प्रभूतानां तथाविधबोधवर्जितानां जीवानामुपकारायोपादेयतया // 5 // मोक्षं, तत्साधनतया संवरनिर्जरे, तद्बाधकतया चाश्रववन्धौ च निरूपणीयावेव / तथा परमार्थरूपां II .P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 76 // . NP आगमो | सप्ततत्त्वीमुपदिशन्त एव श्रोतृणां भवनिस्तारनिःश्रेयसमाप्तिप्रगुणतामाविष्कृत्य हितस्योपदेशका भवन्ति / | यद्यपि संवराश्रवादयो न निःसाधनानां जीवानां भवन्ति, तत्साधनभूते च पुण्यपापे एव / नान्तरा पवस्त्रद्धारककृति पुण्यस्य पापस्य वोदयं संवराश्रवादीनां साधनानि योगगुप्त्यादयोऽवाप्यन्ते, परं ते निःश्रेयसादीनां | वार्तिकम सन्दोहे Hन साक्षात्साधक बाधके वेति तयोनिरूपणं वैकल्पिकं / केचित्तु ते समाविश्य पदार्थनवकं श्रीमदर्हद्भि- | भगवद्भिपदिष्टमित्यपि वदन्ति / न च तदप्यचाविति / एवं च सप्ततत्त्व्या नवपदार्थ्या निरूपका एव हितकामिनां श्रोतॄणां यथास्थितवस्तुवादिनस्तत्त्वोपदेशकाच कथ्यन्ते / यद्यपि समेऽपि तीथिकाः | स्वस्वप्ररूपणया जगद्वर्चियावन्मात्रान् पदार्थान् विषयीकृत्यैव स्वस्वशास्त्राणि चितवन्तः, परं विहाय / श्रीमदर्हतां भगवतां शासनं न क्वापि ज्ञेयहेयोपादेयविभागोपयोगितयाऽस्ति पदार्थानां निरूपणां, न च यथावस्थितं पदार्थानां स्वरूपं तथा निरूपणमपि / ततः श्रीमदर्हतां भगवतां द्वादशाङ्गरूपं यथास्थित- | वस्तुनिरूपकमुपलभ्यापि तैः परतीर्थिकैलॊकानावर्जयितुं केवलमात्मादयः पदार्थाः कतिचिदनुकृत्य निरू. पिताः, नत्वाश्रवसंवरादयोऽनुकरणेनापि तेर्निरूपिताः। न चैतद्वैषम्यं निर्हेतुकं, यतो यद्यात्मादीनां निरूपणं तेऽनुकरणेनापि न कुर्युः, कथं लोकास्तेषामाराधनाय तत्पराः स्युः१। यदि चाश्रयसंवरादीननुकृत्य निरूपयेयुस्तारम्भपरिग्रहादीनां कर्त्तव्यो भवेत्त्यागः, स च तेषां भवाभिनन्दिनां दुष्करतम इति नानुकरणं कर्तुं शक्तास्ते पूर्णतयेति / श्रीमदहन्तो भगवन्त एव यथास्थितवस्तुवादिन इति सहजसिद्धमेवेति / मोहादीनपायान सर्वथा दूरीकृत्य सकललोकालोकभावप्रकाशकं शुद्धात्मस्वरूपं केवलमवाप्य पूर्वभवजगदुद्धारकचिन्तापरवरखोधिलाभप्रभावजाईदादिपदाराधननिकाचितजिननामोदयलब्धशकश्रेणिसपर्याका जीवादियथार्थवस्तुवादिनो भवन्तोपि 'देशनाफलं श्रोतॄणां बोधानुगत मिति न्यायमाश्रित्य परार्थसम्पत्सिद्धिप्रद्योतनाय || P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I चाह- त्रैलोक्यगुरुभ्य' इति, त्रैलोक्यं चावस्तिर्यगुव॑लोकरूपं, . गुरुत्वाधिकाराच्च तत्स्थानां |पञ्चसूत्रआगमो त चानमन्तरव्यन्तरभवनपतिदेवमनुष्यतिर्यग्ज्योतिष्कसौधर्मकल्पादिस्थितदेवानां ग्रहणं / न च 'तात्स्थ्यात्तद्वथ- Baa वार्तिकम् द्वारककृति पदेश' इति न्यायोञासङ्गत इति / गुरुत्वं च कपच्छेदतापशुद्धस्य धर्मस्य शासनात् तीर्थस्थापनेन - सन्दोहे A मोक्षमार्गस्य प्रवर्तनास्त्राणाच्च यद्यथार्थ शास्त्रं तस्योपदेशना'त्स्वयं परिहार' इत्युपदेशकरीतेश्च स्वयं तथा ! तत्र प्रवर्तनाच्चेति / त्रैलोक्यगुरुत्वं च जिननामोदयात्तथाविधातिशयावाप्तैः देवनरशबरतिरश्वां स्वयमुक्ताया // 7 // अर्धमागधीवाण्या अपि स्वस्वभापात्वेन परिणामनात् / न चैनमतिशयमन्तरा सर्वदेशीभाषामयार्धमागधभाषामन्तरा चावालगोपालाङ्गनानां सदेवनराणां बोधो, न च तदभावे त्रैलोक्यगुरुत्वमिति श्रीमदर्हतां भगवतामेवैतत्सम्भवाद्योग्यमुक्त विशेषणं त्रैलोक्यगुरुभ्य' इति / 'अईय' इति कर्मप्रकृतिसमुदायगतजिननामकर्मोदयवद्भ्यः / यथैक एव भानुः तिमिरततेनिराकरणाद्यथार्थतया तिमिरारिः, तथैव दिनस्य विधानादिनकरः कुमुदानां विकासनाच्च कुमुदपान्धव इति यथार्थतया पृथक् पृथगभिधां लभते, एवमत्रापि वरवोधिमत्ताया यावच्छिवप्राप्ति दुर्वारकर्मरिपुजयनाध्यवसायपूर्वकासाधारणतत्प्रवृत्तेर्जिन इति गीयते, स एव भव्यजीवैः संसाराम्भोधिपरपारगमनोत्सकैः परमालम्बनं तीर्थ यदपलभ्यते तत्तेनैव तद्धतशीलानुकल्यतया कतमिति स एव तीर्थकरतयाऽभिधीयते, स एष च संसारपाराधिगमकासिभिः सम्यग्दर्शनादिरूपमोक्षमार्गप्रवृत्तः / / परमगुरुतया प्रत्यहं कीर्तन-वन्दन-महिमादिपरमपात्रतया पूज्यते देवैश्वाविच्छेदेनाष्टप्रातिहार्यैः सद्धर्मदेशनावसरे | च समवसरणर्दयाऽर्च्यते इति कथ्यतेऽई निति, तेभ्योऽईद्भ्यो नम इति योगः। अर्हन्तश्च भगवन्त एव, समग्रैश्वर्यादियुक्तत्वात् विशेषतश्च भावावस्थामाप्ता इति तद्योतनाय देवनामोपपदाय च 'भगवयभ्य' ISI // 7 // इति / श्रीमदईतां भगवतां भगवत्वसिद्धिश्च शक्रस्तवाभिहिताभिरादिकर्तृभ्यः तीर्थकुद्भ्यः स्वयंसम्बुद्धेभ्यः IP.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 // | इत्यादिभिः षड्भिः सम्पदाभिरनुसन्धेयेति / एवम्भूता अर्हन्त एव निःश्रेयसकामुकानां विशेषतश्च आगमो- मोक्षमार्गमाराद्धकामानां नमस्कारार्हा इत्याह-'नम' इति, यद्यपि नमसा योगे चतुझं भवितव्यं, परं पञ्चसूत्रद्धारककृति-H प्राकृतशैल्या चतुर्थ्याः स्थाने 'चउत्थिविभत्तीइ भणई छट्ठीति' नंदितायोक्तेः, विशेषतश्च / वार्तिकम् चतुर्थीबहुवचनस्थाने इति वीतरागादिषु पदेषु षष्ठीबहुवचनान्तप्रयोग इति, एतावत्पर्यन्तं वक्तृश्रोतृद्वयसन्दोहे पठनीयं सूत्रं, ततो नम इति साधारणमव्ययं / अथ प्रकरणकारा अनुवादं कुर्वन्त आहुः-जे एवमाइक्खंती'त्यादि, अत्र ये एवमाख्यान्तीत्यनेन वाक्येनेदं सूच्यते-यथा लौकिकैः प्रेक्षापूर्वकारिभिः शास्त्राणामभिधेयाद्यनुबन्धचतुष्टयी विचार्यते, तथा लोकोत्तरप्रेक्षापूर्वकारिभिः श्रोभिः सर्वेषामपि शास्त्राणां वीतरागादिविशेषणकलापयुक्ताप्तप्रणीततैवान्वेष्या, तामन्तरेण निःश्रेयसमार्गस्य यथार्थोपदेशः काशकुसु-IN | मालम्बनमाय एवेति / किञ्च-यथा व्याख्यातृभिररक्तद्विष्टमूढव्युद्ग्रा हितादिगुणयुता एव श्रोतारोऽधिक| तव्याः शास्त्रश्रवणे, तद्वदेव श्रोतृभिरप्युपदेशकत्वे त एवाधिकर्तव्या येऽतीन्द्रियार्थदर्शिवचनानुसारिण एव / सन्तो मात्रया तद्वचनानुवादपरा एव भवन्ति / तत एव यतो निःश्रेयसोपयोग्युपदेशलाभस्तदर्थिन एव च निःश्रेयसपदाभिलाषुका यत इति / अन्यच्च वक्ष्यमाणा जीवाऽनादित्वादिकास्त्रिकालमसङ्क्लेश इत्यन्ताः IS | पदार्था अतीन्द्रियार्थदृग्वेद्या एवेति प्रकरणकारास्तादृगुक्तगुणनिनवचनानुवादेन ब्रुवन्तो ज्ञापयन्ति यदुत| नैतदहं स्वमनीषिकया ब्रवीमि, येन छद्मस्थवक्तृतया प्रामाण्यसन्देहदोलामधिरोहेदेतत्, किन्तु प्रोक्तगुणवदहत्प्रतिपादितं तद् ब्रवीमीति / अविहतप्रामाण्यमेतद्वाक्यं समाचरणीयं चैतत् , न केवलं श्रोतव्यं कर्तव्यमिदमिति | भगवद्भिर्हद्भिः प्रतिपादनादिति / जीवतीति जीव इति वर्तमानाकृदन्तं तु जीवं पदार्थ नास्तिका अपि II भूतेभ्यो भिन्नमभिनं वोत्पाद्य जीवं प्राणधारकतया तमभ्युपयन्ति / तत एव च परलोकादीनां नास्ति Jun Gun Aaradhak Trust RAN // 78 // (AP.P.AC. Gunratnasuri M.S. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 79 // ___ आगमो- KI तामतिमत्वेन नास्तिका व्युत्पादिताः / अत एवास्तिकवत्स्वतन्त्रं व्युत्पादितो नास्तिकशब्दः,परं जीवति / पञ्चसूत्रद्धारकृति अजीवीत् जीविष्यतीति च जीव इत्यौणादिके व्युत्पादितो जीवशब्दोऽत्र ग्राह्यः। तेन जीवशब्देनैव KI वार्तिकम् H परलोकगतागतकारिजीवपदार्थसिद्धर्भवान्तरसिद्धिमकृत्वैवानादिर्जीवस्य भव इति प्रतिपादितं / भवो हि सन्दोहे शरीरधारणं, शरीरं च नावीनमुत्पद्यते, शरीरवीनं कार्मणाख्यं शरीरमेव, तद्धि स्वस्यान्येषां च शरीराणामाधारभूतं, कार्मणं च प्रवाहेणानादिमदेव / ततश्च तद्धारकजीववत्तदप्यनादि / ततश्च तत्कार्यभूतो भवोऽप्यनादिरेव / यथा चैकमपि बीनं दृष्ट्वा तत्त्ववेदिनो बीजाडरयोः स्वतन्त्रं परस्परं च कार्यकारण रूपतां पुरस्कृत्यानादि सन्ततिं स्वीकुर्वन्ति, एवमेव कर्मणामपि दृष्ट्वा तत्सन्तति तज्जन्यां भवसन्ततिं चावश्यति तयाऽनादिरूपेण स्वीकुर्युरिति युक्तमुक्तं-'अनादिर्जीवः * अनादिर्भवः अनादिः कर्मसंयोगश्च ति। . . ....... ननु कर्मणां स्थितिरेवोत्कृष्टतः सप्ततिकोटीकोटीसागरोपममितैवेति कथमनादिता कर्मण इति चेत् / A . सत्यं, अत एव संयोग इति पदं, यतः प्रवाहेण तेषां तेषां कर्मणां संयोग आत्मभिरनादिकः, भिन्नानामपि कर्मणां संयोगस्त्वात्मनैव, स चाभूतपूर्वो नेत्यनादिक इति / ननु कर्मणां पुद्गलाश्चतुःस्पर्शाः, भवावतारास्पदानि शरीराणि सुखदुःखानुभवहेतवश्च पुद्गला | अष्टस्पर्शा इति कथं परस्परं घटकतेति चेत् / . सत्यं, बद्धानां कर्मणामबाधाकालव्यपगमे यदोदयो जायते, तदा तद्योग्यान् द्रव्यभवभावानाश्रित्यैव जायते, परं यथाकमैंव वेदनं जायते इति कर्मसंयोगेन निर्वतितोऽयं भव इति अनादिकर्मसंयोगनिर्वतितोऽयमनादिर्जीवस्य भव इति कथ्यते / कर्माणि हि शरीरादिद्वारा स्वोदयं दर्शयन्ति, न स्वय| मिति तत्त्वं / विहाय च भवाभिनन्दिनश्चरमावर्तिनो ये जीवास्ते स्वयं भवस्य कर्मक्लेशैरनुबद्धता जन्मनो II P. Ac. Gunratnasuri M.S. 172 / Jun Gun Aaradhak Trust Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्धारककृतिसन्दोहे // 8 // दुःखनिमित्ततां जगतश्च जन्मजराव्याध्याध्यातङ्कमरणादिभिर्व्याप्ततामसारतामशरणतां चावगम्य स्वभावात एव तत्परिहारोद्यताः स्युस्ततो भवस्य हेयता दुःखमयता च नासिद्धेति न तत्साधनाय यत्नः | पश्चसूत्र| प्रकरणकाराणां / तत एव चाहुरनन्तरं प्रकरणकारा:-'एयस्स णं वोच्छित्तीत्यादि, एतच्छब्देनानादिक- / IN वार्तिकम् मसंयोगनिवर्तितस्यानादेर्भवस्य ग्रहः / जीवस्य तु द्रव्यत्वादेव न व्युच्छेदसम्भवः, न च कोऽपि / विवेकी नाशं स्वस्येच्छतीति भवस्यैव व्युच्छित्तिरुचिता / भवस्योच्छित्तिस्तु सामान्येन प्रतिमवं स्वस्ख- जीवितस्यावसानेऽस्त्येवेति तस्यापुनर्भावेन व्युच्छेदस्य ग्रहाय व्युच्छित्तिरित्युक्तं / यद्यपि पुनर्भवाभाव | एव मोक्षः / स च जन्मादिव्यावाधारहितोऽनन्ताव्यावाधज्ञानादिपूर्णश्चेत्युपादेयतया वक्तुं शक्येत, परं तथा- IS स्वरूपो मोक्षः साधुधर्मपालनस्य फलत्वेन परमप्रयोजनतयाऽऽख्येय इति नात्राधिकृतः। किञ्च-सामान्येन सर्वेऽप्यास्तिका अविवादेन मोक्षमाप्ति भवविच्छेदादभ्युपयन्ति, मुक्तानां स्वरूपादिषु अनेकानां विपतिपत्तीनां भावात् , न सोऽत्राधिकृतः, किन्तु सर्वास्तिकप्रतिपन्नं भवविच्छेदरूपमेव फलमत्राधिकृतमिति / यद्वा मोक्षस्य स्वरूपे न काचिच्छ्रोतृणां विधेयता, भवविच्छेदे सति तस्य स्वभावत एव सिद्धत्वात् / श्रोत्पुरुषार्थविषयस्तु. भवविच्छेद एव / अत एव भगवद्भिस्तत्वार्थकारैरपि-'कृत्स्नकर्मक्षयो | मोक्ष' इत्युक्तं, कर्मक्षयस्यैव पुरुषार्थविषयत्वात् / तथा च पञ्चमसूत्रे यन्मोक्षादेः स्वरूपं निरूपितं तत्तत्स्वरूपस्य सिद्धस्य ज्ञापनार्थ, पुरुषार्थविषयतया साध्यं प्रयोजनं तु भवविच्छेद एवेति सुष्ठुक्तमेतस्य | व्युच्छित्तिरिति / यद्यपि 'पुण्यापुण्यक्षयान मुक्ति'रितिवचसः प्रामाण्यात् भवस्य व्युच्छित्तिरभिप्रेता या // 8 // सा शुद्धधर्मान्न भवति, तस्य पापकर्मविगमभवत्वात् पापविगमं प्रति तस्य कारणत्वाञ्चेति, परं 'ठिक अणुभागं कसायओ कुणई'त्युक्तेः स्थितिभा द्वयमपि पापरूपेभ्यः कषायेभ्य एव भवति / तत एव च DIP.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhakrust Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसूत्र आगमो. द्वारककृतिसन्दोहे // 8 // | मनुजगतिर्न केवलं पुण्यं पुरस्कृत्य परावर्त्तते परिवर्त। किञ्च-शुद्धधर्मेण घातितेषु घातिषु अघातीनि तु || भवोपग्राहीणीति न भवान्तरमाधातुमलम्भूष्णूनीति पापकर्मक्षय एव भवक्षयशब्देनाभिप्रेत इति। यद्वा शुद्धधर्मशब्देन केवलानि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि न गृहीतव्यानि, किन्त्वयोग्यवस्थाभाविनी सर्वसंवरसर्वशरीर वार्तिकम् विपहाणहेतुनिर्जरामय्यवस्था ग्राह्या / तत्कारणतया पापकर्मवियोगो यदा गृह्यते, तदा सर्वस्यापि कर्मणो | मोक्षपतिबन्धकत्वात् पापकर्मताऽवधार्येति / प्रस्तुतस्तु शुद्धधर्मश्चरमावर्तभाविनी मार्गाभिमुखाद्यवस्था परिगृह्यते, तत्रैव तथाभव्यत्वपरिपाकादेरारम्भात् / अत एव सदन्धमार्गप्रवृत्तिन्यायेन तद्वर्तिनां चेतसो- IN | ऽवक्रगमादिना मार्गानुसारितोच्यते / यद्यप्युपचारतः सकृद्धन्धकादेरप्यस्त्येव योगपूर्वभूमिका, परं तत्त्व- | दृष्टरेवाधिकाराचरमावर्तभाव्येव शुद्धधर्मो गृह्यते / शुद्धधर्मप्राप्तिश्चानन्तशो जाता भव्यानामपि प्राक्, अनन्तशो | ग्रैवेयकोपपातश्रुतेः, परं चरमावर्तभाविनी भावप्राप्ति लक्षयितुं सम्प्राप्तिरिति समा विशेष्यते / ततश्च शुद्धधर्मसम्प्राप्तेः कारणतया पापकर्मविगमो भवबालकालगतमोहविगम इति वाच्यः, तस्यैव चरमावर्तगतशुद्धधर्म- HI सम्माप्तेः प्रतिबन्धकत्वात् / तथाच न सद्वद्यादिभिन्नतयाज्ञानावरणीयादितया वोक्तं पापकर्म नैवात्र ग्राह्यं / अत एव तथाविधस्य तस्य विग तथाभब्यत्वादिभाव एव हेतुतयोक्तः, तदवसरे कालोद्यमस्वभावा दीनामहेतुत्वस्य गौणहेतुत्वस्य वा स्वीकारादिति / परावर्तस्यान्त्ये भाविन्या अपि निरादिकभवविच्छित्तिरस्या एव चरमावर्त्तमाविन्या मार्गप्रवृत्तेरिति नायुक्तम् 'एअस्स णं वोच्छित्ती'त्यादिवचनं, अनन्त्यपुद्गलपरावर्तीयभवबालकालीनमोहपापकर्मविगमस्तथाभव्यत्वभावत एव, तत्रेतरहेतुसरवेऽपि स च भवति कालादेव प्राधान्येन सुकृतादिभावेऽपी'त्युक्तेः कालादेव चरमावर्तलक्षणात् तथाभव्यत्वं, आदितस्तत्परिपाक- // 1 // स्तत्कारणानि चेतराणि गौणतया ग्राह्याणि / अत एव 'जे एवे'त्यादि 'एयस्स णं वोच्छित्ती'त्याद्यनूद्य A - -- -- MP.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 82 // 21 सूत्रद्वयवत्तृतीयानूधसूत्रे वक्ष्यमाणे 'तस्स पुणे'त्यत्र तच्छब्देन तथाभव्यत्वमेव परामशिष्यन्ति प्रकरणकारा NI भागमो इति / न च वाच्यं समासे गौणीभूतं तथाभव्यत्वं कथं परामृश्यते ? इति / 'अष्टापायविनिर्मुक्तस्त- पञ्चसूत्र द्धारककृतिदुत्थगुणभूतये' इतिवद् गौणस्य विशेषणीभूतस्यापि ग्रहादिति / यद्वाऽदिशब्देन तत्परिपाक एव गृह्यते, मा वार्तिकम् सन्दोहे ततश्च 'मुख्यस्य परामर्श' इति तथाभव्यत्वस्यापि भव्यत्ववदनादित्वात्तस्य पाकः प्रतिपुद्गलावर्त भवत्येव, / परं न तत्र चतुःशरणगमनाद्यध्यवसायस्योद्भवः, किन्त्वत्रैव चरमावर्तीय एव पाके इति विशिष्टत्वादेतस्य / पाकस्य आहुः प्रकरणकारा' विपाक' इति / यद्यपि तथाभव्यत्वस्यापि विपाकश्चरमावर्तवर्तिकालविशेषादेव, | तथापि तद्विपाककालेऽवश्यमेतानि चतुःशरणगमनादीन्यवश्यं भवन्ति मोक्षकाले समग्रकर्मक्षयसद्भाव-K | वदिति / यद्यपि सामान्येन त्रयाणामपि शरणगमन-दुष्कृतनिन्दा-सुकृतानुसेवनानां सामान्येन तथाभव्यत्व- A | विपाकसाधनत्वमुक्तं तथापि दुष्कृतसुकृतानां स्वरूप प्रतिशासनं भिन्नमित्यार्हतशामनानुसारिणी ते ग्राह्ये | इति प्रथममेव चतुःशरणगमनं व्याख्यातुमुचितमिति / चित्तसमाधानपूर्वकस्य सकलानुष्ठानस्य शुद्धफल- K RI दायित्वं / तत एव च सकलानां स्वाध्यायध्यानावश्यकादिविशेषानुष्ठानानामीर्यापथिकीप्रतिक्रमण- | Ki पूर्वकता मता इति / अत्रापि सुकृतानुसेवनस्यादौ दुष्कृतगर्हाया आवश्यकता। पापधिक्कारवतामेव / | धर्मसिद्धेः सम्भवात् सुकृतानुसेवनरूपस्य धर्मस्य सिद्धिहेतोरपि दुष्कृत निन्दारूपस्य पापधि-| कारस्यावश्यकता अनिवार्येति / शरण्येष्वपि चतुर्णामेवान्यूनातिरिक्तानामेव शरणदातृत्वे योग्यता, | शरण्यताग्रहणमपि चतुर्णामेवाईदादीनां योग्यं, यतो न विहाय चतुर एतान् जगत्यस्ति कोऽपि | तथाप्रकारस्त्राता पापेभ्यः, साधकश्च निःश्रेयससाधनानां तथाभव्यत्वपरिपाकवांश्च जीवो निःश्रेयसमार्गस्य देशकतया प्रथममर्हतः शरणं प्रपद्यते, प्रतिपन्नश्चाईतां शरणं तदैव निश्चितं मोक्षसाधनसमर्थः स्याद्यदि | P.P. Ac Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो IN सनातनपदस्थाः सच्चिदानन्दपूर्णाः शाश्वताः सिद्धा मोक्षमार्गप्रवृत्तिफलरूपाः स्युरिति योग्यमेव द्वितीयं I पश्चसूत्रद्वारककृतिता सिद्धानां भगवतां शरणीकरणमिति / लब्धे मार्गे स्थिरेऽवश्यप्राप्तव्ये निश्चिते च साध्ये तत्प्राप्तये यत्न / वार्तिकम् आस्थेयो बुद्धिमद्भिः, परं स यत्नो नैकाकिनाऽनादिकालीनप्रमादग्रस्तेन साध्यते, न च निःसाधनो यत्नः / सन्दोहे कार्यसाधक इति सहायकाः सन्मार्गोपदेशकाः सहायकाश्चावश्यमेष्टव्याः साधव इति तृतीयं शरणं | ___83 // साधवः / भगवद्भिः केवलिभिः श्रीअहंदादिभिः प्ररूपितं शासनं धर्मरूपं यत् तदेवापवर्गप्रापणप्रवणोऽध्वेति / तस्याप्यसाधारणोपकारकतया तत्त्वतस्त्वपवर्गमार्गरूपतयाऽवश्यं स्वीकरणीयैव शरणतेति योग्यमेवान्यूनाति- I रिक्ततयाऽसाधारणोपकारकतया च चतुर्णामेव शरणानां स्वीकार इति / एवं च चतुरन्तपृथ्वीसाधनसमर्थचक्रवर्तिचक्ररत्नवच्चतुर्गत्यन्तकारकचतुःशरणचक्रे गृहीते ऋषभकुटभेदवद्दष्कृतानां तद्गद्विारा भेदनं, नवनिधानसाधनवञ्च सुकृतानामनुसेवनं च स्वभावसिद्धमेव, तवयमन्तरा तात्त्विकस्य चतुःशरणगमनस्यैवासम्भवात् / एवं च तत्त्वतः पारम्पर्येण सकलस्य मोक्षमार्गस्य सिद्धिरेतत्रितयेनेत्यत आहुः प्रकरणकाराः श्रीमदईतां भगवतां वाक्यानुवादेन-'अओ कायव्वमिणं होउकामेणं ति, यत एतावता ग्रन्थेन साधितमिदं यदुत-चतुःशरणगमन-दुष्कृतनिन्दा-सुकृतानुसेवनैस्तथाभव्यत्वादेविपाकः, तस्माच तथाविधानां पापकर्मणां नाशः, नाशाच्च तथाविधानां पापानां शुद्धधर्मस्य सम्प्राप्तिः, तस्याश्च शुद्धधर्मसम्पत्तेरनादिकर्म| संयोगनिर्वतितस्य भवस्य व्युच्छेद इति / ततो भवविच्छेदानन्तरभाविना . सिद्धावस्थेन भवितुकामेन कर्तव्यमिदं, सावधारणत्वाच्च कर्त्तव्यमेवेदं त्रयमिति / अतः साधितकर्त्तव्यस्यास्य विधेः कालं दर्शयितुमाहुः प्रकरणकारा अनुवादयन्त:-'भूजो 2 संकिलेसेतिकालमसंकिलेसे'त्ति संक्लेशश्चात्र भयानके रोगे IS ME3 // दीर्घकालीने आमये कस्मिंश्चिदपि वा मरणदायिनि प्रसङ्गे उपस्थिते या मनसो व्यग्रता तदुत्थः LAC.Gunratnasuri M.S.' ' Jun Gun Aaradhak Trust Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 84 // Id आत्मपरिणामः, तस्मिंश्च सति यदा यदा शक्यं कर्तुं त्रयमिदं / किश्च-तदा तदा कर्तव्यमेव, नात्र सूत्राध्यमागमो. यतादिवत् कालाकालखाध्यायिकेतरविचारः। एवं चास्य केवलकथितत्वेऽपि च भूयोभूयः पाठ्यताऽऽम्नाता, पञ्चसूत्रद्वारककृति- आज्ञाधीनं च प्रवचनं,मरणोपनाराधनायाः शिवसद्गतिप्राप्तिपादपकन्दत्वात् नैतदशोभनं,एवं रागाधाबाधारहितः वार्तिकम कालोऽसङ्क्लेशकालः, तस्मिन् सति 'तिकालं'ति अहोरात्रे कालत्रितयग्रहणात् अहोरात्रश्चादिमध्यान्त्यभागरूप, सन्दोहे | सन्ध्यात्रयं,आद्यन्त्ये सन्ध्ये दिवसरात्र्योः, द्वयोरपि तत्रांशेन प्रवेशात् , यथैकस्यैव पुत्रस्य मातापित्रुभयसम्बन्धात् | उभयोरपि पुत्रतया व्यपदेशस्तथाऽऽचरणया दिवसस्यायन्त्यभागभाविन्योरपि सन्ध्ययो रात्रेरनन्तरतया / रात्रिसम्बन्धितयाऽपि कथने नासङ्गतिः काचित् / अत एव शास्त्र चतुःसन्ध्यत्वमहोरात्रस्य गीयते इति / त यथा लोके आरक्षकाः सदा ध्रियन्ते. परमापत्तौ भयस्य सावधानत्वाय भूयोभूयः प्रेर्यन्ते / एवमिदमपि | चतुःशरणगमनादित्रयं मरणोपाग्रकाले आरौिद्रध्याननिवारणाय दुर्गतेस्त्राणाय च विशेषेण विधेयमिति IA भूयोभूयः सङ्क्लेशे कर्तव्यमिदमित्युक्तं / परं भयरहितेऽपि प्रस्तावे. न धारिता न वा कृतकरणा ये 14 आरक्षकास्ते नैवोपयुज्यन्ते इति भयरहितेऽपि प्रस्तावेऽवश्यं धार्यन्ते कृतकरणाश्च क्रियन्ते तद्वदत्रापि तथाविधामयादिजनितातरौद्रध्यानदुर्गतिगमनादिप्रसङ्गाभावेऽपि अवश्यमभ्यासार्थ तत्करणपाटवार्थ सङ्कलेशरहितेऽपि अवश्यं त्रिसन्ध्यं करणेनाभ्यसनीयं तत्करणपाटवं च सम्पाद्यं प्रागुक्ता कालारक्षकधरणवदिति सम्पूर्णोऽवाभवत् | श्रीप्रकरणकारभगवदनूदितः श्रीमदर्हद्भगवद्वचनप्रबन्धः // अतीन्द्रियत्वाद्विषयस्य चास्य, शास्त्रेऽत्र वाक्यं खलु सूत्रकारैः / अनूदितं श्रीजिनराजनाम्ना, पुरोन वाक्यानि सुधीरितानि // 1 // जिनाः समस्ताः समकालभाविनः, समोदितास्तत्वततिप्रताने। ततो बहूनां वचनानि लात्वा-अनुवाद एषोऽत्र कृतो जिनानाम् ॥२॥श्रुत्वा चैतद् भगवद्भाषितमनूदितं च प्रकरणकारैर्जाताऽऽसन्नसिद्धिकत्वाच्छोतुश्चतुःशरणगमना // 84 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak.Trust Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Viदित्रितयसावधानमनस्कता जातायां च तस्य तस्यामिङ्गिताकारवोधकुशलाः परोपकारैकव्रतदीक्षिताः मोक्षाध्व- 121 पञ्चसूत्रआगमो RI गमनतत्पराणां सम्यग्दर्शनादिभिरभ्यन्तरैर्वसत्याहारग्रहणासेवनशिक्षावैयावृत्त्यसन्मार्गगमनप्रोत्साहनदुर्ध्यानाव- I वार्तिकम् द्वारककृति काशरोधनपरायणताविधान बैश्च साधनैः श्रीमरिप्रभृतिपदप्रतिष्ठिताः साधवस्तां तस्य जातामवगम्य साम्येन म सन्दोहे H संगृह्य तच्चतुःशरणादित्रितयं यथायथं सत्रार्थोभयैः समर्याध्यापयन्त्यादरात् परमगुरुसमाराधनसावधानमनस्कानां! सूरिपुरन्दरादीनामनुकम्पया तथाविधेन स्वप्रयत्नेन लब्धचतुःशरणगमनादित्रयविषयकग्रहणासेवनशिक्षो भाविभद्रक आदृत्यापवर्गसाधनतत्परतामाह इदं सकलश्रीश्रमणादिसङ्घसमक्षं स किमिहाह इति शङ्कासमाधानाय शिक्षाप्रवणशक्षकवचनान्येवाहुः-'जावज्जीव में' इत्यादि / नाविदितमेतद्विदुषां यदुत-जन्मजरामरणातमसारमात जगदशरणं समीक्ष्य श्रोताऽयमुद्विग्नः स्वतो भवाद् , तत एव च भगवद्भिरपि भवस्यैतस्यानादिता तद्वदनादिकर्मसंयोगनिर्वतितता चाख्याता, जीवस्यानादितायाः साधनमपि तादृशस्य दुःखमयस्याशरणस्य भवस्यानादितायाः साधारणार्थमेव / तथा चाभिसमीक्ष्य भवस्य तथाविधे दुःखमयत्वेऽप्य- IN शरणतामवश्यं शरणमङ्गीचिकीर्षः स्यात् / अत एव च श्रीमदहद्भिर्भगवद्भिरपि त्रयाणां कर्त्तव्यानामादौ शरणगमवस्त्वभिधानपदमानीतं / अत एव श्रोताऽऽह-'यावजीवं मम शरणं भगवन्त' इति / तथाच ज्ञातं I | मया निःसारं जगत् , अवबुद्धो मया जन्मजरामरणार्तिपूरितो भवः, भीतोऽहं जन्मादिमहाव्यथापूर्णात् संसाA रात्, न वीक्षितं पूर्णेऽपि जगति मम रक्षणे प्रवीणं किश्चित् , अधुनैव . च लब्धा भवत्राणविधानवेधस एते, ततो निश्चलोऽहं जातोऽवधान एतस्मिन् यदुत-अनादिकालादलब्धपूर्वा एते शरणसमर्था अधिगता भगवन्त इति, न कदाप्येतान्मोक्ष्यामि, न च अन्यथाधीभूत्वा परान शरणं श्रयिष्य इति निश्चित्य | चेतसेदमाह यदुत-भगवन्तो यावजीवं मम शरणमिति / तथा चैतत् कालावधारणं सातत्यार्थ, - न // 85 // P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसूत्र // 86 // भवान्तरे शरणस्य निषेधार्थ, तद्भावे तत्र तस्यापीष्टत्वादेव भवान्तरमावस्यानिच्छनीयत्वाच्च न तत्र आगमो भाविशरणविचारः। यच्च 'मे सेवा भवे भवे तुम्ह चलणाण' मितिपाठेन भवान्तरसेवाप्राप्तिप्रार्थनं क्रियते, ति। द्धारककृतितन्न मुख्यवृत्त्या करणाहमिति तु तत्रस्थेनैव 'वारिजइ जइवि नियाणबंधण'मित्यनेन स्पष्टयत एवेति / वार्तिकम् यावजीवमिति योग्यमेवेति / आभवं न मुञ्चाम्येतान् भगवतः, आजीवनमेतेषामेव भक्तौ तत्परो भविष्यामि सन्दोहे न चान्यान् कानपि तथाविधान् सम्भावयामि यानाश्रितुमुन्मनाः कदाचिदपि भविष्यामीति अनन्यशरणतयैवैतान् भगवतो यावजीवमनन्यमनाः श्रयिष्यामीति / 'मे' इत्यस्मत्पदमसमानशरणाश्रयणद्योतनाथ / तथा चाहमेवासाधारणतया भगवतः श्रयामि मद्विधःशरणं प्रतिपनो न कश्चिद्भवभ्रमणपीडापीडितः प्राणीति ज्ञापयत्यनेन / किञ्च-भ्रान्तः पूर्व समस्तेऽपि जगति. परं क्वाप्यात्मसाधनवानपि याथातथ्ये | नोपलब्धा,सर्वेषामपरतीर्थीयानामर्थकामस्वर्गभूतिकामनापराणां शरीग्तत्पोषणसाधनस्थानसन्तानसमृद्धिसमुदाय| प्रवर्तनादिष्वेव प्रयत्नशीलत्वदर्शनात् / सति चैवं ज्ञानादीनामात्मस्वरूपभूतानामनाविभूतानामाविर्भवनगेगेन लब्धानामपि तेषां निष्पत्यूहं रक्षणपरायणतया या नाथता लभ्या, तस्याः स्वप्नोऽपि न तत्र ज्ञायते, तहि अत्र श्रीमदर्हतां भगवतां शासनं तु सदेवासुरमनुष्यस्य लोकस्य त्रिलोकगतस्य योगक्षेमकरणतत्परतया नाथरूपं, तत्प्रणायकाश्च 'अरिहा ताव नियमा तित्थयरेति वचनात्तस्य शासनस्य नियतं / प्रवर्तका एवेति / सर्वमेतद्विचिन्त्यैव ब्रवीमि 'परमतिलोगणाह'ति, त्रिलोक्यां शासनस्य प्रवर्तनात् / परमत्रिलोकनाथा इति / न च श्रीमदर्हतां भगवतां परमत्रिलोकनाथताऽसम्भविनी, यतस्त एव त्रिलोक्यां / वर्तमानेषु सत्त्वेपु समग्रेषु परमैश्वर्यभाजो भवन्ति / तत्र च हेतुरेक एव, यतस्त एव अचिन्त्यपुण्यसम्भारा इति / विदितमेतद्विदुषां यदुत-सर्वास्वपि कर्मप्रकृतिषु अर्हनामैव तादृशं यद्वन्धोदयादिषु सर्वेषु | // 86 // S P.P.Ad Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चसूत्र // 87 // आगमो- || प्रशस्तं, बध्यते च तदन्तःकोटीकोटीसागरोपमस्थितिकं तन्नामबन्धप्रभावेणैव भावितीर्थकरजीवा अनेकद्धार ककृति | भवेषु निःश्रेयसपथप्राप्तिभावनयाऽवश्यंभावितभावा एव भवन्ति / तीर्थकरभवात्तृतीयस्मिंस्तु भवे अवश्य | वार्तिकम् सन्दोहे | वरबोधिलाभेनैव ते बुध्यन्ते, तत्प्रभावेण च ते परार्थोद्यमिन एव भवेयुः / वरबोधेरनन्तरं श्रीअर्हदादीनां पदानां यदाराधनं कुर्वन्ति, तदपि गौणे स्वनिस्तारणभावे सत्यपि परनिस्तारणहेतुत्वेनैव तादृशे धर्माराधने तेषां भाग्यवतामेषैव भावना यदुत-विद्यमाने एतादृशे भवनिस्तारणपरे श्रीजैनेन्द्रशासने किमिति प्राणिनो भ्राम्यन्ति जन्मजरातकान्तकाकीर्णे भवे, तदेनान् समस्तान् अनेनैव शासनप्रवहणेन निस्तारयामि दुःखजलधेर्भवादिति, एतादृश्या एव भावनायास्तेषामर्हदादिपदानामाराधनात् श्रीजिननाम्नो बन्धो- 19 दयादिषु सर्वेषु शुभरूपायाः कर्मप्रकृतेर्बन्धो निकाचितो जायते, मृताश्च तत एकभवान्तरितास्ते अवश्यं | तीर्थकरा भवन्ति / अत उच्यते-'अचिन्त्यपुण्यसम्भारा' इति / न हि प्राप्य वरबोधि परार्थोद्यतास्ते | भावितीर्थकरजीवा अपि न हि श्रीजिनपदप्रभावजं पुण्यप्राग्भारं जानीतुं शक्ताश्चेतयन्ति चिन्ताविषयमपि / वाऽऽनयन्तीति युक्तमुच्यते 'अचिन्त्यपुण्यसम्भारा' इति / एतादृशात् पुण्यसम्भारादेव गर्भावतारसमय एव ISI गजादिचतुदर्शभ्राजिष्णुमहास्वप्नदर्शनं मातुः, जातमात्रे सुराचलमूर्ध्नि सुरासुरेन्द्रश्रेणिनिर्मितो जन्माभिषेकः, यावनिर्वाणकल्याणकमहोत्सवकृतिरपीन्द्रादीनां, तदेवमपरिमितत्वादचिन्त्यत्वाच्च तदीयपुण्यप्राग्भारस्य कियत्कथ्यते यावत्सर्वेषां सर्वविदां सर्ववित्त्वे समानेऽप्यचिन्त्यपुण्यप्राग्भारास्तीर्थकरा एव तेषां, यतो भगवतां जिनेश्वराणामेवैष पुण्यप्राग्भारोऽचिन्त्यो यत्-तेषां या भविष्यद्वाणी सा यानेव संशयान समूलं यथावदुच्छेत्तुमलम्भविष्णुस्त एव संशयाः. श्रोतृवर्गस्योत्पद्यन्ते, न न्यूना नातिरिक्ताः / न च विहायाचिन्त्यपुण्यप्राग्भारान्वितान् विहाय जिनेश्वरानन्यस्य कस्यापि सर्वविदोऽप्यस्त्येषोऽतिशयः / 15 // 87 // (NIPP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्वारककृति सन्दोहे 1188 // किञ्च-भगवतां जिनेश्वराणामेवान्योऽपि पुण्यप्राग्भारोऽचिन्त्यो यद्-अपरिमिता अपि श्रोतारो योजनमात्रे क्षेत्रे भगवंद्देशनामृतपानोद्यता देशनाक्षेत्रे स्थातुं शक्नुवन्ति / सर्वेऽपि नरतिर्यग्देवादयो भगवन्मुखपद्म- I पश्चसूत्रविनिर्गतां देशनागङ्गामवगाह्य स्वस्वभाषातया परिणतिमापन्नां देशनावचनततिमवगाहन्ते / एत इवाऽपरेप्य वार्तिकम् तिशया अद्भुततमा भगवतां जिनेश्वराणामेव, अतः सत्यतममेतद् यदुत-भगवन्तो जिनेश्वरा अचिन्त्यपुण्यसम्भारा इति / यद्यपि श्रीमतामर्हतां भगवतां जिननाम्नो बन्धकालाद्विशेषतश्च निकाचनकालादूर्व जायत एवानुत्तरपुण्यप्राग्भारोदयः, तस्मादेव चैकेन्द्रियादिष्वपि गता जात्या एव ते भवन्ति, निकाच-2 नादनन्तरं प्राग्बद्धतथाविधकर्मप्रभावाद् गता नरकेष्वपि नान्यनारकवदनुभवन्त्यसातं, तत एव च 'उववाएण व साय'मित्यादिकायां गाथायां 'कम्मुणो वा वित्ति पठ्यते, देवेष्वपि जातानां निकाचितजिननाम्नां न माल्यम्लानिरित्यादीनि षड् महाऽशोककारणानि भवन्ति, जाता अपि मनुष्यभवे उत्तमसंहननादियुता एव भवन्ति, भवन्ति च तेषामेव भगवतामचिन्त्यपुण्यप्राग्भारादेव देहसौगन्ध्यादिकमतिशयचतुष्कमन्यजगतीजनकल्पनाविषयातीतं, परं तीर्थस्थापनाद्यवसरेषु धर्मदेशनाप्रभावार्थ यत् चतुस्त्रिंशदतिशयसमूहयुतत्वमिन्द्रादिविहिताविच्छिन्नभावार्हन्त्यनिबन्धनमतिशयचतुष्कं च, तत्तुं प्रक्षीणेषु घातिकर्मसु रागादिषु तत्पभावादेव च 'केवलियनाणलंभो नन्नत्थे ख़ए कसायाणमितिवचनाच्चरिते जाते सार्वज्ये भवत्यत आहुः प्रकरणकारा भव्यजीवमुखेन 'क्षीणरागद्वेषमोहा' इति / यद्यपि परमाईतीयेषु कर्मप्रकृत्यादिशास्रेषु जीवानां सम्यक्त्वमूलकतत्त्वत्रयीविषयकाप्रीतिकारकप्रीतिघातकतयाऽष्टादशानां हिंसादीनां पापस्थानानां रत्या चानन्तानुबन्धिनः कषायाः सम्यक्त्वघातकाः, पापदेशस्याप्यपरिहारादेशविरतेः प्रतिबन्धका अप्रत्याख्याना आरम्भपरिग्रहविषयकपायाद्यासक्त्या सर्वविरतेः प्रतिबन्धकाः प्रत्याख्यानावरणाः, अकषाय // 8 // RIP.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसूत्र // 89 // ___ आगमोः / यथाख्यातचारित्रप्रतिबन्धकतया सज्वलनाश्चेति वर्गचतुष्कवर्तिनः क्रोधमानमायालोभाः कषाया इत्येव द्वारककृति- कथ्यते, हास्यादिनवकं सनिमित्तमितरथा वाऽऽविर्भवन्नोकषायशब्देनाभिधीयते, परं न क्वापि कर्मप्रकृतीनां | मूलेघूत्तरेषु वा भेदेषु रागद्वेषमोहा इति दोषत्रय्युत्कीर्त्यते, तथापि जीवस्य यत् स्वास्थ्यं तच्चलनं / वार्तिकम् सन्दोहे रागद्वेषमोहरूपं, ततश्च द्वेषात् क्रोधमानयोः रागान्मायालोभयो!कषायेभ्यो हास्यादिषट्के च या प्रवृत्तिर्जायते सा मोहनीयस्य भेदेषु गुणस्थानक्रमेण क्षय्येषु कर्मभेदेषु मोहत्वेन कषायत्वेन नोकषायत्वेन च / कथ्यते / तत्त्वतस्त्वात्मस्वास्थ्यबाधका रागद्वेषमोहा एव रिपवस्ततः सुष्टूक्तं 'क्षीणरागद्वेषमोहा' इति / | | यद्यप्यनुत्तरपुण्यसम्भारः सर्वज्ञतावगताभिलाप्यानभिलाप्यपदार्थत्वेऽभिलाप्यार्थदेशित्वेन जीवादीनां तत्त्वानां || | द्वादशानां पर्षदां पुरतो युगपत्समग्रश्रोतृजनसंशयच्छेदकारिण्या स्वस्वभाषापरिणामिन्या देशनया सङ्गत्तेवे। व भगवत्स्वईत्सु जगजनचेतश्चमत्कारकारको श्रीमदर्हतां भगवतामहत्ताया अवबोधकश्च भवति, परं जगति / A सर्वेऽपि प्रावादुकाः स्वस्वतीर्थप्रणेतारं सर्वज्ञत्वेन तद्वत्त्वावधारणादेव च यथार्थवस्तुदेशकत्वेनावधारयन्ति / न च तत् तथ्य, यतो जीवानां हि संसारभ्रामककर्मबन्धननिबन्धनभूतौ रागद्वेषौ समोही यावन्न समूलका कष्येते, तावन्न स्वच्छतामविकलामात्मनि धारयितुमलम्भूयते / अतः कार्यभूतमपि सकलसचोपकार-II | मूलनिबन्धनमपि सर्वज्ञत्वादिकमुपेक्ष्य क्षीणरागद्वेषमोहत्वमुदीरितमहतां भगवतां शरणमभ्युपगन्तुकामेन | | भव्यजीवात्मना। तत्त्वत एषामेवात्मस्वरूपबाधकत्वान्निराकार्यता, तन्निराकरणादेव च श्रीमतामर्हतां भगवतां | शरणदानपटुता स्वीकृताऽस्तीति / किञ्च-सुदेवकुदेवानां * विभागे यथावस्थितवस्तुवादिताया निर्णय आवश्यकः, तमन्तरा जगदुद्धारादिक्रिपाया असम्भवात् , परं स निर्णयो यदि परवाक्यसन्ततेः प्रामाण्येन // 9 // क्रियते तर्हि सत्यसर्वज्ञतावत्वेन सिद्धसुदेवत्वस्यापि सुदेवत्वेन निर्णयो विधातुमशक्यः। यदि च तदीय- 11 2 .P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 9 // यैव वाक्यसन्तत्या तस्य सर्वज्ञता वेविद्यते, तर्हि तु कस्यचिदेव मात्रयाऽल्पया चुक्कस्खलितेनासर्वज्ञता| भागमो. | घोतिका स्याद्वाक्यसन्ततिरिति न वाक्यसंहत्या सत्यसर्वज्ञताया निर्णयो विधातुं पार्यते, न च सर्वज्ञा- II पञ्चसत्रद्वारककृतिA सर्वज्ञतयोरस्ति किञ्चिचिह्न तथाविधं, येनाविनाभूतेन सार्वश्यप्रत्ययो विधातुं सुकरः स्यात् / न चैवं वार्तिकम् सुदेवकुदेवत्वयोविभागः कर्तुमशक्योऽसम्भाव्यो वा ? किन्तु सर्वश्रेयसां मूलस्य यथावस्थितवादित्वस्य यथा | सन्दोहे सार्वयं मूलं, तथैव सार्वज्यस्याप्यविनाभूतं मूलमस्त्येव वीतरागत्वं / तत्र च यद्यपि वीतरागत्वसिद्धथै न कश्चिद्वीतरागतया प्रतिबद्धमस्ति किश्चित्तथाविधं गमकं चिह्न, तथापि वीतरागतायाः प्रतिपक्षभूतं रागस्य द्वेषस्य मोहस्य च गमकमस्त्येव तथाविधं चिह्नं, तथा चान्वयव्याप्त्या वीतरागत्वस्यासिद्धत्वेऽपि व्यतिरेकव्याप्त्या वीतरागत्वाभावसाधनं न दुष्करं, सिद्धे च तस्मिन् तद्वतः असर्वज्ञत्वकुदेवस्वायथावस्थितवादित्वादयः स्वत एव सिद्धाः। न च वाच्यं गृह्यन्यलिङ्गसिद्धिवादिनां जैनानां मते व्यतिरेकिणो हेतोरेव नास्ति सिद्धिरिति, यतो ये हि गृह्यन्यलिङ्गसिद्धा उच्यन्ते, ते हि यद्यन्तर्मुहूर्त्ताधिकायुष्काः स्युस्तहि तेऽवश्यं स्त्रीशस्त्राक्षमालादिवियुता एव भवेयुः, स्वलिङ्गग्रहणस्य तेषामप्यावश्यकत्वात् / ततः IN/ सदा स्त्रीशस्त्रादिधारका ये तेषां तथाकालिक्या व्यतिरेकव्याप्या न चिद्वतां किञ्चिद्वाधकमिति / न R च वाच्यमेवं व्यतिरेकव्याप्त्या वीतरागत्वं तन्मूलं च साश्यं सिध्येत् , न तु सुदेवत्वं, यतः सर्वज्ञात | हि प्रति उत्सपिण्यवसर्पिणीरसख्या भवन्ति, सुदेवास्तु चतुर्विशतिरेवेति / सुदेवत्वं हि न केवलं ब्वतिरेकव्याप्त्या सिद्धेन वीतरागत्वेन साध्यते, किन्तु तया कुदेवत्वाभावो निर्णीयते / एवं चायोग- / / | व्यवच्छेदार्थोऽयमारम्भो, नान्ययोगव्यवच्छेदार्थः। सिद्धे चैवं कुदेवत्वाभावे वीतरागत्वसिद्धया सार्वश्य| सिद्धिः / तस्यां च यथावस्थितवादित्वादिसाधनं सुकरमेव, सिद्धेष्वेव चैतेष्वभीप्सिताऽर्हतां भगवतां || Jun Gun Aaradhak Trust . // 9 // VIP.P.AC.Gunratnasuri M.S. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसुत्र वार्तिकम् __ // 9 // भागमो- 5/ सुदेवत्वसिद्धिरप्रतिहतैवेति प्रोक्तमावश्यकं प्रकरणकारैर्भगवतामईतां विशेषणं 'क्षीणरागद्वेषमोहा' इति / द्वारककृति क्षीणाश्चापुनर्भावेन विलयं गताः, अन्यथा तु प्रतिक्षणं संसारिणां रागद्वेषमोहानां वेदनात् 'विपाकोऽनुभवः / ततश्च निर्जरे तिवचनप्रामाण्यात् क्षीयन्ते एव रागद्वषमोहानां परिणतयस्तत्कारणभूतानि कर्माणि च / ...सन्दोहे रागद्वेषमोहानामपुनर्भावेन क्षयः क्षपकश्रेण्या एव, नोपशमश्रेण्या / अर्हन्तो भगवन्तश्च तीर्थकरभवे नोपशमश्रेणिमारोहन्ति, न चापरमप्यौपशमिकभावं, किन्तु क्षायिकमेव भावं / जात्यं हि रत्नं नैर्मल्यमासादयदवस्थं स्वकान्तिप्राग्भारेणालयमुद्योतयत्येव, न कदाप्यन्धपाषाणादिवदप्रकाशं तद्भवति / तद्वन्जिना अपि लब्धतथाविधसाधनाः क्षायिकमेव भावमाप्नुवन्तीति योग्यमुक्तं-'क्षीणरागद्वेषमोहा' इति / क्षीणरागद्वेषमोहत्वादेव च न स्त्रीशस्त्राक्षमालायकाः, न च जगज्जननस्थेमक्षयादिवादेन जगतोजागतयोनिग्रहानुग्रहयो| दर्शकाः / श्रीमदईतां भगवतां क्षीणरागद्वेषमोहता तु तदीयानामागमात् वृत्तान् मूर्तेश्च, यतस्तै केवलस्य मोक्षस्यैव साधनायागमा आख्याताः, आगमेषु तेषामभ्युदयार्थिताऽपि प्रतिबद्धा, यतस्तदीप्सापूर्त्यभिलाषिणां कृतोऽपि धर्मो न निःश्रेयसापकः पारमार्थिकश्च, सर्वेष्वप्यागमेषु सातत्येन मोक्षमार्गस्योपदेश व्यतिरिच्य न किमप्यन्यदुपदिष्टं / न चाक्षीणरागद्वेषमोहत्वेन स्वयं पुत्रपौत्रादिप्रसक्तो ललनालालनासक्तो गृहपुत्रदारादिममत्ववानेवं परेभ्य उपदेष्टुमुद्यतः स्यात् / न च परोपदेशपाण्डित्यवत्तदुपदेशं शृणुयुराचरेयुर्या I सन्त इति / अवश्यं ज्ञायते यदुताक्षीणरागद्वेषमोहत्वादेवोपदिष्टा एवंविधा आगमाः, गणभृदादिभिस्तदीयो| पदेशमनुसृत्य स आगमार्थो यथावदाचीर्ण इति / वृत्तं च भगवतामईतां क्षीणरागद्वेषमेव, उत्पत्तेः केवलस्याजन्म कोटीकोटीसुरसेवायास्तेनैव हेतुना भावादाख्यायतेऽपि तथैव / यतः क्षीणघातिकर्मणां भगवतामर्हतामेकादशातिशया लोकानुभावत आविर्भवन्ति / सुरा अपि क्षीणघातिकर्मत्वादेव भगवतामईतामेकान // 9 // P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त विंशतिमतिशयान् कुर्वन्ति / एवं च लोकानुभावजैकादशसुरकृतकोनविंशतिसङ्ख्यकानां लोकातिगानाम' आगमो. तिशयानां प्रादुर्भावः घातिकर्मक्षयादेव / रागद्वेषमोहाच मोहनीयाख्यस्य घातिकर्मण एव भेदाः।। पञ्चसूत्रद्वारककृति किञ्च-क्षयायोत्थिता अर्हन्तो भगवन्तः समस्तघातिकर्मक्षयेणावाप्तकेवलाः तीर्थप्रणयने समस्तघातिकर्म- वार्तिकम क्षयप्रत्यलमारिष्कुर्वन्त्येव स्ववृत्तमाचाराङ्गाख्ये आद्य एवाङ्गे, स्खमुखेनैव प्राग्वृत्तस्याविष्करणान्न तत्रातिशयोक्तेसन्दोहे | लेंशस्य कल्पितत्वस्य वांशेनापि सम्भवः, विलोकनाच्चापि तत्रस्थस्य तद्वृत्तस्य न कस्यापि सकर्णस्य | // 9 // .IN तेषां क्षीणघातिकर्मावस्थाप्राग्वृत्तवृत्तस्यावलोकनादाशङ्कालेशोऽपि क्षीणघातिकर्मत्वे तेषामिति / मूर्तिरपि च / | श्रीमदर्हतां भगवतामेव क्षीणरागद्वेषमोहत्वमुगिरन्ती दृश्यते, यतस्तेषामेव प्रतिमायां वक्त्राब्जं शान्तरसनिमग्नं, अक्षिणी निर्विकारे नासाग्रस्थायिनी, मुखाब्जं च हास्यादिदोषततिवजितं, शरीरं समग्रं श्लथं | पर्यङ्कासनस्थं च, एतादृश्या एव मुद्राया वीतरागत्वस्याऽऽवेदनं सहजमेव, एतादृश्या वीतरागत्वावलम्बिन्या | मुद्रयाऽपि विरहितत्वादन्येषामयमुपहासः कविभिः क्रियते यदुत-नर्तका अपि नृपादीनां वेषं धारयन्तस्तदीयां ! मुद्रामादावेवोद्वहन्ति / इमे तु परतीथिका देवकोटीं प्रविष्टुमिच्छवो देवस्य मुद्रां विधातुमपि न विज्ञा इति / तथा च भगवतामहतामेव मूर्तिभंगवतां क्षीणरागद्वेषमोहत्वदशाशंसिनीति भगवतां श्रीमतामहंतां क्षीणरागद्वेषमोहता तेषामागमाद् वृत्तान मूर्तितश्च सिद्धिसौधमध्यारोहन्ती न केनापि शक्यते निवारयितु| मिति / यद्यपि शास्त्रीयन्यायेन क्षीणरागा इत्येतावन्मात्रस्योक्तौ क्षीणद्वेषमोहत्वं प्रतीयत एव, मायालोभकषायद्वयलक्षणरागस्य विलयो द्वषमोहयोः क्षयादनन्तरमेव यतो भवतीति, परं भगवत्स्वर्हत्सु परमात्मसु सर्वथा कुदेवत्वस्यायोगं परेषां च कुतीर्थ्यांनां कुदेवत्वपरिपूर्णतां च दर्शयितुमुक्तं 'क्षीणरागद्वेषमोहा' / इति / एवम्भूतानां लोकातिगानां गुणानां निलया अपिभगवन्तोऽर्हन्तः स्वकृतभोगिनां संसारिजीवानां I // 12 // INIPP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्तिकम् सन्दोहे आगमो- 8 न त्राणं विधातुं समर्था भवन्ति, तत आहुः-'अचिन्त्यचिन्तामणय' इति / यद्वा जगति त एव विधातु- पञ्चसूत्रद्वारकतिil मलं दुःखभराक्रान्तानां त्राणं; ये शरणागतेषु प्रीतमनसः सन्तस्तान् शरणमुपेतानपेक्ष्य स्वस्य वज्रपञ्जर- 17 TH ताभिमानमुद्बहेयुः, शरणागतानां प्राणिनां बाधकेषु परेषु च जीवेष्वजीवेषु वा समूलकाषं कषणावधिक रोषमादधते, शरणागतानां त्राणसाधनेषु विरोधिनां क्षयकारकेषु साधनेषु स्वेषां नियतैकस्थितिकारकेषु / // 9 // कारणसमूहेषु दृढबद्धान्तःकरणास्तद्रक्षणैकचित्ताश्च स्युः, भगवन्तोऽर्हन्तस्तु क्षीणरागद्वेषमोहा इति कथं शरणे साधवः स्युरित्याहुः-'अचिन्त्यचिन्तामणय' इति, यथाहि चिन्तामण्यादय आराधकविराधकेष्वरक्तद्विष्टाः सन्तः आराधकानामिष्टसिद्धयादिनेष्टार्थसाधकत्वं विराधकानां च दारियापत्त्यादिनाऽनिष्टापादनद्वाराऽनि टोत्पादका भवन्ति, तथा भगवन्तोऽहन्तः क्षीणरागद्वेषमोहा अपि तद्गुणज्ञानबहुमानादरादिनाऽऽराधकानामाIN नन्तर्येण प्राप्यत्वाभिमतमभ्युदयं पारम्पर्येण साध्यत्वेन बहमानितं निःश्रेयसं सम्पादयन्ति. तदाज्ञाऽन ङ्गीकाराश्रवप्रवृत्यादिभिर्विराधकानां चानन्तसंसारवृद्धिदुर्लभबोधित्वादिनानिष्टभरं सम्पादयन्ति / नन्वेव | महार्थकरत्वेऽपि महानर्थकारित्वमपि भगवतामर्हतामापन्नमिति वैतालवदःसाधास्ते, न चैकान्तेन शरण्या इति | | चेदाहुः-'भवजलधिपोता' इति / चतुर्गतिमयभयङ्करभवावर्तभीषणभवोदधितारणे भव्यानामसाधारणपोता| यमानाः जिनवरा हि जिननामकर्मोदयादेव भवन्ति, जिनाभिधानकर्मबन्धश्च वरबोधिमतामेव, वरबोधिश्च | तस्यैव स्याद्यो लब्ध्वा सम्यक्त्वं किमेतादृशे भवजलधितारणसमर्थे सति जिनशासने जीवा भवोदधेः परपारं नाप्नुवन्ति ?, तदमून् सर्वान् भवजलधेः परम्पारमनेन नैर्ग्रन्थशासनेन नयामीति विचारयति, | ततः प्रभृति स वरबोधिमान सर्वथा सर्वदा परार्थोद्यत एव भवति, परार्थोद्यतत्वादेव च जिननामकर्म निका- I // 13 // चयन अनन्तं संसारमपवर्तयन् भवं तृतीयमवष्वष्क्यापवर्त्तयति / शास्त्रकारा अपि 'तइयभवोसक्कइत्ताणमित्याहुः।। APP.AC. Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trust Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 24 // IS तथा च जिनेश्वरा भगवन्तो हथनेकभवेषु भव्यानां भवाब्धेस्तारणे एवोद्यता इति यथार्थमेव भवजलधि- आगमो. तारणपोतायमानत्वं भगवतां, विराधकानां संसारपातकारणत्वं तू लूकानां स्वस्वभावस्य हीनत्वेन यथा पश्चसूत्रद्धारककृति उष्णांशुकिरणानामन्धत्वकारणता तथा ज्ञेयं / भगवन्तस्तु स्वाभिप्रायेण तारणानुकूलस्य तीर्थादेर्विधातृत्वेन वार्तिकम च भव्यानां भवावर्त्तभयङ्करभवजलधितारणप्रत्यलपोतायमानत्वमेव, भगवतामहतां भवजलधिपोतत्वं च न | सन्दोहे केवलं स्वस्य भक्तानां वा कल्पनामात्रोद्भवं, किन्तु भयङ्करभवावर्त्तभीषणभवोदधितारणसमर्थस्य शरणस्य | | दातृत्वेनैव, तत आहुः-'एकान्तशरण्या' इति, एवं च भगवतामर्हतां परमभक्तिपात्रत्वेन शरणस्वीकारो / | भवितुकामेन कृत इति / सर्वेऽपि परतीर्थीयाः:परमेश्वराः भवावर्तस्य जन्मजरातङ्कानिष्टसंयोगादिदुःखप्रचुरतया |SI | सदाङ्गिनामेका कितया संयुक्तान् सर्वान् विमुच्याशरणतया प्रभ्रष्टखार्थेन परिभ्रमणरूपतया निःसारा- | | शरणत्वात्तत्तारणक्षमत्वं स्वेषां दर्शयन्त्येव मुक्तिपर्यवसानत्वादेवास्तिकवादानी, परं तत्त्राणकारित्वं तेषामेव | सम्भवति, ये स्वयं भवनिवन्धनेभ्यो दूरतरीभूय परानपि तेभ्यो दूरीकर्तु प्रत्यलाः स्युः / भगवन्तोऽर्हन्तस्तु | क्षपकश्रेणिक्रमेण क्षपयित्वा मोहं, निहत्य च तद्भलेन बलवन्ति ज्ञानावरणीयादीनि कर्माणि, निश्शेषघाति THIS | कर्मक्षयप्रभावेणैवावाप्तकेवला रूपादिलौकिकप्रत्यक्षातीतात्माद्यतीन्द्रियान् पदार्थान ज्ञात्वा तत्स्वरूपभूतांस्तद्गुणान् | ज्ञानादीनवेयन्ति, तत एव च तादृग्ज्ञानादीनां पातुकान् ज्ञानावरणादीनवगच्छन्ति, यथार्थतया केवलालोकेन ज्ञात्वा सर्व प्रज्ञापनीयपदार्थजालं भव्यानां पुरः प्ररूपयन्ति, न चैषा प्ररूपणाऽपि जीवस्वभावभूतानां ज्ञानादीनां तदावारकाणां च कर्मणां क्वचिदपि लौकिक मार्गे विद्यते, दूरे तर्हि तद्विषयो हेयोपादेय त्योपदेश इति, ततश्च भव्यानां भवाब्धितारणायैव जीवाजीवरूपतत्त्वद्वयीद्वारा सकलजगद्वतित्त्वानां जातेऽप्यु| पदेशे भवाब्धेस्तारणे समर्थे संवरनिर्जरे, तद्बाधको चाश्रवबन्धाववश्यमुपदेश्यपथमायातः / एवं साध्येन HIPP.AC.Gunratnasuri M.S. नोऽहन्तस्तु // 94 // m Jun Gun Aaradhak Trust Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Di मोक्षेण युतां सप्ततत्त्वीमुपदिशन्त एव भवाब्धितारकभावमभ्युपयन्ति, त एव च भवाब्धौ बेडमानाना- 10 पञ्चसूत्रआगमो लता मसुमतामेकान्तेन शरण्या भवितुमर्हन्ति / अत एव परेषां नोदनावचनवज्जैनानां जिनेन्द्रोपदेश एवेष्टप्राप्त्य- ID वार्तिकम् द्धारककृतिमा निष्टनिवारणप्रत्यलः। नयास्तिकानां विहाय श्रीजिनेन्द्रोपदेशं इष्टप्राप्त्यादिसाधनज्ञानं सम्मतं, आस्तिसन्दोहे काश्चात्र जीवे कथञ्चिदस्तित्व नित्यत्वकर्मकर्तृवतद्भोक्तृत्वमोक्षतदुपायसवानां श्रद्धानं, न तु परलोकयायिता॥१५॥ मात्रस्वीकाररूपं, एवं सुदृढमिदमेव मनीषिणां मननीयतरं यदुत-भगवन्तोऽर्हन्त एव भवजलधावेकान्तशरण्याः, नान्यः कश्चिदप्यन्यतीर्थीय इति, इत्थम्भूताः परमत्रिलोकनाथत्वादिगुणयुक्ता अर्हन्त एव, अर्हन्तो भगवन्तश्चेत्थम्भूतगुणयुक्ता एवेत्युभयथाऽवधारणाय रूढस्य भगवत्पदस्याहत्पदस्य चान्तरा | विशेषणानां समुदाय इति / एवं च सिद्धादिष्वपि मध्ये विशेषणन्यासे हेतुरवधारणीय इति / अस्त्वितिक्रियाऽध्याहारात् शरणं सन्तु पूर्वोक्तस्वरूपा अर्हन्त इति / शरणग्रहणेन च भयङ्करभवावर्तात् त्रस्तोऽहं, न च तस्मात् त्राणकारी जगत्यपि विद्यते इति निश्चयवानहं, भगवन्तोऽर्हन्तश्चावश्यमेव तादृशाद्भवावर्त्तात् त्राणकर्तारः सन्ति इति निश्चयवांचाहं भगवतामर्हतामनन्यभक्तो भवामीति प्रतिजानीते / शरणग्रहात् प्रागेवान्यत्र मङ्गललोकोत्तमत्वयोरध्यवसायस्य * दर्शनादिहापि तदाशयानुवेधेनैव शरणव्याख्यानस्यानुचितत्वात् / वस्तुतस्तु भगवन्तोऽर्हन्तः सर्वजगत एव शरणं, परं यो यः पूर्वोक्तरीत्या शरणं गन्ता, स स शरणफलं लभत इति शरणग्रहणस्य तत्वमिति / यथा सेधितुकामेन भगवन्तोऽर्हन्तः | शरणीकर्तव्यास्तथा भगवन्तः सिद्धा अपीति दर्शयितुं सिद्धशरणमभिधातुमाहुः-तथेति / यथा हि भग| वन्तोऽहून्तः सिद्धेर्मार्गस्य प्रदर्शकत्वेन शरण्याः। शरणं च तेषामायातस्तथैवेति-अन्यूनातिरिक्तभावेनैव सिद्धा अपि शरण्या एव, शरणं च तेषां प्रपन्नोऽस्मीति / किञ्च-तथेत्यव्ययेनैतदपि सूच्यते यदुत-न 95 // IKP Ac. Gunratnasuri M.S. Jun-Gun Aaradhak Trust Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISI यत्र सिद्धसूत्रस्य परसूत्रत्वात् व्याकरणन्यायेनार्हच्छरणं पूर्व बाधयित्वा सिद्धानां शरणं स्वीक्रियते इति | ISI पूर्वापरखाध्यबाधकभावोनन, किन्तु समुच्चयः / तथा च यथाऽईन्तः शरणं तथा सिद्धा अपि शरणमिति / SI पञ्चसूत्रद्धारककृतिTHI यद्वाऽनुवृत्त्यैव तथाभावेन शरणस्वीकारलाभे तथाशब्दो विशेष द्योतयति यदुत-श्रीमतां भगवतामर्हता वार्तिकम् सन्दोहे | महत्त्वं भव्यानां भवोदधितारणाय तीर्थप्रवर्तकत्वेनैवास्ति, अत्र च चेत् सिद्धिस्तद्वन्तश्च सिद्धा न स्युस्तहि / // 96 // 4 स सर्वोऽप्यभिसन्धिर्व्यर्थः, तथा नोपकारित्वमर्हतां किन्त्वपकारित्वं, व्यर्थस्यैव मार्गो यतो देशित | | इति / किञ्च-आचार्यादयः परमेष्ठिस्वरूपा अपि साधुपदेन शरणतया स्वीकार्या अपि न मुक्तिगतिपर्यवसाना नियमेन तद्भवे भवन्ति, परं भगवन्तोऽर्हन्तस्तु सर्वेषां भव्यानामादर्शरूपा इति मोक्षपर्यवसाना एव यदि स्युस्तहि ते परमात्मतयाऽऽदर्शरूपतयाऽऽराध्याः शरण्याः स्युरित्यवश्यं भगवता| मर्हतां शरणस्य याथार्थ्याय सिद्धिस्तद्वन्तश्च सिद्धाः स्वीकार्याः / शरणं च तेषां स्वीकर्तव्यं सर्वबाधातीतसर्वगुणपूर्णत्वात्तेषामिति / तथा च भगवतां सिद्धानां निराबाधं सर्वकालं सम्पूर्णगुणवत्तयाऽवस्थानमेव भव्यानां परमालम्बनं मोक्षमार्गस्यानुसरणायेति कथं तेऽकरणा अर्हन्ति शरणं कर्तुमिति विचारस्य नावकाशः / एवमर्हच्छरणवदेवान्यूनातिरिक्ततया सिद्धाः शरणमिति दर्शितं / तेन चैतदपि प्रतिक्षितमेव, यदुत-सिद्धाः कृतार्था इति योग्याः शरणं विधातुं, तद्विपरीता एवार्हन्तः कर्मोदयायधीनत्वात्तेषां इति कथं शरणत्वमिति / यतः केवलज्ञानाद्या आत्मगुणा निरावा, सम्पूर्णा एवाहतामपीति योग्या Hएव ते शरणं कर्तुं / किञ्च-अत्र यदादौ सिद्धशरणादर्हच्छरणस्य स्वीकारस्तस्यैषोऽर्थः-यदुतार्हदुपदेशेन सिद्धत्वावाप्तिः, सिद्धानां सदा सत्त्वं, सिद्धार्गश्च भगवदर्हत्मामाण्यादेव प्रामाण्यपदवीमासादयति, ततश्च | भगवतामर्हतामेवादौ प्रामाण्यस्य स्वीकारो न्याय्यः, शरणं चाप्यत एव तेषामादौ / न हि कारणात् क्वचिदपि | KI 1 P .AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. आगमो- KI पूर्व कार्य स्याद् / अर्हन्त एव च सिद्धभावस्य कारणमित्यपि प्रागेवाहतां शरणे स्वीकारो न्याय्य इति / पञ्चसूत्रद्धारककृति अत्र भगवंतां सिद्धानां प्रागेव जन्मजरामरणकारणीभूतानां कर्मणां विच्छेदो जायते इति तमेव गुण- KI वार्तिकम मादावाहुः / आर्षेऽपि 'छिन्नजाइजरामरणबन्धणे'त्ति पठ्यते। किञ्च-त एव सिद्धशब्दवाच्याः स्युर्ये .. सन्दोहे जातिजरामरणानि तनिबन्धनकर्मवल्लीनिर्मूलनद्वारा छिन्येयुः, अन्येषां जन्माङ्कुगदिसद्भावे शरीरादीनां // 17 // तद्वारैव तज्जन्यानां दुःखानां चावश्यम्भावेन कृतकृत्यत्वाभावात् सिद्धत्वाभावादिति / नैयायिकानां यथा वीतरागाणां जन्मादर्शनं, तथाऽत्रा. प्रवचने वीतरागत्वे वास्तां, अप्रमत्तदशायामपि न प्रेत्यजन्मकारणस्यायुषो बन्धः, न चायुष उदयाभावे कासाश्चिदपि गत्यादिप्रकृतीनामुदय इति। सिद्धत्वस्याचं कारणं जन्मान्तरीयस्यायुषो बन्धस्याभाव इति / 'जन्माभावे च जरामरणयोस्त्वभावः स्वभावसिद्ध एव, प्रतिपादनं तु जरामरणयोरभावस्याबालगोपालाङ्गनं ताभ्यां भयातिरेकस्य स्वभावसिद्धत्वात् / अनेनैः तदपि ज्ञाप्यते, यदुत-सिद्धानां निराबाधज्ञानदर्शनसुखवीर्यानन्त्यरूपचतुष्टयपूर्णत्वेन नित्यानन्दमयत्वात्तदवस्थायाः परमाश्रयणीयत्वेऽपि आबालगोपाङ्गन सिद्धं जरामरणोद्भवं सर्वास्तिकनास्तिकस्वीकार्य, जन्मभयं च सिद्धावस्थायां सत्यां न भवतीत्यविवांदे व सर्वैरपि जन्मजरामरणभीतरवश्यमेष्टव्यं सिद्धत्वमिति / जिना अपि 'जन्मजरामरणार्तमशरणं जगदभिसमीक्ष्य निस्सार मितिवचनेन सार्वजनीनं जन्मजरामरणोद्धारमभ्यध्यासिषुरिति / यद्यपि भयत्रयीहीनत्वं भंगवतां सिद्धानां तथापि भाविनो जन्मनो लौकिकप्रत्यक्षाविषयत्वान्न तथा भयकारिता, यथा लौकिकप्रत्यक्षगम्याभ्यां जरामरणाभ्यामिति ग्रहणमनयोरेव / वस्तुतस्तु जन्मन्यरुद्ध न केनापि रोद्धं शक्यं परतीर्थीयानां परमेश्वरपदाधिरूढानामपि मरणं जातमेव शरण- // 17 // मन्त्ये इति / एवं सकलं जगत् जरामरणाभ्यां विमेति, परं तैश्च शक्यरोधे एव जन्मरोधे एव ते Gunratnasuri M.S Jun Gun Aaradhak Trust Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुध्येते इति सम्यग्दृशो भीता जन्मगर्भवसतेः, परमत्र लौकिकानुवृत्त्या क्षीणजरामरणत्वमेव सिद्धानां आगमो. वा स्तुतमिति / 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु'रित्यविसंवादि वचनं, 'मृतस्य जननं ध्रुव'मिति संसारिणमाश्रित्य / पञ्चसूत्रः द्वारककृतिततश्चावश्यकमेव जरामरणाभ्यामुद्वेगवद्भिर्जन्मनस्तन्मूलरूपाया गर्भवसतेश्चोद्विजितव्यं, जरामरणयोरभावस्य वार्तिकम् जन्मगर्भवसत्यभाव एव भावाद् / एवं सत्यप्यत्र पूर्वोक्तहेतोर्जरामरणयोः क्षीणत्वं सिद्धानामाद्यगुणतया सन्दोहे प्रतिपादितं / आगमेष्वपि औदारिकादीनां सर्वविप्रहाणं मोक्षकाल एव प्रोच्यते / भगवान् // 28 // श्रीहरिभद्रसूरिस्तु-'आत्यन्तिको वियोगस्तु देहादेर्मोक्ष उच्यते' इत्युक्त्वाऽन्त्यमरणमेव मोक्षतयोक्तत्वाद मरणविभक्तिप्रकरणेऽपि केवलिनां मरणं पृथगेवोच्यते / एवं च तथाप्रकारमरणकरणेनान्यमरणनिवृत्तिरेव मोक्षतया पर्यवस्यतीति / तद्राहित्यमपि सिद्धानामुच्यमानं नासङ्गततरं / ' एवं ' या सिद्धानां | जरामरणराहित्यं तन्न स्वतन्त्रतया कल्पनाशिल्पितं वा, किन्तु तत्कारणाभावस्य सम्पादनेनैव। न ! हि सनिदानस्य निदानस्यानुच्छेदे कदापि निदानिनो व्युच्छेदः सम्भवति, निदानत्वस्यैव व्याघातात् / / | जरामरणानि. जन्म च सनिदानान्येव, 'अज्ञानपांशुपिहितं पुरातनं कर्मवीजमविनाशि / तृष्णाजलाभिषिक्तं / मुञ्चति जन्माङ्करं जन्तोः // 1 // ' इत्यादिवचनात् / तस्माद्भगवतां सिद्धानामपि जरामरणोच्छेदस्य IM वास्तवताप्रदर्शनार्थमाहु :-'अपेतकर्मकलङ्काः' इति, अत्र च कर्मणां कलङ्कत्वकथनेनात्मनश्चन्द्रत्वं ज्ञाप्यते / उच्यते च-स्थितः शीतांशुवजीवः, स्वभावेन सुनिर्मलः। चन्द्रिकावच्च विज्ञानं, तदावरणमभ्रवद्' // 1 // इति / ततश्च यथा चन्द्रमाः स्वयं तेजोरूपो, न त्वन्यतेजसामाधारः, तद्वदात्मापि स्वयं ज्ञानस्वरूपो, नतु ज्ञानादीनामधिकरणं / नहि सुवर्णे कषो यथाऽन्यत आगतः, किन्तु ID स्वभावसिद्धः तद्रूपमेव च सुवर्ण, तथानाप्यात्मा ज्ञानमयः ज्ञानरूप एवात्मा। पृथगुत्पद्य ज्ञानं TIPP. Ac. Gunratnasyri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus II Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ आगमो. चेदात्मनि समवायेत, : आकाशकालादावप्यमूर्तेषु समवायेत, तच्च विष्वपि कालेषु ' 'जायते, II नच मतमपि अजान्यात्मवादिनां परतीर्थीयानां वैशेषिकादीनामिति / अन्यच्च कर्मणां कलकत्वकथनेनैतदपि lil पञ्चसूत्रद्वारककृति | सष्टितमेव, यदुन-भवितुकामानां जीवानां नान्यत् किमपि शोधनीयं, कर्माण्येव च कलङ्करूपाणीति | वार्तिकम् सन्दोहे A तान्येव शोधनप्रयत्नविषयाणि / अत एव च जनानां शासने कर्मणामेव निर्विशेषतया शत्रुसंज्ञा / / // 99 // तत एव च भगवतामर्हतां निरुक्ते 'अरिहंताणमित्यत्र निर्विशेषणेनारिशब्देन कर्माण्युच्यन्ते, उच्यते च-'अट्टविहं जं कम्मं अरिभूयं होइ. सव्वजीवाण' मिति नियुक्तिकारैरप्यष्टविधस्य कर्मण एवारिभूतत्वमिति / अपेतशब्देन सर्वथा कर्मकलङ्कराहित्यदर्शनात् बन्धोदयसत्ताव्यवच्छेदः सिद्धानां IN ज्ञातव्यः। ततश्च यद्यपि सर्वेऽपि संसारिणामनुसमयमष्टविधानां कर्मणामुदयात् प्रतिसमयमेव 'विपाकोऽनुभवः ततश्च निर्जरेति मुच्यन्त एवैभिः कर्मभिरष्टाभिरपि, परं न कोऽपि संसारी कर्मसत्त्ववर्जितः, किन्तु तद्वन्त एव संसारिणः। अत एव 'संसारसमापन्नाः असंसारसमापन्ना' इत्यागमेषु सिद्धसंसारिभेदौ निदर्शितौ, सर्वथा | कर्मसत्त्वविनिर्मुक्ताः सिद्धा एव, नान्ये केचिदिति सुष्टुक्त अपेतकर्मकलङ्का' इति। ईदृशाः सिद्धाः शरणमिति प्रक्रमान्ते योजनं, न च वाच्यं कर्मणां कलङ्केनौपम्यंमसङ्गतं, यतः कर्मणां सनिदानत्वात् कर्तृकत्वाच्चात्मना न सहभावित्वं, मृगरूपस्य कलङ्कस्य सदा चन्द्रमसि भाव इति वैषम्यादिति / यतः प्राक तावत अ.त्मभिः पर कर्मणां लोलीभाव एव बन्धः, वन्ययस्पिण्डवल्लोलीभावाच्च कथञ्चित्तद्रूपताऽङ्गीक्रियते / किञ्च-कलङ्कस्य सर्वथाऽपगमे कथञ्चित्तदभिन्नत्वेऽपि न कलकिनोऽपगमः, तद्वदात्मभ्योऽपृथग्भूतानामपि कर्मणां सर्वथाऽपगमे नात्मनोऽपगमः, किन्तु कलङ्कापगमे कलंकिवस्तुवदतिशयितस्वाभाविकनैर्मल्यवानेवात्मेति / ज्ञानावरणीयादिकर्मकलङ्कस्यानभ्युपगमे आत्मनां स्वभावः सर्वेषां 'सर्वज्ञत्वस्यासुमतामभावात् सर्वज्ञत्वं न स्यात् , स्कल्सयस Ac.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त उत्पद्यमानानां ज्ञानानामानन्त्याभावात्. अक्षाणां सर्वार्थगोचरत्वाभावाच्च न युगपदनन्तसकलपदार्थज्ञानरूपं / ' आगमो. सर्वज्ञत्वं सम्भवेत् / अपेतकर्मकलङ्कानां त्वदेहत्वात् ज्ञानस्यांशोऽपि न स्यात् , जडत्वापत्तेरिष्टत्वं तु न जडान पञ्चसत्रद्धारककृति अपि स्वीकुर्वते / ततश्च आत्मनां संसारिणां कर्माणि ज्ञानावरणीयादीनि आत्मगुणानां छादकत्वात् कलङ्क / रूपाणि / ज्ञानावरणीयादिकर्मकलङ्काभावः सार्वझ्योत्पत्तेरादावेव जातः, परं सिद्धत्वदशामवाप्तोऽपि सिद्धात्मा / . सन्दोहे R सार्वश्यादिस्वरूपेणैव तिष्ठति, न भवात्ययेन तत्स्वरूपं व्यपैति / अत एव शक्रस्तवे भगवतामर्हतां ) // 10 // भवावस्थामाश्रित्य 'अप्पडिहयवरणाणदंसणधराणा'मित्याद्युक्त्वोक्तेऽपि सार्वज्ये तेषां भगवतां सिद्धत्वदशाम | भ्युपगतानामपि तत्सार्वज्यं तिष्ठत्येवेंति ज्ञापनाय प्रोक्तं-'सव्वण्णूर्ण सव्वदरिसीणं'ति / तदेवं कर्मकलङ्कसे दूरीकरणेनावाप्तकेवला अवश्यं भवोपग्राहीणि चत्वारि घ्नन्त्येव कर्माणि / एवं च जरामरणबन्धनकारणाघात्युच्छेदे त | सर्वकर्मणां व्युच्छेदः, व्युच्छेदे च तेषां कारणोच्छेदेऽवश्यं कार्योच्छेदस्य भावादाहुः-'प्रणष्टव्यां| बाधा' इति / अपुनर्भावार्थः प्रा। ततश्चापुनर्भावेन तेषामाबाधा नष्टाः। शेषसंसारिणामुदितानां कर्मणां क्षयात् तज्जन्या आवाधा नश्येयुः, न.. तासां तेषां नाशोऽपुनर्भावेन, पुनर्जन्मा- 10 || दिमये संसारे परिभ्रमणादवश्यं तासां तत्र भावादिति / अत एव चार्षे-'परिणिव्वाये'तिपदेन सहैव Ki 'सव्वदुक्खाणमंतं करेंती'त्युच्यते / यद्यपि विद्वांसो लीना आत्मरमणे जीवस्वरूपभूतानां केवलज्ञानाद्यH नन्तचतुष्टयस्य निरञ्जनत्वयुतस्य पुद्गलायत्ततारहितस्येत्येषां सद्भावे स्यात् संसारे परिभ्रमणं, न विदध्युः / TA सिद्धत्वाधिगमेच्छामपि मध्यमबुद्धयश्च यदि. संसारे रोगाणां जराया मरणस्य जन्मनश्च चक्रवर्तिनोऽपि / ID तदायत्ततायां प्रवेशात् स्वकीयजनेष्वपि रोगादिप्रवेशस्य निवारयितुमशक्यत्वाच्च त्रिजगतोऽधिISI कसामर्थ्येन सर्वासुमदाक्रमणीयता न स्यान्न स्वप्नेऽपि धारयेयुर्मोक्षमाप्तुं, परमावालगोपाङ्गनं सर्व | // 10 // .. ... ता. ... INI PP. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्धारककृति सन्दोहे // 10 // जगत् गर्भवसतिजन्मवाल्येष्टवियोगानिष्टसंयोगाभीप्सितार्थाप्राप्तिनाशाधिव्याधिरोगशोकजराजीर्णत्वमृत्यु- HI पञ्चसूत्रपराधीनत्वादयश्चेत् संसारे व्यावाधावहा न भवेयुर्नचैव वाञ्छेयुरव्याबाधपदप्राप्ति, परं प्रतिभवं गर्भवसत्याद्या BI वार्तिकम् आबाधा अनिवारणीयतया आपतन्त्येव / नच ता रोद्धं केनापि परमेश्वरवादिनापि पार्यते / सिद्धत्वमेव / | सर्वाभिर्व्याबाधाभिः रहितमिति कृत्वैवाभीप्सन्ति सिद्धिं साधयितुं / तत्र सिद्धत्वेऽपि न चेद् व्यावाधानामभावः, नचैव तत्प्रति कस्यापि स्यात् प्रेप्सेति सुष्ठुक्तं-प्रणष्टव्याबाधा इति। तत्त्वेषु सप्तसु जीवतत्त्वस्यैकरूपत्वात् | न सिद्धात्मनां संसारिभ्यः स्वरूपेणास्ति भेदः, किन्तु संसारिणां स्वरूपं ज्ञानावरणीयादिभिश्चतुभिर्घातिकर्म- ! भिरावृत्य प्रवृत्तिरहितं कृतं, शेषैश्चतुर्भिरघातिभिश्च प्रापितं विकारं, भगवतां सिद्धानां तु सकलमात्मस्वरूप मनावृतिमत्त्वादसंयुक्तत्वाच स्वव्यतिरिक्तैः, यथावदेव प्रवृत्तिमदिति सत्यपि एतावान् भेदावग्रहो भावतो निश्चयेन वा जातसम्यक्त्वानां स्यात् / यतस्त एव सदादि-निर्देशादिभिरैरवगच्छन्ति जीवादीनि तत्त्वानि / ये तु ग्रन्थिभेद विधायापि तथाविधबोधरहिता जिनप्रज्ञप्ताः पदार्था जीवादय एव तत्त्वानीत्येवं | प्रतिपन्ना व्यवहारेण द्रव्यतो सम्यग्दृशो जीवास्ते तथारूपसिद्धसंसारिणां स्वरूपभेदमजानाना अपि श्रीजिनोपज्ञया अव्याबाधो नान्यत्र क्वचिदपि चतुर्दशरज्ज्वात्मकेऽपि लोके, किन्तु लोकाग्रभागस्थिते / | शिवालये एव सर्वथा सर्वकालीनो व्याबाधाभावोऽस्तीति निशम्य केवलं व्याबाधाभावमाश्रित्यैव भगवजिनोक्तं शिवसाधकानुष्ठानमनुतिष्ठन्ति, बहवश्च ज्ञानावरणस्वाभाव्यादेतादृशो जीवा विशेषतश्चाधुनेति व्याबांधानां जरामरणनिषेधद्वारा साधननिषेधेन 'अपेतकर्मकलङ्क' इत्यनेन कारणनिषेधेन सर्वथानिषेधे | कृतेऽपि स्पष्टतया तासां निषेधाय व्यावाधानां सूत्रमिदं 'प्रणष्टव्याबाधा' इति / तथा च गतार्थतामाशंक्य 10 // नानर्थताऽस्य शङ्कथेति / यद्यप्यतैविशेषणत्रयैः सिद्धानां भव्यैरभीप्सनीयं स्वरूपं सिद्धं, परं प्रेक्षापूर्व- 11 P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus . ..... . ............... ......................... .. .. . Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 102 // कारिणो न केवलमनिष्टभरं विनिवर्तयन्तः स्वान कृतार्थानभिमन्यन्ते, किन्तु : परासाध्येष्टतमसञ्चयनागमो सिद्धथैवेतीष्टसम्पत्सिद्धिरपि दर्शनीया सिद्धानामित्याहु:-'केवलज्ञानदर्शना' इति। यद्वा नैयायिक- पञ्चसूत्रद्धारककृति वैशेषिकादयोऽपि यनिःश्रेयसमभ्युपगच्छन्ति तस्य विशेषगुणोच्छेदरूपत्वेन ज्ञानादिचतुष्टयराहित्यवत्व- kl वातिकम सन्दोहे मभ्युपयन्ति, परं तेषामपि मतेन मुक्तेषु जरादयस्तु नैवांशतोऽपि सन्तीति तादृशजडात्मकमुक्तत्वव्य वच्छेदायाहुः-'केवलज्ञानदर्शना इति / अत्रेदमवधेयं-जगति जीवानां यः स्पर्शनादीन्द्रियानिन्द्रियः सावधानताद्वाराऽवबोधो जायते स इन्द्रियाणां मननादुत्पन्नत्वान्मतिशब्देनोच्यते, स्वभावादेव चात्मनामेकोपयोगतेति प्राप्तेष्वनेकेषु स्पर्शेष्वेकस्यैव स्पर्शस्य रसादिष्वेकस्य रसाश्च बोधः स्यात् / एवं KI युगपदनेकेन्द्रियज्ञानानुत्पत्तये समग्रशरीरे व्यापिनोऽपि मनसोऽणुत्वकल्पनं निरर्थकं, तथाकल्पनेऽप्येकेन्द्रियस्य / / तद्गतानामनेकसमानविपयाणामपरिच्छेदे अन्त्यश आत्मन एकोपयोगस्वभावतायामेव विश्रामादिति / | यश्चातीन्द्रियार्थदर्शिप्रोक्तानामतीन्द्रियाणामात्मादीनां श्रुतानां ज्ञानं तच्छ्रतज्ञानं तत्प्रत्यायने सर्वज्ञवचनातिरि-1KI S/ क्तस्यान्यस्य कस्यापि प्रमाणस्याभावात् , तद्वचनमात्र प्रतीतिश्रद्धेयत्वात् शिष्टानां च जगति व्यवहार ऐन्द्रियकैः पदार्थस्ते च सर्वेऽपि रूपरसगन्धस्पर्शववादूपिण एव, ततश्च रूपिपदार्थान् सर्वान् आपरमाणोराचित्तस्कन्धं . यदावेदयति ज्ञानाख्यात्मगुणांशः सोऽवधिभूतत्वादूपिमात्रविषयतयाऽवधिज्ञानमिति तृतीयज्ञानभेदतयाऽऽ- K ख्यायते / ये चावाप्प भगवदर्हदुक्ततत्वानां श्रद्धानं करणत्रयी विधानपराक्रमजातेन सम्यक्त्वेन स्थिरीभूय च तत्र सद्वृत्तरूपचारित्रस्य ज्ञातेऽपि सम्यक्त्वप्रभावाच्छेष्ठतमत्वे तदवरोधकानां वधपरिग्रहविषयकषायाद्यधीनत्वजनकानां मोहनीयांशानां यदा विदधाति शमादि, तदा तादृशीमवस्थामप्रमत्ताख्यामनुगतः / | प्राप्नोति शिष्टानां शिष्टव्यवहारविषयमितानां चार्घतृतीयद्वीपान्तर्गतसज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां मनश्चिन्तितान् | Jun Gun Aaradhak Trust // 102 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसूत्र // 103 // __ आगमो- ISI पदार्थानवगन्तुं शक्नुवन्ति ते मनसः पर्यायाणामवगमनान्मनःपर्यायज्ञानिन उच्यन्ते / तादृशं ज्ञानं च | द्धारककृति-] मनःपर्यायसङ्ख्या कथ्यते, लोकानुभावाच्च व्याघ्रानां पक्षाविव नेदं प्रतिपदं व्यवहारविपर्यासकारण- II वार्तिकम् सन्दोहे परायणं / वधाद्यासक्तानां, न च शब्दादिविषयादिप्रमादपरायणानां योगिनामपि जायते / तदेतानि चत्वारि / ज्ञानानि देशज्ञापकानि आत्मस्वरूपापेक्षमसर्वविषयाणीति मत्यादिभिर्विशेषणैर्व्यवच्छिद्य प्रज्ञाप्यन्ते / / तथा च ज्ञानशब्द आत्मनः स्वभावस्थज्ञानदर्शकः, एवं चात्मन एकोपयोगस्वभावत्वादेषां चतुर्णामप्येक| मेवैकदा ज्ञानमुपयुज्यते / मत्यादिष्वपि भिन्नजातीयं ज्ञानं समयभेदेनैव भवति / मनस्तु यावदात्मव्यापीति ! | नाणु, न चैकेन्द्रियविषयगतानेकज्ञानोत्पादमवरोद्धं शक्तं, किन्त्वात्मन एकोपयोगस्वभावत्वमेवेति / सर्वोत्तम- | मन्त्यं च पञ्चमं केवलज्ञानं / तत्र केवलेति न मत्यादिचतुष्कवज्ज्ञानांशद्योतनाय व्यवच्छेदकं विशेषण, | सम्पूर्णस्यात्मज्ञानस्यैव ग्रहात् / तथा च केवलेन युतानेवाश्रित्य नियन्तुं शक्यं 'यन्मानाधीना मेयसिद्धिः', IA यतस्तेन केवलेन सर्वद्रव्यक्षेत्रकालभावा ज्ञायन्ते, तेन केवलेन येर्थाः सिध्यन्ति ज्ञायन्त इत्यर्थः, तेषामेव विद्वत्परिषदि सिद्धिः, तदन्यस्यार्थस्याभावोऽपि तादृशं सर्व विषयं ज्ञानमेवाश्रित्य स्यात्ततो वक्तुं शक्यं तादृशज्ञानवतैव यदुत-यत्र न मानं प्रवर्तते न तदस्तीति / तथा च मानाधीना मेयसिद्धिः, नाप्रमाणस्य | मेयतेति नियमद्वयमपि केवलवन्तमेवाश्रित्य भवेद्योग्यः। तथा च यावज्ज्ञेयव्यापित्वात्केवलं, जाते चास्मिन् नान्यत् ज्ञानं, सम्पूर्णत्वादेवास्य, न च तज्ज्ञानज्ञेयव्यतिरिक्तं च किञ्चिदन्यद्वस्तु, ततः / स्वरूपेण विषयेणाप्रतिपक्षवत्त्वात्केवलेति विशेषणेन विशेषितं / किञ्च-परेषु मत्यादिषु जातेष्वपि न निश्शेषाणि ! वस्तूनि तत्तज्ज्ञानेन ज्ञायन्ते, नियतविषयत्वात्तेषां / न च यानि वस्तूनि तेन तेन ज्ञायन्ते तान्यपि II यावत्स्वपर्यायविशिष्टानि, यतः सर्वान् पर्यायानेकस्यापि वस्तुनः सर्वज्ञ एव वेत्तुमलं, जैनदृष्टया ISI Jun Gun Aaradhak Trust // 103|| R EP.AC. Gunratnasuri M.S. - Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E -m e - .--.. स्वव्यतिरिक्तान्यसर्वपदार्थव्यावृत्तिरूपधर्मोपेतत्वात् / य एव पटे पटस्वभावः स पटेतराभावरूपोऽपीति KI आगमो- यावत्परवस्तुज्ञानाभावे एकपदार्थगतानां व्यावृत्तिधर्माणां ज्ञानाभावात् , स्वरूपेण ज्ञातस्यैव व्यावृत्तिरूपेण | पञ्चसूत्रद्धारककृतिज्ञानात् / तथा च सर्वेऽर्था अनुवृत्तिव्यावृत्तिस्वरूपवत्तामपेक्ष्य सर्वात्मका इति / परदर्शनदृष्टयाऽपि वार्तिकम् सर्वेऽर्थाः सर्वतदितरपदार्थान्योन्याभावाश्रयाः, अन्योऽन्याभावनियामकं च तत्पदार्थस्वरूपमेवेति, तत्वतः / सन्दोहे सवपदार्थज्ञाने तदितरेतराभावज्ञान ते चाभावा वस्तुरूपेणावच्छिन्ना इत्यवच्छेदकस्वभावज्ञानद्वारापि // 10 // सकलपदार्थज्ञानाविनाभाव्येवैकस्याप्यर्थस्य यावत्स्वरूपयुतं ज्ञानमिति / एवं च व्यवच्छेदकत्वाभावाद साधारणं, न मत्यादिवद् व्यवच्छेयं / सर्वपर्यायोपेतसर्ववस्तुज्ञापकत्वाच सम्पूर्ण, तदज्ञातस्य कस्याप्यर्थस्याभावोऽतः / मत्यादीनि ज्ञानानि न सर्वविषयाणीति स्वाज्ञातवस्तुज्ञापनसापेक्षाणि, इदं तु निरवशेषपर्याययुतसमस्तवस्तुज्ञापकमिति नैतद्वतोऽन्यज्ञानापेक्षा। तथा च सर्वथा सर्वदा यदेकमसाधारणं सम्पूर्ण | ज्ञानं तत् पूर्वेभ्यो ज्ञानांशरूपज्ञानेभ्यः विशिष्य केवलेन विशिष्टं ज्ञानं केवलज्ञानमित्युच्यते / तच्च यद्यपि क्षपकश्रेणिप्रभावेण मनुष्या उत्पादयितुं शक्ताः, परं मनुष्यत्वस्य शाश्वतत्वाभावात् केवलिनश्च जन्मान्तराभावात् सिद्धदशायामेव तस्यावस्थानमिति केवलज्ञानधराः सिद्धा इत्युक्तमिति / यथैव भगवन्तः सिद्धाः स्वरूपत्वाद्धारकाः केवलज्ञानस्य तथैव केवलदर्शनमपि तथारूपमेवेति / तस्यापि धारकास्ते इत्युक्तं केवलज्ञानदर्शनधरा इति / अत्रेदमवधेयं यदुत-जगति ये केचित्पदार्थास्ते द्विस्वभावा एव, सर्वेषां पदा र्थानां यतः स्वरूपवत्ता, ततः स्वरूपमेव सामान्यं तद्वांश्च विशेषः एवं 'व्यक्तेरभेद' इत्यादिना यो स सा॥१०४॥ जातिबाधकः समदायः परपदार्थक्रोडीकरणपरजातिनिरूपक इति न तेन बाधः, एकव्यक्तिकस्यापि खस्वरूपवत्त्वेनैव युक्तत्वादिति / अत्र च चक्षुरादीनि दर्शनानि पदार्थान् तत्स्वरूपं सहगतान पृथक् पृथINIPP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Truse Var.के. सा.., कोषा Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चसूत्र भागमो. KI क्तया गृह्णन्ति, पश्चाज्जायमान आमोंगो ज्ञानापरषर्यायो द्वयोरपि वैशिष्टयेनाववोधं करोति / ततश्च द्वारककृति दर्शनं सामान्यावबोधक, ज्ञानं विशेषावबोधकं च कथ्यते / तथाच न दर्शनं विशेषान विषयीकुर्यात नं. वा ज्ञान सामान्यं न विषयीकुर्यात् / / एवं च सर्वज्ञता सर्वदर्शित्वं च कथ्यमानं यथायथमशेषान् / वार्तिकम् सन्दोहे अर्थान् विषयीकुर्यात्, न कश्चिददृष्टोऽज्ञातो वा पदार्थः स्यादिति / यथा च पर्वतो वहिमानिति // 105 // पर्वते वहिरिति चानुमानद्वयं न परस्परं विरुद्धं, न चैकेनान्यस्य निरर्थकता, तद्वदत्रापि जगद्वर्तिनाम- IN शेषाणामर्थानां स्वतन्त्रतया सामान्यरूपतया विशेषरूपतया च भावात् समेषां पदानां सामान्यरूपतया विशेषरूपतया चेति यद्विज्ञानद्वयं न तत्परस्परं विरुद्धं बाधकं वा, अनावरणानां च महात्मनां सर्वदा II सर्वेषामर्थानां स्वस्वरूपेण भानात् , सर्वेषामप्यर्थानां सामान्यरूपतया च भानमावश्यकं विशेषतश्च प्रतिसमय- | मखिलविश्वगताखिलपदार्थवेदनापटीयोबोधवतां सर्वज्ञानां, ततः सर्वेऽपि सर्वज्ञाः प्रतिक्षणमखिलार्थानां विशेषरूपतया वोधात सर्वज्ञत्वाङ्किताः सामान्यरूपतया बोधाच्च सर्वदर्शित्वाङ्किताः स्युः। अत. एव प्रतिसमयं निखिलार्थग्राहके ज्ञानदर्शने भगवन्तः केवलिनो धारयन्तीति तत्त्वार्थभाष्यकारादयः। तैर्हि 'नाणंमि दसणंमी'त्यादिगाथाया 'एत्तोत्तिशब्दस्य दिगर्थपञ्चम्यन्तयोजनेन इतः प्रागिति कृत्वा अग्रतः | केवलिभावस्य वक्ष्यमाणत्वात् केवलित्वात् माग अकैवल्यावस्थायां जीवाः ज्ञानदर्शनयोरेकतरस्मिन्न| वोपयुक्ताः स्युः, प्राप्ते कैवल्ये तु किं स्यादित्याह-सव्वस्स केवलिस्स जुगवंति ये केचित्केवलि| नस्तेषां सर्वेषामपि ज्ञानदर्शनयोरुभयोर्युगपदुपयुक्ततेति / तर्हि. किमेकस्मिन् समये केवलिनामुपयोगद्वयं / ज्ञानदर्शनविषयकपार्थक्येनेत्याह-दो नत्थि उवओग'त्ति / कस्यापि जीवस्य कैवल्यवतस्तद्रहितस्य वा // 10 // नैकस्मिन् समये पार्थक्येनोपयोगद्वयं स्यात् / तथा च सेनास्कन्धावारबोधवद् द्वयात्मकः स उपयोगः, 350 DIPP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दोहे // 106 // ता न तु पृथग्द्वयरूप इति व्याख्यानं क्रियते / श्रीभगवतीमत्रं च 'जं समय'त्यादि तत् समकमित्यर्थ- THI भागमो. यित्वा वर्णादिभिर्वैशिष्ट्यस्य ज्ञानता, परस्य तु दर्शनतेति स्वरूपाख्याने पर्यवसीयते / स्नातकोपयोगावपि / पञ्चसत्रद्वारककृतिज्ञानदर्शनबोधपर्यवसानतायां नीयते इति भवतु किश्चिदप्यनृतं परं सिद्धाः केवलज्ञानदर्शनधरा इत्यत्र तु / वार्तिकम् न केषामपि वैमत्यं / आत्मा यतो ज्ञानदर्शनस्वभावस्ततोऽशरीरित्वेऽनिन्द्रियत्वेऽपि च सिद्धानां न केवलज्ञानदर्शनधरत्वे वाधः कश्चित् / इन्द्रियाणि तु ज्ञानदर्शनयो हिरान्तरकरणरूपाणि, न तु ज्ञातृणि द्रष्ट्रणि वा, सत्स्वपि तेषु समानेष्वपि वैचित्र्येणोपलम्भात् , नाशेऽपि च तेषां तदुपलब्धार्थबोधस्यानाशात् IN lil किञ्च-आत्मा एवं यदि ज्ञानादिस्वभावो देहपर्यन्तव्यापी वा नाभ्युपगम्येत, नास्तिकवादाभ्युपगमेनात्मापलापे / एव पर्यवसानं स्यात्, आत्मातिरिक्तपदार्थेषु चैतन्योत्पादस्थित्यादेरभ्युपगमात् / मनोऽप्यात्मभिन्नमेवेति / | सुधीभिरूह्यमान्तरेण वोधेनेति / किश्च-आत्मनो ज्ञानस्वभावाभावे बोधस्य समानेष्वपि साधनेषु न्यूना-2 D| धिक्येन वैचित्र्यं न स्यात्, न स्याच्चानुभूतस्यापि तद्भव एव स्मरणास्मरणे, भवान्तरस्मृतिस्त्वात्मन एव ज्ञानरूपत्वे एव योग्या, मनस्तदाधारत्वे तु तस्यैकस्स नित्यस्य चाभ्युपगमात् इह पूर्वकालीनानुभूतस्येवं II A पूर्वभवानुभूतस्य सर्वेषामेव बाहुल्येन स्मरणप्रसङ्गस्यापातः सुदुर्निवार इति / निरावाधमेतदेव-यदात्मैव / ज्ञानादिस्वभावैः तत्तक्षयोपशमायुनुसारेण चावाप्नोति बोधमिति। ततश्च सिद्धा भगवन्तः सर्वथा / कर्मकलङ्करहिता इति स्युरेव केवलज्ञानदर्शनधरा इति / नन्वेतादृशोऽप्येते क्वचिनियतदेशस्थिता / अनियतदेस्था वेति चेत् , नियत एव देशे ते स्थिता इति / आदौ तावज्जीवानां स्वस्वभाव ऊर्ध्वगमनरूप एव, यथा धूमाग्निज्वालादीनां / अत एव सकर्मणां जीवानां गत्यन्तरस्थानप्राप्त्यर्थमानुपूर्वीनाम्न / आवश्यकता, गत्यादिनाम्नां चोदयस्यानुकूलक्षेत्रमापणं चावश्यकं मन्यते, मुक्तिश्च साधनैः सम्यग्दर्शन- IS 106 // WP.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चसूत्र आगमोद्धारककृति वातिकम सन्दोहे 107 // रा | ज्ञानचारित्रैरेव जन्यते, तानि च साधनानि नरलोकादहिर्न सम्भवन्ति, जिनेन्द्रोत्पत्यादीनां नरलोक KI एव तद्धेतूनां भावात, तत्रैव नरलोक एव मुक्तेः साधनं, मुक्ताश्च नरलोके सम्यग्दर्शनादिभिः साधन- KI रूमेव स्वभावाद् गच्छन्तः सिद्धिपर्यवसानगतिका एव भवन्ति / अत एव 'लोयग्गमुवगयाण मिति तस्य / गंतण सिजईत्यादि चोच्यते / ननु जीवा ऊर्ध्वगमनस्वभावा एव मक्ताश्च कर्मप्रेरणारहिताः / स्वस्वभावेनैवोर्चगच्छन्ति चेत् , सिद्धशिलायां लोकाग्रे वा कथमवस्थिता भवेयुः 1 किं न परतोऽपि स्वभावाद् गच्छेयुरूप्रमिति चेत् / सत्यं, परं जीवानां पुद्गलानां च गतिपरिणतानामपि गतिपरिणामापन्नानामपि मत्स्यांनां गतौ जलमिव धर्मास्तिकाय एवावष्टम्कः / स च न लोकाग्रात् परत इति सिद्धानां | लोकाग्र एव स्थानम् / ननु धर्मास्तिकायस्य सत्त्वमेव कथं बोद्धव्यमिति चेत् / सत्यं, पारमर्षप्रवचनवचनात् तच्छ्रद्धातुमर्ह / किञ्च-यदि न स्यात्ताहंगद्रव्यं जीवपुद्गलानां गर्तेर्नियामकै अलोकस्यापरिमितत्वात् सर्वे जीवाः पुद्गलपरमाणवश्च तथा तथानियामकाभावाद् गच्छेयुर्यथा जीवानामजीवानां दृश्यमाना अनुभूयमाना आवश्यकाश्च संयोगा एव न स्युः / दृश्यन्ते उपलभ्यन्ते उपपद्यन्ते च ते संयोगा इति लोके तेषां गतेनियामकतयाऽवश्यमभ्युपेय एव धर्मास्तिकायः, तदभ्युपगमे परतस्तदभावादेव न सिद्धानां गतिरिति योग्यमेव सिद्धानां भगवतां लोकाग्रे सिद्धिपुरेऽवस्थानमिति / किञ्च-चतदर्शरज्ज्वात्मकोऽयं | लोको यत् त्रिधाऽधस्तिर्यजुर्व्वलोकभेदेन तिष्ठति / तत्र लोकानुभावादेवाधोलोके पुद्गलानामशुभतर | एवानुभावो, यद्वशान्नरकक्षेत्राणामशुमतरत्वात्तीव्रतीव्रतरतीव्रतमवेदनानां भवत्युद्भवः। तिर्यग्लोके मध्यमानुभावो लोकानुभावादेव पुद्गलानां विद्यते, तत च तिर्यग्मनुष्यास्तत्र वर्तमानाः | niosir मध्यमरीतिजानि सुखानि वेदयन्ति / तद्वदेव चोर्ध्वलोके ये वर्तन्ते पुद्गलास्ते शुभशुभतरशुभतमादिप Ac.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्धारककृतिसन्दोहे // 108 // रिणामा लोकानुभावादेव' भवन्ति, यावत् सर्वार्थसिद्धस्थाने सर्वलोकगतजीवापेक्षया प्रकृष्टपुण्यवन्तो जीवा उत्पद्यन्ते, प्रकृष्टतरं च सातवेदनीय क्षेत्रानुभावजातशुभपुद्गलसंयोगादनुभवन्ति, पौद्गलिकत्वात् | पञ्चसूत्र सातवेदनीयकर्मणः, तस्मादप्युपरितने मागे या सिंद्धशिला तत्र तदुपरितने च भागे पुद्गलानां / वार्तिकम् लोकानुभावादेव परमशुभतरत्वे किश्चिदपि चोद्यं न तिष्ठति / यद्यपि सिद्धा भगवन्तः ज्ञानदर्शनसुखवीर्या-12 नन्त्यचतुष्टयीवच्चात् न तेषां ते पुद्गलाः सुखहेतवो भवन्ति, परं समग्रे जगति सर्वोत्तमानुभाववत्पुद्गलस्थानं तदेवोललोकाग्रभागलक्षणं, तेन कर्मकलङ्कमुक्तानां प्रणष्टव्यावाधानां सिद्धानां भगवतां तत्रावस्थानं योग्यमेवेति / जगति च समृद्धतयाऽनाक्रमणीयतया वुद्धिप्रधानपुरुषावासतयां च पुरमेव विशिष्यते प्रामादिभ्यः स्थानेभ्यः, तद्वत् ज्ञानादिचतुष्टयानन्त्यसमृद्धं कर्मरिपुभिरनाक्रमणीयं सनातनज्ञानदर्शनानन्त्योः | | पयोगप्रवृत्तं च समग्रेऽपि संसारे सिद्धिरेवेति सा पुरेणोपमयते / किञ्च-दुस्तरसमुद्रमतरणपटिष्ठैरवाप्य | | समुद्रापरतटं' पुरमेवाप्तुमभिप्रेयते, तद्वदत्रापि संयमपोतेन दुस्तरसंसारसमुद्रं प्रतीर्य साधवः सिदिमवाप्तुमिच्छन्तीति / सिद्धरुपमानं पुरेणेति किञ्च-यथा पुरमुपागता अध्वनीनाः सर्वदस्युप्रभृतिभयविप्र-IN मुक्ता भवन्ति, तथाऽत्रापि सिद्धिमुपेतानामेव जन्मजराव्याध्यामयान्तकादिभयानि सर्वदा नष्टानि इति सिद्धेरुपमितिः पुरेणेति / पुरेषु द्विविधा लोका:-पौरा जानपदाच / तत्र ये पुरमेवाधितिष्ठन्ति स्वाश्रयाः / ते पौराः पुरनिवासिन इति कथ्यन्ते / ये च बहिर्भागात् प्रयोजनं किञ्चदुद्दिश्य पुरमधिश्रितास्ते जानपदा इति कथ्यन्ते / तत्र ये सिद्धा भगवन्तस्ते सिद्धिपुरनिवासिनः, सदैव तत्रावस्थानात्तेषां / ये तु / पृथिव्यादयः स्थावरास्तत्र लोकाग्रभागे सिद्धाश्रयाविभक्तेष्वेवाकाशमदेशेषु सन्ति, ते तत्र न नियमा-2 वस्थानाः, चतुर्दशरज्जुप्रमाणलोके परिभ्रमणशीलत्वात्ततस्तत्र लोकाग्रभागे सिद्धिस्थाने ते जानपदतुल्यत- II il // 10 // . IN P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसूत्र IM वार्तिकम् / आगमी- याऽधिवसन्ति, न पौरवन्निवासितया, ततो योग्यमेवोक्त भगवतः सिद्धानधिकृत्य सिद्धिपुरनिवासिन इति / द्वारककृति- समृद्धतम निराबाधं पूर्णसाधनोपेतं परचक्राऽनाक्रम्यं नृपतिस्थानं जगति मतं पुरमिति अनन्तचतुष्टय- Dil ऋद्धिकलिताया जन्मजराव्याध्यन्तकाद्याबाधारहितायाः सम्पूर्णसौख्यरूपायाः कर्मनृपसैन्यानाक्रमणीयायाः | सर्वाधिपतीनां सिद्धानामनन्यस्थानभूतायाः सिद्धेः पुरेणोपमानं / किञ्च-अटव्याः समुद्रस्य पारं 109 // जिगमिषुभिरवश्यं पुरप्राप्तिरभिसन्धीयते / अत्रापि च भवाटव्याः संसारसमुद्रस्य पारगामिन एवागच्छन्तीति पुरेणोपमानं, तन्निवासिनश्च सिद्धा 'इति। किञ्च-आजन्मारण्यवासी म्लेच्छ: अश्वाहरणप्राप्तारण्यवासेन नृपेण तत्कृतस्योपकारस्याऽविस्मरणीयतां चिन्त्यमाने नीतः स्वराजधानीपुरं, स्थापितश्च कियन्तमपि कालं महोपकारितामनुस्मरता बहुविधोपचारपुरस्सरं तस्मिन्नेव पुरे खसमीप एव, कालान्तरेण स्मृत्वा निजं परिवारादिकमागतोऽनुज्ञाप्यारण्य स्वजनानामभ्यर्ण, खजनाश्च चिरेणागतं तं कालमेतावन्तं क्व स्थित इति पृच्छन्त्येव, स चानुभूतं सोपचारं पुरमेव निवेदयति, जातकुतूहलाश्च पौनःपुन्येन तस्यैव पृच्छन्त्येव स्वरूपं, स च नृपकृपापात्रीभूतो म्लेच्छो जाननपि सकलं ययार्थतया पुरस्वरूपं, वाञ्छन्नपि स्वजनानां परमप्रीतिस्थानत्वाद्यथावत्तयोदाहर्तु, तथाविधस्योपमानादिसाधनस्याभावान्नैव शक्नोति स्वजना| नामाप्तानामप्यग्रत उदाहर्तु स्वरूपं नगरस्य / तत्रापि सर्वद्रव्यक्षेत्रकालभावावभासनपटिष्ठेन केवलालोकेनाव| लोक्यापि सिद्धिपुरं सोपचारं सामस्त्येम नैव शक्नोति विधातुं तत्प्रतिपादनं, यतो जगति ये ये व्यवहारगता अर्था उपमानपदमानीयोच्यन्ते ते समस्ता अपि अनात्मीया अतथाभूताश्चेति विदन्नपि केवलज्ञानी न स्वरूपं सिद्धराख्यातुमलं, लोकेऽप्यभिन्न स्वरूपाया अपि सख्याः पुरो न पतिप्रेपरसादीनाख्यातुमपार्यत 21 प्रियया सख्येति सुप्रसिद्धमेव। तद्वदत्राशेषानर्थान् विदन्नपि सामस्त्येन साधनस्य तथाविधस्याभावानोपदर्शयितुं / Hasiaurat Ja KIRames MPAINS B y : Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NPNE शक्त इति पुरस्वरूपाकथनवृत्तमधिकृत्यापि सिद्धेः पुरत्वेनाभिसन्धानं: समञ्जसमेव। किञ्च-अन्यत्र ISI आगमो-Ki पुरादिष्वधिवसन् जीवो यावद्भवमप्यवसन् चिरकालं सामस्त्येन वासान्निवासितयाभिधीयते, इतरे l द्वारककृति-Dil त्वागन्तुकतया, तद्वदत्रापि परं साधनन्तं कालं यावद्वासोत्र सिद्धानां भगवतामिति यथार्थतयैव सिद्धा पाकिस भगवन्तः सिद्धिपुरनिवासिनः। अत एव शास्त्रेऽपि सिद्धिगते मधेयेषु अपुनरावृत्तितयोच्यते / परतीर्थीसन्दोहे यैरपि 'न पुनरावृत्तिः न पुनरावृत्ति'रिति ब्रह्मसूत्रादिना अपुनरावृत्तिकथनेन सिद्धानां भगवतां साद्यनन्त॥११०॥ स्थितिमत्त्वमभ्युपगतमेव / यैरेव ज्ञानिभिर्येनैव ज्ञानेन सिद्धानां सेधनेनेह पुनरनागमनं दृष्टं, तैरेव II ज्ञानिभिस्तेनैव ज्ञानेन जीवानां विशेषतश्च भव्यानां तथाविधराशिप्राचुर्यादव्यवच्छेदोऽपि दृष्ट इति, न जीवानां भव्यानां सिद्धिगमनेनाऽनन्तानामपि व्युच्छेदशङ्काया अवकाशः / अवधेयमत्रेदं यद्-अतीतवर्त- KI गताद्धासमयानां या सङ्ख्या आनन्त्यांकिता, ततोऽप्यनन्तगुणैरधिका भव्यजीवानां सख्या, II | सिद्धिश्च नरलोकस्य पञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनप्रमाणस्याभ्यन्तरे एव, बहिर्नरलोकाजिनादीनां सर्वथाऽभावात् , IA | गता अपि विद्याधराया नन्दीश्वरादिषु चैत्यवन्दनार्थमागच्छन्त्येव त्वरितं पुनरत्रैव, न च / तत्र धर्मदेशनादि कुर्वते, नरलोकेऽपि भवोदधेस्तारणमत्यलस्य तीर्थस्य प्रवृत्तिस्तु पञ्चदशसु / Baa कर्मभूमिष्वेव, तत्रापि अर्धषविंशतावार्यजनपदेष्वेव बाहुल्येन धर्मतीर्थमाप्य सिद्धरानुकूल्यं, परत्र तु न 'धर्म' इति वर्णद्वयं स्वप्नेऽप्यायाति हृदि, तेष्वपि च क्षेत्रेषु महत्स्वपि | पूर्वापरविदेहेषु खल्पक्षेत्रं धर्मतीर्थस्यानुकूलतामाक्, भरतैरखतेषु च दशकोटाकोटीसागरप्रमिताखप्युत्स1. पिण्यवसर्पिणीष्वेकामेव सागरकोटी केवलां तीर्थकालः, सोऽप्यन्तरान्तरैव तत्वतो जिनानां पर्यायान्त कमियुगातकडूमिरूप एव सिद्धेर्योग्यः कालः, तदेवं सिद्धेोग्यानां क्षेत्रकालावस्थानामत्यन्तमरूपत्वमेव, DIPP.AC. Gundtnasud M.S. lad isanleoiationali t ain.. Jun Gun Aaradhak Trust Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्तिकम् जीवाश्थानन्तानन्तसङ्ख्याकाः, यतो लोके यावदसङ्ख्येयाः सूक्ष्मनिगोदजीवानां गोलकाः, प्रतिगोलकं 1 पञ्चसूत्रआगमी षट्खपि दिक्षु एकैकाकाशप्रदेशहानिवृद्धिभ्यामसङ्ख्येया अवहगानाः अवगाहनायां चैकेकस्यामनन्तानन्ता द्वारककृति जीवा इति, जीवानां सङ्ख्या विचार्यते, न स्यादेवानन्तानामपि सिद्धिगतेः प्राप्तौ तद्व्युच्छेदाशङ्काकणोऽपि / / सन्दोहे किश्च-एकैकस्मिन्निगोदे सूक्ष्मे बादरे वा ये जीवा अनन्तानन्तसङ्ख्याकास्तेपां असङ्ख्येयतमोऽपि भागो / न कदापि सिद्धिमवाप्स्यति, किन्तु अतीतानागतकालीनाः सर्वेऽपि सिद्धाः सेत्स्यमाना जीवाः सर्वेऽप्येते // 111 // एकस्यापि निगोदस्य जीवानामनन्ततम एव भागे भवति, एतावति जीवसङ्ख्याने सत्यपि तद्व्युच्छेदशङ्कायाः प्रादुर्भावो महामोहोदयप्रभवः / परेषां च तथाविधेन वाक्येन व्युग्रहणादुरन्तानन्तभवसागरभ्रामकश्च / यथाहि दर्भाग्रबिन्दुप्रमाणस्य पानीयस्य शोषं . दृष्ट्वा अदृष्टापारपारावाराणामब्धीनामम्बुपूरस्य व्युच्छेदः शङ्कथमानो मौखर्यमेवाविष्कुर्यात् , तद्वदत्रापि तथाविधे भव्यजीवानामानन्त्ये परिमितक्षेत्र कालेन सिद्धान् दृष्ट्वा सर्वभव्यव्युच्छेदशङ्कापि मौखर्यातिरेकेण न किश्चिदन्यद्वयक्तीकुर्यादिति / अत्र Dil दर्भाग्रबिन्दुजलधिजलगतं दृष्टान्तं सङ्ख्ययाऽननुरूपमपि व्यावहारिकतयोक्तं ज्ञातव्यमिति, यतो दर्भाग्र गतबिन्दुसमुद्रसलिलस्याध्यक्षं क्षेत्रमाश्रित्य सङ्ख्येयगुणेनैव तारतभ्यं, न त्वसङ्ख्येयेन गुणेन, न चानन्तगुणेन, सिध्यमाननिगोदजीवानां त्वेकमपि निगोदगतजीवसमुदायमाश्रित्य तारतम्यमनन्तगुणेनैव 9 भावादिति / न च वाच्यं तर्हि भव्यानामपि सतां मुक्तेरभावे भव्यत्वस्य निष्फलता अभव्यनिर्विशेषता वा I तेषामिति / यतो नहि जगति यावन्ति बीजानि तानि प्रादुर्भावयन्त्यजुराणि, न चाकुरप्रादुर्भावाISM भावमात्रेण बीजत्वस्य निरर्थकता अवीजसमानता वोद्भाव्यते केनापि विपश्चिता, ततश्च भव्यानां यथा // 19 // यथा तथाभव्यत्वपरिपाको जायते तथा तथा ते पदमव्ययमाप्नुवन्ति, व्यवहारराशिगतानां नराणामेव PP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust!!! Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ आगमो पश्चसूत्र द्धारककृति म JASTANI सिद्धेः साधनस्य सद्भावात् ; तेषां च सङ्ख्यातमानत्वान्नैककाले सर्वभन्यानामत्रागमः सिद्धिश्च, न च तत एच भव्योच्छेदः सिद्धेळच्छेदो वेति / तत्त्वतस्तु केवलेनैवालोकेनावबुद्धा जीवास्तदनन्तानन्तसङ्ख्या | सततसिद्धिभावो भव्यानां जीवानां संसारस्य चाव्यवच्छेद इत्यतीन्द्रियार्थदशिवचनविश्वस्तेर्भाव्यमिति 16 यथैवेन्द्रियपुद्गलानामिष्टानिष्टानां विद्यते ज्ञानदर्शनस्वभावस्य साधकता विपर्यासकता च, तथैव सातासात // 112 // कर्मपुद्गलानामपि . आत्मस्वभावस्य * वेदनस्योपष्टम्भकत्वाद्विपर्यासकारित्वाचोपयोगो, न तु ते आत्मनः स्वभावस्यावारकाः, क्षये तु सातासातयोः सुखस्वभावस्यात्मनो निरावाधसुखमयत्वं सिद्धावेव भवति, अन्यत्र सर्वत्र सातासातान्यतरकलितत्वस्य नियतत्वादिति प्राहुः-'निरुपमसुखसङ्गता' इति, न च वाच्यं संसारस्थस्य दुःखमिश्रस्य सुखस्यात्यन्तिकोच्छेदेनैव मुक्तरुपादेयता भविष्यतीति / यतः प्रेक्षावद्भिर्दुःखस्य / प्रहापोरिष्टत्वेऽप्यंशेन सुखपरिहाणेरिष्टत्वाभावात् / किञ्च-धर्मस्याचरणेन मोक्षः, धर्मश्च दुःखमेव दूरीकुर्यात् / | न तु सुखं, सुखदूरीकरणोद्देशस्तु न मूर्खतमस्यापि। नचानीप्सितं साधयन् धर्मो धर्मत्वं यायात् , न च / वाच्यं धर्मः पुण्यरूपः, पुण्यं च तज्जातीयपुद्गलोपचयरूपं, तदुदयाच्च सुखं, मोक्षश्च पुण्यापुण्योभयक्षयादेव. ) जायते, तस्मात् पापानामात्यन्तिकक्षयेन यथा दुःखस्यास्यन्तिकः क्षयस्तथा पुण्यानामप्यात्यन्तिकक्षयेन / सुखस्याप्यात्यन्तिकः क्षय एष्टव्य इति न्यायस्य समानत्वादिति / यतः धर्मो हि द्विरूपः, तत्र योगसहकृत- 1 धर्मस्य पुण्यबन्धहेतुत्वेऽपि वरूपधर्मस्य सम्यग्दर्शनादेन पुण्ये हेतुता, न च पुण्यस्य कार्यताऽपि / यच्च सम्य- 18 क्वादीनां देवादिगत्यादिहेतुत्वं कथ्यते, तत्तत्सहचरितकषायसामर्थ्यसमुत्थम् / नहि निष्कषायावस्थाश्रितं सम्यग्दर्शनादि कस्यापि कर्मविशेषस्य बन्धे हेतुतामायाति, निष्कमायत्वे विशेषेण तु योगातीतत्वदशा- 11 II यामात्मनः परमं शुद्धिकारणमेतदेवेति ज्ञानयोगलक्षणेनोच्यमानो धर्मः द्वितीयोऽद्वितीयरूपः स नैर्मल्यमेव Jun-GuRAadi // 112 // Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो. पञ्चसत्र द्वारककृति सन्दोहे विदधाति, न लेशतोऽपि बन्धमिति। सिद्धत्वें न हि सातवेदनीयोदयजं सुखमाम्नायते, किन्त्वात्मस्वभावरूपमेव।। | अत एवादः निरुपममित्युच्यते / संसारगतानां सुखानामेव पुद्गलजन्यसुखैरुपमानात् / न च संसारे / किमप्यपौद्गलिकं सुखमस्ति, येन तेन सिद्धसुखस्यापौद्गलिकस्यात्मरूपस्योपमानं स्यादिति। यथा | वार्तिकम् | हि विदुषामतिगुपिलो भ्रान्तिस्थानं परैरज्ञातपूर्वः पदार्थ आयाति निश्चिताववोधविषयं यदा, तदा य / आनन्दस्तस्यात्मनो जायते, तथा कुमारिका वा प्रथमरतिसमागमे यदानन्दसुखमनुभवति, तद् द्वयमपि II तादृशं भवति, यद् केनापि नोपमीयेत / तद्वदत्र भगवतां सिद्धानामनाबाधपदमुपगतानां संसारदुःखताप- | निर्मुक्तानां कर्मज्वालाऽऽवलितः सर्वथा विमुक्तानामात्मस्वरूपभूतं तादृशं सुखं प्रादुर्भवति, यत्केनाप्युपमितुं न शक्यते / अत एव सर्वकालीनसर्वदेवजनगतसुखानां राशि प्रकल्प्य स राशिग्नन्तानन्तशो वर्गेण / | वय॑ते तथापि स समूहः सुखस्य सिद्धस्य भगवत एकस्य यदेकसमयमात्र सुखं तदनन्तभागमपि न सुखसमुदायं तं समानयतीत्युच्यते। श्रोतप्रतीत्यर्थमेव तदपि, अन्यथा पौद्गलिकस्वाभाविकमुखयोलेशेनापि तुलनाया अभावादिति / येनोपमीयेत तोल्येद्वा स सिद्धानामानन्दः, स उपमानभूतस्तुलनारूपो वा पदार्थस्तावत् परस्वरूप एव स्यात् , सांसारिकस्य यावद्व्यवहारस्य पराश्रितत्वात् / तत्कारणान्वेषणे तु वक्तृश्रोतॄणां सर्वेषां परपुद्गलाश्रितानामेव व्यवहरणं, यतः आत्मा न पौद्गलिकः न च तस्य पौद्गलिकानन्द. एति वास्तवतां, अपौद्गलिकस्य व्यवहाराभावात् , कथं तादृशमुपमानं तुलाद्रव्यं वा स्यायेनापौद्गलिक आत्मा तादृश एव तदानन्द उपमीयेत तोल्येत वेति / किश्च-यो य ह जगति पौद्गलिकोऽप्यानन्दो यः सुखशब्देनाभिधीयते, स संवोऽपि वाचिकसुखशब्दवाच्यात्सुखाद्दरतर एव 113 // यतः सर्वोऽपि दृश्य आनन्दः पुद्गलानामायत्तः,अनुभवितुः कायादेरभ्यन्तरस्य साधनभूतानों वाह्यानां संयोग- II MPP:AC.Gunratnasuri M.S... Jun Gun Aaradhak Trust Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्वारककृतिसन्दोहे // 114 // स्यायत्तः, अन्तशः पुण्यस्याधीनस्तच्च क्षीयते एवानुक्षणमुपभोगेन फलस्यापचीयमानं / एवं च दृश्यमान सर्वोऽप्यानन्दस्तत्त्वतो वर्तमानकालेऽपि भविष्यचिन्तादुःखापूर्णः / स च कथं पुद्गलानां पुण्यकर्मणी भवजी- पञ्चमंत्रवितस्य बाह्याभ्यन्तरसंयोगानां चानायत्तेन सिद्धानां सौख्येनोपमीयेत तोल्येत वेति / किञ्च-दृश्यमानः बार्तिकर सर्वोऽप्यानन्दो भ्रंशनांतरीयक एव, यतः स सर्वो बाघहेतोरुद्भवति, बाह्यहेतूद्भवं सर्व च कादाचित्कमेव, IN यतः कादाचित्कभवनं कारणोपनिबन्धनमिति विद्वत्पर्षदां सिद्ध एव प्रवादः / सिद्धानां तु सुखं पारमाथि- 1 कानन्दरूपं न कारणोपनिबन्धनं / प्रतिबन्धकानां कर्मणां सहकारिणां मर्यादाकारिणां च सातादीनां चाभावो | जायमानोऽपि न परिणामिकारणतामनुरुध्येत / सिद्धानामात्मैव तथासुखोद्भवे परिणामिकारणतामनुरुध्यते। स चाहेतुक एव, स्वस्वभावरूपत्वाचस्य, आत्मनश्चाविनाशिस्वरूपत्वादिति / शास्त्रेषु पठ्यतेऽपि-'तं कह भण्णइ / | सोक्ख सुचिरेण वि जस्स दुक्खमल्लियइति / या च यावती च सुखमात्राऽनुभूयते जीवितं धारयता सा | चेत् प्रतिपातिनी भवति, तदा तत्सुखमात्रायाः पर्यवसाने दुःखस्यापि तावत्येव मात्रा समुद्भवति, तत | एव सुखस्य विमानाधिपत्यस्य परां काष्ठामनुभवतः सुरानाश्रित्य व्यवनजातं दुःखं वर्णयता विदुषा प्रोच्यते शाख्ने यदुत-'त सुरक्मिाणविभवं चिंतिय चवणं च देवलोगाओ / अइबलियं चिय हिययं सय सकर जं न फट्टेई ॥१॥ति / एवं च संसारवर्तिन्या चिन्तादिदुःखग्रस्तया प्रतिपातजमहादु खसंवलितया | मुखमात्रयात दत्यन्तप्रतिरूपिण्याश्चिन्तादिदुःखरहितायाः स्वखभावरूपत्वात् सनातनभाविन्याः सिद्धानां भगवतां वर्तमानायाः सुखमात्रायाः उपमानं तुलना न स्यादेवेति सिद्धानां भगवतामानन्दस्य निरुपमा. / नतीच्यमाना सङ्गच्छत एव / यथा च जगद्वर्तिनी मुखमात्रा दुःखेन भिन्नत्वादनन्तरं पाताच नोपमानमायाति, तथा सा न पूर्णामिलाषेति चापि नोपमानपदमायाति / यतः सा पुद्गलबातविषयकेच्छाधीना, ISi // 11 // Jun Gun Aatadhak, Trust Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो- इच्छा चाऽकाशप्रतिरूपिणी न कदापि पूर्तिमायाति, तदपूतौ च तद्विषयकपुद्गलजा वृप्तिस्तत्सुखं च पञ्चसूत्रद्वारककृति त कौतस्त्यं पूर्ण भवति / सिद्धसुखसमूहस्तु न पौद्गल इति न तदिच्छापूर्तिजनितः, किन्त्वात्मस्वभाव- वातिकम | जोऽनन्यापेक्षोऽसाधारणोऽन्यूनश्चेति सोऽमिलापरहितमिति अपूर्णाभिलाषसंवलितेन सांसारिकेण परमसुखसन्दोहे | नापि नोपमीयेत न च तोल्येतेति निरुपमानन्दसङ्गताः सिद्धा भगवन्त इत्युच्यमानं संगतमेव युक्त्येति / / // 115 // | उच्यते चात्र-यन्न दुःखेन सम्भिनं, न च भ्रष्टमनन्तरं / अभिलाषापनीतं च, तज्ज्ञेयं परमं पदम् // 1 // इति / सर्वेऽपि मुमुक्षवः परमपदार्थिनः 'ब्रह्मचर्य तपश्चेति द्वयं तत्प्राप्तयेऽल'मिति अध्यवसिताः, अध्य- KI वसिताश्च तयोर्द्वयोरात्मानन्दकारितार्या विषयाणां सर्शनादीन्द्रियपोषणस्य दुःखरूपतायां दुःखफलतायां I | दुःखानुबन्धितायामिति न तेषामाशङ्का स्यात् स्वप्नेऽपि यदुत-सिद्धानां रताद्यभावात् स्वाद्वन्नादिभोगा भावाच किमेव सुखनामापीति, अनुभवविरुद्ध तथाशकालेशस्याप्यसम्भवादिति / किञ्च-रताद्यनुभवश्चेत् सुखरूपः स्यान्न पर्यवसायी स्यात्, न च श्रान्तिरेतःस्खलनादिदुष्टः स्यात् / यथा च कण्डूतेः पामनस्यैव कच्छ्वाः प्रभावात् सौख्यं, न परस्य, न च कोऽपि कोविदः कण्डूतीनां सुखमवाप्स्यामीतिकृत्वा कच्छ्वा उत्पादनाय प्रयतते, न च कण्डूतीनामकरणं दुःखहेतुतया सुखाभावकारणतया वा मन्यते, अनादि भोगस्तु तेषामेव दुःखनिवृत्तिस्वरूपतया सुखतयाऽवभासते, ये बुभुक्षादिभिरार्ताः स्युः। धातादीनां तु त स्वादुतमाज्नादिभोगादेरप्यनिष्टानुबन्धित्वस्यानुसन्धानेन प्रत्युत दुःखरूपत्वापातादिति / किञ्च-ये हि जगतिमा सर्वकालीनाः सर्वेषामसुमतां सर्वप्रकारा ये विषयास्वादास्ते तत्तज्ज्ञानपूर्वका एव, अन्यथा जडानामिव मुखोत्पादाभावात् / तानि च सर्वकालीनानि सर्वज्ञानानां भगवतां सिद्धानां लोकालोकावभासककेवल- 5615 // ज्ञानयुक्तत्वाद् प्रतिक्षणमेव भवन्तीति तादृशाशशेखरानपेक्ष्यापि सिद्धाः सर्वज्ञानज्ञाना इति परमसुखिन IP.R.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोः द्धारककृति- सन्दोहे // 116 // | एव / तद्वदेव सर्वकालीनानां देवानां यदुपमातीतं सुखं 'नाटथादिसंनिरीक्षणादिसम्भवं तदपि प्रतिक्षण मनन्तकेवलज्ञानयुक्तत्वाज्जानन्त्येवेति कथं न तदपेक्षयापि सिद्धा नानन्तसौख्या इति / न च वाच्यं तर्हि अशुचिरसायदिजन्म दुःखमपि सिद्धानां सर्वकालीनं भविष्यतीति, यतः तद्दःखमशुचिरसाद्यास्वादादिजन्य वार्तिकम् तदनुभवितृषु स्यात् , 'इमे तु तद्वेतार इति ज्ञानजन्यं सुखमेवाप्नुवन्तीति / यथा स्वप्नानां द्रष्टाऽनुभवेन || सुखदुःखोभय वेदयति, परं सातिशयज्ञानवान तत्स्वप्नागमं जानानः ज्ञानजातं सुखमेवाप्नोति, नानुभवजं दुःखलेशमपीति न बाधः निरुपमसुखसङ्गतत्वे सिद्धानामिति / किञ्च-संसारो हि कर्मनृपाणामाज्ञया जन्माद्यवस्थामादाय कायपञ्जरानन्यवृत्तितया सदैव नारकादिकाश्चतस्रो गतीः परिवर्त्तमानस्य, जीवस्य Ki गर्भवासबाल्यजडत्वेष्टवियोगानिष्टसंयोगाधिव्याधिजराजीर्णत्वकुग्रामकुनरेन्द्रकुत्सितपरिवारपरिचारणादिभिदुःखैनिचितः। मुक्तानां च न कर्मपारतन्त्र्यं, न कायपञ्जरावरुद्धत्वं, न जन्मजराधिव्याधिजराऽन्तकादिदुःखं लेशेनापि वर्तते, न च भविष्यत्यपि भविष्यति, ततः सिद्धानां स्वाभाविकेनात्मसुखेन निरुपमे 2 नापरवशेनाव्ययजेन सुखित्वेऽपि जन्माद्यावाधाजानां दुःखानामभावादपि निरुपमसुखसङ्गता एव सिद्धा IN इति चक्तुं युक्ततममेव / अत एवाहुः . 'श्रीउमास्वातिभगवन्तस्तत्त्वार्थभाष्ये एतद्विषये-"संसारविषया- 10 तीतं, मुक्तानामव्ययं सुखं / अव्याबाधमिति प्रोक्तं, परमं परमर्षिभिः // 1 // स्यादेतदशरीरस्य, जन्तीनष्टाष्टकर्मणः / कथं भवति मुक्तस्य, सुखमित्यत्र मे शृणु // 2 // लोके चतुविहार्थेषु, सुखशब्दः प्रयुज्यते / विषये वेदनाऽभावे, विपाके मोक्ष एव च // 3 // सुखो वह्निः सुखो . वायुविषयेष्विह कथ्यते / दुःखाभावे च पुरुषः, सुखितोऽस्मीति मन्यते // 4 // पुण्यकर्मविपाकाच्च सुखमिष्टेन्द्रियार्थजम् / कर्म| क्लेशविमोक्षाच, मोशे सुखमनुत्तमम् // 35 // सुखप्नसुप्तवत् केचि-दिच्छन्ति परिनिर्वृत्ति / तदयुक्तं // 16 // KANHAAN Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियावत्वात् , सुखानुशयतस्तथा // 6 // श्रमक्लममदव्याधि-मदनेभ्यश्च सम्भवात् / मोहोत्पत्तेविपाकाच्च 101 पञ्चसुत्रदर्शनम्नस्य कर्मणः // 7 // लोके तत्सदृशो धर्थः, कृत्स्नेऽप्यन्यो न विद्यते / उपमीयेतं तद्येन तस्मानि-जातिकमा रुपमं स्मृतम् // 8 // लिङ्गप्रसिद्धेः प्रामाण्यादनुमानोपमानयोः / अत्यन्तं चाप्रसिद्धं, तद् यत्तेनानुपम स्मृतम् // 9 // प्रत्यक्षं तद्भगवता-महंतां तैश्च भाषितं / गृह्यतेऽस्तीत्यतः प्राज्ञैर्न च्छद्मस्थपरीक्षया // 10 // इति / दर्शनशास्त्रत्वाच्च तत्त्वार्थस्यैवमुपन्यासः सिद्धानां निरुपमसुखसिद्धयर्थं / आर्षे तु 'णवि अस्थि / माणुसाणं तं सुक्ख नेव सव्वदेवाण / जं सिद्धाणं सोक्खं अव्वाबाई उवगयाणं // 980 // आगमो सुरगणसुहं समत्तं सव्वद्धापिंडियं अणंतगुणं / नवि पावइ मुत्तिसुहं गंताहिवि वग्गवग्गूहिं | द्वारककृति- // 981 // यावत् 'इय सव्वकालतित्ते'त्यादि 'निच्छिन्नसव्वदुक्खा जाइजरामरणबंधण विमुका। अव्वाबाई सुक्खं अणुहोति सासयं सिद्धा // 988 // इत्यन्तमुक्तमत्रावगन्तव्यं / अत्र भाष्यकारैर्यदुःखाभावरूपात् सुखात् कर्मक्लेशाभावजं. मोक्षसुखं पार्थक्येनोक्तं तत्कर्मक्लेशानामात्मनां / 917 // स्वस्वरूपं यत्सुखानन्त्यरूपं तद्बाधकानां व्यपगमात् स्वस्वभावसुखापेक्षया / अत एवार्षे 'परिणिव्वा- II यंती'त्युक्त्वाऽपि 'सव्वदुक्खाणमंतं करती'त्युच्यते / आत्मनः स्वयं सुखस्वरूपता तद्वेदनस्वभावयुक्तता 1 त चात्र प्रागेव प्रसाधितेति / किञ्च-आर्षप्रतिपादितासु. गाथासु सिद्धसुखस्य सर्वाद्धागुणनानन्तरं अनन्त| वर्गकरणं तत् सिद्धानां शाश्वतं सर्वाद्धं सुखमित्यस्यार्थस्य द्योतनाय अनन्तवर्गभागस्य बहुत्वदर्शनार्थ चेति / / एवं च वर्णितस्वरूपा अपि सिद्धा भगवन्तो यद्यकृतार्थाः स्युस्तदा वर्णितपूर्व समस्तमपि स्वरूपं न सुखरूपं स्याद्, अकृतार्थत्वे. साध्यान्तरेच्छाभावेन दु:खासिकाया अविरामादित्याह-'सर्वथा कृतकृत्या' 197 // API इति, सर्वथा कृतकृत्यत्वं भगवतां सिद्धानां सम्पूर्णानां सौख्यानामधिगमात्, न किश्चिदपि तेषां कृत्य Gunratnasuri MS Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / वार्तिकम् // 118 // | मवशिष्टमस्ति / सर्वकालभाविनां सर्वभावानामवलोकनाच्च, यथा यथा तैतिं केवलेन भावि तथा तथैव आगमो- सर्वं जगति परिणमति / एषैव च भवितव्यता नियतिर्भावीत्यादिशब्दैः प्रोच्यते / कथमन्यथा भविष्यन्त्यां / पञ्चसत्रद्वारककृति भाविन्या भवितव्यताया नियत्या वा पूर्वकालवर्तिता स्यात्, कथं च तस्याः सर्वाणि कार्याप्युद्दिश्य कारण-- II ताऽपि स्यात् / न च वाच्यं 'मुच्यतां जगदप्येषा मतिमैत्री निगद्यते' इतिवचनात् सम्यक्त्वोत्पादेन सन्दोहे सह जगतो मुक्तेर्भावनया उद्भावितत्वात् वरबोधिमद्भिश्च जगत उद्धाराय समग्रस्य कट्या बन्धात् समस्तजगज्जन्तुजातस्योद्धाराभावे कथं सामान्यसिद्धानां तीर्थकृत्सिद्धानां च कृतकृत्यता स्यायेन सर्वथा कृतकृत्याः सिद्धा भगवन्त इत्युच्यमानं चेत्] सङ्गतिमेति / यतो जातकेवला एव सिद्धथन्ति, नेतरे, जातकेवलाश्चावश्यं येषां येषां जीवानां यान् यांस्तारकानालम्ब्य भावि सिद्धिगमनं यावदगमनमपि तत्सर्वं || | यथावदवलोक्यत एव / तथा च ये जीवाः स्वमालम्बनीकृत्य भाविसिद्धिकास्तेषां तु स्वयं जाता एव सिद्धिसिद्धावालम्बनं, परेषामपि महानुभावानामुपदेशाद्याश्रित्य ये गामिनः सिद्धिसौधं, ते तत . एव सेत्स्यन्तीति निश्चितार्थज्ञानात् नैकस्यापि सिद्धस्याकृतकृत्यता। किञ्च-जैना नैकेश्वरवादिन इति, | कालभेदेन भाविनोऽर्हन्तोऽनन्तास्तैश्च प्रतिबोधिता अप्यनन्ताः सिद्धिसौधमधिगन्तारो भविष्यन्तीति / | सर्वेऽपि सर्ववेदिनो विदन्तीति तेषां मते / न कस्यापि सिद्धस्याकृतकृत्यता। सा त्वेकेश्वरवादिनां मते, एकत्वा तारकस्य विधातृत्वाच्च स्वस्य भवति / तदर्थमेव च तेषामधरमानापि स्वशासनसत्कारन्यत्काराभ्यामव-! तारकल्पना जागर्तीति / ननु सिद्धशब्देन निष्ठितार्थत्वसूचनेन कृतकृत्यत्वस्य सूचनात् कृतकृत्यत्वं पुनरुक्तं कथं / IS नेति चेत् , सत्यं, प्राक्तावदर्थसिद्धादिभेदेनानेकधा द्रव्यसिद्धा अपि जगति सिद्धशब्देनोच्यन्ते, न च ते / II कृतकृत्या इति कृतकृत्यग्रहणं / यद्यपि मागईतां शरणं स्वीकार्यम् , तदनन्तरं शरणत्वेन खीकारः सिद्धानां | 198 // Piiadianratnasirta .... Jun.Gun.Aaradhakin Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दोहे __आगमो आईतशासनप्रभावलब्धसिद्धीनामेव सिद्धानां शरणं सूचयन्ति / ते च भावसिद्धा एव, परमभिमा- ISI पञ्चसूत्रद्वारककृति यादिसिद्धानामपि शासने आईते स्वीकारात्, आईतशासनस्वीकृतानामपि भावसिद्धानामेव शरणस्वीकारा- KI वार्तिकम धिकार इति सूचनार्थं सर्वथा कृतकृत्याः सिद्धा इति वचनं योग्यमेव / किञ्च-नामसिद्धादिव्यवच्छेदा थमपि कृतकृत्यत्वग्रहो नानुचितः / जीवेन सह यदीर्घकालं कर्म रजो मलं चेति त्रिविधं कर्म यत् 119 // सितं-बद्धमस्ति, तद् मातं-शुक्लध्यानाग्निना भस्मसान्नीतं यैस्तेन सितस्य ध्मानात् निरुक्तविधिना सिद्धा उच्यन्ते / त एव च कृतकृत्या भवितुमर्हन्ति / व्युत्पत्त्या च सिद्धथन्ति स्म-निष्ठितार्था भवन्ति स्मेति | सिद्धा. इति कथ्यन्ते / तथा च तेषां व्युत्पत्तिसिद्धमेव कृतकृत्यत्वं / यद्वा सिद्धिशब्दो लोकाग्रभाग- II वर्तिन्याः सर्वार्थसिद्धाख्यादन्त्याद्देवलोकाद् द्वादशयोजनान्तरालाया ईषत्याग्भारशिलाया वाचकतया रूढः, | आगमेषु सदातना चैषा सञ्ज्ञा, तस्यां स्थिता ये ते सिद्धाः, तात्स्थ्यात् तद्व्यपदेशस्य न्याय सिद्धत्वात् / यद्यपि लोकान्तलक्षणस्य सिद्धस्थानस्य सिद्धिशिलायाश्च योजनमन्तरालमस्ति, तथापि न ID कोऽप्यन्यः पदार्थः सिद्धानामुपलक्षकस्तत्रेति सिद्धिशिलाया उपरिस्थितत्वात सिद्धा इति कथ्यन्ते, सिद्धशब्देनोपलक्षकतया बुद्धाद्यवस्था ध्वनिता द्रष्टव्या। यतः शासने आहेते ये सिद्धा भवन्ति, ते यथात नोच्छेदरूपेणात्यन्ताभावरूपास्तथैव नैव ज्ञानगुणशून्याः। यथा वैशेषिकनैयायिकैविशेषगुणानां व्युच्छेदो मुक्तिरित्युक्त्वा ज्ञानशून्याः सिद्धजीवा इत्युचुष्टं, तथा नात्र, यतस्तैरिन्द्रियार्थसन्निकर्ष एव ज्ञानस्योत्पादकत्वेन मतः, सिद्धानां च शरीराधभावानेन्द्रियाणि, न चाथैः सन्निकर्षः। ततो ज्ञानसत्तावन्तो नैव तेषां सिद्धाः, परं, शासने आईते इन्द्रियाणि ज्ञानोत्पत्ति प्रतीत्य करणानि,'न च कर्तृणि / न चाधारोऽपि ज्ञानानां, किन्तु ज्ञानमय आत्मैव, इन्द्रियादीनि तु तदाविर्भावे करणानि, ज्ञानानामाधारोऽप्यात्मैव PLE R:P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्धारककृतिसन्दोहे // 120 // RRORNO हेतुश्च तुल्यसाधनेष्वपीन्द्रियादिषु ज्ञानोत्पत्तेर्वैषम्यं स्मृतैवैचित्र्यं प्रयत्ले महत्यपि कदाचिदस्मरणं कदाचिवल्पेऽपि प्रयत्ले स्मरणं केषाश्चिदनुभूतानां स्मरणं केषाञ्चित्वस्मरणं, जीवेष्वपि केचित्स्मृतिमन्तः पञ्चसूत्रविचित्रस्मृतिमन्तः स्मृतिशून्या दुष्करस्मृतिका अपि / किञ्च-जीवस्य ज्ञानस्वभावाभावे भवान्तरीयज्ञानं जातिस्मरणाख्यं न स्यात्, प्राक्तनभवीयतनुहृषीकाद्यभावादिति / पटुसंस्कारवतां पटुस्मृतीनां च भावान मवान्तरीयं मनस्तत्र तत्स्मारकं, मनसो नित्यत्वमणुत्वं च न प्रमाणसिद्धं न च वास्तवमित्यात्मैव | ज्ञानरूप इति, आत्मस्वभावभूतं च ज्ञानं केवलमेव, इन्द्रियार्थसंनिकर्षादिद्वारेण यावजागतीया पदार्थानां ज्ञानस्य कर्तुमशक्यत्वात् नात्मनामसर्वज्ञत्वे सर्वज्ञत्वस्य सम्भव इति / अभावे च सर्वज्ञस्य / नात्माद्यतीन्द्रियपदार्थदर्शी स्यात् / शास्त्राणि चैवमशेषाणि कपोलकल्पितदशामासादयेयुः। तस्मादम्युपेयं आत्मा ज्ञानमयत्वेन सर्वज्ञत्वरूपेण च। तथाभ्युपगमे च सिद्धानां भगवतां शुद्धात्मरूपत्वादवश्यमेव सार्वयं, | ततश्च सिद्धा ये ते बुद्धा इति कथ्यन्ते / बुद्धत्वं च निश्शेषोपाधिरहितत्वात् केवलित्वरूपमेवेति / किञ्चसिद्धत्वं हि प्रक्षीणसर्वकर्मत्वेन निष्ठितार्थत्वं, मत्यादीनि च ज्ञानानि न खाभाविकानि निश्चयेनैकस्य केवलस्यैवावरणभेदतत्क्षयोपशमभेदापेक्षया. मत्यादितया व्यपदेशात् / अत एव च मत्यादितारतम्यवतामपि पश्चानामपि ज्ञानावरणानां क्षये एकमेव केवलं क्षायिकस्वभावं / न च मत्यादीनामाविर्भावो, न च तेषां / शायिकत्वं, तथा च प्रक्षीणसर्वावरणानां सिद्धानां केवलज्ञानयुक्तत्वेनैव बुद्धत्वमवसेयम् / अत एव च नात्र / सविशेषणः प्रयोग इति / किश्च-अस्त्येव भवस्थकेवलिनां बुद्धत्वं निरुपचरितं, परं भवस्थदशाया एवं सान्तत्वान्न तदनाद्यनन्तं / अत एव च केवलज्ञानस्य स्वरूपतो मेदाभावेऽपि सयोग्यादिभेदेन केवलस्य / भेदोपन्यासः / यदि च केवलस्यान्यादृशो भेदोऽभविष्यत् प्रथमाप्रथमचरमाचरमादिभेदा नावक्ष्यन्त / / YE Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NON .. आगमो- ते हि समानरूपतयैकाकार एव वस्तुनि भवन्ति, बादरसम्परायचारित्रादीनां तथाविकल्पास्तव्यपदेश- KI पञ्चसूत्रद्धारककृति। | स्यैकत्वादेव / यद्वा विवक्षाधीनैव भेदोक्तिसिद्धिर्न तु वस्तुभेदाधीनेति। नापि भवेत्तादृशभेदापेक्षयैकत्वं / वार्तिक केवलस्य पर मेकविहं केवल मितिवचनं तु सर्वत्र जागरुकं प्रमाणरूपं च / किञ्च-मत्यादीनां यो वास्तवो / सन्दोहे भेदः स स्वरूपापेक्षः,केवलस्य तु भेदस्तद्वभेदापेक्षः। न च तद्वद्भेदे वस्तुनो वास्तवो भेदः,ततोऽपि केवलस्य न A // 12 // वैचित्र्यं स्वभावात् , परं सिद्धानां पार्थक्यात् तदीयं शाश्वतं केवलज्ञानमिति सिद्धा एव बुद्धशब्देन विशिष्यन्ते / / IS आगमेऽपि 'सिझंति बुझंतीति सिद्धानेव भगवत आश्रित्योच्यते इति / वस्तुतः केवलेन सर्वलोका / लोकावभासकेन सर्वेषु पदार्थेषु बुद्धेष्वपि परमयोगफलस्यान्त्यसामर्थ्ययोगसाध्यस्यापवर्गस्याभावान्न |S पूर्णबुद्धता तथाफलविकलत्वाद्विवक्षिता, प्राप्ते तु सिद्धत्वे केवलज्ञानावबुद्धपरमापवर्गप्राप्त्या बुद्धत्वस्य | al यथार्थता विवक्षितेति तदपेक्षया सिद्धा भगवन्त एव बुद्धा इति / 'बुद्धाणं बोहयाण'मित्यत्र तूच्यमाना | बुद्धता बोधकतायाः कारणत्वदर्शनाय, अत्र तु निरपेक्षा 'बुद्ध'त्तिशब्देन 'बुझंती'त्याख्यातेन वोच्यमाना निरपेक्षेति नात्र तपोऽभिप्रायसिद्धादयो ग्राह्याः। न च स चरमभववर्तिकेवलज्ञानेनोच्य मानाः सापेक्षा बुद्धा वाच्याः, किन्त्वन्यादृश एव, तेषां पूर्वोक्तानां सर्वथा कृतकृत्यत्वभावादित्याह-'पारगता' इति / जगति हि पारशब्दो. यद्यप्यरण्यादिपारेऽपि. वर्तते, तथाप्यत्र प्रकरणानिविशेषणत्वादन्यत्रानेकशः सूचनाच संसारसमुद्रस्यैव पारो ग्राह्यः / यतः श्रीऔपपातिकादिषु शास्त्रेषु महता विस्तरेण संसारस्य समदता तत्तारणप्रवणस्य संयमस्य च पोततोक्तेति / प्रस्ततेऽपि संसारससदस्य पारंगता इति ग्राह्य। कविरूढ्या'माप्तुं पारमपारस्य पारावारस्येति समुद्रस्य पाराधिगतिः दुष्करता च कथ्यते / अरण्यान्याः पाराधिगमेऽश्वादीनां वाहनानामुपकारिता, न च क्वापि संसारस्यः परतीरमापकाणां तपःसंयमादीनामु nasuri M.S.. / Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो यारककृति-AI सन्दोहे // 122 // खा.के. सा. कोचा पमाऽश्वादिभिः क्रियते इति संसारसमुद्र एव ग्राह्य इति / उक्तं चाहतां शरणं कुर्वतां प्राक् 'भवजल| धिपोता' इति / अत्रापि च प्राक् सिद्धिपुरनिवासिन इति संसारसमुद्रस्य हि पारगमनं विधातुमनन्त- पञ्चसूत्रभवानुद्यमिना भाव्यं / यतो न चारित्रमन्तरा मोक्षः कदापि कस्यापि विशेषतस्त्वईतां / यतस्ते हि न द्रव्य- वार्तिकम लिङ्गेऽपि भजनापदं, तेषामवश्यमुभयलिङ्गानामेव मोक्षस्य भावात् / येषामप्यन्यलिङ्गसिद्धानां भजनास्ति लिङ्गद्वारे,सापि द्रव्यलिङ्गमाश्रित्य,सापि कादाचित्क्येव / यतःचिरजीविनस्तु तेऽवश्यं द्रव्यलिङ्गमादयुरेव।तत्वतस्तेऽपि नापवादपदं सलिङ्ग द्रव्यरूपे,परंभावलिङ्गं प्रतीत्यनकस्यापि कुत्रापि भजना.तस्यैकान्तिकत्वात . तदचारित्ररूपा भावलिङ्गं तस्यैव भव्यस्य स्याद्योऽनन्तभवान् यावदभ्यस्यति चारित्रम्। चारित्रं हि शिक्षाप्रकर्षलभ्यं,शिक्षाप्रकर्षों हि लभ्योऽभ्यासेनैव, भूयो भूयः प्रवृत्तिहि कर्मसु कौशलमातनोतीति / 'अभ्यासो हि प्रायः प्रभूतजन्मानुगो A भवति शुद्ध' इति चोक्तेः / नच वाच्यं चारित्रस्साकर्षा अष्टावेव शास्त्रकृद्भिराम्नायन्ते, तत्कथमनन्तान् / DI भवांश्चारित्रमिति / यत आकर्षास्ते भावचारित्रमपेक्ष्यांच्यन्ते. इदं घुभयचारित्रमपेक्ष्य, अष्टभवानन्त्यान् / | विमुच्यान्येषु सर्वेषु भवेषु द्रव्यचारित्रस्यावश्यंभावात् / अत एव सर्वेषां भव्यानामप्यनन्तशो ग्रेवेयको त्पादस्य सिद्धिः। मरुदेव्यादिभिर्व्यभिचार इत्यपि नात्र नोद्य, यतो नहि मरुदेवा अनन्तकालाद | प्रागव्यवहारतोऽनादिवनस्पतितो निर्गत्यात्रायांता / तादृशश्च जीवः कश्चिदेवेति नानन्तद्रव्यचरणप्रवादस्य बाधः, सामान्येनाप्यपवादस्य स्वस्थाननियतत्वेनोत्सर्गविधेरखाधादिति / किञ्च-त्रैकालिकसिद्धानामनन्तभाग एवाप्रतिपातितया सिद्धः,शेषास्तु सर्वेऽपि सिद्धाः प्रतिपातवन्तः / यद्यपि तत्र प्रतिपातस्यास्त्येव / यतः केपि एकशोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रकालपतिपातिनो भवन्ति यावत् केचन बहुशः प्रतिपातिनः, अपार्धपुद्गलावर्त यावत्संसारे विपरिवर्तिनोऽपि भवन्ति / एतदेव च वृत्तान्तमनुश्रित्य शास्त्रवद्भिः प्रतिभव्यं तथाभव्यत्वस्य 24 KI // 12 // M P.AC.Gunratnasuri M.S... Jun.Gun Aaradhak Trust Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो पञ्चसूत्र | सत्वं वैचित्र्यं च स्वीक्रियते / प्रस्तुतं तु सर्वेऽपि भव्याः प्राक् तावदनन्तशो द्रव्यचारित्रिणो भूत्वा || द्धारककृति। चारित्रशिक्षामभ्यस्यन्ति / तथा जातेऽपि केचित् प्राप्य भावचारित्रमप्याप्य तादृक् प्रतिपातिनो भवन्ति |il वार्तिकम् था ह्यपापुद्गलावर्तमपि ययावद्भवचारित्रं न लभन्ते / तावता कालेन भावचारित्रमाप्य परमपदं सन्दोहे प्राप्नुवन्ति / एवं च साधितमिदं-संसारसमुद्रस्य प्रतरणं महाकष्टमयं / ततः परमपदपुरस्य प्राप्तिरप्यति॥१२३२ . कष्टमयीति / सिद्धानां संसारसमुद्रमुल्लङ्घन्य सिद्धिपुरप्राप्तिनॆवमेव, किन्तु सम्यक्त्वादिगुणश्रेणिप्राप्तिपारम्पर्ये | णैवेत्याहुः-'परम्परगतेभ्य' इति / एष हि नियमो निरपवाद एव यत्-करणत्रिंकसम्यक्त्वाधिगमक्षपक- IS! KI श्रेण्यारोहसयोगायोगकेवलित्वपरम्परयैव सिद्धरधिगमः / नपत्रानन्तकालचक्रैरप्यपवादपदमायाति / ततः Iril मुष्ट्रक्त-परम्परागता एव सिद्धा इति / एते च यद्यपि सिद्धिपुरनिवासितयोक्ता अत्र, परं तदुक्तिरुप पचारप्रधाना। यतः सवार्थसिद्धात् सिद्धिशिला द्वादशसु योजनेषु तदुपर्येव च सिद्धानामवस्थानं,परमासनं तथाविधं न परं स्थिरं स्थानं, विहाय तां सिद्धिशिलामीपत्ताग्भारानाम्नीमिति, तया सिद्धानामवस्थानं ) 2 तां पुरत्वेन प्रकल्प्य / वस्तुतस्तु तस्या अप्युपरिक्रोशत्रयीमतिक्रम्य, तुर्यस्यापि क्रोशस्य पञ्चभागानतिक्रम्य | IS प्रान्त्य एव तत्क्रोशपष्ठभागेऽवस्थानं सिद्धानां भगवतां / न च तत्र सूक्ष्मा अपि पृथ्व्यादयस्तथाऽवगाहनया IN/ लोकाग्रं समवाप्य तिष्ठयुस्तेषामङ्गलासङ्ख्यभागमात्रावगाहात्। हस्तादिपरिमितावगाहनावन्तस्तु सिद्धा एव सर्वेपि त सिद्धा उपरितनभागे लोकाग्रमभिव्याप्यैव तिष्ठन्ति,ततः सुष्ठवेवोक्तं-'लोकानमुपगतेभ्य'इति / यद्यपि चतुर्दश रज्जुपमाणे सर्वस्मिन्नपि लोके तस्य. पञ्चास्तिकायात्मकत्वाद् धर्माधर्मास्तिकाययोः सत्त्वात् गतिस्थि| तिपरिणतानां जीवपुद्गलानां गतिस्थिती प्रवर्त्तते एव, परं जीवानां सामान्येन विशेषतश्च क्षीणकर्मलेपानां सिद्धानां भगवतामूर्ध्वगमनस्वभावत्वादेवोर्च लोकाग्रं यावद् गतिः प्रवर्तते / ततश्च सुष्ठुच्यते TRIP Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak-Trust Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्वारककृति सन्दोहे // 124 // 'लोकाग्रमुपगतेभ्य' इति / एते बुद्धत्वाद्या जैनानां सिद्धत्वाविनाभूता . इति तद्ग्रहणेन तेऽपि गुणा उक्ता / एवेति उपलक्षणदृष्ट्या बुद्धत्वाद्याख्यानं नासङ्गतमिति / नन्वर्हतां भगवतां श्रुतादिकर्तृत्वात् स्यादेव / पञ्चसूत्रः भयत्राणादिकारकत्वेन- शरण्यत्वाच्छरणीकरणं, भगवतां सिद्धानां तु सर्वदाऽकरणवीर्यत्वात् न किमपि / वार्तिकम् भवभयार्तानां त्राणं विधातुं शक्तास्ततश्च तेषां शरणीकरणं न कमप्यर्थं पुष्णातीति चेत् / सत्यं, परं जगति ये / सर्वे धर्मास्ते आस्तिकानां मोक्षपर्यवसाना एव / अत एव त एवास्तिका .च्यन्ते, ये जीवानां कथञ्चि| दस्तित्वं नास्तित्वं श्रद्दधानाः कर्मणां कर्तृतां भोक्तृतां मोक्षस्य सच्चं तदुपायानां च सत्चमात्मरुच्याऽभिः | | प्रयन्ति, तथा च मोक्षश्रद्धानमूलमेवास्तिक्यं, ततो मोक्षपर्यवसानफलाः सर्वे आस्तिकधर्मा इत्युच्यमानं l | युक्तिसङ्गतमेव / मोक्षश्च तत्वतः स एवोच्यते यत् अनावर्तनरूपेण सिद्धानां सिद्धत्वेऽस्थान, तथाच न / सर्वेऽप्यास्तिकाः सिद्धानामपुनरावृत्तिभावेन सदा चिदानन्दरूपतया चावस्थानमपेक्ष्यैव प्रवर्तन्ते प्रवर्तिध्यन्ते / चेति सिद्धाः सर्वेपामास्तिकानां स्वसत्यश्रद्धानद्वारेण शरणभूता एव / धर्मनेतृणां धर्मस्यापि सिद्धिपर्यवसानफलसत्त्वेनाविप्रतारकतमुपकारकत्वं च, नान्यथा। अत एवान्यत्रात्मन एवाव्यावाधज्ञानमयत्वादिखरूपमाख्याय भगवतां सिद्धानां नमस्कारे अविप्रणाश एव हेतुतया गीयते / तथाच साद्यनन्तमङ्गेन सच्चिदानन्द- II पूर्णतया तेषां भगवतामवस्थानमेव शरण्ये कारणं / ततश्च सुष्ठवेवोक्तं यदुत-सर्वथा कृतकृत्याः सिद्धाः / शरणं मे भवन्त्विति त्वनुवर्तत एव / न च वाच्यं तद्वदेव शरणमित्यपि पदं न वाच्यं, प्रागुक्तत्वात्तदप्यनुवर्तनीयं / तत्रात्रापि च शरणस्य मुख्यतया विधेयत्वादध्यवसायशुद्धये च तदुक्तेरावश्यकत्वात्, परमपदस्य मार्ग देशितवन्तो भगवन्तोऽर्हन्तस्ततो यथावस्थितमोक्षान्तसप्ततव्याः श्रद्धानमवाप्नुवन्ति, तत्प्राप्तेरेव सम्यग्दृशः सन्ती भव्या जहत्येव संसारगतं चित्तपातित्वं, एतदेव च मोक्षवीजं / यतोऽलब्ध्वा IS 124 // Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमा सन्दोहे कायपातितामभव्या अपि केचन भव्या अपि अनन्तशो भगवदुक्तानुष्ठानपरायणा जाता जायन्ते भवि-11 ध्यन्त्यां भविष्यन्ति, परं नैतावद्भिरप्यनुष्ठानैर्भद्रास्ते मोक्षमार्गमप्यवाप्नुवन्तोऽवाप्नुवन्ति अवाप्स्यन्ति त पञ्चसूत्र वा / लब्धे च मोक्षवीजे न कोऽपि अपार्धपुद्गलावर्तादधिकं संसारं बम्भ्रंमति, किन्तु अवश्यमपवर्ग- वार्तिकम् मेवाप्नुवन्तीति / चेतःपरावर्तका भगवन्तोऽर्हन्त इत्यवश्यं शरण्याः। जाने च तथाविधे चित्तपरावर्ते सिद्धा भगवन्तः साधनन्तकालीनानन्तपूर्णताधारणादिरूपतया ज्ञाताः सन्तश्चेतसोऽनपवर्णनीयां विशुद्धिमुत्पादयन्ति / / तदेवं द्वयेप्येते परमेष्ठिनश्चेतसः परावृत्तौ शोधने चोपकारिणः, परमपवर्गस्य प्राप्तिर्न चेतामात्रवृत्त्या IST किन्तु चास्त्रिानुष्ठानेनैव / यद्यपि ज्ञानादिवच्चारित्रमप्यात्मगुण एव / अत एव च कर्मस्वष्टसु तस्य IN चारित्रगुणस्य मोहकं दर्शनमोहसहचरं कर्माभ्युपगम्यते, अभ्युपगम्यते च सयोग्यादीनामपि यथाख्यातनामकं चारित्रमिति / सत्येवं चारित्रस्यात्मगुणत्वेऽपि तस्याविर्भावो रक्षा / वृद्धिः पराकाष्ठाधिगतिश्चेत्येतत् सर्व HI ग्रहणासेवनाख्यद्विविधशिक्षाया अधीनमेव / शिक्षाद्वये चाधिगत एव चारित्राविर्भावाद्या भवन्ति, तत एव च सकलेन्द्रियाणामपि न शिक्षादेरयोग्यानां चारित्रसत्तादि शिक्षाद्वयं च प्रागुक्तं नातीतेभ्योऽर्हद्भ्यः, | तत्सत्त्वकालेऽपि नैते सर्वतीर्थयोग्यक्षेत्रेषु यावजीवं सर्वदा विहारिणः / नचाशरीराः सच्चिदानन्दपूर्णा | अपि सिद्धा भगवन्तस्तव्यं विधातुमीशाः, सर्वत्र क्षेत्रे काले च तच्छिक्षाद्वयस्य प्रचारमनगाराः साधक एव निर्ग्रन्थाः कुर्युरिति / वस्तुतस्तेषामापत्राणादिधर्मयुक्नत्वात् शरणार्हतामभिमन्यमान आराधक आह="तहा पसंतगंभीरासय'त्ति / तथाशब्देन प्रकारसादृश्यवाचिना पूर्वोक्तशरणद्वयमकारस्य तुल्यतां दर्शयनिदमाह-यदुत एते भगवन्तोऽनगारानाईदादिवद् वीतरागसर्वज्ञतापदाः। यथा अर्हन्तः तीर्थस्थापनेन | मोक्षमार्गस्य प्रवर्तकत्वात् कृतकृत्या असाधारणोपकारिणश्च, सिद्धाश्च भगवन्तः सर्वदा साधनन्तभङ्गेन Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... // 126 // IS सच्चिदानन्दपरिपूर्णतया सम्पूर्णकृतकृत्याः परमपदाराधकानां च भव्यानां परमालम्बनभूतास्तथा नैते. IN आगमो सम्पूर्णकृतकृत्यां याताः तथापि भगवदर्हदादीनामिव मोक्षमार्गस्य वाहकतया तदनन्यपरमार्थतया प्रवृत्तबाHिI त्वाच्च भगवदईदादिवदेवान्यूनातिरेकशरणाश्रयभूता इति / अत एव परमेष्ठिपञ्चकेऽपि भगवतामईदादी- 11 वार्तिकम् नामिव तेपामप्यन्यूनातिरिक्ता परमेष्ठिता नीयत इति / अत्रावधेयमिद यदुत-सर्वेऽपि जीवा अनादितः सन्दोहे कालात् भीषणतमे संसारार्णवे औदारिकादीनां पुद्गलानामनन्तशः परावर्तान् भ्राम्यन्ति अरघट्टघटीन्यायेन च मिथ्यात्वादिकानपायाननुभवन्ति, तबलेनैव च ज्ञानावरणीयादीन् वनन्ति कौघान्, आहृतस्याहारस्यानाभोगकरणेनैव जीवा यथा रसामृगादितया विभागं कुर्वन्ति तद्वलेनैव पुनराहारयन्ति च, तद्वदेव जीवा अप्यनादितोऽनाभोगेन करणवीर्येण कर्मोघमादाय सप्ताऽष्टधाविभागेन परिणमय्य पुनस्तदुदयबलेनैव च नवीनान् कौंधानात्मसात्कुर्वन्ति / तथा च बीजाङ्करन्यायेन परिभ्राम्यन्ति संसारं / सति चैतस्मिन् व्यतिकरे कश्चिदेवासुमांस्तथाभव्यत्वपरिपाकेनान्त्यावर्तमागतः - संसारपरिवर्तनप्रतिकूलमभिप्राय शमात्मकं अनुभवन्नान्दोलनारहितमानन्दमनुभवति / स हि महात्मा निजाशयं प्रशान्तवाहिनमनाभोगेनापि / Nविधते। न तस्य क्रोधाद्याध्मातता किन्तु स्वभावेनैव शमदशायामेवानन्दयति / एष एव च सदन्धमार्गगमनन्यायेन मार्गगमोऽसुमत आदितो भवति, अनागताचैनं मार्ग लोकपक्तये भवरतये Hच परःसहस्राः शरदस्तपस्यन्तोऽपि दुःखानामुरो ददाना अपि नागता मार्ग / अनागताश्चैनं ये P शमादीन् धारयन्ति, ते तु वातजशोफपुष्टिधारिणः पुष्टा एव परिणामरमणीयलाभशून्या एव / अधिकारी // 12 // | चाहत आज्ञाया अत्रैवागतोऽसुमान भवति / एष एव च धर्ममार्गयोर्भेदः। मार्गों हि चरमावर्तारम्भाल्लभ्यो, धर्मस्त्वपापुद्गलावादिति / तथाविधदशाप्राप्तानामेवानगाराणां भगवतां शरण्यत्वमईमिति ज्ञापनायादौ / वडा Ap Gunratnaug. MS Jun Gun Aaradhak Trust Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ni 'प्रशान्ते'ति ।.आगताश्च प्रशान्तवाहितां जीवास्त्यक्त्वा भवाभिनन्दितां मोक्षमेव गम्भीराशयतयाऽभिप्रेयन्ते / / पञ्चसूत्रआगमो न च स्वप्नेऽप्येते मुक्त्वाऽपवर्ग अन्यं सम्यक्त्वलक्षणेन संवेगेनाङ्कितत्वादभिलषन्ति / किञ्च-विनाऽऽशयस्य वार्तिकम द्वारककृति | गाम्भीर्यमनादिकालीनाया मोहवासनाया मुक्तिः, सर्वकालसिञ्चिताया इन्द्रियार्थप्रसक्तेः पराकरणं, सन्दोहे | वाह्यार्थसाधनसावधानमात्रादिकुटुम्बजनस्य निर्मुक्तिरंशतोऽप्यननुभूतस्य मनसोऽप्यतिक्रान्तविषयस्य मोक्षस्य // 127 // पुरस्कारेण सर्वप्रयत्नेनोद्यमनं, विविधभावनाङ्कितदुर्धरमहाव्रतधुराधरणं, जीवितान्तकराणामपि परीषहोपसर्गाणामापाते निरवद्यसंयमसाधनपुरस्सरमात्मनिःश्रेयससाधननिष्णत्वं न कदाचनापि कस्यापि शक्यतापदमापनीपद्येत / अतिपरिचितानामनादिसम्बद्धानामनुपदमनुभवपदवीमागच्छतां पूद्गलसमूहानां परमार्थपरम रिपुताध्यवसानेनात्मस्वभावभूतसम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयीद्वारावाप्य शाश्वतात्मीयानन्दमयापवर्गप्राप्तिप्रवणताप्रव्रजनसमतिप्रशान्तगम्भीराशयकार्यमनन्यसाधारणमवसेयं / प्रशान्तगम्भीराशया अपि गृहिलिङ्गादिसिद्धिश्रवणाद प्रतिज्ञातसावद्ययोगा अपि स्युः। अपि च-भगवतोऽर्हतः शासनं यद्यपि गुणानुरागमूलं, प्रधानश्च गुणानामेवानुरागस्तत्र परं व्यवहारपथः सलिङ्गा एव गुणा, न निर्लिङ्गाः / अत एव चोत्पन्नकेवलस्यापि भगवतो भरतस्य न शक्रेन्द्रेण केवलमहिम्ना समागतेनापि वन्दनं कृतं, किन्तु विज्ञप्तिरेवं कृता यदुत-प्रव्रज्यां गृह्णीध्वं, येन करोमि वन्दनमिति / प्रस्तुते शरणाधिकारेऽपि न प्रशान्तगम्भीराशया अपि अप्रतिज्ञातसावद्या योग्याः शरणे इत्याह-'सावधयोगविरता' इति / संसारिणो हि जीवाः समस्ता | अपि सयोगा एव, केवलमलेश्यावस्थामुपगता एव मुक्तिसोधसोपानस्था अयोगिनः / योगश्च यस्य स ! IS सर्वोऽपि पाणिवर्गों यथायथमवद्यबन्धनबद्धव्यापारः। अत एव मिथ्यादर्शनादनन्तरं जैनशासने बन्धधा- ISI IS माभिमतमव्रतमिति / जैने हि दर्शने पापादविरमणे पापक्रियाया अकरणेऽपि सुप्तमूच्छितक्रियचौरामि // 32 // IP Ad Gunratnasuri M.S . Jun Gun Aaradhak Trust Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागमो सन्दोहे // 128 // मारादिवत् पापग्रहणपरायणः। अत एव चैकेन्द्रियादीनामसामर्थ्यमतामप्यनादिकः संसारः सङ्गच्छते / KI संगच्छते च तथाविधप्रवृत्तियुतानामपि महात्मनां विरमणभावादेव निष्पापत्वं / यद्यपि त्याज्या एव योगाः समस्ता अपि, न च तदन्तराऽपवर्गावाप्तिः, परं न . निस्साधनो। वार्तिकम् / मोक्ष इति तत्साधनाय - निरवद्ययोगानामासेवनमावश्यकमिति सामायिकचारित्रभेदरूपमेव | सावद्ययोगविरमणं साधुपदाभिलाषुकैरधिक्रियते / अत एवात्र साधुशरणाधिकारे उक्तं-कीदृशाः साधवः शरणमिति शङ्कानिरासपरं पदं 'सावद्ययोगविरता' इति / ज्ञात्वा श्रद्धायाभ्युपेत्याकरणं हि विरमणं / तेन कायबुद्धिपूर्वकसंसर्गवतामेव सावद्ययोगविरमणं, नान्येषामितिनिरस्तं / देशसर्वविरतिविभागस्य यतो नावकाशोत्र, स्पष्टतयैव साधूनां भगवतामेव शरण्यत्वस्वीकारोऽत्र यतस्ततो नात्र सर्वशब्देन सावद्ययोगस्य विशिष्टता कृता. साधूनां भगवतां सर्वेषामेव सावद्ययोगानां विस्मणस्य यांवजीवमावश्यकत्वादिति / सम्पादितक्षयोपक्षमाद्यवस्थातो मोहनीयादात्मनां दर्शनचरणयुगलस्य सत्यां प्राप्तौ अवश्यं निखद्ययोगानामासेवनं स्यात् / अत एव च कालानध्यायादावपि प्रायश्चित्तं / मोक्षमार्गप्रयाणं च पुरतो ज्ञानाद्याचारपश्चास्यासेवनत एव / यथा यथा चारित्रिणामाचारपञ्चकस्य साधने वीर्योत्साहस्य वृद्धिस्तथा तथा तेषां मोक्षमाप्रासन्नतमत्वादि भवतीत्यावश्यकं मुमुक्षूणां ज्ञानाधाचारपञ्चकस्याराधनम् / तच्च तदीयज्ञान| पूर्वमेवेत्याह-'पञ्चविधाचारज्ञायका इति / पञ्चविधश्चाचारो ज्ञानादिविषयभेदात् / तत्र द्वादशाङ्गस्य प्रणयनमेव मोक्षार्थिजनासेवनीयस्य शासनस्य मूलं, तत्मवृत्तिरेव तीर्थस्य प्रवृत्तिः, श्रुतपथप्रकाशननाशेनैव | तीर्थस्याप्यवसानमिति / 'गीयत्थो य विहारो'त्ति 'सज्झायसमं तवो कम्म ने' त्यादि. च वचनं, वीतरागशासनगतमनुस्मरतामादौ ज्ञानाचार स्याष्टविधस्य समाचरणं तदर्थमेव च तज्ज्ञानस्यावश्यकमिति PL // 12 // Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्धारककृति ___ आगमों- Ini ज्ञानाचार आदौ / कालाध्ययनादिज्ञानाचाराऽऽराधनालब्धाचाराङ्गादिज्ञाना हि मुनयो निश्शंकितादि-12 पञ्चसूत्र गुणैर्दर्शनाचारैः स्वयं युक्ताः स्युः, परानपि तत्र योजयितारश्च / लब्धस्य व्यवहाररूपस्य वार्तिकम् द्रव्यरूपस्य वा सम्यक्त्वस्य निर्देशादिभिः सदादिभिश्च द्वारर्जीवादीनां तत्वानामधिगमादाचरितज्ञानाचार सन्दोहे लब्धसिद्धान्तज्ञानास्तस्य निश्चयरूपतां भावरूपतां वाऽऽनयेयुः। किञ्च-यथा यथाऽतिशयशमरससागरं / // 129 // सिद्धान्तसागरमवगाहन्ते मुनयस्तथा तथा सविशेषरूपेण प्रभावनान्तान् दर्शनाचारानाऽऽचरेयुः / वादिनैभिII तिकादयो हि प्रभावकाः शासनस्यावगाढागमसमुद्रा एवेति निष्पन्नानां ज्ञानाचारे सुकराऽऽवश्यकी च दर्शनाचार-il निष्पत्तिः।लब्धज्ञानदर्शनानामपि चेन्न चारित्राचरणचङ्गिमाऽवश्यं स विराधको देशेन,भगवत्यादौ तथा भणनात् / / तस्मात सर्वाराधनार्थिभिनिदर्शनधरैरपि चारित्रायोद्यन्तव्यं / किञ्च चारित्रयुतयोः सम्यग्दर्शनज्ञानयोर्मोक्षमार्गत्वं 14 नान्यथा, 'एकतराभावेऽप्यसाधनानी'त्यादिभाष्यकारायुक्तः। तथाऽऽवश्यकत्वं चारित्राचारस्य। किश्च-मिथ्यादृशां | सत्यपि शास्त्रादिबोधे यदज्ञानित्वमुच्यते, तज्ज्ञानफलरूपस्य चारित्रस्याभावादेव, तत्वदृष्टथा च 'ज मोणंति | पासह तं सम्मति पासहे' त्यार्षवचनात् / परमसाफल्यं हि चारित्राचरणयुक्तयोरेव सम्यग्दर्शनज्ञान| योरित्यप्यावश्यकताऽन्यूना चारित्राचारस्य / अवस्थिताश्च सुविहिताश्चारित्रे संवरसाधनलब्धसामर्थ्याः | 'संवरफलं तपोवल मितिवचनात् 'संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे त्यादिवचनात् 'तवसा धुणइ कम्मरयं अबोहिकलुसं कड'मित्यादिवचनाच्च द्वादशविधेऽप्यनगाराणां कर्त्तव्यतयोपदिष्टे निर्जराहेतुकेऽनशनादितपसि रता अवश्यं स्युरिति, तदनन्तरं तप आचाराणामुपन्यासः / यद्यपि सर्वेऽपि मुमुक्षवो मोक्षसाधनबद्धकक्षाका नाबानागटिषद्यच्छन्ति. परंन सर्वे समानसंहननाः, न चैकसंहनना अपि समानसामाः परं पण तेषां महानुभावानां महर्षीणामस्त्याराधकत्वं, हेतुस्तु तत्रात्मवीर्यस्यानिगृहनेनोद्यमनमेव / तथा च सर्वेऽपि P.P.AC. Gunratnasuri M.S.. . . Jun Gun Aaradhak The // 129 // Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / आगमो 17 वातिकम // 13 // सुविहिता आराधका मोक्षमार्गस्यात्भवीर्यस्य. मनोवाकायभेदस्य अनिगृहनेन पराक्रमणादेव / उच्यते च-11 'जंजइ य जहाथामति / अत एव क्वचिद्वीर्याचारस्य स्वस्थानापेक्षया मनआदिभेदत्रयस्य ग्रहणेऽपि पञ्चवसत्र क्वचिद्विषयस्य प्राधान्यात ज्ञानदर्शनचास्त्रितपसां भेदान् गृहीत्वा षड्विंशद्विषो वीर्याचार इति कथ्यते / द्वारककृति तदेवं विधानां पञ्चानामाचाराणां ज्ञायका एवाराधका मोक्षस्य, त एव शरण्या इत्युक्तं-'पञ्चविधाचारसन्दोहे ज्ञायकाः' इति / एवं मोचयित्वात्मानं भवराक्षसात् सिद्धिसाधनं विधाय स्वरूपावस्थां साधयताऽऽत्मना चतुर्णा शरण्यानां शरणमूरीकर्तुमुद्यतेन सद्भूतगुणबहुमानिना साधून शरणं कुर्वता. साधुगुणानां विहितमनुस्मरणं / यथाच सुविहितात्मानः साधवः प्रशान्तगम्भीराशयादिभिः स्वरूपप्रख्यापकगुणैरीं विधातुं शरणं तथा परोपकारनिरतत्वगुणेन सविशेष ते तथा। किञ्च-विपश्चितां गुणगृह्यत्वे समानेऽपि परोपकारपरायणतागुणो विशेषेण स्वीकार्यताहेतुरित्युक्तं-परोपकारनिरताः' इति / विदिततममेतद्विदुषां-यत् सिद्धिसावधानाः सुविहिताः ग्रहणासेवनाशिक्षायुग्ममनधिगम्य नालं सिद्धिं साधयितुं, शिक्षाद्वयं च स्थविराद्यनगारसन्निधिसेवाप्राप्यमेव, सुविहिताश्चनवरतं शैक्षादिभ्यो महता प्रयत्नेनापि ग्रहणासेवनाशिक्षाद्वयशिक्षणपटुतामेव बिभ्रते। ततः प्राक्तावत् सर्वेऽपि सुविहिताः साधवो ग्रहणासेवनाशिक्षादानपरोपकारनिरताः। अत एवोच्यते श्रुतग्रहणस्य फलं-ठिओ य ठावइस्लामि' त्यादि / किञ्च-सुविहिताः साधवो यत् सम्भोगव्यवहारेण भिक्षाभोजनादि कुर्वते, तत् बालग्लानशैक्षद्धतपस्व्याचार्योपाध्यायादीनामर्थायैव / अत एवोच्यते मण्डल्यनुपजीविनामपि साधूनां भक्षणविधौ-'साहवा तो चियत्तेणं निमंतिज जयं जई त्यादि / किञ्च-सामाचारीष्वपि दशस्विच्छाकारादिरूपासु निमन्त्रणा छन्दना चेति सामाचारीद्वयं M साधूनां संविभागकरणेन. परांपकारकरणार्थमेव / अन्यच्च चक्रवालसामाचारीरूपमिदमपि युग्मं | K Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सन्दोहे आगमो- IS| तेन सर्वदा सर्वावसरेषु तद्विधानमावश्यकं दर्शितं, परं चासंविभागकारिणां साधूनां सुख- 5/ पञ्चसूत्रद्धारककृति- शय्याया अभावमुक्त्वा दुःखशय्यावत्त्वं ज्ञापयित्वा विराधककोटौ प्रवेशं निष्टङ्कयन्ति निष्णा KI वार्तिकम | इति / किञ्च-गच्छस्य साध्वीवर्गस्य सारणायाः कर्तुर्योग्यस्याभावे आदातुकामानामप्यभ्युद्यत विहारं निषिद्वं यत्तदादान तत् परोपकारनिरतत्वगुणवत्त्वादेव' साधूनां महात्मनां / अन्यच्च-स्वर्गादिसा म धनपटिष्ठानामपि सुविहितानां मुनीनां निर्यामका भवन्त्यष्टचत्वारिंशत्सङ्ख्याका यत् तदपि परोपकारनिरतत्वा देव। स्थविरकल्पस्य परोपकारप्रवणत्वेन ह्यावश्यकता, अत एव न ननाटानामिव ग्लानमुन्यादीनां गृहस्थकरणिसमाश्रयणी स्थविरकल्पिकेषु अपि वालग्लानवृद्धाचार्यादिवैयावृत्त्यसंविभागार्थमेव च मण्डल्याश्रयणामण्डल्युपजीविका हि साधवः गोचराग्रमवतीर्णाः सकलश्रमणसङ्घयोग्यमेवाददते / पात्रादिकस्य सनिर्योगस्य धरणमपि नियतं स्थविराणां साधुगच्छोपग्रहार्थमेवेति सत्यमुक्तं-'परोपकारनिरताः' इति / अत एव च ग्लानबालादिवैयावृत्याद्यकरणे प्रायश्चित्तमनगाराणामवसीदतामनगाराणामुपेक्षणेऽपीति / यथास्थितपरोपकारो हि तैरेव कर्तु शक्यो, ये स्वयं कामभोगपकावसन्ना न स्युरित्याह-'पद्मादिनिदर्शनाः' इति / यद्वा निरुपमेयगुणा अप्यहंदाद्या महागोपादिदृष्टान्तवर्णनीया एव विदुषां / ततः साधुमहात्मनामपि दृष्टान्तवर्णनीयताया दर्शनायाऽऽह-'पद्मादिनिदर्शना' इति / तत्र पद्मनिदर्शनं-'जहा पोम्म जले जाय' मित्यादिनोत्तराध्ययन सूत्रसूत्रितं यथार्हमाहनतादर्शकं / यद्वापद्मशब्देन पद्मपत्रं, गाह्यं / तथा च पुष्करपद्मपत्रेण यथा निर्लेये | तथा निर्लेपगुणं धारयतो दृष्ट्वा लोकास्तान् पुष्करपद्मपत्रतया ख्यान्ति / पुष्करपद्मपत्रेण लोकेषु ते निदर्यन्ते इति श्रीपर्युषणाकल्पोक्तः 'कंसे संखे' इत्यायेकविंशतिपदोक्तानि निदर्शनानि ज्ञेयानि, IN // 13 // A आदिशब्दस्य प्रकारार्थत्वात् / यद्वाऽऽदिना शारदसलिलादीनीह निदर्शनानि विवक्षितानि / ततस्तन्मध्य- 15 HOS Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 132 // | गतपुष्करपत्रादीनि ज्ञेयान्यत्र निदर्शनानि, विशेषप्रसिद्धेः पुष्करपत्रादिनिदर्शनानामुपादानमिति / यद्वा ) आगमो ( प्रशान्तगम्भीराशयेत्यनेन पदेन गभीरड्दो यो वर्णितः श्रीआचाराङ्गे, तेन समानतामुक्त्वा स्वरूपमुक्तं l पश्चसूत्रद्धारककृति चारित्रप्राणस्य / अत्र तु पद्मादिनिदर्शना इतिपदेन मोक्षमार्गगामिषु तेषां महात्मनां तेनैव हसमत्वेनानेक वार्तिकम प्रसिद्धः ख्यातिः ख्यापितेति / सर्वेषामपि सज्ञिनां प्राग्भवीयप्रचुरपुण्यप्राग्भारलभ्यं मनः / नहि कदापि / सन्दोहे तथाविधपुण्योदयेन विना सञित्वस्याप्ति, परं तत् सज्ञित्वहेतुकं मनः पैशाचिकाख्यानगतपिशाचतुल्यं |प्रोक्तानामिष्टार्थानां सम्पादकमन्यथोत्पातशतसमुद्यतं च। यतो मन एव सुष्टुप्रयुक्त साधयति सिद्धि, मनं च रौद्रे IN तदेव माघवतीमही नयति नेतारमिति / अत एव च 'पैशाचिकमाख्यान'मित्यादिगतं 'संयमयोगैरातमा I निरन्तरं व्यापृतः कार्य'इ ति स्पष्टं श्रीउमास्वातिभिः प्रशमरतावुपदिष्टं, परमिच्छाकारादिप्रतिलेखनादिकानां | संयमयोगानां नियतकालकर्तव्यत्वात् तपस्विनां महात्मनां शेषः कालो भूयान उद्धरतीति तद्गतकर्तव्यतामाह- A 'ध्यानाध्ययनसङ्गता' इति / यद्वा प्रशान्तगम्भीराशयादिभिविशेषणैः साधुमहात्मनां संवरसमृद्धेः साधनेऽपि नैतावती मोक्षमार्गप्रयाणवृद्धिः तावत्या एव गुणश्रेणेरवस्थानान् ‘गुणसेढी तत्तिया ठाई' तिवचनात् / तस्मात् निर्जरासामथ्र्येन मोक्षमार्गप्रयाणस्य वृद्धापनार्थमाह 'ध्यानाध्ययनरता' इति / यद्यपि SI मुमुक्षवोऽनशनादिके द्वादशविधेऽपि सुविहितानामादरणीयतयाऽभिहिते निर्जराभेदे यथासामथ्य रक्ता AI एव, अन्यथा वीर्याचारहानिदोषापत्तेः। परं स्वाध्याये ध्याने च कालक्रमेण प्राप्ते विशेषेण रताः साधवः। 'पढमे पोरिसी सज्झायं बीए ज्ञाणं झियायई ति प्रतिदिनसामाचारीपतिपादकश्रीमदुत्तराध्ययनवचनात् / अत्र यद्यपि ध्यानमध्ययनस्य कार्यरूपत्वात् पश्चाद्भावि, तथापि मोक्षमार्गप्रयाणे ध्यानस्या- 1 भ्यहितत्वात् प्राग्निपातः, अल्पखरत्वमस्त्येव / ध्याने चात्र 'परे मोक्षहेतू' इतिवचनाद् धर्मशुलाख्ये एव 15 // 132 // 14 Jun Gun:Aaradhak True PP.AC.Gunratnasuri M.S... . ' Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो- ग्राह्ये, तत्रापि शुलध्यानस्य श्रेणिविशेषे सयोगिकेवलिनि च भावात् सर्वश्रमणव्यापकताऽभावात् धर्म्य- ISI पञ्चसूत्रः द्वारककृति KI मेवात्र ध्यानं ग्राह्याकिञ्च-धर्म्यध्यानस्य किञ्चित्किञ्चिद्ध्यानान्तरकालव्यवधानेनाजीवनमनगाराणां सम्भवा- वार्तिकम् त्तद्ग्राह्याधर्मध्यानं चाज्ञाविचयादिभेदं सततं ध्येयं सुविहितैरिति तत्सङ्गता एव साधवः शरण्या भवन्तीति Ki सन्दोहे स ते शरणमित्युक्त्वा करटोत्कस्टाभानां शरणानहत्वं प्रतिपादयतिाध्यानं स्वभ्यस्तागमो गीतार्थ एव विधातुमलं // 133 // साधुः, न कोङ्कणप्रायोऽपत्यकृषिचिन्तक इवेत्याह-गीतार्थत्वाय अध्ययनेति / ननु 'चाउकालं सज्झायस्स- | अकरणयाए' तिवचनाद् दिवसनिशयोराद्यान्त्यप्रहरेष्वेवाध्ययनस्य सङ्गतिन सर्वकालमिति चेत् / सत्यं, II स नियम आबालवृद्धानां सर्वेषां गच्छवासिनां विशेषतो भक्तिमतामनगाराणां, सामान्येन तु 'काले न कओ HI सज्झाओत्ति 'सज्झाए न सज्झाइय'ति च वचनात सर्वकालमेवाऽकालाऽस्वाध्यायवर्जमध्ययनकाल इति I A योग्यमेवोच्यते-'शरण्याः साधवः अध्ययनसङ्गता' इति / यद्यपि परस्पराविनाभावि द्वयमेतत्. परं शुभध्या नमेव परमं निर्जराहेतुः / निकाचितान्यपि कर्माणि ध्यानप्रभावादेवापनेतुं शक्यन्त विनैव भोगं, तदन्तरेण | तु तल्लवेऽपि कृताति निष्ठुरकर्मणां दृढप्रहारिप्रभृतीनां मोक्षस्यासम्भवः, तथाविधध्यानहेतुनैव सततमध्ययनमग्नत्वभावात् साधूनां योग्यमुक्तं-'ध्यानाध्ययनसङ्गता' इति। एवंविधा अपि साधवः ध्यानाध्ययनलीना अपि प्रतिक्षणमपूर्वापूर्वनिर्जरावृद्धिगुणप्रकर्षलाभवन्त एव मोक्षस्य साधनाय, साधने च तस्य साहाय्याय प्रभवेयुरित्याह-'विशुध्यमानभावा' इति / विशुध्यमानभावत्वं च जातिस्मरणकुलसंस्काराद्य| भावेऽप्यवाप्ताष्टवयस्कचारित्रस्य मासादिपर्यायेण व्यन्तरादिसुखाशिकावृद्ध्या यावत् संवत्सरेण सर्वशुक्लाभिजात्यत्वेन, परस्य त्वन्तर्मुहूर्तेनाप्यवाप्य केवलस्य यथास्यात्तथावसेयं / अत एवोच्यते-'जह जह सुयमवगाहइ // 133 // अइसयरसपसरसंजुयमपुव्व'मित्यादि / एवं निसर्गाधिगमयोरन्यतरजं तत्त्वार्थश्रद्धानात्मकमित्यादि यावत् P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Guri Aaradhak Trust Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर A // 134 // | नित्यं निर्वाणसुखमवाप्नोतीति तच्चार्थभाष्ये, नित्योद्विग्नस्यैवमित्यादि च प्रशमरतौ साधूनां साधुत्वमाप्त्या- IS आगमो- दिफलपकर्षः / सर्वश्चैष फलप्रकर्षों विशुध्यमानभावस्यैव साधोरिति सुष्ट्रक्तं विशुध्यमानभावाः साधवः पञ्चसूत्रद्धारककृति शरणमिति / एतादृशानां प्रशान्तगम्भीराशयादिगुणानां साधुष्वेव भावात् , साधूनामपि च यथार्थतया वार्तिकम् प्रशान्तगम्भीराशयत्वादिनियमात् यत् साधव इति प्रोच्यते, तत् द्रव्यवेषयुक्तानामेव तादृशानां मोक्षसन्दोहे. PA साधनाय प्रशान्तगम्भीराशयादिगुणधारिणां शरण्यताज्ञापनाय / ततश्च भावलिङ्गानां निर्ग्रन्थानामुत्तमत्वेऽपि 2 शरणकरणे साधवः साधवस्तु द्रव्यभावोभयलिङ्गयुक्ता एव निम्रन्था इति / एव स्वयं केवलज्ञानेन विज्ञाय पूर्वभवगताप्रतिपातिमत्यादित्रिज्ञानयुक्तेन सम्यक्त्वेन स्वयम्बुद्धतयाऽऽचरितस्य चारित्रधर्मस्य त फलस्वरूपतया तत् पूर्वभवोपात्तजिननामकर्मणोऽभिप्रेतफलदातृतयोदयात् समवसरणं सुरसम्पादितमध्यास्य | द्वादशाङ्गो धर्मः प्रतिपादित इति सफलसमाचीणसद्धर्मप्रतिपादकतयाहतो भगवतः, तत्सद्धर्मसमा-| चरणसाधिताविनाश्यात्मस्वरूपावाप्तिसिद्धिसौधान् भगवतः सिद्धान्, तस्यैव सद्धर्मस्य समाचरणचतुरान् तत्समाचरणचणनररत्नपरमसंयमधर्मसाधनसहायकरणतत्परांश्च सुविहितान भगवतः शरणम् / एतावता ग्रन्थेन शरण्यान् शरणतया स्वीकृत्य परमपुरुषाणानुपासना विहिता, परं जैने धर्मे यथैवोत्तमपुरुषाणामात्मश्रेयस्करमाराधनं तथैव परममार्गस्यापि केवलिमज्ञप्तस्याराधनमावश्यकतममेव, धर्मिष्ठपुरुपसमाराधनं तु गुरुत्वप्राप्तेरागेवाभीष्टं, तत्प्राप्तौ तु तथाविधपुरुषाणामाराधनाय प्रेरणमनि 'केवलिनो गौतम ! माऽऽशातयेति श्रीवीरवचसाऽऽपत्तिकरं / परं केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य समाराधनं यावदयोग्यन्त्यसमयसर्वशरीरविप्रहाणमावश्यकमिति तस्य केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य परमशरण्यत्वात् यावसिद्धिसाधनं चालम्बनीयत्वात्त शरणीकर्तुमाह-तहा• केवलिपन्नत्तो धम्मो जावज्जीवं मे भगवं सरण मिति / अत्रावधेयमिदं यदुत-सर्वेऽपि // 134 // DEP.AC.Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trust Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो- तीर्थका अविप्रतिपन्ना एतस्मिन् वस्तुनि यदुत-सर्वैरपि स्वीकृत आस्तिकैरात्माख्यः पदार्थः रूपरसगन्ध- RI पञ्चमूत्रद्धारककृति-IDI स्पर्शाश्चक्षुरादीन्द्रियगम्या विषयास्तै रहित एव / तथा च नासौ अतीन्द्रियज्ञानिनं विना ज्ञातुं शक्योऽन्यैः। वार्तिकम् सन्दोहे HI अतीन्द्रियज्ञानी च वीतरागपरमात्मानमन्तरेण न कोऽपि जगति भवितुमर्हतीति सर्वतीर्थीयेषु रागद्वेष HNI माहेर्ललनास्त्रीमालासंसर्गहतवीतरागत्वेषु भगवानहन्नेवाऽष्टादशदोपरहितत्वाद्वीतरागः सर्वज्ञः, स एव // 135 // चात्माद्यतीन्द्रियपदार्थानां साक्षात्परिच्छेदविधायी, अन्येषु प्रवृत्तास्ते आत्माद्यर्थवाचकतयाऽऽत्नादयः शब्दास्ते भगवद्वीतरागार्हद्वचनानुकारेणैव / अत एवोच्यते सव्वप्पवायमूलं दुवालसंग मित्यादि / 'उदधाविव सर्वसिंध' इत्यादि तु तर्कानुसारिवावदूकपर्षदुद्गीर्णमतप्रवाहापेक्षं, भगवन्तो जिनेश्वराश्चावगम्य केवलेनाऽखिलान् प्रज्ञापनीयेनरान् भावान् गणभृन्नामकर्मोदयधरणधीरान् गणधरानुद्दिश्य निखिलान् | प्रज्ञापनीयार्थान् साक्षात् सूचकतया वा भाषन्ते। तत्र प्रथमं तावत् लोकादीनां शाश्वतत्वज्ञापनेनाऽकृत्रिमत्वादिज्ञापनायास्तित्वादि समुपदिशन्ति / तदनु नर्ग्रन्थं शासनं तन्महिमानं सुरगत्यादिपुत्पत्तिकारणानि नारकादि-सिद्धभगवदन्तसर्वार्थस्वरूप प्रादुर्भावयन्ति। श्रुत्वा चैतां देशनां गणधरा भगवन्तः Ki शासनोत्पत्तिस्थितिप्रवृत्तिप्रवृद्धिप्रायोग्यां ग्रनन्ति द्वादशाङ्गोमित्यलमतिप्रसक्तेन / आख्यान्तश्च भगवन्तो देशनां hi कर्तव्यतयाऽनगारागारधर्म यथाभद्रकत्वादिकाः सिद्धिसौधावस्थानावसाना दशा उदिश्य समग्रमपि स्वर्गापवर्ग सुकुलोत्पत्त्यादिकं सर्वमपि फलतयाऽऽख्यान्ति / तत एव गीयते धर्मः स्वर्गापवर्गद' इत्यादि। एवं च भगवन्तो-11 | ऽभ्युदयनिःश्रेयसोभयहेतुतया धर्ममाख्यान्ति, परं तत्राभ्युदयहेतुताऽऽनुषङ्गिकीतिधर्मस्य फलम्पापि सा प्राप्या, न साध्या। अत एव न क्वचिदप्या धर्मस्याभ्युदयमुद्दिश्य कर्त्तव्योपदेशः / या तु तत्र नि श्रे-IA // 135 // INI यसहेतुता धर्मस्य सा साध्या प्रयत्नातिशयेनापीति सर्वत्रार्षागमेषु 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' / P.AC. Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trust ) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्धारककृति सन्दोहे RI इत्याद्यवोच्यते / यच्चात्र जिनेश्वरमात्रप्ररूपितस्य धर्मस्य केवलिपज्ञप्ततयाऽऽख्यानं शरणीकरणं च तत् | बागमो-1 न धर्मस्य स्वरूपे भगवतां जिगेश्वराणां जिनत्वद्योतकातिशयानां प्रभावः, किन्तु केवलित्वस्यैवेति द्योतनाय |पञ्चसूत्र सर्वेषां जिनाजिनानां केवलिनां समानधर्मप्ररूपणा पदार्थस्वरूपानुपातित्वात् सर्वेषामपि समानेतिज्ञापनाय |B वार्तिकम् च / किञ्च-मङ्गलव-लोकोत्तमत्वस्वीकारादिपूर्वकमेव शरणं स्वीकत्तुं योग्य, परमेतस्याराधनासूत्रत्वात् फलरूपमेव शरणं स्वीकृतं / प्रतिक्रमणादिषु क्रियासुत्रत्वात् केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्यापरेषां चार्हदादीनां स // 136 // मङ्गलवलोकोत्तमत्वस्वीकारपूर्वक एव शरणत्वस्वीकार इति / किश्च-जैने हि शासने धर्मिणां धर्माधारतयै वाराध्यता। नहि कस्याप्याराध्यताऽत्र व्यक्ति जातिलिङ्गात्मना, परं धर्मो न हि मूर्तिमान्, तथा च कथं तस्य पर्युपासनादि, ततो धर्मवानेव पर्युपासनायां ग्राह्यः। अत एव च परमेष्ठिपञ्चकनमस्कारो महामन्त्रनयाऽऽराध्यते, पूज्यन्ते च तद्गता अर्हदादयः / अत एव च पारमाऽपि-'वंदामि नमसामी'त्यादीनां पदानां निरुपमानो न्यासः। 'पज्जुवासामि'त्ति / अस्यैव च 'कल्लाणं मंगल'मित्यादिपर्युपास्यपदौपम्येन न्यासः। अत्रापि च प्रागुपन्यस्तानामहदादीनां केवलिपज्ञप्तधर्मवत्ताप्रभावेनैव शरण्यता तथापि पर्युपास्या मूत्ती इति, तत एव हेतोस्तेपां प्रागुपन्यासः, परं नैतावता धाराधनेन धर्मप्रभावः क्षीणः, किन्तु - तद्वत्पूजाद्वारैव धर्मस्य सप्रभावत्वात् पुष्टतामापनो धर्मप्रभाव इत्याह-'तथेति / अर्हत्सिद्धसाधुवदन्यूनाति14 रिक्ततयैव धर्ममपि शरण कुर्वे इत्याह / ज्ञापयति च धर्मिणां शरणस्य स्वीकारादनु धर्मस्य शरणस्वीकारेण PA यदुत-बहुजननमनो धर्म इतिन्यायेन सर्वेऽप्यास्तिका धर्मस्य वहुमाने सादरा एव, परं त एव धर्मबहु। मानिनो वस्तुतो, ये स्युर्धर्मपरायणानामर्हदादीनां बहुमाने रता नापरे / अत एव जैनशासनबहुमानिनामपि IS| अहंदादीनां पश्चानां परमेष्ठिनामाशातनायां मिथ्यात्वमाम्नायते / गोशालजमाल्यादयो हि भगवतः श्रमणान्म- 11 | // 136 VIP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो- 9 हावीराद्विप्रतिपन्ना एव मिथ्यात्वं गताः / अधुनातना अपि जैन धर्म शरणं ब्रुवाणा अपि भगवन्तं ISI पञ्चसूत्रद्धारककृति तद्वचनान्यथाकरणद्वारा विपतिपन्ना एवमेवेति धर्मस्य मुर्तिमचाभावाद् धर्मिमहत्ताद्वारैव महत्ता धर्मस्येति DI वार्तिकम् सन्दोहे मनस्याऽऽयायाह-'सुरासुरनरपूजित' इति / धर्मस्य प्रणेतारः प्रभावका अद्वितीयासाधारणतया धारका भगवन्तोऽर्हन्तः तांश्च सुरासुरनराः पूजयन्त्येव / यत उच्यते-'आभतर मज्झ बहिं विमाणजोइसभवणाहिव॥१३७॥ कयाउ। पागारा तिनि भवे रयणे कणगे य स्यए य // 549 // मणिरयणहेमयाविय कविसीसा सवरयणिया दारी / सव्वरयणामयच्चिय पडागधयतोरणविचित्ता // 550 // तत्तोअ-समंतेणं कालागुरुकुंदुरुकमीसेणं / गधेणं मगहरेणं धूवघडीओ विउव्वं ति // 51 // उकिटिसीहणायं कलयलसद्देग सबओ सव्वं / तित्थयरपायमूले करेंति देवा निवयमाणा // 552 // चेइयदुम पेढछंदय आसण छत्तं च चामराओ य। जे चण्णं करणिज्ज करेंति तं वाणमंतरिया // 553 // साहारण ओसरणे त्यावश्यकनियु. क्त्यादौ देवानाश्रित्य, मनुष्यानाश्रित्य च-'वित्तीउ सुवण्णस्स बारस अद्धं च सयसहस्साई / तावइयं l मंडलियाण सहस्सा वित्ती पीई सयसहस्सा // 581 // भत्तिविहवाणुरूवं अण्णेवि य दिति इन्भमाईया। म सोऊण जिणागमणं निउत्तमणिओइएसु वा' // 582 // तत्रैव प्रोक्तं / किञ्च-'देवावि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो'त्ति दशवकालिकवाक्येन, सनत्कुमारेन्द्रादेर्भव्यत्वाद्युत्तरे श्रमणादीनां हितकारित्वा. दिभावानां हेतुतया दर्शितत्वात् भगवत्यादौ; श्रीजीवाभिगमादिषु जम्बूद्वीपस्थश्रमणसङ्घादेहितायैव वेलन्धरादिभिरनुधृतो लवणो नोत्प्लावयतीत्याद्यनेकधा पारमर्षवाक्येन धर्मस्य सत्यतमत्वात् केवलिप्रज्ञ- AI प्तस्य पूजकाः सुरासुरा इति निर्विवादम् / सर्वेऽपि सुरासुराः स्वजन्मसमये भगवन्तं जिनेश्वरमभ्यर्चयामा // 137 // Gunratrasuri M.S Jun Gun Aaradhak Trust Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / सुरेव / यद्यपि सुरासुरमनुजेषु न सर्वे सम्यग्दृष्टय इति न सर्वैस्तैरेष पूजितः, परं 'सर्वः सत्यं समीहते' आगमो- KI इति न्यायेन धर्मी तिख्यात्यैव वा सर्वेषां. सन्तोषस्य समुत्पत्तेरसत्यं कुर्वाणा अपि सत्यस्य केवलिप्रज्ञ- पञ्चस्वः द्वारकतिKा प्तस्यैव धर्मस्य पूजका इति परमार्थतां निश्चीयतें। एतयैवापेक्षया भगवन्तमहन्तं महादेवमाश्रित्योच्यते यः al वातिकमा पूज्यः सर्वदेवानां, यो ध्येयः सर्वयोगिनां'मित्यादि / यद्वाज़ सुरासुरमनुजानां सर्वेषामग्रहः, सर्वशब्दरसन्दोहे हितत्वात् / विशिष्टाश्च सुरासुरमनुजाः केवलिप्रज्ञप्तं धर्म पूजयन्त्येव, जघन्यतोऽप्यसङ्ख्येयानां सम्यग्दृशां // 138 // सुरासुरमनुजानां प्राप्यमाणत्वादिति / प्राप्यफलस्याभ्युदयस्यानुद्देश्यत्वादाइ-'मोहतिमिरांशुमाली'ति / यद्यपि भगवद्भिः केवलिभिः प्ररूपितो धर्मः सर्वकर्मकक्षहुताशनप्रभः, परं सर्वकर्मणां मूलभूतो मोह इत्यत्र तन्नाशकत्वेन स विशेषितः / किश्च-मणिदीपादिभिज्योतिष्कैस्तमो नाश्यते, तिमिरस्यान्धकारविशेषस्य A नाशकस्तु दिवाकर एव / अत एव च स तिमिरारिशब्देन कोशे संशब्द्यते / यथा च जगति तिमिरं न H सूर्यापरज्योतिष्कनाश्यं तथा मोह तिमिरमपि न केवलिप्रज्ञप्तापरधर्मनाश्यम्, किन्तु तन्नाश्यमेवेति युक्तमुक्तं-मोहतिमिरांशुमाली'ति / यथा च दिवाकरोऽवश्य तिमिर नाशयति तथा धर्मोऽपि S/ केलिप्रज्ञप्तोऽवश्यं मोहतिमिरं नाशयत्येव / अत एवोच्यते-'जन्मभिरष्टव्येकै सिध्यत्याराधकास्तासा'मिति / जा अंशुमाल्युपमानेन ज्ञापयति शास्त्रकार इदं यदुत-यथा यथा ांशुमालिनोंऽशवो लभन्ते प्रसरं तथा तथा जगति तिमिरं प्रणश्यति / तथाऽत्रापि भगवद्भिः केवलिभिः प्ररूपितस्यापि धर्मस्यास्य यथा यथा जीवेषु विशिष्टाराधना तथा तथा विशिष्टो मोहनाशः; यावत् सर्वविशिष्टाराधनाकारिणामन्तर्मुहूर्त्तमात्रेणाप्या पवर्गस्य प्राप्तिकरो मोहनाश इति / यद्यपि शास्त्रेषु मोहस्य 'पडपडिहारऽसिमज तिवचनेन मोहस्य / सुरोपमानतोक्ता सा सम्यग्दर्शनज्ञानवतोऽपि चारित्रमोहोदयेन जोयमानं विकलत्वमपेक्ष्य / यतो जगति MP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 139 // आगमो- I अमत्तावस्थायां विज्ञतमोऽपि तत्तया ख्यातोऽपि नरो यदा मत्तावस्थामुपगतो भवति, तदा निर्विवेकि- Dil पञ्चसूत्रन द्वारककृति-10 शेखरो भवति, तथानापि शासने क्षायिकसम्यग्दर्शननन्दिषेणादिवत् प्रकृष्टश्रुतधारकोऽप्यसुमान मोहमदिः वार्तिकम् त रामत्तो भवति, तदा निर्विवेकिशेखरमिथ्यात्वान्धितहक्समचेष्टाको भवति / अत्र तु मोहस्य तिमिरेणोपमा / सन्दोहे Hसा दर्शनमोहनीयस्य यथार्थतत्त्वबोधश्रद्धानप्रतिपन्थकत्वमाश्रित्योक्तेति ज्ञेयं / बुद्धो हि केवलिप्रज्ञप्तो धर्मोऽवश्यं मोहतिमिरं विनाशयति / अनन्तशोऽप्यात्तानि चारित्राणि मोक्षफलमाप्ति प्रत्यफलान्येव जातानि / भगवतः केवलिनो धर्मस्य वोधरूपस्य लब्धिस्तु न जातु कस्यापि मोघीमवति, यतो ये: त कोऽप्यसुमान् लभते भगवतः केवलिनो धर्मस्य बोधि, स नियमादन्तरपार्धपुद्गलावर्तादनावृत्तिपदं A लभेतैव, ततो यथार्थमुक्तं भगवता केवलिना प्रज्ञप्तं धर्ममधिकृत्य मोहतिमिरांशुमाली'ति / लब्धे च / म धर्मबोधौ जन्तुरवश्यमर्वाक् पल्योपमपृथक्त्वाद्देशविरतः स्यात् / सङ्ख्यातेषु सागरोपमेषु क्रमशः क्षप्यमाणेषु चारित्रं उपशमश्रेणिः क्षपकश्रेणिश्चावश्यं तस्य भवतीति / क्रमशः सकलमोहस्य नाशकत्वादपि धर्मबोधेरेव मोहतिमिरांशुमालिता ज्ञेया / अत एवं रागद्वेषंविषपरममन्त्र इत्यग्रेतनं विशेषणं / तत्रानन्तानुवन्ध्यादि चतुष्कं नवनोकषायसहितं रागद्वे शब्देन ग्राह्यं / तथा न स्थानमारेकाया यदुत-य एव मोहः, स एव रागद्वेषौ त यावेव च रागद्वेषौ तावेव मोह इति कथं मोहस्य रागद्वेषयोश्च पृथग्रहणमिति / अत एव रागस्य सक्लेशजनकता Hद्वेषस्य शमेन्धनदावानलता या प्रतिपादिता भगवता श्रीहरिभद्रसूरिणा सा अशुद्धवृत्तकरणहेतुताच मोहस्य सङ्गच्छतेतमा / विहायैव विषयतृष्णां गम्यागम्यविभागं विना सर्वत्र वर्तनारूपां लभते भगवत्केवलिप्रज्ञप्तं बोधिमिति नियमात् / ज्ञापित चैतषोडशके श्रीहरिभद्रसूरिभिर्यथा तथैव श्रीमद्भिरभयदेवसूरिभिरपि | 139 // स्वकीये . नवतत्त्वप्रकरणभाष्ये स्पष्टितमेव-ताश्या विषयतृष्णायाः . शमनमेव . सम्यक्त्वस्य Ac. Gunratnasuri M.S Jun Gun Aaradhak Trust Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारककृति R शमरूपं लक्षणं, तच्चास्तिक्यादीनां संवेगान्तानां चतुर्णा फलरूपमिति / श्रीहरिभद्राचार्या विंशतिकापआगों | करणे उत्पत्तावास्तिक्यादीनां पश्चानुपूर्वीक्रमस्याभ्युपगतत्वात् मतः केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य बोधिरेव पञ्चसूत्र सम्यक्त्वापरपर्यायः / मोहतिमिरांशुमालीति / अत एवोच्यते-'तमतिमिरपडलविद्ध सणसे ति श्रुतस्तवे, वार्तिक 'द्विविधमनेकद्वादशविध महाविषयममितगमयुक्तं / संसारार्णवंपारगमनाय दुःखक्षयायाल' मिति तत्वार्थभाष्ये . सन्दोहे. द्वादशाङ्गतीर्थदेशनाप्रस्तावे। न ह्यनन्तरं जायमानं फलमेव फलतयोच्यते, किन्तु अनन्तरपरम्परयोरेकत-RI // 14 // | रेणापि उभयेनापि च / अत एव च प्रयोजनाख्यानुबन्धस्यानन्तर-परम्परप्रयोजनमभिव्याप्याख्यायते IS फलवत्ता / तथा च केवलिमज्ञप्तधर्मावाप्तेरेवानन्तर्येण पारम्पर्येण च जायमानानि सकलानि फलानि | K मोक्षपाप्तिपर्यवसानानि ज्ञेयानि / अत्र तु मोहतिमिरांशुमालित्वकथनेन तु जायमानमनन्तरं फलमेवाम्नातं / al किश्च जाते मोहतिमिरस्य ध्वंसे अवश्यमङ्गी रागद्वेषधातनतत्परः स्यात् / अत एव च संवेगं सम्यक्त्वलक्षणतया | वर्णयन्ति विद्वांसः। तथाविधां तस्यावाप्तबोधेरवेक्ष्यैव दशां सावधप्रवृत्त्यादिसपापव्यापारभृतानपि सम्यग्दृशो | | देशविरतिमतो देशविरतांश्च श्रीमूत्रकृताङ्गे गणधरा धार्मिकपक्षतया निश्चिन्वते। प्राप्तौ च सम्यक्त्वस्य. IN | मिथ्यात्वमोहनीयस्यैव भेद उपयुक्ततमस्तथापि तद्भदात् तद्विभागाच प्रागेव चारित्रमोहनीयरूपानन्तानु बन्धिनामुपशमक्षयादीनां स्वीकुर्वत आचार्या आवश्यकताम् / अनन्तानुबन्धिशमस्तु प्रागेवापूर्वकरणे। तेन न | जातं सम्यक्त्वं तद्वयनकं, अभिव्यक्तिस्तु तत एवेष्यते, क्रोधकण्डूयाऽपगमेऽपि तद्व्यपगमादेवापूर्वकरणाज्जात एव असाधारणः पक्षपातः शमवति भगवति, तन्मात्रप्रतिबद्धता च शमरूपा सम्यक्त्वादनन्तरमेवाभिव्यज्यते / ततश्च यथार्थमुक्त-मोहतिमिरांशुपाली केवलिप्रज्ञप्तो धर्म' इति / लब्धसम्यक्त्वा अपगतमोहतिमिरा अपि जना गुणस्थानानां परम्परां साधयित्वैव शक्नुवन्त्यपवर्ग साधयितुं, नान्यथा। VIP.AC. Guriratnasuri M.S... कर के. सा. कोवा // 14 // Jun Gun Aaradhak Trust Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो 51 उच्यते च 'परंपरगयाण'मिति / सा परम्परापि केवलिप्रज्ञप्ताद्धर्मान्नान्यतः कुतश्चिदवाप्यते / परम्परायां च il पञ्चसूत्रद्धारककृति-KII | तस्यां क्रमशः क्षपणं रागद्वेपविषस्य जायते / तत एव चात्मसु अपूर्वापूर्वगुणप्राप्तिर्जायते, महान् काल- वार्तिकम वास्य / यतः पञ्चमषष्ठसप्तमगुणस्थानकानामवस्थानं देशोनां पूर्वकोटीं यावद्भवति / ततस्तत्र विघ्नना- IA सन्दोहे | शाय पठ्यते-'रागद्वेषविषपरममन्त्र' इति / अत्रेदमवधेयं यदुत-तिमिरं हि द्रष्टुरवरोधं विधाय दृष्टेरुपद्रोति; // 141 // | विषं तु व्यथामप्यन्तरुत्पादयति, यथास्थितां दृष्टिं च प्रतिबध्नाति, तद्वत् मिथ्यात्वमोहनीयोदयस्य || तिमिरोपमत्वात् स सदेवगुरुसत्तत्वगतां दृष्टिमवरुणद्धि / अप्रत्याख्यानादयस्तु दुःखरूपे दुःखफले दुःखानुवंधे च संसारे सुखादिरूपतामाभास्य विषयकषायहिंसापरिग्रहेषु जीवं तद्रसिकतया प्रवर्त्तयन्ति, अतो 'विषं विषया' इत्यप्युच्यते। विषयाणां विषवं न स्वरूपेण, यतोऽभिसरन्ति हि विषया अतीन्द्रियान् केवलिनोऽपि / तेषां विषत्वं तु रागद्वेषनिवासत्वेन ।अत एवोच्यते-'अशक्यं रूपमद्रष्टुं, चक्षुर्गोचरमागतम् / रागद्वेषौ तु यौ तत्र, तौ बुधः परिवर्जयेत् / // 1 // इति, विषयाणां परिहाराय यदुपदिश्यते परमर्षिभिः तत्रापि 'सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्य'मित्यादिना शब्दादीनां परिहारमनभिधाय तद्गतयोग्रॅद्विद्वेषयोरेवोच्यते परिहारः / ततः सुनिश्चितमिदं यदुत-विषयगतयो रागद्वेषयोर्विषेणोपमानं यथार्थमेव / ननु धर्मस्य भवतु महिमाऽनून एष, केवलिप्रज्ञप्तत्वविशेषणेन किमिति चेत् / सत्यं, वचनं हि श्रयमाण प्रागेव तत्तावत् स्वप्रामाण्याय वक्तुः स्वरूपमन्वेषयितुमात्मानं प्रवर्तयति / यतो विरला एवं विश्वे वस्तनां IR यथार्थतया स्वरूपस्य वेत्तारः। तत्रापि धर्माधौं तु नातीन्द्रियवेदिनमन्तरा वेत्तुमलम्भूष्णुः कोऽपि / IS ज्ञातमपि वस्तुस्वरूपं स एव यथावद्विभावयितुमलं स्यात. यः स्याद्रागद्वेषै रहितः / अत एवोच्यते- DI // 14 // 'आप्तवचनमागमः, अभिधेयं वस्तु यथावस्थितं यो जानीते . .यथाज्ञातं चाभिधत्ते स आप्त' इति / VIP.AC. Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trust Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 142 / / / तथा च प्राक् तावत् श्रुतस्य धर्मस्य प्रामाण्यायैव तद्वक्तुः स्वरूपस्यान्वेषणं-वीतरागः केवली च || आगों- KI परमात्मा परम आप्त इति / तत्प्ररूपितस्य धर्मस्य धीमान प्रामाण्यमध्यवस्यति / अध्यवसिते / / पञ्चसूत्रद्वानाच तस्मिन् तस्याराधनाय प्रवर्तते प्रधीः। प्रवृत्तश्चाराधनाय तस्य प्रधीस्तदनन्यया भक्त्या | वार्तिकम् वासितो भवति / तथाभूतश्चेष्टानप्यनादिकालतो विषयानू स्पर्शादीन् दुःखरूपान् दुःखफलान् दुःखासन्दोहे नुबन्धांश्चावगच्छति / ततश्च यावज्जीवं तत्प्रहाणाय तद्तरागद्वेषदलनाय च चतुरश्चेतयते इति युक्तमुच्यते यदुत-धर्मः केवलिपज्ञप्तो रागद्वेषविषपरममन्त्र इति / मन्त्रोपमानेन च ज्ञाप्यते यद्यथा यथा मन्त्रस्य परिवर्तन तथा तथा तज्जन्यस्य गुणस्याविर्भावः। विषघातार्थं च मन्त्रस्य पुनः पुनरेवोपयोगो युज्यते / उच्यते चातः-"यद्वद्विषघातार्थ मन्त्रपदे न पुनरुक्तदोषोऽस्ति / तद्वद्रागविषघ्नं पुनरुक्तमदुष्टमर्थपदम्" // 1 // इति / परममन्त्रता चावश्यमनुकूलं फलत्येवेति ज्ञापनाय / न च बाच्यमभ्युदयसाधकत्वाद्धर्मस्य रागद्वेषहेतुकानां विषयाणां तद्भोगजन्यस्यानन्दस्यापि स जनयिता, स एव च तद्गतानां रागद्वषविषाणां परममन्त्र इति परस्परमत्यन्तं विरूद्धं च इति / यतः प्रज्ञप्तो हि धर्मः केवलिभिर्मोक्षस्य साध्यतामुद्दिश्येति प्रागुक्तमेव / न च रागद्वेषाद्यन्तरङ्गरिपुसङ्घाते जात्वपि मोक्ष इति सM केवलिप्रज्ञप्तो धर्मो रागद्वेषविषं विधुनात्येव, परं तस्य धर्मस्य कर्तारों द्विविधाः-सरागा बीतरागाश्च / | तत्र ये सरागास्तेषां यथा यथा धर्माध्यवसायस्तथा तथा निर्जरा तु भवत्येव, 'सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतान|न्तवियोजके'त्यादिवचनात्, परं तेषां ये योगपुद्गलास्ते स्वस्वभावात् 'जोगा पयडिषएस' मित्यादिवचनादनुसमयमाददते कर्मपुद्गलास्तान् धर्मो मन्दकषायादिस्वभावात् शुभयति / तदुदये च जीवाः सुखिनो भवन्तीत्यभ्युदयेऽपि स हेतुः, परं प्राप्यः स, न साध्य इति / वीतरागाणामपि नियोगानां धर्मोऽयं | // 14 // Jun Gun Aaradhak Trust P.AC.Gunratnasuri M.S. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 143 // __ आगमो- केवलामेव निर्जरां साधयति, नाभ्युदमिति सुष्टुच्यते-रागद्वेषविषपरममन्त्र इति / ननु 'कम्मं अट्ठविहं त द्धारककृति-IN खलु अरिभूयं होइ सव्वजीवाण' मितिवचनात् 'नमो अरिहंताणं' इत्यत्र च निर्विशेष्यतयाऽरित्वोक्तेः शासने से वार्तिकम् जेने कर्माण्येवारिभूतानि, न चाष्टानां कर्मणामष्टपञ्चाशशतस्यापि प्रकृतीनां के अपि रागद्वेषाख्ये प्रकृती, सन्दोहे यदि च वैराग्यार्थमुक्त-'मायालोभकषायश्चत्येतद्रागसज्ञितं द्वन्द्वं / क्रोधो मानश्च पुनष इति समास| निर्दिष्टः // 11 // इति श्रीउमास्वातिभिः प्रशमरतिप्रकरणोक्तमाश्रीयेत, तदपि न रुचिरं 'रागबोसकसाया' इति नियुक्तभिन्नत्वस्य तयोः कषायेभ्यो ज्ञायमानत्वादिति चेत् / सत्यं, स्वरूपरमणो ह्यात्मा स्वस्व रूपाद्विचणन् मार्गद्वयं प्राप्नोति-परेषु पदार्थेषु प्रीतिरूपमप्रीतिरूपं च / तदेव च रागद्वेषशब्देन स्वरूप- | al चलनं निर्दिश्यते / अत एव सम्यक्त्वचारित्रापवर्गदेवगुरुधर्मादिष्वप्रतिमं धारयन्नपि प्रतिबन्धं वैराग्य मिति कथ्यते / जाते च तस्मिन् मार्गद्वये रागमार्गे मायालो भरूपयोः कषाययोः कर्मप्रकृतिरूपयोः | क्रोधमानरूपयोश्च द्वेषमार्गे आविर्भाव इति कर्मप्रकृतिषु तदुदयदर्शनाय क्रोधादिरूपतयोक्तौ, नियुक्ती स्वरूपमपेक्ष्य भिन्नतयोक्ताविति न कोऽप्यनाश्वास इति / एवं मोहतिमिरस्य रागद्वेषविषस्य चानि- . ष्टतमतया कृतेऽपि भगवता केवलिप्रज्ञप्तेन धर्मेण यदीष्टसाधकताशक्तियुक्तत्वं न स्यात्, स्यादेवापफलं || विघ्नवारणं, दरिद्रस्य निरुद्यमिनश्चौरलुप्टाकभयनिवारणमिवेतीष्टसम्पत्साधनसिद्धयर्थमाह-'हेतुः सकलकल्याणाना मिति / अव्यवहारराशिगतानामप्यसुमतामस्ति पर्याप्तत्वादिकल्याणप्राप्तिः, अन्त्यतः तीर्थप्रवृत्तिरहितकालीना अप्यसुमन्तो गच्छन्ति नाकितामपीति केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य सकलकल्याणसाधकताकथनमनुचितमेवेति न वाच्यं / यतः त्रिपल्योपममाना नाकिगता स्थितिरेव तीर्थप्रवृत्तिरहिते युग्मिकाले // 14 // उपाय॑ते नाधिका. भगवद्भिः केवलिभिः प्ररूपितस्य धर्मस्य प्रवृतौ तु नाकिगता त्रयस्त्रिंशत्सागरमाना P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो- I पञ्चसूत्रवार्षिक ज्यते स्थितिः, पल्योपमं चैकस्य सागरस्य दशकोटीकोटयंशमानमिति त्रीण्यपि तानि त्रयस्त्रिंशत्सागर| स्थितेः पुरो बिन्दुप्रमाणि, साद्यनन्तस्थितिक निरावा, शाश्वतं सिद्धिपदं चाप्ययते इति नायोग्यमुक्तं- 'साधकः सकलकल्याणाना मिति / तापसादिधर्मास्तु केवलिभाषितस्य धर्मस्यानुकारा एव / साधितं चेदं द्वारककृति प्राक् 'सव्वप्पवायमूल'मित्याद्युक्त्येति / यद्वा-तान्येव कल्याणानि यानि विशिष्टपुण्यैर्विशिष्टभाग्यवद्भिश्च सन्दोहे प्राप्यन्ते, तादृशानि कल्याणानि तु केवलिप्रज्ञप्तादेव धर्मादवाप्यानि। यतः स एव तावत्"माकार्षीकर्कोऽपि // 144 // पापानि' इत्यादिमैत्र्यादिभावनाचतुष्कमूलः अहिंसासंयमतपोभेदः उपशमविवेकसंवरशाखः प्राणवधाद्य ष्टादशपापस्थानपरिहारपत्रः निरवद्यशुभकानुवन्धिदानादिचतुष्टयप्रवृत्तिछायः मुरद्रुमोपमः। स एव चाल विधातुं नरामरनिःश्रेयसाना सर्वाः सम्पत्तय इति यथार्थमेवोक्तं-केवलिप्रज्ञप्तो धर्मः साधकः सकल कल्याणानां / अत एव प्रेत्यावश्यं नरकगामिनोऽपि वासुदेवप्रतिवासुदेवाः शस्यन्ते शलाकापुरुषतया / प्राग्भवे नियत केवलिपज्ञप्तस्य धर्मस्याराधका हि ते, भाविनि चावश्यं तदाराधनेनापवर्ग साधयितारः। न हि कश्चिदभव्यः शलाकापुरुषः, यो हि सर्वदाऽयोग्य एवास्य केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्येति / किञ्च-प्रत्युत्सर्पिण्यवसर्पिणि चतुष्षष्टेमहिलागुणानों, द्वासप्ततेः पुरुषकलानां, शिल्पकर्मशतक| योश्चोपदेष्टाऽऽदिजिन एव भवति / जिनत्वं च तेषां 'यः शुभकर्मासेवनभावितभावो भवेष्वनेकेष्वि' तिवचनात् 'वीसाए अन्नयरएहितिवचनाच्च श्रीजिनकेवलिप्रज्ञप्ताद्धर्मादेव भवति / न च वाच्यं कोऽयं विचित्रो नयो-यद् धर्मो जिनकेवलिभिः प्रज्ञाप्यते, जिनाश्च धर्मात्केवलिप्रज्ञप्ताद्भवन्तीति परस्पराश्रयावप्टब्धत्वादिति / अनादित्वाद् द्वयोः। यथाहि-दिनपूर्वा रात्रिः, रात्रिपूर्वो दिन इत्यत्र न परस्पराश्रयोऽनवस्था वा, तथाञापि / किञ्च-जिनानामनेकेऽतिशया दुर्भिक्षादिविपत्तिवारकतया कल्याणरूपा भवन्ति, यावत् INPP.AC.Gunratnasuri M.S. ID // 144 // Jun Gun Aaradhak Trust Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TRA आगमो- 9 पञ्चसु च्यवनादिषु कल्याणकेषु नारकादीनखिलानसुमतो जगति मोदयन्ति / जिनत्वं च केवलिप्रज्ञप्तस्य [NI पञ्चसूत्रद्वारककृति - धर्मस्याराधनादेवेति तूक्तमेवेति / विश्वस्ते मोहतिमिरे निरुद्ध रागद्वेषविषे लब्धे च कल्याणव्यूहे न हि जातिकम सर्वे जीवा. अन्तकृतो भवन्ति, क्षेत्रपल्योपमासङ्ख्यांशसमयमानवाराः मोहतिमिरनाशेन सम्यक्त्वलासन्दोहे भसम्भवात् 'अट्ठभवा उ चरित्ते' ति वचनाचारित्रलाभेऽपि चरमशरीरित्वस्याभावात् यावदुपशममुपगतो॥१४५॥ ऽप्यपार्धपुद्गलावत संसारसरणपरत्वादन्त्यशरीरित्वार्थमाह-'कर्मवनविभावसुरिति / वनस्पतय एव वनस्पतिवृद्धयर्थमुप्यन्ते, न पृथ्व्यादयः / कर्माण्यप्यत्र कर्मत एव भवन्ति / तत एव 'कर्मत एव कर्मणः स्वकृतस्येति भाष्यम्, किञ्च-वनस्पतय उप्ता अपि स्वजातिमनुरुध्यैव वृद्धिमायान्ति / नहि दग्धे IMI वनस्पतो साङ्करः स भवति / एवमत्राप्यनादित एवं कर्मप्रवाहः / न च क्षीणेऽस्मिन् पुनस्तत्प्रादर्भावः। | अत एव च न मुक्तानां क्षीणसर्वकर्मणां भवावतारः कर्मप्रपञ्चो वेति / वनस्पती हि साधारणं छिन्न| मपि पुनरङ्करयति शरीरं, परं दग्धं तु साधारणं वा प्रत्येकं यत्किमपि शरीरं भवतु, न प्ररोहति / पि शामित कर्म पुनरुद्भवति, न तु क्षीणमिति / अपुनरुद्भवतया क्षयस्य साधनं समूलो नाशः। स च वनस्पतेरग्निनैव सम्पाद्यते / कर्मणां काष्ठरूपाणामपि नाशः केवलिप्रज्ञप्तधर्मरूपाग्नेरेवेति सुष्टतं / | 'कर्मवनविभावसु रिति। वृद्धिमाविष्टो यथा विभावसुः शुष्केण वनेन सहामपि दहत्येव वनम् / एवं केवलिप्रज्ञप्तो धर्मोऽपि अपूर्वकरणक्षपकश्रेणिसमुद्घातगुणश्रेणिभिनिकाचितान्यनिकाचितैः सह नाशयत्येव / कर्माणि / यद्वा-'विपिन काननं वन'मित्युक्तेः कर्मणां काननेन साम्यमाख्येयम् / दावानलो हि झगित्येवानेकयोजनमानमपि वनं, प्रसिद्ध चैतत् उत्क्षेपज्ञाते / तथा चानादिकालीन कर्मवनमिव दुरुच्छे / // 145 // | दुःखलभ्यपारं च तत् काननसमानं कर्म एक एवालं दग्धुं भगवद्भिः केवलिभिः प्ररूपितो धर्मः / Jun Gun Aaradhak Trust VHP.AC. Gunratnasuri M.S. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 146 // P अन्ये हि धर्मा अग्निभृगुपातादिकमज्ञानतप उपदिशन्तोऽकामनिर्जरामार्गमादिशन्ति लम्भ्यन्ति च | आगमों- ततोऽल्पर्धिदेवत्वम् , परं सर्वकर्मक्षयसमर्थद्वादशविधमनशनादितपस्तु केवलिप्रज्ञप्त एव धर्म पञ्चसूत्र उपदिशति / ततः सर्वकर्मवनस्य दाहं सकामरूपमपेक्ष्य द्वारककृति सुष्ठुक्तं-'कर्मवनविभावसुरिति / ये ना वार्तिकम् विशेषगुणोच्छेदरूपां वदन्ति मुक्ति, ये च नैरात्म्यवादेनेशते शुन्यरूपा तां सत्चनिवृत्तेः स्नेहनिवृत्तिरिति ISI सन्दोहे वावदूकाः सुगतास्तेऽपि स्वधर्म कर्मवनविभावसुतयाऽऽमनन्त्येवेति केवलिप्रज्ञप्तस्य अवितथस्यापि विशेषणायाह'साधकः सिद्धिभावस्येति / ननु जैनैरपि 'कृत्स्नकर्मविप्रयोगो मोक्ष' इति 'आत्यन्तिको वियोगस्तु देहादेर्मोक्ष इष्यते' इत्यादिभिर्वचोभिः कर्मनाशमात्रस्य मोक्षस्य सम्मतत्वात् कर्मवनवि| भावसुरित्येतावदस्तु, न पृथक् साधकः सिद्धिभावस्येति विशिष्टतेति चेत् / शृणु-आत्मनः | स्वस्वरूपेऽवस्थानं मुक्तिरिति सत्यपि मोक्षलक्षणे आत्मार्थाय कृत्स्नकर्मेत्याधुच्यते / पुरुषप्रयत्नप्राप्यो | हि कृत्स्नकर्मक्षयः, क्षीणेष्वशेषेषु च कर्मसु अभ्रपटलविलयनेन चन्द्रमसश्चन्द्रिकाप्रसारवदात्मस्वरूपं तु | निराबाधमवतिष्ठत एव, आवार्या (बरणा)भावे निरावरणस्वरूपस्यावस्थाननियमात् / आत्मा ह्यरूपिद्रव्यं, न चारूपिद्रव्यस्योत्पादो वा विनाशो वा। उच्यते-'नासतो जायते भावो नाभावो जायते सत' इति / न चात्मद्रव्यस्य नाशायोपदेशः। न च कोऽपि तत्र यत्नो न च सम्भव इति नात्मनो मुक्ताभावो नाशो वा, ततो योग्यमुक्तं 'साधकः सिद्धिभावस्येति / तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्यालोकान्ता'दित्युक्तेः 'तत्थ गंतूण सिज्झई' त्युक्तेश्चेषत्माग्भारशिलाया उपरि लोकाग्रमधिकृत्यावस्थानमेव, तनिवर्तकश्च केवलिप्रज्ञप्तो धर्म एव / किञ्च-'औपशमिकादिभव्यत्वामावाच्चान्यत्र सम्यक्त्वकेवलज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्य' | इत्यादिप्रवचनोक्तमेव स्वरूपेण सिद्धत्वं, परं तत् सर्वेषु जीवेषु स्वस्वरूपेणास्त्येव, न तूत्पाद्यम् / | आविर्भावोऽपि न यत्नसाध्यः, किन्तु प्रतिबन्धककर्मक्षयसाध्य इति सम्यगेवोक्तं-'कृत्स्नेत्यादि / // 14 // MPP.AC. Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trust In Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो. पश्चसूत्र द्धारककृति सन्दोहे // 2.47 // तदनन्तरमित्यादि च। दानादिप्रवृत्तिधर्मवत् अनगारागारधर्मवदनुष्ठानधर्मवन्नायं धर्मो निवर्त्यः II सिद्धिभावरूपः, किन्तु सम्यग्दर्शनेत्यादिनोक्तोऽयमुपादान धर्म:सिद्धिमावः, न च निर्वय॑ते KI वार्तिकम् उपादानमिति. उच्यते च शास्त्रे केवलज्ञानदर्शनानन्तसुखवीर्याणां साद्यनन्तत्वं तन्मयश्च सिद्धिभाव इति / स च साध्यः केवलिप्रज्ञप्तेन धर्मेणैवेति योग्यमुक्तं-'साधकः सिद्धिभावस्येति / केवलिप्रज्ञप्तो धर्म इति तु विशेष्यं योजितं च तत्प्रतिविशेषणम् / नवरं केवलज्ञानवानत्र केवली ग्राह्यो, न श्रुतादिकेवली / किञ्च-सर्वाङ्गोपाङ्गप्रतिपूर्णस्य केवलत्वं 'केवलकप्पं' 'जंबूदीव'मित्यादाविष्यते / अत्राषि अज्ञानांशलेशेनाप्यकलङ्कितमत एव च क्षायिकभावप्राप्तं ज्ञानं केवलमित्युच्यते 'समर्थ विशेषणमाकर्षति विशेष्य' मितिन्यायात केवलिशब्देन केवलज्ञानवानत्र वाच्यः। किञ्च-क्षायिकेषु शुद्धस्वरूपेषु भावेषु निर्दिश्यमानेषु पाक् तावत् केवलज्ञानमेव ज्ञानशब्देनादिश्यते। तथा च ज्ञानादिक्षायिकभावयुक्तेन पुरुषोत्तमेन प्रज्ञप्तो धर्म इति पर्यवसितम् / 'जावज्जीवं भगवन्तो सरण मिति त्रिष्वनुवृत्तमप्यत्र वचनव्यत्ययान्यज्यते वाक्यं, तत एव 'जावजीवं मे भगवं सरण'मित्युच्यते / धर्मश्च दुर्गतिवारणसगतिधारणफल अहिंसादिभेदः संवरनिर्जरारूपः सम्यग्दशनादिमयोज केवलिप्रज्ञप्ततया ग्राह्यः। एवं हितोपदेशमयः सर्वज्ञक्लप्तः पूर्वापरार्थविरोधरहितो मुमुक्षुजनपरिगृहितो धर्मोऽवश्यं शरणीकर्तुमर्ह इति तदर्थमाह-'सरण मिति / एतावता 'जावज्जीव मे मगवन्तो' इत्यादिना 'मे भगवं सरण मित्य ग्रन्थेनाईत्सिद्धसाधुधर्माणां अनन्यसाधारणया भक्त्या सेवनार्थ शरणं स्वीकृतं, परं जैने हि शासने गुणिनां पूज्याराध्यत्वं गुणानां चाराध्यत्वं मुख्यया वृत्त्या सम्यग्दर्शनस्य शुद्धिवृद्धिपराकाष्ठावस्थित्यर्थ क्रियते, परं पर्युपासना तु सावद्यत्यागानवद्यासेवनाभ्यां क्रियते। भगवता श्रमणेन महावीरेण स्वपर्युपासनामार्गः H // 147 // | पुष्पचूलायैष एवादिष्टः / अतोऽयमपि भव्यः प्रतिपत्रचतुःशरणः सावद्यगर्हणार्थं तावदाह-'सरणमुवगओ' DHP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे वार्तिकम् // 148 // करण | य एएसिं गरिहामि दुक्कड'मिति / गर्हाप्रवृत्तश्चायं निर्मलबोधः धर्मलिङ्गषु 'पापजुगुप्साऽथ निर्मलो बोध' इत्युक्तेः निर्मलबोधयुक्तत्वाच / गर्हायास्त्रिधा विभागं करोति-आद्य लोकोत्तराराध्यविषयं, द्वितीयं लौकिका- पञ्चसूत्रराध्यविषय, तृतीयं च सामान्यविषयम् / तत्राधे विभागे तावदाह-"जण्णं अरिहंतेसु बा सिद्धसु वा आयरिएसु वा उवज्झाएसु वा साहूसु वा साहुणीसु वा अण्णेसु वा धम्मट्ठाणेसु माणणिज्जेसु पृयणिज्जेसु"त्ति / अत्र यदित्यस्याग्रे वक्ष्यमाणेन 'जं किंचि वितहमायरिय'मित्यादिना ग्रन्थेन सह सम्बन्धः / परत्र स्थितस्य यत्किञ्चिच्छब्दस्य सामान्यं किञ्चिदित्यर्थस्तेन नात्र यच्छब्दप्रयोगस्य चिन्त्यता। यदित्यनेन सामान्यं निर्दिश्य सर्व दुष्कृतमाह-ततश्च न सूक्ष्मवादरादिदोषः। णमिति वाक्यालङ्कारे। तथा चास्य तादृक् प्रत्नत्वं यद् यत्र काले वाक्यालङ्काराय लोके गंकारस्य प्रयोगो जायमान आसीत् / किञ्च-नियमोऽयं शास्त्रीयो यदुत-निन्दा आत्मसाक्षिकी स्यात् , परं गर्हा तु परसाक्षिक्येव 'परसक्खिया हु गरहे तिवचनात् / ततोऽत्र 'ण'कारेण वाक्यालङ्कारार्थेन ज्ञापयति-यत्परोक्षानप्यर्हदादीनात्मना साक्षात्कृत्य तद्विषयकस्य वितथाचरणादेः 'करोमि गर्दा मिति / अत एव तथाप्रयोजनाभावात् प्राक्तनेषु वाक्येषु न क्वापि प्रयोगो णंकारस्येति / 'अरिहंतेसुत्ति। यद्यपि 'गुरावेकश्वे'त्यनेनैकस्मिन्नप्यर्हति स्यादेव बहुवचनं, परमत्र प्रागेव 'जे एवमाइक्वंती'त्यादिनाऽऽविष्कृतमेवाहतां बहुत्वमस्ति / किञ्च-कालस्यानादित्वात् अतीता अनन्ता, अनन्तत्वाच्चास्यानन्ता एष्यन्तोऽर्हन्तः, केवलं जैनमेव शासनमर्हदादिस्थानकानां परोपकारप्राधान्येनाराधनादान्त्यिमुपायंते इत्युपदिश्य देवत्वमप्याप्यं सोपायमिति च निवेदयति, नैकेश्वरा जैना यतः इति / अत्र च यद्यपि 'अरहंतारिहंतारुहंते'ति पाठा दृश्यन्ते, परं ते सर्वे 'उच्चाहती'| त्यनेनार्हच्छब्दादेव निष्पन्ना इति / यद्यपि रागद्वेषाधरीणां नामनात् इन्द्रियविषयादीनामरीणां घातात् KI // 14 // P. Ac. Sunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 14 // आगमो / सर्वजीवारिभूतकर्माष्टकहननात् वन्दनपूजनसिद्धिगतिभ्योऽहत्वात् अर्हन्त इति निरुच्यते, परमहंधातोः / पञ्चसूत्रद्धारककृति पूजार्थत्वात् देवासुरमनुजेभ्योऽशोकायष्टप्रातिहार्यादिपजाया अर्हत्वादहन्त इति वक्तुं योग्यम् / वार्तिकम् यद्यपि 'अगिलाए धम्मदेसणाईहिति नियुक्तिवाक्यं धर्मदेशनाफलत्वमर्हन्नाम्नः कथयति, तथापि तत्रस्थ सन्दोहे आदिशब्दः पूजावाचक इति प्रातिहार्यादिपूजाया अर्हत्वमाईन्त्यमिति नायोग्यम् / अत एव च श्रमणो भगवान् महावीरः तीर्थप्रवृत्तिशून्यमप्याद्यसमवसरणमलञ्चकार. तत्पूजाया जीतत्वादिति अन्नामक दया- II द्यार्हन्त्यं, तच्च प्रत्यवसर्पिण्युत्सर्पिणि चतुर्विशतेरेव जीवाना, चतुर्दशमहास्वप्नसूचितावतारादिमन्तस्ते / / विनाहन्नामकर्मोदयं रागद्वेषादिनामनास्तु सामान्यकेवलिनोऽपि / ते च 'केवलिणो परमोही तिवचनेन KI साधुपद एव / केवलिनस्तु प्रत्यवसर्पिण्युत्सर्पिणि असङ्ख्या एव / ततः स्थितमिदं यदुत-अष्टमहापातिहार्यपूजायुता अर्हन्तस्तेषु / किञ्च-कर्मप्रकृतिषु जिननामकर्म, तच्च लोकानुभावात् प्राक् तृतीयस्मिन् भवे | | बध्यते, तत्पभावाच च्यवनकल्याणकादय आर्हन्त्यनिबन्धना भावा सर्वेऽपि लोकानुभावादेव जायन्ते / | अत एव चास्य निक्षेपचतुष्टयं तदुदयवजीवसमाश्रितं 'नामजिणा जिणनामे त्यादिना गीयते / / | तत्वतो नात्र निक्षेपेण व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकभावः। सिद्धपदादिषु नामसिद्धादीनां व्यवच्छेदेन | H भावसिद्धादयो गृह्यन्ते / तच्चाद्यस्य पदस्याहतानामितिरूपं विधाय आर्हतानां सिद्धानां यावदाह तानां साधूना| मितिकृत्वा प्रतिपदमाईतपदस्यानुवृत्तिं विधाय कार्यमिति / न तत्र लोकानुभावकं कर्म भावपदस्य | वा न्यूनता गणनीयेति / सिद्धाश्चात्र 'सिझंती'त्यादिलक्षणाः 'सिद्धाणं बुद्धाण'मित्यादिलक्षणा | 'असरीरा जीवघणे'त्यादिलक्षणा वा सिद्धानन्तज्ञानादिचतुष्टया ग्राह्याः:। आचार्याश्च सिद्धयजिनार्पित- | // 149 // | शासनस्वामित्वाः पश्चाचारप्रवर्तका, नियमपूर्वकद्वादशाङ्गाध्यापका उपाध्यायाः, स्वजनादिपक्षपातवर्जिततया IMPP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CSR र निर्वाणमार्गसाधकसमुदायसंयमसहायकराश्च ग्राह्या अत्र साधवः। यद्यपि साध्वीवर्ग उपलक्षणव्याख्यानेआगमो- DI नाचारप्ररूपणादिषु गृह्यते, परमपराधक्षामणाय गर्दाप्रवृत्तो भव्यः क्षामणाय ता अपि स्वतन्त्रतयोचिरे, ISI पञ्चस्व IN पाक्षिकादिषु सकलसाक्षामणा क्रियत एव च / अन्यच्च नेदं नग्नाटीयं, तत्र साध्वीवर्गस्य प्रवृत्तेरे द्वारककृति | भावादिति ज्ञेयम् / न केवलमेत एवाईदादयः पूज्या आराध्याश्चेति / परान् तथाविधान् दर्शयन्नाह-'अन्नेसु वा सन्दोहे पूणिजसु माणणिजमवेति / अर्हदायतिरिक्ताश्च सामान्येन धर्माचार्यादयो ग्राह्याः / यतः प्रतिक्रमणारम्भे // 150 // 'भगवानह'ति शब्देन गृह्यन्ते / त एव धर्माचार्याः प्राक् तीर्थकृतां चैत्यवन्दनेन वन्दितत्यात्, परमेष्ठिपदगता आचार्यादयश्च 'आचार्यह'मित्यादिना गृहीता एवेति / यद्वा-अत्राऽऽम्नायाचार्यान् गृहीत्वा प्रव्राजकाचार्यादीन् / अन्येष्वित्यादिना गृह्णन्तु / श्रमणोपासकास्तु वृद्धश्रमणोपासकादीन् पूज्याराध्यापरपर्यायमाननीय | पूजनीयान् गृह्णीयुः, गुणाधिकानां पृज्याराध्यत्वात् / अत एव चक्रवर्तिना भरतेनाराद्धाः श्रावकाः, | रक्षितकुमारेण च न ढड्ढरश्रावकाय प्रणामादि कृतं, तेनाभावितावस्थ श्रावकस्तोसलिपुत्राचार्यापित इति / यद्यप्यत्र सम्यग्दर्शनादीनां ग्रहणं योग्यं, परं ते गुणरूपा इत्याराध्या, मूर्ता नेति पूज्या न, ततश्च निन्दायां तदतिक्रमस्य विषयो, न गर्हायामिति सम्भाव्यते / एवं लोकोत्तरानाप्तानभिधाय IN लौकिकान् आप्तान वितथाचरणादिविषयभूतानाह-'माईसु वा पिईस वा बंधूसु वा मित्तेसु वा उबयारीसु / वेति / यथैव लोकोत्तरा आप्ता अभिगमनवन्दननमनबहुमानादिना आराध्यास्तथैव लौकिका | अप्याप्ता एते त्रिसन्ध्यनमनक्रियादिनाऽऽराध्या एव / अत एवाद्यश्चक्री ननामाम्बां मरुदेवां, वासुदेवोऽन्त्यश्च निजजननीं देवकी, चतुर्बुद्धिनिधानोऽभयश्च स्वपितरं श्रेणिकराजं नमश्चक्रे इति श्रुतैतिा, श्रीस्थानाङ्ग- | सूत्रे च भर्तुर्धर्मोपदेशकवन्मातापित्रोर्दुष्प्रतीकारता अपि सविस्तरं वर्णिता दृश्यते / 'दुष्पतिकारौ ! // 150 // DEP.AC. Gupratnasuri M.S. Jun-Gun Aaradhak Trust PAC- Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 आगमो मातापितराविति श्रीउमास्वातिवाचका अप्यूचिरे / मात्रादिसम्बन्ध्यौचित्यं धर्मोपदेशमालातो ज्ञातव्यम् / पञ्चसूत्रद्वारककृति ततिक्रमेण योऽपराधो जातस्तस्य गर्दाऽत्र विधीयते, पूर्वानुपूर्व्या उपकारमहत्ता, तत एव च क्रमो वार्तिकम् मात्रादिकः / यद्यपि माता पित्रधीना परं गर्भधारणादिभिर्महोपकारिणी मातैव / अत एवोच्यते पितृणां तु शतं / सन्दोहे | माता गौरवादतिरिच्यते' इति / एवं लोकोत्तरेतराप्तजनेष्वपराधक्षामणं कृत्वा तृतीयं सामान्यविभागमपराधक्षा-11 // 15 // मणायाह-'आहेण वा जीवेसुःमग्गद्विपसु अमग्गट्टिएस मग्गसाहणेसु अमग्गसाहणेसु'त्ति / यद्यपि मार्गशब्देन / सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रात्मको व्यवहारः शास्त्रे गृह्यते, परमत्र 'ओघेन वा जीवेष्वितिवचनान लौकिकव्यवहारमागों रोचनीयो राजामात्यादिकः / अतो मार्गस्थिता राजामात्यादिकाः प्रजापालनमार्गस्थाः,अमार्गस्थिताश्च शिल्पकर्मक्रयविक्रयादिकारिणो राजकुलव्यवहाराद् बहिर्गताः / तद्वयव्यतिरिक्तान् जनानाश्रित्याह-'मार्गसाधने'| विति / राजकुलाश्रितेषु चतुरङ्गसैन्यादिसंश्रितेषु, अमार्गसाधनेषु च शिल्पकर्माद्युपष्टम्भकजनेषु चेति / न चैतच्चतुष्टयव्यतिरिक्त ओघजीवसमूहो, यो गर्दाविषयः स्यादिति / यद्वा-नैतच्चतुष्टयव्यतिरिक्तो जीववग एव नास्तीति / आटव्यादयोऽपि सन्ति / अपराधस्तु तेषामपि क्षम्य एव, परंते व्यवहाराविषयाः इति न गृहीताः। प्रोक्तचतुष्टयविषये किमित्याह-जंकिंचि वितहमायारिय'ति / अत्र यद्यपि 'जण्ण'मिम त्युपक्रम एव यच्छब्देनोपक्रान्तं तथाप्यत्र यत् यत्किञ्चिदित्युच्यते, तत् यत्किञ्चिदित्यस्याखण्डस्य 4 किश्चिदर्थे सम्भवात् / यद्वा-'जं ण'मित्यत्र यच्छन्दोऽव्ययं, सप्तम्यन्तं च तत् / ततो येष्वईदायेषु पूज्याराव्यादिष्विति योजयित्वा व्याख्येयम् / 'तस्स मिच्छामि दुक्कड मिति तु समानमुभयत्र / किं ISI कृतस्य गत्याह-'यत्किञ्चिद्वितथमाचीणमिति / लोकोत्तरेषु अहंदादिष्वाप्तेषु लौकिकेषु मात्रादिषु ओघेन KI मार्गस्थितादिषु च यद्यत्तेषां भूमिकामाश्रित्याचरणीयं तन्नाचीर्ण,विपरीनं वाऽऽचीण,तस्य वितथत्वमवबुध्याधुना MP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो पञ्चसूत्र द्वारककृति सन्दोहे / 112 // तत्सर्व गर्ने इति सम्बन्धः। कीदृश वितथमित्याह-'अनाचरणीयमिति / यतो वितथमपि 'उत्पद्यते हि साऽवस्था देशकालामयान् प्रति / यस्यां कार्यमकाय स्यात् कर्म कार्य च वर्जये' दितिवचनात् 'नैकान्तात् त कल्पते कल्प्य'मित्यादिवचनाचाचरणीयतामापद्यते, न च तत्कार्य प्रतिक्रम्यमित्युक्तमनाचरणीयमिति / वार्तिकम् आचरणाया अयोग्यं यत् / तथा च अर्श आदीनां छेदे आचार्यादीनां पादस्पर्शे च जातस्यापराधस्य क्षामणौचित्येऽपि न तच्छेदनं स्पों वा निन्द्यः, आचरणीयत्वादेव हेतोरिति / क्षिप्तचित्ताद्यवस्थायामना चरणीयस्यापि बन्धादेरेष्टव्यत्वादाह-'अनेष्टव्य' इति / य आचारस्तत्तद्विषये विधात कथमपीच्छा योग्यो न भवेत्तद्वितथमाचीर्ण गर्ने इति तत्त्वम् / गर्दाहेतुमाह-'पापं पापानुबन्धी'ति / हिंसादीनां गण्यमानानामष्टादशानां पापस्थानानामन्यतमत् पापं पापस्थानमित्यर्थः / हिंसादीनि पापस्थानान्यपि अप्रमत्तानामनारम्भ | कत्वादेव पापस्यानुवन्धकानि न भवन्ति, अप्रमत्तानां सत्यप्यारम्भेऽङ्गिनां पापबन्धस्याभावादिति पुनराह'पापानुबन्धी ति / न प्रशस्तक्रोधादिवत् स्वरूपेणैव पापं किन्तु प्रमत्तहिंसादिवत् स्वरूपेणानुबन्धेन च यत्पापं तत् वितथमित्यादि / जैन हि शासनं हिंसितव्यो न कोऽपीत्यादिवदनशीलमिति न तत्र सूक्ष्मस्याऽपि पापस्यास्त्यनुज्ञेत्युक्तं-'सूक्ष्म वा बादरं वे'ति / एवं च 'जीवो जीवस्य जीवन मित्याद्युक्त्वा यदन्यशासनेषु हिंसाद्यनुज्ञानं क्रियते, तन्नात्र शासने। अत्र तु शासने प्रशस्तानामपि पापानां प्रतिक्रमणीयता / अत एव जिनार्चार्थस्नानादिजातस्यासंयमस्यार्चाजन्येन शुभेन शोधनीयताक्ता। तथा च पूजादिषु स्वरूपतोऽल्पपापस्य भावेऽपि कालान्तरावेद्यत्वादेकान्त निर्जरारूपत्वम् / तत एव च त्रिविधत्रिविधविरतानामपि सोपदेशविषयो भवति / धर्मस्य च कषच्छेदतापैः परीक्षायां पापानां सर्वेषां सर्वथैव | प्रतिषेधः कपतया गीयते / धर्मश्च जैनस्विभिः कपच्छेदतापैः शुद्ध एवेति / तत्र सर्वमपि पापं निन्द्यमेव। 10 // 15 // DARP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दोहे RA आगमो. ततः सुष्ठ्वेवोक्त-गहें सूक्ष्म वा बादरं वेति / पापं च बद्धमेव ज्ञानघ्नादीनां पापप्रकृतीनामबद्धत्वा- INI पञ्चसूत्र द्धारककृति भावात् / बन्धश्चाश्रुतानां कर्मणामेव, नानाश्रुतानि बध्यन्ते कर्माणि, आश्रवश्च कायवामानसकर्मैव 'मनोवाक्कायकर्मयोगः स आश्रव' इति वचनात् / योगानां प्राप्तिर्यद्यपि कायवाङ्मानसक्रमेण, पर्याप्तीनां तथाक्रमत्वोत् परं यथाक्रमं गुर्वाश्रवत्वाद्योगानां कायवाङ्मनःक्रमेण / अत एव कर्मग्रन्थेष्वेकेन्द्रियादिभेदेनापि कर्मबन्धस्थित्यादिनां भेद आमतः। अत्रापि तत्क्रममाश्रित्याह-'मनसा वाचा कायेने ति। न हिD कश्चिदप्यङ्गी व्यतिरिच्य योगत्रयीमाशृणोति कर्म, बध्नाति वा पापम् / तत एव भगवतां सिद्धानां | भवावतारस्याभावः, तेषां योगाभावादाश्रवबन्धवेदनानामभावः / पापस्य ह्याश्रवोऽशुभयोगादिह जायते 'अशुभः पापस्य तिवचनात् / ततोऽनुक्तमपि प्रकरणात् मनआदीनामशुभत्वं ग्राह्यम् / तथा चाशुमेन | मनसा वचसा कायेन च यत्पापं पापानुबन्धीत्यादि ज्ञेयम्। यथा चान्यतीर्थीयाः अव्रतादीनामाश्रवतां / D नाभ्युपगच्छन्ति तथा केवलं कृतं स्मरन्ति पापं 'कृतकर्मक्षयो नास्ती'त्यायुक्तेः, न तथा जैनाः किन्तु ते 'योगकृतकारिते'त्यादिवचनात् त्रिविधयोगवत्करणान्यपि त्रीणि कृतादीनि पापहेतुषु अभ्युपगच्छन्तीत्याह- IN 'कृतं वा कारित वा अनुमोदितं वेति / पापबन्धप्रमाणं च न मनोयोगादिवद्वैषम्येण, किन्तु कृतादिषु यत्रापि सङ्कल्पस्याशुभस्य तीव्रता, तत्र तीव्रः पापानुबन्धः / अतः सङ्कल्पितहिंसस्य तन्दुलीयकादेः सप्तमश्वभ्रे पातः / कुशलानुबन्धकर्मकारिणश्च जीवा घोररणसङ्ग्रामादिषु विषयेषु च प्रसक्ता अपि शर्करामक्षिकावल्लब्धास्वादा अप्युदयनवत् अपवर्ग साधयितुं समर्था भवन्तीति योगाः करणानि च पापमाशृण्वन्ति, परं तस्य प्रातिकूल्येन ज्ञानघ्नादिरूपेण वेदनं बद्धस्यैव सतो भवति, बन्धश्च कर्मणामा- I // 153 // श्रुतानामपि अनभिव्यक्ताप्रीतिपरपर्यायद्वेषरूपाभ्यां क्रोधमानाभ्यां तथाभूतप्रीतिपरपर्यायरागरूपाभ्यां | M P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसूत्र वार्तिकम् // 15 // जज IS मोहापरपर्यायस्य मिथ्यात्वस्य साहाय्येनैव बन्धोऽनुवन्धिता चेत्याह-'रागेण वा दोसेण वा मोहेण वेति ISI -आगमो- Ki क्रमेणैतेऽल्पाल्पव्याप्तिकाः दुःखोच्छेयाश्च पश्चानुपूव्येति / तदेवं विषयस्वरूपं कारणं चोक्त्वाथाघरमाह | द्धारककृति-K 'इत्थ वा जम्मे जम्मंतरेसु वेति' / अत्र चात्र वा जन्मनीत्यनेनैतस्मिन् भवे आघाल्याद्यदाचरितं तं | गईते, पश्चाच्च जन्मान्तरीयाणि दुष्कृतान्यपि 'जन्मान्तरेषु वे'त्यनेन गर्हते, न च जन्मान्तरकृतानां दुष्कृतानां सन्दोहे | गहणमयोग्यमेव, यतः कानिचित्तु दुष्कृतानि तजन्यकर्मविपाकपरिभोगनिर्जराभ्यां नामशेषाणि जातानि / | नहि श्रेणिकभवे कृतस्य प्राणिवधस्य निकाचितनरकगतिहेतोरप्यशलेशः पद्मनाभभवे भवेदितिवाच्यम् / 'इह भवियमन्नभवियं मिच्छत्तपवत्तणं तमहिगरण'ति चतुःशरणवचनात् यच्च दुश्चरितं किञ्चिदिहान्यत्र च मे भवेदत्युपमित्युक्तेर्भवान्तरकृतानां वेदितविपाकानामप्यशुभरूपत्वाद् गीत्वे न काचिद्भाधा। तच्चतस्तु / 'सव्वावि हु पव्वज्जा नियमा जम्मंतरकयाण' -मित्यादिवचनात् भवान्तरगतमपि पापं गर्हातपःसंयमादिभिःछेद्यमेव, परं प्रायश्चितविशेषाणां विवेकादीनां प्रवृत्तिरेहभविक एव प्रायश्चित्ते इति विवेकः / | अन्यथा गोशालकप्रख्याणां जन्मान्तरकृतमहापाप्मनां प्रवजितत्वेऽपि तत्संसर्गे पूर्वभवीयतामह पापस्या| नुमतिदोषापत्तिरिति / चतुर्णा शरणमुपगतो 'गर्ने दुष्कृत मितिपूर्वोक्तोपक्रमसूत्रेण योज्यमिति / ईर्याप | थिक्यादिषु प्रतिक्रमणेषु 'तस्स उत्तरीकरणेण'मिति सूत्रणोत्तरीकरणवदत्रोत्तरीकरणार्थमाहगरहिअमेयं दुक्कडमेयं | उज्जियमेय'ति / गर्हाया निष्ठाकालं दर्शयन्नुत्तरकरणमाह-'गर्हितमेत'दिति।.लोकोत्तराप्ताहदादिषु यद्वितथा| चरणादि तत्सर्वं गर्हितमया न चैषा द्रव्यगर्हेत्याह-'दुष्कृतमेत'दिति / सर्वस्यैतस्य पापरूपतां ज्ञात्वैव सर्वमेतद् गर्हितम् / तथा च नैषा द्रव्यगर्दा किन्तु भावगर्हेति / केदारमृत्स्नाखण्डघातमारितबलीवर्दैन | विप्रेण महाजनस्य समक्षं स बधो गर्हितः अभ्युपगतश्च दुष्कृततया परं तस्मिन्न क्रोधानुबन्धं जहौ तद्वDIP.AC.Gunratnasuri M.S. * Jun Gun Aaradhak Trust AAAA // 15 // Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दोहे // 155 // आगमो- नेदमित्याह-उज्झितअमेअंति कृतस्यानुवन्धव्यवच्छेदेन व्युत्सर्जन कृतमित्यर्थः / सर्वेऽप्यथास्तिक्यवादिनः पञ्चसूत्रद्धारककृति- पापस्य जुगुप्सायामेवामनन्ति श्रेयः परं पापस्य वोध एव न सर्वेपामेषां, तेन स्वस्वशास्त्रेषु कल्पिताना वार्तिकम् पापानां परम्परामुद्भाव्य कल्पितमेव प्रत्युतात्मनो दुर्गतिपातकारणमेव स्यातकर्तुस्तादृशं निवारणोपायं निर्दिशन्ति स्वल्पा एव च जीवा यथार्थमास्तिक्यमार्गमागता हिंसादीनां यथास्थितानां पापानां पापतया श्रद्धानमधिश्रयन्ति / अत एव जीवादीनां तत्वानां यथार्थतया श्रद्धानस्य सम्यक्त्वगुणावहत्ववत् पापस्यापि यथार्थस्य तत्त्वतया श्रद्धानं सम्यक्त्वावहं गीयते / किञ्च-पापं हि कर्म, कर्म चात्मपरिणामानामधमत्वेनाप्यङ्गीकरोति / आत्मनां ज्ञान एव च तेषामधमा दशा, तदुत्पन्नं पापं च यथार्थतया ज्ञायते। तादृशं ज्ञानमतीन्द्रियार्थदर्शिनामेव / ततो यथावस्थितं पापस्य ज्ञानमेव नातीन्द्रियार्थदर्शिनं विना भवति / परेषां तु तद्वाक्यामृतश्रवणेनैवेति सर्वमेतन्मनसिकृत्याह-विज्ञातमेतन्मया कल्याणमित्रगुरु / भगवद्वचनादिति / शास्त्रेषु हि 'सवणे गाणे य विण्णाणे'त्ति क्रमात् 'सुच्चा जाणइ कल्लाण'मित्याषांच विज्ञातं श्रवणज्ञानपूर्वकमेव भवति / ततो विनयाचारादिविधिना श्रुतं गृहीतं पश्चात् 'बीए झाण'ति वचनात्तदधीत निश्चितीकृतं, कृत्वा सुविनिश्चिय फलपर्यन्तस्यैव सम्यग्ज्ञानत्वमित्यवगतं विज्ञानेन / अत एवोज्जितमित्यादि प्राक् प्रदर्शितं फलं मत्तात्र विज्ञातमित्याह यावदुक्तमुज्झितव्यत्वादितया तत्सर्व विज्ञातं नात्र मत्कल्यनाया अंशोऽपीति एतदित्याह-'मयेत्यनेन साक्षान्मया श्रुत्वा विज्ञातं वक्ष्यमाणस्वरूपाद् गुरोर्न तु पर्षद उत्थिताया इत्याह / कीदृशाद् गुरोर्भगवतो विज्ञातमित्याह-'कल्याणमित्रगुरुभगवदिति / यद्यपि माता पितेत्यादिना गुरुशब्दो गुरुवर्ग वक्ति तथाप्यत्र तु शास्त्रार्थानामुपदेशकाः II // 155 // 'स्वयं परिहार' इति न्यायसूत्राच्च हेयानां परिहारं कृत्वा तथोपदेशकाः सुविहिता गुरुतया ग्राह्याः / Ac.Gunratnasuri M.S. * Jun Gun Aaradhak Trust Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IS तत्राप्यगीतार्थाः पार्श्वस्थाद्यवस्थाऽऽपन्नाश्च 'पहंमि तेणगे जहेति वचनादकल्याणमित्ररूपा गुरवः। आगमो- गीतार्थाः संविग्नाश्च कल्याणमित्राणि, तेभ्य एव सम्यक्त्वादिस्वरूपस्य मोक्षमार्गस्याधिगमादिति | पञ्चसूत्रद्वारककृति-SIL योग्यमेवोक्तं-'कल्याणमित्रगुरुभगवद्वचनादिति / 'आणोहेणाणंते'त्यादिवचनाद् विज्ञातमपि कल्याणमित्रगुरु- | वार्तिकम H भगवद्वचनमकिश्चित्करमेव कालेनैतावताऽनधिगमात् सिद्धेरित्याह-'एवमेयंति रोइयं सद्धाए'त्ति / तत्क- I सन्दोहे. ल्याणमित्रगुरुभगवद्वचनं विज्ञातमात्रं न, किन्तु यथा गुरुभगवन्तो हेयानुपादेयांश्वार्थानादिशन्ति ते // 156 // ID तथैव, न तत्र सन्देहकणोऽपि। न चैतत् श्रवणगोचरमात्रमेव कर्तुमई गुरुभगवद्वचनं किन्तु यथायथं प्रवेदितानुसारेण हातुं हेयानामुपादातुमुपादेयानामुपयोगपरं कर्त्तव्यतापदं च परमेतदेवेति श्रद्धया रोचितं गुरुभगवद्वचनम् / तत एव सर्व लोकोत्तरलौकिकाप्तसामान्यजीवगतं च वितथाचारादिकं उज्झितं गर्हितं चेति / गर्हायाः परसाक्षिकनिन्दारूपत्वात् गर्हणीयंदोपविपय इति मनसाऽहंदाद्यानध्यक्षीकृत्य कृता गर्दा, परं 'अरिहंतसक्खिय'मित्यादिवचनादर्हता सिद्धानामपि गर्दायां मुख्यसाक्षित्वादाह-'अरिहंतसिद्धसमक्खं गरहामि अहमिणं'ति / जैनत्वसिद्धिहेतुदेवरूपतत्त्वद्वयं साक्षीकृत्य ब्रवीति-अर्हत्सिद्धसम- 10 क्षमिदं गर्थेऽहमिति, उपलक्षणत्वाच्च साधुदेवा अपि गर्हायां साक्षिणोऽवगन्तव्याः / अथ गर्हाया उपसंहारं कुर्वन्नाह-'दुक्कडमेयं उज्झियव्वमेति / श्रीमदर्हदादिविषयं यद्वितथाचारादि तत्सर्व दुष्कृतरूपं, न मनागपि दुष्कृतत्वस्वीकारस्याभावस्तत्र / अत एव च सर्वथा उज्झितव्यमेतत् न तत्सर्वत्यागे सन्देहलेशोऽपीति / अथ समग्रं गर्हाधिकारमुपसंहारमानयन राजनीति-लोकव्यवहारादिषु त्रिकृतस्यैव सम्यकृतत्वस्वीकारादाहीत्रिकृत्वः इत्थमिच्छामिदुक्कडं'इति / गर्यस्य कृतायां गर्हायां उज्झिते च तस्मिन् शास्त्रसिद्ध न प्रायश्चित्तपदेनैव शुद्धिरित्युक्तम्-'मिच्छामि दुक्कडं'ति / यद्यपि अस्य | // 156 // Jun Gun Aaradhak Trust TilP.AC. Gunratnasuri M.S. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S आगमो ISI पदस्य 'मित्ति मिउ मद्दवत्ते' इत्यादिः निरुक्तोऽस्त्यर्थः। परं पदार्थस्तु मया यत् कृतं तद् दुरितमिति / पञ्चसूत्रद्वारककृति 1 स्वीकरोमि, तस्य फलं मा मम भूदिति ज्ञापनपुरःसरं वाक्यप्रयोगो मिथ्या मे दुष्कृतमिति / प्रतिक्रमणं / वार्तिकम् II चेदं, पापानां शोधकं च तत् द्वितीय निर्जरायां प्रायश्चितपदमिति / कृतानामघानां क्षयस्याभावे तु सर्व II सन्दोहे तप आदि धर्मकृत्यं वृथा स्यात् / ततः स्वीयपापशुद्धये योग्यमुक्तम्-'मिथ्या दुष्कृत मिति / अनुबन्धा-14 // 157 // | व्यच्छेदार्थमाह-'होउ मे एसा सम्म गरिहा' होउ मे अकरणनियमो, बहुमयं ममेय'ति / यथा परेषां विषयसतताभ्यासानुबन्धप्रकाराः तथा शासने जैने हेतुस्वरूपानुबन्धाः त्रयः प्रकाराः। तत्र गांदुष्कृते || योगाद्या हेतव उक्ताः, लोकोत्तराप्तादिषु वितथाऽऽचरणाद्युक्त्वा तत् अहंदादिसमक्षं गर्हितमिति हेतुस्वरूपयोरुक्तत्वाद् अनुषन्धाव्यवच्छेदार्थमेवेदं भवतु ममैषा सम्यग गर्नेति / केचनाऽज्ञा गर्हाया अभ्यन्तरतपोरूपतया महानिर्जराङ्गत्वं गर्हायाः स्वरूपतः अतिमुक्तादिवत् महाफलप्रापकत्वमाविष्कृत्य अप्रायश्चित्तस्य गर्हाया अविषयत्वाद् गर्दार्थमेव गर्दा विषयपापकरणस्य इष्टतामाचक्षते, कुर्वते ते च तदपेक्षया तत्, परं नैतत् सम्यग् / तथाकारिणां हि मृषावादितादोषभाजनत्वमाम्नायते। तत् सर्व मनसिकृत्याहअसौ भवतु मे अकरणनियम इति / कृता चैषा न वेष्टयादिकल्पा यथोक्तफला, किन्तु स्वपरिणतिक्षालनजनितैवैषा यथोक्तफलेत्युक्तम्-बहुमतं ममैतद् वितथाऽऽचरणादीनां गर्हणादीति / तदेवं तथा भव्यत्वपरिपाकसाधनेषु भवितुकामेन कर्तव्येषु च त्रिषु वस्तुषु चतुःशरणगमन-दुष्कृतगर्हारूपं वस्तुद्वयमुक्त, शेषमथ सुकृतानुमोदनापरपर्यायं सुकृतसेवनावस्तु वक्तुकाम इदमाह-'इच्छामि अणुसहिति ।यथा आत्मादयोऽतीन्द्रियार्थाः केवलमात्रज्ञेयाः। तद्वदेव आत्माध्यवसायसमुत्थाः पुण्याद योऽप्यर्थाः तज्ज्ञान या एवेतिकृत्वा 'सुच्चा जाणइ कल्लाण'मित्यार्षाच्च अहंदाद्यनुशास्तिमन्तरा सुकृतानामेव DI Ac. Gunratnasuri M.S. // 157 // Jun Gun Aaradhak Trust Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्धारककृति ज्ञानाभावादाह-'इच्छाम्युनुशास्ति'मिति / अनेकविधत्वेऽपि अहंदाद्यनुशास्तीनामत्र. प्रकरणानुगुण्यार्थ -आगमो- सुकृतसम्बन्धिनीमनुशास्तिमिच्छामीति ज्ञेयम् / यद्यपि -- पुण्यं सत्कर्मपुद्गला' इतिवचनाद् | पञ्चसूत्र अवध्यायतिशायिनो विदन्त्येव पुण्यं परमत्राधिकृतं शुभाऽऽत्माध्यवसायरूपं न विदन्त्येव, अमूर्तत्वात् वाकिम तेषाम् / किञ्च-गर्हणीय दुष्कृतं केवल स्वकृतत्वात ज्ञेयं सामान्येन स्वभावतः सर्वैः परमत्राधिकृतं सुकृतं तु सन्दोहे अर्थवादिरूपमिति गम्यम् / अनुशास्त्येवेत्यादौ तामिच्छति 'इच्छामी' त्यादिना / केषामनुशास्तिमित्याह. // 158 // -'अर्हतां भगवता' मिति / द्वादशाङ्गमपि प्रवचनमर्थाऽपेक्षया तैरेव प्रणयनात् तेषामनुशास्तिमिति / न च / 5/ वाच्यमर्थाऽपेक्षया द्वादशाङ्ग्या नित्यत्वात् कथं तदपेक्षया अर्हतां भगवतां प्रणयनेन कर्तृत्वमिति / लोकसिKI द्धिजीवादयो ये वाच्याः पदार्था , ते न केनचित् कृता इति द्वादशाङ्ग्या वाच्यं नित्यमेव, परं तेषां लोकास्तित त्वादीनामर्थानां प्रणयनं तु भगवन्तोऽर्डन्त एव कुर्वन्ति / ततोऽर्थनिरूपणचणवचननिरूपणप्रवणतया अर्थप्रणयिनोमहन्त इति / एवमर्थाऽपेक्षया आत्मागमवतामहंतामनुशास्तिमिष्ट्वा अधुना अर्थागमापेक्षयाऽनन्तरपरम्पराऽऽ गमवतां सूत्रापेक्षया चात्मानन्तरपरम्परागमरूपत्रिविधागमवतां भगवतां कल्याणमित्राणां गुरूणामनुशास्तिमिच्छन्नाह-गुरूणं कल्लाणमित्ताणं' ति / गुरुशब्दकल्याणमित्रशब्दौ च पूर्ववत् / चकारस्य द्योतकाऽव्ययत्वात् अहरहरित्यादिवदत्राध्याहारः / ततश्च द्वयानामेषामनुशास्ति मिच्छामीति सण्टकः / अनुशास्तिश्च नैकशः संसर्गमात्रेणाऽऽप्येत, आप्तापि च तथाविधज्ञानिससर्गतः सा नावतिष्ठते परमार्थज्ञातृमहापुरुषाणां प्रतिदिनं सेवामन्तरेण / अत एवोच्यते-'सुहगुरुजोगो तन्वयणसेवणा आभवमखंडे'ति 'प्रत्यहं धर्मश्रवण मित्यादि / ततस्तादृशप्रावचनिपुरुषाणां प्रतिदिन संसथ तत्प्रार्थनामाह-'होउ मे एएहि संजोगो'त्ति / IS एतदः समीपतरार्थवाचकत्वादेतैः-समीपतरमुक्तैरर्हद्भिर्भगवद्भिर्गुरुभिश्च कल्याणमित्रैः सर्वकल्याण // 15 // DIP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust II Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1959 // आगमो- मूलत्वात् सर्वासु प्रार्थनासु एषैवाहदादिभिः संयोगस्य या प्रार्थना सा सुप्रार्थना / तत आह-'होउ मे पञ्चसूत्रद्वारककृति- | एसा सुपत्थणे'ति / अत्रोपलक्षणात् स्यात् सिद्धानां ग्रहणमईद्वदेवान्यूनातिरिक्तदेवस्वरूपवत्वात्तेषां, परमे-HI वार्तिकम ष्ठिपञ्चके तेषामर्हद्भिः सहोच्चाराच, परं भवातीतत्वेनाशरीरत्वात् संयोगस्तैर्न भवतीति पूज्यानामप्येषां / सन्दोहे नात्रोपलक्षणतया ग्रहणं, गुरुकल्याणमित्रशब्देन चाचार्योपाध्यायसाधुरूपं पदत्रयं परमेष्ठिगतं गृह्यत A एव। यद्यप्युभयावधारणेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपांसि धर्मः प्रतिबन्धककर्मापगममाप्यमोक्षहेतुतया च सम्यग्दर्शनज्ञानचास्त्रिाण्येव मोक्षमार्गः, परं स धर्मो मार्गश्च नाधेयमन्तरेण स्वतन्त्रतयाऽमूर्तत्वाद्भवतः, / अतस्तत्वतः परमेष्ठिपञ्चक एव धर्मस्तद्गतत्वाच्च तत्संयोग एव धर्मस्य संयोग इति चेतसिकृत्याईदादि संयोगमार्थनाया एव सुमार्थनत्वमभिमतम् / एवं चात्र सम्यग्दर्शनादीनाम् आराध्यत्वं, पूज्यत्वोपेतं तु परमाराध्यत्वमहदादीनामेवेति पूज्याराध्योभयधर्मवतामहदादीनां संयोगप्रार्थना, तस्या एव सुपार्थनात्वं / चेति / यद्यपि अईदाद्याः परमेष्ठिनो जगतः समग्रस्यापि कल्याणावहाः यथास्थिता जगद्गुरवच, यतस्त IN एवाष्टादशदेश्यभाषाव्यामिश्रयाऽर्धमागध्या जीवादितत्त्वनिदेशका, येनाऽऽबालगोपालं तत्त्वमार्ग प्रतिपद्यन्ते, 57 INI परं तु कतिचिद्विद्वद्गम्यया संस्कृतया तत्त्वमाचक्षाणा न जगद्गुरुत्वमार्गेऽपि / परं न ते परमेष्ठिनो lil | विद्यमानमात्रत्वेन जगतः कल्याणावहाः, किन्तु भक्तिबहुमानपूजादिविषयं प्रापिता एव कल्याणावहाः / / अत एव च महत्त्वेऽप्यर्हता तेभ्योऽपि भक्त्यादेरतिशयेन महत्त्वम् / तत एवं परमेष्ठिमन्त्रे 'नमोऽर्हद्भ्य' इत्यादौ नमस्कार्येभ्यो नमस्कारस्य प्राक् पाठः / अत एवं प्राप्याह-'होउ मे इत्य बहुमाणो'त्ति। बहुमानचान्तरः प्रतिबन्धः। सत्येवास्मिन सेवाभक्त्यादीनां प्रशस्यता, सति च बहुमाने सेवादेर्भावेऽभावेऽपि अतिशयितस्य फलस्य प्राप्तिः, बहुमानरहितस्य तु सेवादयो जायमाना अपि पालकवद् द्रव्यफल // 159 // Ac.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 16 // मात्रदानप्रत्यला निष्कला वा भवेयुः / अतो युक्तमेवोक्त-भवतु ममाईदादिपरमेष्ठिषु बहुमान इति / 11 आगमो- | परमेष्ठिप्रभृतीनां नमस्कारादेव्यभावभेदेन वैकल्पिकत्वदर्शनाय तन्निरासायाह-'होउ मे इओ मोक्खबी- A पञ्चसूत्रद्वारककृति ति / प्रकृष्टोऽयं बहुमानो द्रव्यतोऽनुष्ठीयमानोऽपि / अत एव 'जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेण न जाकर पारेमि'त्ति तत्पदोच्चारणान्तगामिनी प्रतिज्ञा / 'हिययं अणुम्मुयंतो' त्यादि च नियुक्तिकारादिवचः। II सन्दोहे. अतः प्राणान्त्यभागे तदुच्चारणप्रवृत्तिः / अज्ञानानां तिरश्चापि तदा तच्छावणं श्रीपाश्र्धकुमारचरित्रे | | चारुदत्तकथानकादिषु च फलवत्तया दर्शितं, प्रेत्य सत्प्रत्यायातानां तत्पदश्रवणेन जैनदर्शनस्याभ्युपगमादि च N हुण्डिकयक्ष राजकुमारकथादिषु प्रसिद्धतममेव, परमत्र सर्वपापप्रणाशसर्वमङ्गलाद्यमङ्गलत्वेन क्रियते बहुमानः / परमेष्ठिनामिति भाव्येव बीज एष मोक्षस्येति सम्पधार्य प्रोक्तं-'भवतु ममेतो मोक्षवीजमिति, परमेतावता | ग्रन्थेन 'धन्यास्ते ग्रामनगराधा' इत्यादि यत् सिन्धुसौवीराधीशेनोदायनेन प्राप्यतया प्रार्थित, समागमस्तस्य / | दर्शितः, परं नहि समदेशादिसंयोगमात्रेणार्थसिद्धिः किन्त्वन्यथाविधन विधानेन / ततः 'तं महाफलं ! खलु' इत्याद्यौपपातिकसूत्रवर्णितचम्पानगर्यभिजनवदभिगमननमनादिकायाः सेवायाः प्रार्थनार्थमाह-'एसेसु // एएसु अहं सेवारिहे सियेत्यादि / अत एव पूजायां 'काले सुइभूएण'मित्यादि देवादीनामाराधनायां च KI 'देवगुणपरिज्ञाना'दित्यादि काले सद्योगविघ्नवर्जनतयेत्यादि विधिसेवादानादा'वित्यादि चोपदिश्यते / उपदिष्टं | | च पुष्पशालाय श्रमणेन भगवता महावीरेण रजोहरणादिग्रहणेन स्वसेवाभावादि / ततश्च सुनिश्चितमिदं यदुत-प्राप्तानामप्येकदेशादिप्रकारेणाईदादीनां भाग्यवतामेव सेवाहता स्यात् / ततश्च प्रार्थनमेतेषां प्राप्ता नामपि सेवाविषयागमे न साफल्ये इति प्राप्तोऽपि योग एषां पूज्याराध्यानां, परमेष्ठिनां लब्धाऽपि IN सेवा सन्ध्यात्रयाराधनादिरूपा परमभगवतां तेषां, तदा स्याद् मोक्षानुकूल्यतावती। यत उच्यते // 1.60 // DIP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दोहे / आज्ञा आगमो. वीतरागसपर्यातस्तवाज्ञाऽऽराधनं परं / आज्ञाऽऽराद्धा विराद्धा च शिवाय च भवाय च // 1 // हित्वा || पश्चसूत्र- , द्धारककृति प्रसादनादैन्यमेकयैव त्वदाज्ञया / सर्वथैव विमुच्यन्ते जन्मिनः कर्मपञरात् // 1 // (वीत०) इत्यादि / किश्च- II वार्तिकम् आज्ञाव्यतिरिक्तं ग्रैवेयकोत्पातहेतुतया लब्धं चरणमप्यनर्थकमित्याह-'आणारिहे सित्ति / उच्यते च 'इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं' यावद् आज्ञयाऽऽराध्य संसारमनादिकमनवदनं व्यतिव्रजिषुः विराध्य / // 16 // चानुपरिवर्तितवन्त' इत्यादि 'आणाए तवो आणाइ संजमो' इत्यादि 'धम्मो आणाइ पडिबद्धो' इत्यादि / 'आणाखंडणकारी'त्यादि चापरिमितमागमवचनवृन्दमत्राऽऽज्ञाराधनाफलेऽवतार्यम् / तदेवं दुर्लभदुर्लभदुर्लभतमेषु | सेवान्तेिषु प्रार्थितेषु चोल्लकादिदृष्टान्तसाध्यचक्रिगृहपुनर्भोजनादिवद् महाभाग्यवतामेव प्राप्येषु विहिता | प्रार्थना तत्तत्प्राप्तौ, परं लम्भेऽपि दातुरातुरेऽपि ग्रहीतरि नश्येश्चैदेयं कैव दशा ह्यातुरस्येति दृष्टान्तमाधाय मनसि पञ्चमकाऽनन्तानां सम्यग्दृशामपि निगोदावस्थोपगमनख्यापकमागमवचनं यथार्थतयाऽऽज्ञाराधनाया | निरतिचारपारगतताया अतिशयेन दुर्लभतमत्वमवधार्य माह-'पडिवत्तिजुत्ते सिआ निरइयारपारगे सित्ति | च / न च वाच्यं सम्यग्दृशां पश्चमानन्तांशमितानां परिपतिताना भावेऽपि प्राप्ताः सिद्धिमष्टमानन्तांशमिताः सम्यग्दृश इति कथं दुर्लभतमत्वं प्रतिपत्ति-निरतिचारपारगत्वयोरिति चेत् / सत्यं, सिद्धा अष्टमानन्तांशमिताः प्रचुराश्च परिपतितेभ्यः, परं तेऽष्टमानन्तांशमिता ये सिद्धास्ते न सर्वेऽप्यप्रति|पातिभावेनैवाधिगता निर्वृतिम्, अष्टमानन्तांशस्थानन्ततमो भाग एवाप्रतिपतितानाम् , शेषास्तु सङ्ख्येयादिकाल-IA | परिपतिता एव सिद्धाः पर्यन्ते इति आजन्माखण्डायाः प्रतिपत्तरेवं निरतिचारपारगतेति द्वयोरैक्यम्, / द्वयोरुपन्यासस्तु चरमभवं यावद् मनुष्यभवास्तत्र चाऽऽज्ञादीनां प्रतिपत्तयः केषाश्चिदेव 'अहभवा उ चरित्ते'त्ति शास्त्रोक्ता आकर्षा अष्टऽल्पतमानामेव, विराधनायुतानां तु गोशालादिषुः बहुतमानामपि भवानां दर्शनात् / | P.P.AC. Gunratnasuri M.S. // 16 // Jun Gun Aaradhak Trust Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . आगमोद्वारककृति-II तथा चैकजन्मापेक्षया न विशेषः, परं भवान्तरापेक्षयास्ति स इति न सर्वथा पाठद्वयस्य पृथग्रूपस्यासाङ्गत्यमिति / पारगतत्वं च प्रतिपत्तेस्तदा जायते यदा विविधोपसर्गप्रसङ्गेऽपि ज्ञानादिरूपाऽव्ययपथान पञ्चसूत्रप्रच्यवते / न च विविधव्यथाषाधितोऽपि सँस्तत्र शस्तां स्मरन्ननुभूतो नार्तध्यानवशगो भवति / न च / वार्तिकम भाविविविधसंकल्पैरात्मानं नाटयति, किन्तु भाव्येव भावि नाभावीति निश्चित्य स्थिरतरमनाः | सन्दोहे साम्ये रमेत / त्रीण्येयेतानि प्रतिपत्तिपारगमनसाधनानि इति / एवं भविष्यन्त्यां भाविनां भावानां // 162 // समायोगं प्रणिधानसूत्रे भवनिर्वदादिप्रार्थनावदभिप्रार्थ्य तत्रैव लोकविरुद्धत्यागादिवदत्राप्यग्रतः प्रवृत्ते सुकृतानुमोदननाम्नि तृतीये वस्तुन्याह-'संविग्गो जहासत्तीए सेवेमि सुकडं ति। धर्मश्रद्धा संवेगश्च | परस्परं जनको अनन्तानुबन्धिक्रोधादिक्षपको कर्मरोधको कृत्वा मिथ्यात्वस्य विशुद्धि दर्शनस्याराधनाजनको | तादृशं च दर्शनं तौ विशोधयतः, येन शुद्धेन दर्शनेन प्राप्यते चरमशरीरता तृतीयश्च भवो वातिक्रम्यते / तादृक् संवेगवान् यथाशक्ति सेवे सुकृतम्। अत्रावधेयं इदं यदुत-'सुकृतसेवायां अपि शक्तिमनतिक्रम्यैव | शस्यते उद्यमकरण, तेन एवं च तुलनाभिस्तोलयित्वैवात्मानं प्रव्रज्या-जिनकल्प-प्रतिमादीनां प्रतिपत्तयो | हितावहा इति / यद्यप्यत्र सुकृतानामासेवनमनुमोदनरूपतयैवाधिकृतं प्रोच्यते च ततः सुकृतानुमोदनाख्यो | विषयस्तृतीयः, तथापि कर्तु-कारकानुमोदकानां श्रीबलभद्रमुनिरथकार-मृगदृष्टान्तेन या समानफलताऽऽम्नायते जैने शासने, सा कर्तृतादीनां यथोत्तरं शक्तेरभावे ज्ञेया। सद्भावे तु शक्तेः प्रमादादिभिरनाचरणे | सुकृतानां, नैव कारकानुमोदकत्वेन समानफलवत्ता। तत एवात्र यथाशक्ति संविग्नतयाऽपक्रान्तमपि सुकृतस्य सेवनमादृतम् / एवं चात्मयोग्यतां सम्पाद्यानुमोदनीयगुणानामईदादीनां भगवतां परेषामपि च . तथाविधानां सुकृतानामनुमोदनार्थमाह-'अणुमोएमि सव्वेसिं- PI // 16 // DiPP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust CM Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AN ___ आगमो- 10 अरिहताणं अणुद्वाणमित्यादि यावत् सव्वेसि जीवाणं होउ कामाणं कल्लाणासयाणं ISI पञ्चसूत्रद्धारककृति- | मग्गसाहणजोगे'त्यन्तम् / तत्र यद्यपि सिद्धादीनां भगवतां तत्तदवस्थावृत्तितया सिद्धभावादिकं l वार्तिकम सन्दोहे त यथा अनुमोदनीयतापदमानीत तथा भगवतामर्हतामहत्त्वमेव तत्पदमानेतव्यं भवति, परं यदनुष्ठानमहतां / भगवतां तत्पदमानीयते तदिदंज्ञापनार्थ यदुत-सिद्धत्वप्रभृतीनि स्थानानि एकमवयत्नसम्पाद्यानि, न | तथाअईचं किन्तु तदनेकभवयत्नलभ्यम् / अत एव चंयः शुभकर्मासेवनभावितभावो भवेष्वनेकेष्विति भाष्यं | 'तइयभवोसक्कइत्ताण'मिति च नियुक्तिकाराः। 'अनेन भवनैगुण्या मित्यादि यावत् 'तत्तत्कल्याणयोगेन, कुर्वन् सत्वार्थमेव सः। तीर्थकृचमवाप्नोति, परं सत्त्वार्थसाधन' // मित्यन्त योगबिन्दुकाराः, 'वरखोहिलामओ सो' इतिपश्चवस्तुकाराः पञ्चाशककाराश्च, 'वरबोधित आरभ्य परार्थोद्यत एव ही त्यष्टककाराः 'सयंसंबुद्धाण मिति प्रणिपातदण्डकः जिननाम चान्तःकोटीकोटीसागरोपमस्थितिकं बध्यते, तद्वांश्च / | यत्र यत्रोत्पद्यते तत्र तत्र तत्तद्गत्यादिस्थानापेक्षयोत्तमजात्यादिस्थानवानेव भवति / भगवतोकि तृतीयभवात्त 'बज्झह तं तु भगवओ तइयभवोसक्कइत्ताणमिति- निकाचनाविषय, सम्बन्धोऽपि / तस्मात्तृतीयस्माद्भवादारभ्य यावदपूर्वकरणगुणस्थानं तावनैरन्तर्येण भवति / सर्वमिदमवधाहता भगवतामनुष्ठानमित्युदितम् / अर्हद्भवेऽपि गज-वृषभादिचर्तुदशस्वप्नदर्शनादि 'एए चउदस सुविणे' ki इत्यादि कल्पवचो मङ्गलावसरे चतुःशरणकेऽपि पठितम् / गर्भपालनं जन्मनि सेन्द्रदेवगणैर्मरुमूर्धनि | स्नात्रकरणं यावनिर्वाणमहमत्र विधाय सर्वसुरासुरेश्वराणां नन्दीश्वरं गत्वा महोत्सवकरणं, सर्वमिदमहतां / भगवतामनुष्ठानमनुमोदनीयम् / किञ्च-अर्हतां मगवतां निक्षेपचतुष्टयमपि नापूज्यमार्गान्वितं स्वीकार्यम् / // 16 // तत एव तत्र'नामजिणा जिणनामे'-त्याधुच्यते / एतादृशाईत्पदानुवृत्तेश्च सिद्धादिषु पदेषु भावसिद्धाINPP.AC Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवजन्म // 164 // दिपरिग्रहस्येष्टत्वेऽपि न तादृग्विशेषणप्रयोगः, आर्हतानां सिद्धानामित्यादिव्याख्यानाद् मावसिद्धआगमो. त्वादेर्ला भादिति। न च भगवतामर्हतां वीतरागद्वेषत्वात् तदनुष्ठानस्यानुमोदने किं फलमिति वाच्यम् / अनादि- पञ्चसूत्रः द्धारककृतिकालीनमिथ्यात्वादिरोगदूषितानामसुमतां सद्गुणप्रशंसावीजेनैव बोध्यादिफलेन फलयुक्तत्वभावात् / / वार्तिकम् न च विहाय सद्गुणप्रशंसामन्यो धर्मकल्पप्ररोहादिफलो धर्मः, शेषाणामशेषाणां सुकृतानां तत्प्रभावात् ! सन्दोहे | तदन्वेव च भावादिति / ननु च . भगवतामहदादीनामियता स्वमदर्शन-जन्माभिषेक-कल्याणकम| हिममहाप्रातिहार्य-निर्वाणमहप्रभृतिना महिम्ना कि प्रयोजनमति चेत् / शृणु, धर्मस्य तावदवश्यं द्विविध फलं लौकिकलोकोत्तरभेदभिन्नं भाव्यम् / अन्यच्च-न धर्मो धर्मिणमन्तरा, ततो धमिजनानां पूजाद्वारैव धर्मस्य पूजाप्रभावस्य दर्शनं स्यात्, अतोऽवश्यमईदादीनां धर्मरत्नरत्नाकराणां पूजादीनि भाव्यानि धर्माभिलाषिभिश्वावश्यमादावेवानुमोदनीयानि / अत एव पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारे जिन-वीतरागसर्वज्ञ-सर्वदर्शीत्यादीनि पदानि न धृतानि, किन्तु अशोकायष्टमहाप्रातिहार्यादुिपूजासचकमहत्पदमेव स्थापितम्, | स्थापितं च सिद्धपदाद्भिन्न प्राक् चाहत्पदमिति / एवं चाभावितायामपि पर्षदि जीतेन भगवतो वीरस्य | क्षणमहत्पदयोग्यपूजाया उपसेवनं शोभते / यद्यप्यर्हतां भगवतां साध्यफलं तु धर्मदेशनया तीर्थप्रवृत्तिरेव, | परं प्राप्यफलमहनामकर्मणः पूजातिशय-गणधरप्रव्रज्यादि / तच्च 'धम्मदेसणाइहि मित्या निबद्धमाK दिशब्देन नियुक्तिकारैः। अत एवाऽऽगर्मात् शक्रस्तवादिभिर्यावन्निवाणं पूज्यताऽर्हतां भगवताम् / ननु ये यत्र क्षेत्रे / यत्र च शासने उपकारितयाऽर्हन्तो भवन्ति, तेषामनुष्ठानस्याऽस्त्वनुमोदनम्, शेषाणां तेषां तदनुमोदनं किमर्थं / येनोच्यते सर्वेषामर्हतामिति चेत् / सत्यमुक्तं परमयुक्तम्, यतो गुणिगुणानामनुमोदनस्य श्रेयस्करतया / सर्वेषामेव तेषां तस्यानुमोदनं योग्यमेव / अत एव प्रतिक्षेत्रमृषभादीनां जिनानां भिन्नत्वेऽपि नमो अरिहंता // 164 // DIP.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . // 165 // आगमो. | णमित्यादिभिः पदैः पञ्चसु परिमेष्ठिषु क्षेत्रकालाधनाश्रितानामर्हदादीनां नमस्कारादि / शाश्वतजिनाद्या हि ISI पञ्चसूत्र द्धारककृति- नहि केषुचित् क्षेत्रकालादिषु नियमिताः / एवं च नवपदमयश्रीसिद्धचक्रस्य सर्वकालीना सर्वक्षेत्रीया चाराधना | वार्तिकम् सन्दोहे | सिध्यति / पडावश्यकव्याख्याने च स्पष्टतयोच्यते यदुत-वर्तमानचतुविंशतिकायाः स्तवमय एव चतुर्विशम तिस्तव इति / कर्मभूमीविहायान्यत्र स्थितानां सम्यग्दृशां देशविरतानां च ऋषभचन्द्राननादीनां क्षेत्रकालाना श्रितानामहतां भगवतामाराध्यता, तथा सामान्येन जिनसिद्धादीनामाराधना पूज्यता चेति पूज्याराध्योभयधर्मयुक्तानां परमेष्ठिनामाराधना पूज्यता च सार्वत्रिका सम्यग्दर्शनादीनां च गुणानां गुणरूपत्वादेवाराध्यतेति नवपद्याः शाश्वत्याराधनेति / अन्यच्च-नह्यत्र जने मते परमेश्वराणां दानदक्षत्वें, येन स्यात् प्रयत्नस्तत्प्रसत्त्यै, तथात्वे चैकस्यापि जीवस्य परमपदे जायमाने दुग्धगौरिख परमेश्वरस्यैव | परमपदहीनत्वम् / जने तु शासने आत्मस्वरूपरूपाणां ज्ञानादीनां परमेश्वरालम्बनजातध्यानादवाप्ति| रुच्यते, पुण्यकारणीभूतसदध्यवसायानामपि स्वतन्त्रतया पुण्यकारणता / सर्वज्ञोक्तशास्त्राणि तत्रावलम्बनी| भवन्ति त्वनिवार्याणि / अत एव स्वर्गापवर्गदानदक्षः परमेश्वरस्तदुपज्ञो धर्मः, सति चैतस्मिन् वृत्ते | | सर्वेषामर्हतामनुष्ठानस्यानुमोदनमात्मनां भवतुकामानां परमशुभाध्यवसायालम्बनत्वा द्धितकरमेवेति योग्यमुक्ततम्-'अनुमोदयामि सर्वेषामर्हतां भगवतामनुष्ठानमिति / न च वाच्यं भगवतामहतां वीतरागत्वात् यदि फलप्राप्तये / | तत्प्रसत्तेर्नापेक्षा, आशातनाजन्यायाः संसारवृद्धावपि न तद्द्वपापेक्षा, कर्तृणामेव तमालम्बनीकृत्य शुभाध्यववसायानामुत्पादे शुभफलस्येतरेषां चोत्पादे इतरफलस्य भावात् अध्यवसायजन्यत्वात् पुण्यपापानामिति सिद्धान्ते जायमाने कथमुच्यते-'तित्थयरा मे पसीयन्नु' इत्यादीनि / यतो वीतरागास्ते न प्रसीदन्ति, परं // 165 // भक्तानां चेत् प्रसन्नमनस्कता तदुपदेशजनिता भवति, तदा निमित्ततामाश्रित्य तजनिता सोच्यते / P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SNE द्धारककृति ISI एवमेव च स्वर्गापवर्गधर्मादिदातृताऽपि भगवतां न्याय्यैव / ननु च यथा सद्गत्यादिनिमित्तत्वाद्भगवता -आगमो- KI तत्तदातृत्वं कथ्यते, तथा दुर्गत्यादिनिमित्तत्वात्तदातृता किं न कथ्यते ? इति चेत् / सत्य, सूर्यादीनां प्रकाश- पञ्चसूत्रकरत्वाद्यथा दिनकरत्वादि कथ्यते, अवटपातादि तु न तत्कृतमिति गीयते, तथा भगवतामपि शिवादि वार्तिकम् | कारणतया शासनस्य प्रणयनादिना शिवादिदातृत्वं कथ्यते, परं दुष्टाध्यवसायादिजन्याया दुगतेस्तु सन्दोहे प्रमादादिहेतत्वात . तत्र च परमात्मनां सर्वथा सर्वदा निषेधकत्वेन प्रतिकूलत्वादशेनापि नास्त्येव कारणता // 166 // दुर्गत्यादेः। तत एकान्तहितकरा एवार्हन्तो भगवन्त इति तदनुष्ठानस्यानुमोदनं भवितुकामानामावश्यक- | | मेवेति कृतं प्रसङ्गन / भगवतामहंतामनुष्ठानं तदैवाबध्नाति मूलं, यदा संसारसमुद्धारेण सिद्धत्वं साधनन्तकाल स्थितिकात्मस्वरूपावस्थानरूपं लभ्यं भवति। तदेव च निर्यामकाणां ध्रुवापि तारिका मार्गप्रवर्तिनीयश्रीमदहता दादीनां मार्गप्रणयनादिमूलकारणं भवति / तत आह-सव्वेसि सिद्धाण सिद्धभावं'ति / सर्वेषां सिद्धानां / भगवतां सिद्धत्वमनुमोदयामीति / सिद्धभावश्च संक्षेपेण तु 'असरीरा जीवघणा उवउत्ता दंसणे य नाणे य / सागारमणागारं सिद्धाणं लक्खणं एय'मित्यादि सविस्तरमावश्यकनियुक्तिप्रतिपादितमेवावतार्यमिति / IS/ तदेवं ग्रन्थेनैतावता सिद्धेर्गिस्य प्रवर्तकानामर्हता भगवतामनुष्ठानं मार्गफलरूपस्याविप्राणाशित्वादिस्वरूपाणां | भगवतां सिद्धानां सिद्धस्वभावं चानुमोद्य शुभोद्देशेन प्रचुरवित्तव्ययेन स्थापितस्यापि चैत्यस्थापनादेः प्रभावकत्वं यथा सारणादिकर्तृणां महापुरुषाणां प्रयत्नेनैव भवति, तथा स्थापितस्याहता भगवता सिद्धिमाप्तिफलेन सफलस्यापि मार्गस्य जगदुपकारप्रवणत्वं त्वाचार्यादिभिः सारणादिकर्त्तव्यानां शासने विधानादेवेति तेषां भगवतामसाधारणकार्याणामनुमोदनार्थमथ पुरतो ग्रन्थमाह-'सव्वेसि | आयारियाणं आयार' मित्यादि / ननु भगवतार्हतैव तीर्थ प्रवर्तयता दर्शित आचारः , सर्वोऽपि शासन- 1 INIP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो- ID स्थापनावसरे चतुवर्णश्रीश्रमणसङ्घाय, तत्कथमाचार्याणामाचार ? इति चेत् , यद्यपि भगवन्तोऽष्टादशानां त पञ्चसूत्रद्धारककृति-KI अज्ञानादीनां दोषाणामन्तकृतस्तत्वेन चापवर्गपथहेतुकाचावन्त एव, परं केपाश्चिद् व्यवहारणामभावात् / वार्तिकम कल्पातीतास्ते उच्यन्ते भगवन्तः / आचार्यादयस्तु शासनप्रवृत्तव्यवहारवन्त एव / अत एव च ग्रहणासे. सन्दोहे वनादिशिक्षाणां स्थविरा एव प्रवर्त्तयितारः। जिना अपि च दीक्षयित्वा शिक्षाग्रहणाद्यर्थ शिष्यान् // 167 // मेघकुमारादीन् स्थविरानेवार्पयामासुः। किञ्च-भगवन्तोऽर्हन्तः स्थापयित्वा शासनं निर्वाणपथप्रवृत्ता आचार्येभ्य एव शासनं ददुः / अत एव 'कइयावि जिणवरिंदा' इत्यादि पठ्यते / तन आचार्याधीन एवाचारः। किञ्च-शासनव्यवहारो हि जीतान्तैः पञ्चभिराचारैः, न च जिनानामागमादिव्यवहाराधीनतेति योग्यमुच्यते आचार्याणामाचार इति / यद्यप्युपाध्यायाः साधवश्वाचार्यैः समान एव ज्ञानादिगतानाचारान् पश्चापि पालयन्ति स्वयं, परांस्तेषु प्रवर्तयन्त्युपदिशन्ति च, परं ते सर्वेऽधीना आचार्यस्येति स्वामिन | आचार्या एवाचाराणाम् / अत एव चाचायण विहीनानां साधूनां चौरपल्लिवाससमत्वं कैश्चिदुपदिश्यते, IS उच्यते च पर्युषणाकल्पादिषु 'आचार्याः प्रत्यपायान जानन्ति' इति / शासनस्य प्रवर्तनमर्थदानं 10 चाईदनुकारेणाचार्याणां कृत्यं, परं तन्मात्रप्रवृत्त्य विरोधार्थ सूत्रदानं तु त एवोपाध्यायद्वारा कुर्वन्ति / इत्युपाध्यायानां कार्याणां पृथक्त्वात्तदनुमोदनार्थमाह-'सव्वेसिं उवज्ज्ञायाणं सुत्तप्पयाण'मिति / एवं च शासनस्य प्रवर्त्तनमर्थदानं चाचार्यकृत्यतया, सूत्रशिक्षणं चोपाध्यायकार्यतयाऽनुमोदनेन द्वयमपि शासनरथचक्रस्यानुमोदितम् / यद्यपि गणिप्रवर्तकादयोऽपि अधीयन्ते सूत्राणि अध्यापयन्ति च खनिश्रास्थितान् साधून, परं नियमनं यन्निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च दिग्बन्धेन भवति, तदिग्बन्धन नियमपूर्वक / // 167 // सूत्रप्रदानं तूपाध्यायानामेव कार्यम् / अत एव 'आख्यातयुपयोगे [2 / 279] इति सूत्रेण उपेत्याधीयतेऽस्मादिति P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्वारककृतिसन्दोहे. // 168 // पञ्चम्या व्युत्पाद्यते उपाध्यायशब्द इति / यद्यप्याचार्या उपाध्यायाश्च द्वयेऽपि वर्तयन्ति गच्छं, प्रोच्यते || च 'द्विपरिग्रहा निर्ग्रन्था' इति प्रवचने दिग्वन्धाधिकारे, तथापि दीक्षितानां शैक्षादीनां संलिखितमारणा- || पञ्चस्वन्तिकीक्रियान्तादीनां यथावद्वैयावृत्यादिना संयमसहायेन चोपकारकरणं तु साधूनामेव / अत एव च / वार्तिकम् तेषां पात्रादिविविधोपकरणधृतिः साम्भोगिकव्यवहारश्च साधूनां नमस्कार्यताऽपि 'असहाए सहायत्त / | जे इमे संजमं करेंताणमित्यादिना संयमसाधनसहायकरणादेवानुमता। ततश्चाचार्योपाध्यायवदन्यूनाति| रिक्तमेव साधूनां प्रवचने स्थानमिति कृत्वा आह–'सव्वेसिं साहूण साहु साहुकिरिय'मिति / | साधुक्रिया च यथाऽन्येषां संयमसाधने सहायस्य करण, तथाऽऽत्मनापि मंयमयोगेषु निरन्तरमप्रमत्ततया रमणं चेति द्वयरूपै / यद्यप्यशेषा आस्तिका स्वान् स्वान देवान् गुरूंश्चाराधयन्त्येव, पर जैनानां विशेषोऽयमेवास्तिकानां यदुत-यावन्तोऽन्तः सिद्धाश्च तावतः सर्वानेव देवतयाऽ. भिमन्वते / एकमप्यर्हन्तं सिद्ध च भगवन्तं चेद् देवतया नाभिमन्यते, तर्हि सोऽत्र मिथ्यादृक्तया गण्यते / अत एव गोशालादय ऋषभादीनामभ्युपगन्तारोऽपि श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यैकस्यानङ्गीकारान् मिथ्यादृशो भिमताः। तद्वदेव चाहतः सिद्धांश्चैव देवतत्वात्मकतयाऽभ्युपयन्ति, नान्यान् केवलान् मिश्रितानपि च / अत एवाभावितावस्थानां जैनमताप्रीतिप्रकर्षपराकरणायैव च चारिसञ्जीवनीचारदृष्टान्तेन सर्वदेवाचनादेरुपदेशो, भावितावस्थायामवश्यमहदादिदेवताविशेषस्यैव श्रयणं | योगबिन्दौ श्रीहरिभद्रसूरयोऽपि स्पष्टतयैनमर्थमाख्यातवन्तः। यथोभयथावधारणेनार्हता सिद्धानां च देवत्वं तथैव भयावधारणेनैवाचार्योपाध्यायसाधूनामेव गुरुत्वं, पश्चानामेव चैषां पूज्यत्वमाराध्यत्वं परमेष्ठितया ध्यातव्यादिकं चेत्यवसेयम् / अत्र च यद् ऋषमादीनामर्हतां पुण्डरीकादीनां सिद्धानां यन्न ग्रहणं तत् / // 168 // DEP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागमा 10 तेषां भरतादिक्षेत्राश्रितत्वेन / अत्र तु शाश्वतजिनानामृषभादीनामिव क्षेत्रकालानाश्रितानां परमेष्ठिनां ग्रहणार्थं | पञ्चसूत्रद्धारककृति- सर्वेषामहदादीनामनुष्ठानादिकमनुमादितम् / यथा चाईदादीनामनुष्ठानादिकं भवितुकामानामनुमोदनीयं त वार्तिकम् सन्दोहे. पता सुकृतरूपत्वात्तस्य, तद्वदेव सर्वविरतत्वाभावेन पूज्याराध्यत्वाभावेऽपि श्रावकादीनां सम्यग्दर्शनादि- THI भिर्युक्तत्वाद् व्यवहारनयेन च चारित्रेण रहितयोरपि सम्यग्दर्शनज्ञानयोर्मोक्षसाधनत्वात्तदनुमोदनार्थमाह॥१६९॥ | 'सव्वेसि सावगाणं मोक्खसाहणाजोगेच्यादि / यथैव चौपपातिकसूत्रे श्रीवीरदेशनायां निर्ग्रन्थानामनगारत धर्मिणामाज्ञया आराधकत्वमाख्यातं तथैव श्राद्धधर्मिणामप्याज्ञयाऽऽराधकत्वमुक्तं, किन्तु श्राद्धानां देशतो | | हिंसादिभ्यो विरमणरूपं चारित्रमभिमतं च तत्फलतयैव 'जन्मभिरष्टव्येकैरिति ‘स सिध्यत्यन्तर्भवाष्टक' मित्युक्तेरस्ति श्रावकाणां मोक्षसाधनयोगः। तत एव तेषां श्रावकाणां तस्य मोक्षसाधनयोगस्यानुमोदनं | योग्यमेव / न च वाच्यं श्रावकाणां देशतो हिंसादिभ्यो विरतत्वेऽपि देशतोऽ विरतत्वेन | सावद्यारम्भकत्वादयोगोलकल्पत्वान्नानुमोदनं योग्यम्, अनुमोदने च तेषां पार्श्वस्थादीनां | वन्दनादिभिः तद्गतानां प्रमादस्थानानामनुमोदनवत् श्रावककृतानां सावधानामनुमोदनप्रसङ्ग | इति / यतो यो हि यत्र यत्र यावान मोक्षमार्गयोगः, स तत्र तत्रानुमोद्य एव। अन्यथा | सूत्रस्य चास्य व्यर्थकत्वापत्तेः। कामदेवादीनामुपसर्गसहनादिकार्यस्य यावत् सूर्याभादीनां वन्दनादि| कार्यस्य भगवता बीतरागेणैवानुमोदनादिति / पार्थस्थादयस्त्वारूढगुरुपदा अपि गुरुपदस्यायोग्यानां H स्थानानां परिषेवका इति तद्वन्दनादिभिर्गुरुपदायोग्याचाराणामनुमोदनप्रसङ्गः / न च सद्गुरुवन्दनम्त्रेभ्यो | भिन्नानि पार्श्वस्थादिवन्दनसत्राणि, ततश्च गुरुपदाद् दूरवर्तिनां गुरुवन्दनसूत्रेण बन्दने स्यादेव तदीयप्रमादस्थानानामनुमोदनम् / यथा सद्गुरूणां चन्दनेन भावुकानां 'तं महाफलं खु' इत्यादिसूत्रवर्णितो महालाभ इति / यदि च वन्दनीयानामवगुणैरात्मा लिप्यत एव वन्दनकाना, तर्हि छद्मस्था // 169 // U P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्धारककृति-KI // 170 // S/ असर्वज्ञाश्चाचार्यादयोऽवन्दनीया भवेयुभवेयुर्वा तदात्मस्थानां. मोहादीनां दोषाणामनुमोदनमिति ISI -आगमो कृतम् / श्रावकाणामनुमोद्य एव मोक्षसाधनयोग इति / न केवलमेतदेवानुमोद्यं . सम्यग्दर्शनादिगत | पञ्चसूत्रः मोक्षसाधनत्वम्, किन्तु सततं रतिलीनानां सम्यग्दर्शनमात्रगुणवतां तदन्येषामपि च यो यः | वार्तिकम् कल्याणाशयेन मार्गसाधनयोगः सोऽनुमोद्य इत्याह-'सव्वेसिं देवाणं सव्वेसि जीवाणं होउ सन्दोहे कामाण कल्लाणासयाणं मग्गसाहणजोगो' इत्यनुमोदयामीत्यनुवर्तत एव 'अणुमोएमि सव्वेसिं अरिहंताण'मित्यतः। न च वाच्यं मोक्षसाधनगुणानामस्त्वनुमोद्यता, अत्र तु भिन्नस्तस्मान्मार्गसाधनयोगः कथ्यते, ततश्च कथं तस्यानुमोद्यतेति / सत्यम् , यथा मोक्षसाधनतयाऽनगारागारधर्माणामाराधनोपयोगिनी, तथैव सकृद्धन्धादीनामन्त्यपुद्गलावर्तभाविनां जीवानां शुभाध्यवसायप्रवृत्तिरभ्युपगम्याऽनुमोद्या च / अत एव शक्रस्तवे 'धम्मदयाण'मित्यादिपदेभ्यो 'मग्गदयाण'मित्यादीनि पदानि भिन्नार्थकानि प्रतिपादितानि, सकृद्धन्धकापुनर्बन्धक-मार्गपतित-मार्गाभिमुख-मार्गानुसारिप्रभृतीनामपि मोक्षमार्गानुकूल: A प्रशान्तवाहितारूपाणां गुणानां योगात् / विशेषश्च योगबिन्दुतः सवृत्तितोऽवसेयः। तत्त्वं त्वत्र भवितुकामाः | कल्याणाशयाश्चैते इति / अत एव च सम्यग्दर्शनस्य प्रशमादेर्लक्षणस्य वर्णनेऽपि व्यवहारस्य पूर्वोक्तस्य bles सकृद्धन्धकादिगतस्य ग्रहाय 'सुस्सूस धम्मराओ' इत्यादीनि सम्यग्दृष्टेर्लक्षणानि प्रतिपादितानि / तथा चं सम्यग्दर्शनेन रहिता अपि जीवाः केचित् सम्यग्दृष्टिवत् प्रवर्तमानाः सम्यग्दृष्टित्वधियाऽऽराध्यमाना अपि नाराधकानां मिथ्यात्वं सम्यक्त्वमालिन्यं वा जनयन्ति, भवितुकामकल्याणाशयवजीववृत्तिभवितुकामादीनां लिङ्गतया गृहीत्वाऽनुमोदनादिति / एवं तृतीयस्थाने भगवतामईदादीनामनुमोदनरूपं सुकृतं / सेवयित्वाऽनुमांद्य वाऽस्य प्रशस्तप्रणिधानार्थमाह-'हाउ मे एसा अणुमोयणे त्यादि। यद्यपि कृतवः // 17 // DEP.AC. Gunratnasuri M.S. - Jun Sun Aaradhak Trust बा. के. सा. कोषा Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्वारककृतिसन्दोहे // 17 // प्रागनुमोदना प्राग्ग्रन्थेन तथाप्यत्र साऽऽशिषा प्रार्थ्यते 'भवत्वि'त्यनेन / प्रार्थना चाप्राप्ते स्यादिति ज्ञापय- KI पञ्चसूत्रत्याशिषा वचनेन यदुतेच्छात्मिका कृता मयाऽनुमोदना, तथाविधतत्कलाप्राप्तेः, सामर्थ्ययोगरूपा तु नैव / वार्तिकम जातेति सामर्थ्ययोगरूपानुमोदनार्थमेष आशीः प्रयोग इति / तदेव ज्ञापयन्नाह-'सम्मं विहिपुब्वियेत्यादि / यद्यपि भोजनौषधादीनामिव विधिपूर्वकस्यैव धर्मस्य सफलता, भावधर्मताऽपि सम्यग्विधिपूर्वकस्यैवानुष्ठानस्य नापरस्य, परं सम्यविधिपूर्वकताया अशक्यत्वादादौ प्रमत्तभावपूर्वक एवाप्रमत्तभाव इवाविधिपूर्वकस्यैवानुष्ठानस्य भावः प्रारम्भे, परं सोऽविधिर्न बाधको, यः परिहारविषयमानेतुं यत्यते। अत एव शक्याऽविधित्यागपूर्वकस्याविधियुतानुष्ठानस्यापि भावधर्मता त धर्मसङ्ग्रहण्यादावभिमता, परं प्रार्थना तु सम्पूर्णसम्यग्विधिपूर्वकस्येति योग्यमुक्तं सम्यग्विधिपूर्विकाऽनु- मोदना भवत्विति / एवं प्रणिधानविषयमानीयानुमोदनां तस्य सम्यग्विधिपूर्वकतां सुकृतानुमोदनस्य | जीवातुकल्पस्य शुद्धाशयस्य प्रणिधानार्थमाह-'सम्मं सुदासये ति। विदिततममेतत् विदितजैनमतानां विदुषां यदुत-जैने हि शासने हि नानुष्ठानस्य तादृग् महात्म्यं यादृक् शुद्धाशयस्य / अत एवोच्यते,-19 | 'इकोवि नमुक्कारो' इत्यादि -- विंबं महत सुरूपमित्यादि च शुद्धाशयमाहात्म्यायोच्यते च-'भावत्थएण पावइ अंतमुहुत्तेण निव्वाणमित्यादि / यच्चानादिस्थावरादायाता मरुदेव्याद्यजिनजननी मापान्तकृत्केवलित्वं भरतश्च चक्रथादर्शभवनगतोऽप्यवाष केवलं, तत्सवं शुद्धाशयस्यैव महिमानमाख्याति / किञ्च-जैने | शासने शद्धाशयोऽपि द्रव्यप्रतिपयभिलाषेणान्वित एव शस्यते। अत एवान्यगृहिलिङ्गस्थिता अपि केवलमापन्ना अन्तर्मुहूर्ताधिकायुष्का अवश्यं द्रव्यनैर्ग्रन्थ्यं प्रतिपद्यन्ते / अत एवाह-'सम्म पडिवत्तिरूवति / सम्यक् प्रतिपत्तिश्च सैव बिभर्ति शोभां, या स्यानिरतिचारा। अत एव च सामायिकसत्र एव // 17 // MP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 172 // BI 'तस्स भते' इत्यायुच्यते / प्रथमान्तिमजिनतीर्थयोश्वावश्यं प्रतिक्रमणानां पञ्चकं, शेषजिनतीर्थेषु चानुक्षणं / आगमो- रात्रिकदेवसिकेति-प्रतिक्रमणद्वयस्य करणमाचारतयाऽऽम्नातम्, अभ्यन्तरतपसि कर्मसानुशतकोटिरूपे प्रथमं | पञ्चसूत्र दारति-il प्रायश्चित्तमुक्त्वा निरतिचारत्वस्यैव कृतोऽभिषेकः। अत एव च भगवता महावीरेणानन्मश्रावकाय बातिकम H द्वादशानां व्रतानामतिचारजातवर्जनाय दत्त उपदेशः / एवममिलषणीयं सुकृतानुमोदनाद्याशास्य तद्विषयं / सन्दोहे प्रणिधानं च प्रणिधाय महार्थतां तस्याकलय्य महानिधानप्राप्तिरिव रोरस्य मत्वा तत्प्राप्तेरशक्यतमतां 'होउ मम तुहप्पभावओ भयव'मित्यादिवत् प्रणिधेयमाप्तये साहाय्यार्थमाह-'परमगुणजुत्तअरिहंताइसामथओ। अचिंतसत्तिजुत्ता हि ते भगवंत'त्ति। शरणीकृतेष्वहंदादिषु अर्हन्तो | भगवन्तः सिद्धाश्चेतिद्वये एव कृतार्थाः क्षीणरागद्वेषा अपि सन्तः स्वाराधनापरानसुमतोऽन्तर्मुहूर्तेनापि कालेनापका अपवर्गस्य / किञ्च-अर्हत्प्रवचनप्रवृत्तेरभावे न कोऽपि देवत्वस्यावाप्तावपि पल्योपमत्रयाधिकस्थितिमवं जीवोऽलमत, प्रवृत्ते एवार्हत्प्रवचने च त्रयस्त्रिंशत्सागरममाणां महतीं देवस्थितिमवाप्नुयुर्जीवाः / पल्योपमाचैकस्मिन् सागरोपमे कोटीकोटीदशकमाना इति / व्यवहारेण बहुत्वमपेक्ष्योच्यते यदा-यदर्हन्तो भगवन्त एव वीतरागद्वेषा अपि स्वर्गस्थितिविधायका इति, तदा नात्यतिप्रतीतिमद्भवतीति अचिन्त्यसामर्थ्यताऽप्येषा / न च वाच्यं तर्हि नरकगताऽप्युत्कृष्टा स्थिति| रहत्प्रवचनकाल एवायंत इति भगवतामहतां नरकविधायकताऽपीतरविधायकतावदापयेतेति / भगवताऽर्हता प्राप्यतयाऽभ्युदयहेतोः साध्यतयाऽपवर्गहेतोधर्मस्यादेयतया देशनात्, नरकादिगतीनां यद्यपि महारम्भादीनि कारणान्यादिष्टानि, परं तानि हेयतयाऽऽदिष्टानीति परमात्मानोर्हन्तः स्वर्गापवर्गविधानादचिन्त्यसामर्थ्यगुणत्वाद् वास्तवमेव परमगुणयुक्तत्वं तेषां, विचित्रत्वाद् व्यवहारवाचां | // 172 // NRS W P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दोहे: त्रिलोक्यामाप आगमो / प्रवृत्तेः / केचिदत एव परमेश्वरस्य स्वर्गनरकादिवस्तुनां विधायकत्वं प्रतिपन्नाः, केचित् प्रधानानुयायिनो l पञ्चसूत्रद्धारककृति व्यवहाराः, प्रधानावाचार्यादयो भगवन्तः, ते चाहतां भगवतां स्वर्गापवर्गमार्गदेशकवादिकानात वार्तिकम् हो त श्रित्य गुणान् परकर्तृतामभ्युपगम्य प्रवृत्ता इति, तदनुसारिणः शेषा जना निरुपचार जगत्कर्तृत्वं प्रतिपन्नाः। त्रिलोक्यामपि सकले जन्तुजाते। परमगुणाः परमेष्ठिन एव पश्च / तत्रापि कृतकृत्यत्वमनुभवन्तो द्वय ISI एव भगवन्तोऽर्हन्तः सिद्धाश्चेति युक्तमुक्तम्, 'अचिन्त्यक्तियुक्ता हि ते भगवन्त', इति / यद्यपि कृतकृत्यतया | NI भगवन्तोऽर्हन्तः सिद्धाश्च शरण्यं प्रापिताः, परं भगवदर्हद्वचनेनैव प्रवृत्तांनां सिद्धत्वं, शुद्धस्वरूपाश्च | सिद्धा भगवन्तो ज्ञापिताः ज्ञात्वा केवलेन भगवद्भिरहद्भिरिति भगवतामर्हतां स्वरूपविशेषणायाह| 'अरागाः सर्वज्ञा' इति / यद्यप्यर्हवं भगवचं जिननामोदयनिबन्धनमेव, सं चोदयो भैरतादिषु प्रत्युत्सर्पिण्यवसपिणि चतुर्विशतेरवस्थितकालवत्सु महाविदेहेषु च सदैव विशतेरेव जीवानां भवति, नोनानां चाधिकानाम् / अरागत्वयुक्तं सर्वज्ञत्वं तु असङ्ख्यातानामेव जीवानाम् / अत एव'मणनाणी केवलिणो' इत्यादिना अरागाकितसावश्यवन्तः साधुपदेज चतुःशरणादिषु च पठ्यन्ते / | परं परे तीर्थेशा उद्घोषयन्ति (स्वेषां) स्वच्छन्दतया तीर्थाधिपत्वं, परं न ते दोषैरष्टादशभिरज्ञानादिभिमुक्ता | इति तद्व्यवच्छेदाय, पाक् तृतीयभवादारब्धबन्धस्यापि जिननाम्नः साध्यफलप्राप्तेरुदयः अरागसाझ्ययुते त एव सयो गिनि गुणस्थान इत्येतत् ज्ञापनाय च 'अरागाः सर्वज्ञा' इति गुणद्वयमहतां भगवतामंत्रों ख्यातमिति / अन्यद्वा कारण सुधिया स्वयमूद्धमत्रेति / ते च भगवन्तोऽईन्तः परमकल्याणाः सत्त्वानी, यतः कोऽप्यन्यो न मोक्षमार्गस्य परमार्थेन विज्ञाता, न च प्रवर्तकः भवन्ति चान्ये श्रुत्वाकेव लिनः, अश्रुत्वाकेवलिनः गृहिलिङ्गप्राप्तकेवला अन्यलिङ्गप्राप्तकेवलाः, परं भगवतामर्हतामेव जिनमाम्नः // 1735 | प्राक्ततीयभवनिकाचितस्योदयो, येन त एव तीर्थ प्रवर्तयन्ति, प्रवर्तते च पुरतः पुरतस्तदीयमेव तीर्थमिति / VIP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IS अनेकभवेभ्यों जीवानां परमकल्याणकरणप्रवणाशया एवार्हन्तो. भगवन्त इति न, किन्तु तीर्थदेशनेन भागमो- KI गणभृदादीनां प्रव्राजनादिकरणेन" द्वादशाङ्गीश्रुतस्यात्मानन्तरपरम्परभेदेन 'प्रवर्त्तनेन श्रीचतुर्विधसङ्घमयः IDI पञ्चसूत्रद्वारककृति गणस्यार्पणप्रवर्तनपारम्पर्यादिना'चः सत्त्वानां कल्याणकारिणोऽपि भवन्तीत्याह-'कल्लाणहेऊ सत्ताण- वाकिस मिति / तदेवं 'जावज्जीव मे भगवंतो' 'परमतिलोगणाहे त्यादिना भवितुकामैः ‘कल्लाणहेऊ सत्ताण-' सन्दोहे मित्यन्तेन चतुःशरणगमनादीनि तथाभव्यत्वपरिपाकसाधनानि आचीर्णानि / अथ निगमयन्. शरण५१७४॥ गमनादीनि, स्वस्वरूपं स्पष्टयन्नाह-'मृढे अम्हि पावे'इत्यादि। अवधार्य चात्रेदमवधारणाप्रधानैविज्ञैः KI यदुत-'अत्थि मे आया उववाइए' त्यादेः 'अकुछ चाहं करिस्सं चाह'मित्यादेः समुद्देशाद् अवश्यं / kil धर्मकामैरात्मज्ञानादिपूर्वकमेव जैनेज शासने परानुवृत्ति-विचिकित्सनादिना जातायाः प्रवृत्तेर्निष्फलत्वाH भावेऽपि स्वस्वरूपज्ञानपूर्विकाया एव प्रवृत्तेरात्मज्ञैरुपादेयेत्यविहताऽऽज्ञात्मज्ञानपूर्विकायाः प्रवृत्तेः / | तथाप्रवृत्तेरेव 'तस्स भंते पडिकमामी'त्याधुच्चारणं फलमिति / एवमेवात्मज्ञानपूर्वकं प्रवृत्तत्वादात्मना मश्रिववत्ता संवरहीनता च परिज्ञाता भवति / तत एव च 'से किं तं महन्वयउच्चारणे'त्यादि 'पढमे भंते | महव्वए' इत्यादि च प्रसिद्धतमं प्रश्नोत्थान भवतीत्यलं प्रसङ्गेन। अथ प्रकृते भवितुकामेन l यदात्मन प्रकृतीपयोगि ज्ञातं तदाविष्कुर्वन्नाह-'तं मूढेऽम्ही'त्यादि / मुग्धत्वं चात्र यथावत्तत्त्वाज्ञानरूपं, न 'रत्तो दुट्ठो मूढो' इत्यादिना बोधस्याभाव एवेति प्रतिपादितरूपं श्रोत्रपसदलक्षणरूपम् / यद्यपि जीवोऽयमनादिस्तथापि यथावत्तत्त्वज्ञानशून्यत्वादियन्तमनेहस संसारमटित इति ज्ञात्वोक्तं मूढोऽस्मीति / | अज्ञान खलु कष्ट मित्यादिवचनादज्ञानमात्रेण मूढत्वं स्यात्कदाचिद् / अथवा 'शुभोदाय वैकल्य'. मित्यादिवचनात् अशुभप्रतिषेधकारणीभूतमपि स्यान्मूढत्वमिति, तन्निषेधायाह-पावेत्ति / यद्यपि biluul. IDIIP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो- 11 सूत्रकृताङ्गीयाचाराध्ययने 'अत्थि पुण्णं च पावं चेत्यादिनैकान्तिकी पापवत्ता निषिध्यतेऽसुमता; परंत पञ्चसूत्रद्वारककृतिसा साधूनां देश्यपुरुषापेक्षिका, अत्र तु भवितुकाम आत्मा स्वयमाह-'पाप' अहमस्मीति शेषोऽत्र / वार्तिकम अनादिकालात् मिथ्यात्वादिना निबिडकर्मबन्धोदयकारणेन युक्तत्वाद्युक्तमेव पापरूपत्वमात्मनः। यद्यपि सन्दोहे | लब्ध्यपर्याप्तिकनिगोदान् विहाय न कोऽप्येकान्तपापभाग् जीवः, न च लब्ध्यपर्याप्तकनिगोदत्वं नित्य॥१७५॥ | मिति न स्यात् अशुभकर्मपुद्गलरूपपापेन सर्वदा पापमयत्वमित्याह-'अणाइमोहवासिएत्ति। यद्यपि सर्वेषां कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनामबाधिताऽवस्थोदयादिगना, न च ज्ञानावरणीयादिषु किश्चिदपि | कर्म सादि सादिसान्तं वा, तेषां विकल्पद्वयस्यैवानाद्यनन्तसान्तरूपस्यैव भावाव, परमष्टस्वपि तदेवैकं | मोहकर्म, यस्योदयः सादिसान्तोऽपि भवेत् , अन्यथोपशमश्रेण्यादेरयोगात् , परमत्र वासितशब्देन D. सत्तागतत्वं सूच्यते / सत्तापेक्षया तु मोहोऽपि विकल्पद्वयमेवानाद्यनन्तसान्तरूपमेवोपयाति। अक्षीणमोहा DI सर्वेऽप्यसुमन्तोऽनादिमोहसत्ताका एव भवन्तीति योग्यमुक्तम्-'अनादिमोहवासित' इति / अत्र च पूर्व| पूर्वहेतुता / यतो मूढस्ततः पापः,यतश्च पापः अत एवानादिमोहवासितः। अथानादिमोहवासनातः किं जातमि: 11 त्याह-'अणभिन्ने भावओ हियाहियाण'ति / एकेन्द्रिया अपि जीवस्वभावतया विदन्त्येव सर्वे सुखं हितत्वेन. दुःखं चाहितत्वेन, विकलेन्द्रियाश्च न सुखदुःखे हिताहिततया विदन्ति किन्तु हितानां प्राप्त्यै परिहाराय चाहितानां स्वेषां शरीराश्रयसाधनानां यथायथं पालनादि कुर्वन्ति / पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चोऽपि तथैव शरीराद्यर्थ विशेषेण सन्तानस्वामिकुटुम्बार्थमपि यतन्त एव / देवा अपि सहैव नरैः शरीरार्थ यावद्धनकीर्त्तिद्रव्यसुकृताद्यर्थं च यतमानाः सन्त्येव / नारकास्तु 'अव्यवहारा नेरइये तिवचनाद्विचार्यन्ते / // 17 // एव न, परं सुखदुःखहिताहितप्राप्तिपरिहारार्थितया हिताहितयोरभिज्ञास्तेऽपि सन्त्येव, परं संसारस्य NP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो- द्वारककृतिसन्दोहे. पञ्चमनकिन // 176 // | मार्गोऽहितो हितस्तु मोक्षमार्ग एवेति तात्विके हिताहिते, ते न विदन्त्येव संसारशूकरा जीवाः, तयोस्तथाविधयोहिताहितयोर्यज्ज्ञानं तदेव भावतो हिताहितज्ञानं, तच्च जघन्यतोऽपि भवितुकामानां | कल्याणाशयानां मार्गसाधनयोगवतामेव स्यादिति स्वस्य प्राक भावतो हिताहितयोरनभिज्ञत्वं दर्शितम् / एवम्भूतकालीनं स्वस्वरूपं निन्दमाईमुक्त्वाऽथ प्रार्थनीयं प्रार्थयमान आह-'अवभिन्ने सिमा अहिअनिव्वते सिआ हिअपवत्त सित्ति / एतेन भावतो हिताहितत्वं प्रार्थित / न च जैनं शासनं प्रार्थनामात्रपरायणमितिकृत्वा स्वस्याहितेभ्या निवृत्ति प्रवृत्तिं च हितेषु प्रार्थयति,अन्त्यावर्त्तवर्तिनां यथाभद्रकमिथ्यादृशामपि अहितहितयोः निवृत्तिप्रवृत्तिभावादाह-'आराहगे सित्ति / आजन्माखण्डतया प्रतिपालनं ह्याराधनेतिकृत्वा आह-आराधकः स्यामिति / अवधार्य चात्र धीधनैर्यदुत-आराधको जीवो जघन्यानां ज्ञानदर्शनचारित्राराधनानां फलं 'जन्मभिरष्टयेकै रिति वचनाद्भवाष्टकाभ्यन्तरमेव वृणुते सिद्धिवधूमिति योग्यमेवोक्तं-यदाराधकः स्यामिति / ज्ञानादीनां त्रयाणां जघन्यमध्यमोत्कृष्टानामाराधनानां भावादात्मनश्चाधुना पापप्रतिघात-गुणबीजाधानाभ्यामेव चतुःशरणगमनं कृत्वा पूर्वकालीनानां पापानां गाया विधानात् अईदादीनां भगवतामनुष्ठानानुमोदनेन गुणबहुमानकरणरूपस्य गुणवीजाधानस्य च करणात, भावतो देशविरत्यादेरप्रतिपत्तेश्चात्मनो न्यूनतरावस्था विदपि स्वभूमिकाया औचित्येन प्रवृत्तः सर्वेषां च अपुनर्बन्धकादीनां सत्त्वानां स्वभूमिकाया औचित्येन प्रवर्तनमेव न्याय्यं, अयथाशक्त्यनुष्ठानस्यात्मघातित्वेनानुचितत्वादितिकृत्वा वाह-'उचिअपडिवत्तीए सव्वसत्ताणं स हिअति। यद्वा-'मित्तिं भूएसु कप्पए' ति वचनात् मैत्रीमूलो हि धर्मों जैमानाम् / न यस्मिन् धर्मे 'दुष्टानां शिक्षणं चैवेत्युपदिश्य प्रचारोऽपचारस्य क्रियते / पूर्वकृतधनपापानामेवासुमतामिहः | भवे दुष्टत्वादुःखितत्वाच्च यदीडशः स्यादाऽचारो, मास्थानं बघ्नीयात् क्वापि कृपासुन्दरीति / जैने तु Jun Gui Againau TETH // 17 // M P.AC. Gunratnasuri M.S. MI Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 177 // आगमो शासने 'मा कार्षीकोऽपि पापानी'त्यादिरूपाश्चतस्रो भावना एव सम्यक्त्वमूलं भवितुकामश्च स्वभूमि- Til पञ्चसूत्र- . द्धारककृति-IM | कौचित्येन परैः कृतानां सुकृतानामनुमोदनेनैव तन्मूलमाबध्नातीति त्रिराह-'इच्छामि सुकडं' इति / वार्तिकम् तथाच परकृतानां सुकृतानामनुमोदनं समापयन् त्रिप्रणिधानमिदं करोति 'इच्छामि सुकृत'मिति / सन्दोहे एवं च 'जावज्जीवं मे भगवन्तो' इत्यादितः 'इच्छामि सुकडं'त्यंत प्रणिधानं भवितुकामेन पठितमनूदितं च सूत्रकारैः, परं प्रागेवास्मात् प्रणिधानसूत्रादुपदिष्टं सूत्रकारैर्यदुत प्रणिधानमिदं सङ्केशे भूयोभूयः पठितव्यमसलेशेऽपि त्रिकालमिति / तत्र भूयोभूयः पठनस्य त्रिकालं पठनस्य वा किं फलमिति तत्र न दर्शितमेतत् अधुनैतत्मणिधानसूत्रस्य पाठादौ किं फलमिति पापप्रतिघातगुणवीजाधानाख्यप्रथम- KI | सूत्रस्योपसंहारावसरे दर्शयति 'एयमित्यादि अणुप्पेहियन्य' मित्यन्तं / तत्राधीततत्सूत्रेण पठितव्यमसक्लेशे I DI| त्रिकालं सङ्क्लेशकाले च भूयोभूयः, परं यो न तथाविधक्षयोपशमवान् न चाधीततत्सूत्रस्तेन || श्रोतव्यमितिकृत्वोभयमाह-एवमेतत् सम्यक् पठतोऽन्यस्य शृण्वत इति / अनन्योपयोगस्यैव पठनं श्रवणं I Ki च श्रेयस्करमित्यनन्योपयोगार्थ 'निहाविगहापरिवज्जिएहिं'त्यादिवचनाच्च निद्रादिव्याघातपरिवर्जनपूर्वकमेव KI | पठनं श्रवणं च विधेयमितिविधिदर्शनार्थ च सम्यगित्याह / इदं च पठनं श्रवणं च 'जस्स णं आवस्सए ति | पदं सिक्खितं' यावत् 'धम्मकहाणगो अणुप्पेहाए' त्यनुयोगद्वारवचनानुपेक्षारहितस्य द्रव्यावश्यकव| द् द्रव्यरूपं स्यादिति तस्य पठनस्य श्रवणस्य च भावत्वापादनार्थमाह-'अणुप्पेहमाणस्स'त्ति / ग्रन्थस्य सह तदर्थेनानुचिन्तनमनुप्रेक्षा। तथा चैतस्य प्रणिधानसूत्रस्यार्थमपि सहैव चिन्तयतोऽनुपेक्षायुक्तस्य | भवितुकामस्य किं स्यात्फलमित्याह-'सिढिलीभवंती'त्यादि। अत्र तावत् सम्यक्त्वपराक्रमाख्ये श्रीमदुत्तराध्ययन-IS // 177 // | सत्के एकोनत्रिंशत्तमेऽध्ययने 'सज्ज्ञाएणं भंते' इत्यत आरभ्याप्टादशमाद् द्वाराद् यावद् द्वाविंशतितमे 'अणुपेहाएण P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5178 // SI भंते ! जीवे किं जणेई'त्युपक्रम्य यावत् 'संसारकंतारं खिप्पामेव वीइवयईतिपर्यन्तं यदुक्तं तत्सर्वमवआगमो-KI तारणीय, स्वाध्यायाद्यनुप्रेक्षान्तस्य श्रुतधर्मस्य फलोन्नयनाद् / प्रस्तुतमथ प्रस्तूयते / किं प्रस्तुतं ? पठनादेः पश्चसूत्र। फलमतस्तदेवाह-'सिढिलीभवन्ति परिहायन्ति खिजति असुहकम्माणुबंधा' इति / अत्रेदमवधेयं यदुतद्वारककृति वार्तिकम् A कर्मानुबन्धा द्विविधाः शुभा अशुभाश्च / तत्राशुभा एवं साम्परायिकास्ते चावश्यं क्षेया इति 'सव्वपासन्दोहे | वप्पणासणो' इत्याधुच्यते / शुभास्तु न साम्परायिकाः अधिका अपि चरमभवायुष्कादष्टसामयिक| समुद्घातेन क्षप्यन्ते / यद्यपि बद्धानां कर्मणां शाटो निर्जरे'त्यभिधीयते तथापि तद्भेदा येऽनशनादयस्ते साम्परायिकस्य पापस्यैव क्षपकाः / संवरोऽपि पापानामेव प्राणवधादीनामवरोधेन मन्यते इति प्रस्तुते अशुभकर्मानुबन्धानां शिथिलीभवनाद्याम्नातं / तत्र प्रदेशस्थितिरसादिभिरल्पीभवनं श्लथीभवनं / जैनप्रवचने कर्म द्वेधा-प्रदेशरूप रसरूप च। तत्र प्रदेशकर्म ववश्यमेव भोक्तव्यं, तदपेक्षयैवोच्यते-'कडाण कम्माण ण मोक्खो अत्थि' इत्यादि। रसकर्म तु तपःस्वाध्यायादिभिः क्षयमप्युपयाति, यदपेक्षयोच्यते 'तवसा झोसइत्ते'त्यादि / तदत्र रसकर्मणां यः क्षयः स परिहाणिरिति / यदा च प्रदेशै रसैश्चोभयथाप्यशुभकर्मानुबधा अपयान्ति तदा क्षीयन्ते इत्युच्यन्ते / एवं च प्रस्तुतस्य प्रणिधानसूत्रस्य पाठादेः पाक्षिकं फलमुपपादित, ये कर्मानुबन्धा अनिकाचिता भवन्ति, तद्विषये अपवर्तनादीनां करणानां प्रवृत्तेः स्यादुक्तं फलम् , पर ये निकाचिता अशुभकर्मानुबन्धास्तद्विषये 'अपूर्वकरणातिरिक्तं न किञ्चित् प्रवर्तते, न चापूर्वकरणद्वयादेकतरमपि पठनादिकाले नियतं भवतीति तादृशे निकाचिते अशुभकर्मानुबन्धमधिकृत्य प्रस्तुतप्रणिधानसूत्रस्य पठनादीनां फलमाह-'निरनुबन्धे वे'त्यादि / अनुवन्धशब्दोऽत्र न पूर्ववत् .. सिमान्यबन्धवाचकः किन्तु पारम्पर्यवाचकः तत्रानुरर्थहीनः। अत्र तु सातत्यार्थत्वेन पारम्प र्यार्थः। कर्मणां च विशेषेण स्वभावोऽयं यत् * पारम्पर्यमनुवन्ति, तत एव चानाभोगेनापि RI // 17 // Jun Gun Aaradhak Trust P.AC. Gunratnasuri M.S. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दोहे आगमो- 1 प्रतिसमयं जीवानां योगेन गृहीतानां कर्मणां सप्तधा बन्धः / तत्रापि अशुभानां विशेषेण निकाचिता- पञ्चसूत्रद्वारककृति- नामशुभकर्मणां विशेषेण पारम्पर्य भवति / श्रूयते च मरुभूति-कमठादीनां वैरानुबन्धपारम्पर्यम्, अत आह वातिकम त प्रणिधानसूत्रस्यैतस्य पठनादेरशुभानि निकाचितानि कर्माणि पारम्पर्येण हीनानीति निरनुबन्धानि स्युरिति / वर्तमानान्यपि निकाचितान्यशुभकर्माण्याश्रित्याह-'भग्गसामत्थे'त्ति / ज्ञाननादीनां कर्मणां // 179 // यद्यत् ज्ञानावरोधादिसामर्थ्य तत् सर्व सामर्थ्य पठनाद्येतस्य भनक्ति / कुतः पुनरेवमित्याह'सुहपरिणामेणं'ति / प्राक् तावत् प्राणिधानमत्रस्यैतस्य पठनादेरशुभकर्मणां शिथिलीभवनाद्युक्तं, तत्राप्येतदेवैतज्जन्यः शुभः परिणामः कारणं, पर तत्रार्थगम्य एषः। अत्र तु निकाचितानां सामर्थ्य भङ्गाय विशेषतस्तस्य कारणत्वात् साक्षादुक्तिः। सत्सु कर्मसु विवाधनस्वभावेषु कथं स्याद्भग्नसामर्थ्य मिति दृष्टान्तेन तद् दृढयति कडगबद्धे विव विसे'ति / यद्यपि विषस्य लेशोऽपि प्राणवियोजनस्वभावः, सहस्रवेधिनस्तु तस्य किं हि वाच्यं, परं तादृशमपि विष प्रतियोगेन मन्त्रेण ) IPI वा तथा प्रतिहतसामर्थ्य भवति, यथा यत्र तत्र सक्रान्तं पूर्व तत्रैव तिष्ठति, न तु प्रसरमादधाति / तद्वदत्रादिप्रणिधानसूत्रस्यैतस्य पठनादेरुत्पन्नेन. शुभपरिणामेन निकाचितान्यप्यशुभकर्माणि निरनुबन्धानि कृत्वा भग्नसामर्थ्यानि क्रियन्ते / तत एवाह-'अप्पफले सिआ सुहावणिज्जे सिआ अपुणभावे सिय'त्ति / तदेतनिकाचितमशुभं कर्म निरनुवन्धं भग्नसामर्थ्य च जातं, ततस्तदल्पफलं सुखापने- JAI यमपुनर्भावि च स्यादिति / तदेवं अशुभकर्माण्याश्रित्य प्रस्तुतप्रणिधानसूत्रपाठादेः फलं प्रदाऽथ शुभकर्माश्रित्य तदाह-'तहा आसगलिज्जंती'त्यादि, यावत् 'परमसुहसाहगे सित्ति / यद्यपि 'कृत्स्न-- ID // 179 // | कर्मक्षयो मोक्ष' इत्यादिवचनाद् भवितुकामानामसुमतामशुभकर्मानुबन्धा इव शुभकर्मानुबन्धा हेया एव, परं Ac.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो डारककृति-K सन्दोहे // 18 // अव्यवहारराशेनिर्गमादारभ्य यावदयोगिगुणस्थानं प्राप्यते, तावत् वसत्वादिसम्पादनद्वारा मुक्तिगामुकानां तदेव सहायकर, तत एषां या हेयता साऽयोगिप्रान्त्ये नार्वाक् 'ताणि ठागाणि गच्छन्ती'त्यादि 'देवे | पञ्चसूत्र वावि महि ढिए' इत्यादि से दसंगेऽभिजायई त्यादि चाऽऽगमोक्तमवधारयन् कोऽप्युत्कों भवति A वार्तिकम् | वक्तुं यदुत-पाक समुद्घातात् अयोगाभावाद्वा पुण्यानां क्षेयता, शुभकर्मणां मोक्षसाधने सहकारिभावेऽसाधारण || एव। न ह्येतावति अतीते काले कोऽपि बादत्रसत्वाद्याप्तिमन्तरांपेतो मोक्षमिति / एवं प्रागुक्तयुक्तः | शुभकर्मणां सङ्ग्राह्यत्वात् प्रस्तुतस्य प्रणिधानसूत्रपाठादेः शुभकर्मानुवन्धमाश्रित्याह-'आसकलिज्जति' त त्यादि / तत्र चयोपचयबन्धा आसकलनानि सङ्क्रमणोद्वर्तनादिभिः परिपोषणं अल्पप्रदेशादीनां बहुप्रदे- शादिकरणं निर्माणं / तथा चैतत्प्रणिधानसूत्रपाठादिभिः सकलीकरणादीनी त्रीण्यपि शुभकर्मा नुबन्धानां भवन्तीति / एवमभिनवं शुभानुबन्धमधिकृत्य प्रणिधानसूत्रपाठादेक्त्वा फलं शुभकर्मानुबन्धं जातमधिकृत्य तस्य तदाह-'साणुबंधं च सुहकम्म"ति / यः कश्चित् प्रणिधानसूत्रस्य पाठादिकं करोति / शुभकर्मानुबन्धवांश्च प्राक्तनैः कैश्चिद्हेतुभिः प्रागेव भवति च तस्य तत् शुभानुबन्धं कर्म सानुबन्धं पारम्पर्येण पुण्यानुबन्धयुतं जायते। तथा च 'दया भूतेषु वैराग्य'मित्यादिवद् अनेन पाठादिना पुण्यानुबन्धिपुण्यं स समुपार्जयति, न केवलं पुण्यानुबन्धिपुण्यमनेनार्जयति, किन्त्वर्जितमपि केनचिद्द | यादिना हेतुना, तच्चेत् प्रागेवात्मसाद्भवेत्तदा तत् प्रकृष्टं पुष्टं करोति, पुण्यानुबन्धिपुण्यस्य समुपार्जन, प्रकृष्टभवार्जितं करोति / तथा च कल्पेनिन्द्रत्वादिस्थानप्राप्तिपारम्पर्ययुक्तं यादृशं तद्भवति तादृशमनेन पागदिना करोति पुण्यानुबन्धिपुण्यमिति / अत्र चावधेयमिदं धीधनैः यदुत-जैने शासने शुभमशुभं वा कर्म यथैव बद्धं तथैव भोक्तव्यं न तु किश्चिद्भवत्यपर्वतनादिकरणमिति न नियतं, केषाश्चिदशुभानां कर्मणां // 18 // DEP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो. पञ्चमूत्र | निन्दाभिविनाशभावात् / अन्यथा निर्जरातत्त्वस्यैवाकिश्चित्करत्वात् तद्भवविहितक्रूरतरपापकर्मणां दृढप्रहा. द्धारककृति | वार्तिकम् | रिप्रभृतीनामुद्धाराभावात् / यथैव चाशुभानुबन्धानामपवर्तनादिकरणविषयताऽस्ति तथैव शुभानामपि सन्दोहे- IN कर्मणामस्त्येवापवर्तनादि / श्रूयते च कुवलयप्रभाचार्येण बद्धमपि जिननाम विशकलितम् / करणवि.१८१॥ षयत्वादेव च शुभकर्मणामनुमोदनादिना पोषणोपदेशो युक्तियुक्तो भवति / तथा च प्रस्तुतप्रणिधानसूत्रपाठगदेरपि फलं दिशन्तः ग्रन्थकाराः शुभकर्मणां नियतफलतां दर्शयन्त आहुः-'नियमफलयं सुप्पउत्ते विव महागए'त्ति। सुनिश्चितमिदं यदुत-मणिमन्त्रादीनामिवागदान्यचिन्त्यप्रभावाणि भवन्ति / श्रूयते च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य शिष्यापसदेन गोशालकेन मुक्तया तेजोलेश्यया जाता IST लोहितवर्षोबाधा षण्मास्यापि प्राक् अगदेन शान्ता। भिषक्पुत्रकेशवप्रभृतिश्च तथाविधेनौषधेनैव मुनिः / | पटुः कृतः / चारिसञ्जीवनीचारप्रभावोऽपि औषधानामेवाचिन्त्यमहिमानं व्यनक्ति। तत्रापि महागद | मूलतः स्यात्. वैद्यातुरयोश्च कुशलतमत्वाद्यदि तत् सुप्रयुक्तं स्यात्, तदा तस्यागदस्य नियमेनारोग्यं | फलं भवति, तद्वदिदमपि प्रणिधानस्य पठनादि नियमफलदमेवास्तीत्यवश्यं विधेयं भव्यैस्तदिति / / सम्प्रति सूत्रकारः प्रस्तुतं पापप्रतिघातगुणबीजाधानरूपं सूत्रमुपसंहरबाह-'सुहफले'त्यादितः 'अणुपेहियवं' त्यन्तम् / तत्र शुभफलः सुखफलो वा श्रीशान्तिनाथादीनामिव, सुखप्रवर्तकः शुभपर्वतको वा भगवतः श्रीऋषभदेवादेरिव, परमसुखसाधकः परमशुभसाधको वा श्रीशालिभद्रादीनामिव प्रस्तुतसूत्रस्य पठनादिका प्रयतो नरो भवतीति वाक्येन सूत्रकाराः फलमुपसंहारावसरे ज्ञापयन्ति / अथ शासने ज्ञानादीन्य भिमानादिभिर्दानादीनि कीर्तनादिभिः प्रतिबन्धैः सहितानि सन्ति, तत्फलमभिहन्यते च तैः। एत- D // 18 // ञ्चाशकटपित्राद्याख्यानकेषु प्रसिद्धमेव / यच्चैकं वैयावृत्यं 'वेयावचं किल अपडिवाई ति वचनादप्रतिNO P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhakrust Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो- बारमा सन्दोहे वा वार्तिकम् 5182 // | पातितया, तदपि तजन्यस्य सातवेदनीयफलस्यैवाप्रतिपातितया, न तु स्वरूपे। परमिद II प्रणिधानसूत्रपठनादि तु स्वरूपेणैवाप्रतिपातीति दर्शयन्तः प्रस्तुतस्य प्रणिधानसूत्रस्य |jil पञ्चसूत्र पठनादेरुपदेशायाहुः-'अप्पडिबंधमेय'ति / नात्र किश्चिदपि तादृशं विद्यते जगति, सुप्रणिधानमेतत् | | प्रतिबधीयात् / तथा, चाऽप्रतिहतसामर्थ्यमेतत्प्रणिधानसूत्रपाठादेरुद्भूतं सुप्रणिधानमिति / किञ्च-यद्यपि | जैने शासने पुण्यस्य पापस्य च स्वतन्त्रतया सत्तेष्यते, तेन पुण्येन पापमितरद्वेतरेण प्रतिहन्यते इति नाभिमन्यते। दृश्यते चान्धनृपपुत्रादिषूभयमपि वेद्यते इति / पर अशुभभावाः शुभभावेनावश्यं निरुध्यन्ते, IN आश्रवबन्धाध्यवसायानां संवरनिर्जराध्यवसायनिरोधस्यागमसिद्धत्वादत आहुः-'असुहभावनिराहेणं सुहभावबी' ति 'सुप्पणिहाणं सम्मं पढियव्वं सायव्वं अणुप्पेहेयव्वं'ति / 'शुभोदर्काय वैकल्यमपि पापेषु कर्मसु'इत्यादिवचनात् चौर्यायध्यवसायानामप्रतिहतानामपि निद्रादिभिः प्रतिघातस्य दर्शनात् नात्रैवम् / अत्र तु प्रस्तुत- 4 प्रणिधानसूत्रपाठादिगतेनाध्यवसायेन विषयादिगताशुभाध्यवसायानां निरोधो भवति / तथैव गताश्रवाणामेव मंवरप्रवृत्तिवद् गताशुभाध्यवसायानामेतत्पठनादि विदधाति निरोधं, तेनैव चैतत् शुभभावबीजं नियमेनेति स्पष्टयन्ति / एवमुपदय सर्व स्पष्टमादेशयन्ति सूत्रकाराः-'पठितव्य'मित्यादि / 'इरियासमिए सया जए'इत्यादिवद् विधानाय विधीनामुपदेशः 'नियट्टिज्ज जय जईत्यादिवच्च हेयानां हानायोपदेशः शास्त्रकृतां सदा प्रवर्तत इति कृत्वाऽऽज्ञाभियोगाद्याशङ्का कार्या प्रत्यपाये शास्त्रकर्ता न शिक्षायै तोशायवा [य ता] यतन्ते भाविनां प्रत्यपायानामपि अवश्यफलतयैव दर्शनात् स्वयं तद्विधानोद्यता नेति आज्ञाबलाभियोगशङ्काऽपि नात्रेति / किमाज्ञापयन्ति सूत्रकारा? इति चेत् / प्रणिधानसूत्रमेतत् ? सुप्रणिधानमेवेतिहेतोः पठितव्यं श्रोतव्यमनुप्रेक्षयितव्यं चेति / एवं चार्थदेशकत्वं यदाचार्याणां शासने गीयते P.AC. Gunratnasuri M.S. // 18 // Jun Gun Aaradhak Trust Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो- | तदेतदाज्ञादानसूत्रेण सत्यापितमाचार्यैरिति / पठनादयश्च प्राविवृता एवेति न विवियन्ते। अत्र च / पञ्चसूत्रद्वारककृति- प्रणिधानसूत्रं समाप्यते इति दर्शनाय सूत्रकारैः इतिशब्दोऽन्ते धृत इति / एवं भवितुकामानां पाठथं वार्तिकम सन्दोहे प्रणिधानसूत्रं समाप्य स्वयमारब्धेषु पञ्चसु सुत्रेषु / सूत्रस्याधस्य 'नमो वीयरागाण'मित्यत आरब्धस्य | ID नामज्ञापनपुरस्सरमुपसंहारमाहुः सूत्रकाराः-'नमो नमिअनमिआण'मित्यादि यावत् 'समत्त'मिति / 'देवावि तं // 183 // Kil णमंसंति जस्स धम्मे सया मणो'त्तिवचनाद् सर्वेऽपि धर्मपरायणा देवैर्नम्यन्ते / किश्च-श्रीव्याख्या प्रज्ञप्त्युक्तसनत्कुमारादीन्द्रादीनां सर्वदाऽस्त्येव श्रमणानां निर्ग्रन्थानां समाराधना, ततश्च देवादिभिर्नम्या ये गणधरादयो निर्ग्रन्थास्तै ताः परमवीतरागा इति तेषामहंतां नतनतत्वम् / किश्च-'तस्मादर्हति पूजामहन्नेISI वोत्तमोत्तमो लोके। देवर्षिनरेन्द्रेभ्यः पूज्येभ्योऽप्यन्यसत्त्वाना मिति तत्त्वार्थभाष्यकारोक्तोत्तमोत्तमकोटीपुरुषत्वा दप्यर्हन्तो भगवन्तो नतनता इति तेभ्यो नम इति / यद्यपि वीतरागशब्देन बन्धोदयसत्तागतस्याभावः ख्याप्यते . तथापि भगवतामर्हतामेव तथाभूतानां ग्रहणमिति परमवीतरागेभ्य इत्याहु / एवं चाहतो - नमस्कृत्य शेषनमस्कार्यनमस्कारार्थमाहुः-'नमो सेसनमुक्कारारिहाणं'ति / अनेन च पदेन सर्वेऽपि / सिद्धाचार्योपाध्यायमुनिरूपा नमस्कार्या अखिलशासनस्य, ते आक्षिप्ताः / नहि जैने शासने कश्चिदपि।। परमेष्ठी नमस्कारानई इति योग्यमुक्तं-'नमः शेषनमस्कारार्हेभ्य' इति / एवं पूज्याराध्यानशेषान्नमस्कारेणा राध्याऽऽशंस्यमाहुः-'जयउ सव्वण्णुसासणं'ति / अत्रावधेयमिदं यदुत-नवपद्यां सिद्धचक्रयन्त्रे च यानि | IM नवपदानि ख्यातानि, आद्यानि तेषु पश्चाराध्यपूज्यतोभयपदेोपेतानि, परं सम्यग्दर्शनादीनि तु चत्वारि गुणरूप त्वादाराध्यान्येव / अत एव पूज्याराध्योभयधर्मोपेतन्वात् पञ्चपरमेष्ठि नमस्कारादि परं यानि सम्यग्दर्शनादीनि चत्वा राध्यानि पदानि,तान्येव जैनशासनं। उभयावधारणं चात्रापि-यद् नान्यत् सम्यग्दर्शनादिभ्यो जैन सर्वज्ञोद्भावित | शासनं, न च तादृशं शासनं व्यतिरिच्य सम्यग्दर्शनादीनि / ततः-'सुष्टुक्त जयतु सर्वज्ञशासन'मिति HP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PARENTS: पञ्चसूत्र 'धम्मो वड्ढउ सासओ. विजया' इत्यादिवत् जयाशीर्वादस्य प्रशस्यताऽऽवश्यकता चेति / असम्भव्यापि आगमोः / H यथा जिनेश्वरैर्वरबोधित आरभ्य परार्थोद्यनत्वादशेषजगदुद्धारकरणमभिधार्यते / अभावेऽपि तस्याभिमतस्य H 12 जगदुद्धारफलस्य तदभिधारण तेन तु तीर्थकरत्वं समज्यते निकाच्यते चेति / प्रस्तुतसूत्रकारा , अपि / डारककृति 2. प्रस्तुतापयांग्येवाभिप्रेतमाहुः परमसंबोहीए सृहिणो भवंतु जीवा सुहिणो भवंतु जीवा सुहिणी भवंतु त वार्मिकम। सन्दोहे: I जीवा'इति / परमसम्बोधिश्च प्रागुक्तवरबोधिलाभरूपोऽन्यो वा ज्ञेयः, सुखमावस्योभयत्राप्यव्याहतत्त्वात् / / // 18 // भवन्विनि आशंसापयोगश्च स्वेषां तथाविधवरलाभशून्यत्वाद् अन्यतो वाऽऽगमबोधबोध्यात या कारणादिति / एवमुक्त्वा निगमयन्ति प्रस्तुतं-'इति पावडिघायगुणबीजाहाणसुत्तं समत्त मिति / अध्येतॄणां प्रस्तुतसूत्रस्य सिद्धपूर्वमेव यदुत-अत्र सूत्रे गोकरणेन पापानां प्रतिघातः, भगवतामहदादीनां गुणानामनुसादनेन च गुणबीजाधानमिति यथावत्तया साधितमेवास्तीति योग्यवाभिधा सूत्रस्येति / / इत्येवं मुचिरन्तनागमघराचार्योद्धृतं शुद्धये, पापानां गुणमूलवृद्धिविधये चान्मोद्धराणां विदे। यत्पापप्रतिघातसंयुतगुणसन्दोहसम्भूतये तस्येदं सुकुमारबुद्धिसुगम दृब्ध मया वार्तिकम् // 1 // दृब्धा यस्य च वृत्तिरातभणिति-प्रोतबोधः किल ,सूरीशहरिभद्रनामसुभग नागमैकाद्धरैः। / सा विज्ञावलिवेद्यतत्त्वसुभगायेदयुगीनर्जनस्तादृम्बुद्धिवियोगतोऽवगमितुं नैव क्षमा संविदे // 1 // बाणशून्ययुगलाङ्कितवर्षे मार्गशीर्ष सितपक्षगतायां / विक्रमभूपकृते विहितैषाऽजन्देनाद्यतिथौ गुणवृद्धथै // 11 // इति श्रीआगमोद्धारक-आचार्यप्रवरश्री-प्रानन्दसागरसूरिपुरन्दरैः संहब्धं / पञ्चरत्रवातिक समातम्। More 0 0 2 OPALNO