________________ // 11 // आगमो- रादिव्यत्ययेन, मासकल्पं ध्रुवं चरेत् // 8 // अत्र खरतराः प्राहु-युच्छिन्ना मासकल्पगा। मर्यादेति यतो भाष्ये, मासकल्प. द्वारककृति पञ्चकल्पे स्फुटं वचः // 9 // मासकल्पार्हक्षेत्राणा-मभावो दुषमारके / इति तनहि मर्यादा, मासकल्प- BI गताऽधुना // 10 // हरिभद्रसरिश्चाह,स्पष्टं श्रीपञ्चवस्तुके / मासकल्पाविहारस्याऽऽचीर्णत्वं तद्धधः श्रयेत् // 11 // सन्दोहे जिनदत्ताभिधानस्यौष्ट्रिकस्यैतन्मतं ननु / शासनं संश्रितास्त्वाहु-र्मुनयो वच ईदृशम् // 12 // स्त्रीणां यथा ! जिनार्चाया, निषेधस्तेन सूत्रितः। यथाच्छन्दतया तद्वन्मासकल्पस्य नास्तिता // 13 // वर्षाकल्पाईक्षेत्राणां, IN गुणाः कौतस्कुतोऽधुना / सम्भवेयुर्न चेन् मास-कल्पार्हस्याप्यसम्भव' // 14 // वस्तुतस्तु यथा पूर्व, in दुषमासुषमादिके.। प्राचुर्य तादृशां तद्वन्नाधुनेति विभाव्यताम् // 15 // क्षेत्रस्यान्वेषणापूर्व, यथा प्राग- HI मासकल्पिता / नियता, न तथेदानी, कल्पस्यासम्भवो नहि // 16 // कथं भाष्ये पञ्चकल्पे, मासस्यातिक्रमेण तु / प्रायश्चित्तं समादेशि 1, चूर्णौ तस्यापि तत्तथा // 17 // निशीथभाष्यचूादावप्येतदस्य KI नोदितम् / आयेऽङ्गेऽपि तथा पञ्चवस्तुके दिष्टलङ्घने // 18 // मासकल्पाविहारस्या-चख्यौ श्रीहरिभद्रराट् / IN आचीर्णतां किन्तु कैश्चिदकृते नास्त्यभाव्यता // 19 // किमन्यथोदितं पश्च-वस्तुके शमिनां पुनः / / मासकल्पं विहायान्यो, न विहारो जिनागमे // 20 // प्रव्रज्यायामुपेतायां, मासकल्पादिना मुनिः।। | नियमाद्विहरेदित्थं, हरिभद्रप्रभुजंगौ // 21 // एकेनाऽऽचीर्णमन्यैस्तत्स्वीकार्यमिति चोदिते / कथं व्युच्छेदधी-H | मसि-कल्पस्योच्छिदि सर्वथा // 22 // वस्तुतस्तु यथा पूर्व, नियमात् मासावस्थितिः। तथाऽधुना न. | यत्कार्ये, न्यूनाधिक्ये स्त आहिते // 23 // तथा च न्यूनताऽऽचीर्णा, स्यान्न चैवं व्यवच्छिदा / समस्तं युक्त- | DI मेवं स्या-द्विचार्य धीधनैरिति // 24 // कल्याणकानां षट्कं, निषेधो जिनपूजने। स्त्रीणां छेदो मासकल्पे, ISner . श्राद्धस्य प्रतिमासु च // 25 // इत्याधुत्सूत्रवाक्योत्का, गच्छे खरतरे भवाः। जिनदत्तादयस्तेषां, Thi HAPP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust