________________ शतकम् सन्दोहो गनारूप-वेषादिरचनाप्रथाम् // 13 // दोषप्रसक्तेश्वेनैतत्तदा मिथ्यादृशां किमु / प्रशंसनं सुखाधायि, I बागमोजायेताऽऽर्हतधर्मिणाम् ? // 14 // महिमाज ततो दोष-गुणयोः ख्यापितो बुधैः। शत्रुग्रहान दुष्टाः स्यु गुणग्रहणशारककृति गुणा अन्यक्रियादिवत् // 15 // गुरुपहात्सम विश्वे, पावनं विबुधैर्मतं / न गृहीताः परं दोषा-स्तैः स्युः / पावित्र्यभाजनम् // 16 // किश्चाऽन्येषामपीष्टा ना-वहेला शास्त्रवेदिभिः। किं स्याद् गुरूणां सा युक्ता ?, प्रोच्यमानाऽनघागमे // 17 // तत्त्वतस्तत्र सूर्युक्तिमा॑ह्या वाच्यात्मिका द्वयी / गुणानां ग्राह्यतामाख्यद्दोषाणां निन्द्यतां पुनः // 18 // न दोषनिन्दनेऽवर्णोऽवर्णों व्यक्तिनिदर्शने / निंदा सर्वत्र दोषाणां, गुणिनां तेन शंसना // 19 // दोषनिन्दाङ्गिनां कुर्या-दोषहानि ततो जिनैः। विपाकापायविचयौ, धर्मध्यानतया RI मतौ // 20 // मोक्षहेतुरिंदं धर्म-ध्यानं वाचकसम्मतं / ' मोक्षहेतू ' यतः सूत्र, तत्त्वार्थे ते जगुः शुचि // 21 // अन्यत्र नाकहेतत्व-मस्य यत्कीर्तितं श्रुते / तत्फलं तदनाहत्य, परं शक्तं न चान्यथा / // 22 // ज्ञानादयोऽपि मोक्षार्था, एवं स्वर्गनिमित्ततां / यान्ति चेत्क्षायिकं भावं, प्रादुष्कुर्युन जीविते / // 23 // तथा च मुनिना नित्यं, निन्द्या दोषाः प्रयत्नतः / येन पापे न वृत्तिः स्यात् , स्यादेव दुरि-14 तक्षितिः // 24 // दुष्टानां निन्दने ताव-यदि सत्या न दुष्टता / तदाऽलीककलङ्केन, स्याद्भवान्तरबम्भ्रमिः / // 25 // सत्यानामपि निन्दायां, को गुणोऽभिमतः सता। पराभवः परेषां चेत् , स ते भावी भवे भवे II // 26 // परेषां परिवादात्, पराभवादात्मशंसनादेश्व / बध्नाति कर्म तद्येन, नाप्नुयादुचमिह गोत्रम् // 27 // अन्यच्च दोषनिन्दा वितरति गुणवृन्दमात्मनो विमलं / द्वेषं वैरं क्लेशं दुष्टजुगुप्सा ध्रुवं तनुते // 28 // HI // 28 // अध्यक्षा इतरेऽपि च द्विविधा दुष्टास्तदादिमा नैवं / बुध्येयुः प्रत्युत, पातो ग्रहश्च दोषेषु स्यात्तेषाम् | // 29 // इतरे द्विविधा दुष्टाः, सान्वया अन्यथा न तत्राद्याः। ज्ञानादियोग्या न चेत्तथोक्त्या तदा Jun Gun Aaradhak Trus N IMPP.AC.Gunratnasuri M.S.