________________ आगमो द्वारककृति दानधर्मः सन्दोहे | स्वपरोपकृत्स्वोपकारि उपभोग उच्छिच्च // 33 // आद्य द्वयं न येषां फलभूतं तैरवाप्यमन्त्यं हि / आत्तं तदर्थमेनो भुञ्जत आता निरयभावम् // 34 // अभिलष्यन्ति समे पि च सौख्यं दुःखेन वर्जितमनन्तम् / ईप्सापेतं तत्परमृतेऽव्ययं न भुवि कुत्रापि // 35 // तन्न विरहय्य चरणं सत्यपि युगले विबोधदर्शनयोः। चरणार्हो न च सममः का वार्ता बाह्यलुब्धस्य // 36 // कायविरुद्धास्तस्मिन् ये धर्मास्तान्निवुध्य मोक्षरुचिः। कुर्याद्वापं क्षेत्रे शाश्वत्पददायके शुद्धे // 37 // यत्नलभ्यो बहिवर्ती,कल्लोलालीव चञ्चलः। व्यतिरिच्य मनोभावं,न काचित्तेन संयुतिः // 38 // अत एव पुरा प्राहुरभियुक्ता जिनागमे / शीलादेः प्राक्तनं दानं, तद्वतोऽन्यत्त्रयं यतः // 39 // कृपणः श्रुणुयाद्धर्म, न तं रोचयते श्रुतं / न-विधत्ते मतश्चेत्स्याद् , विदधन्नोत्सहेत च // 40 // वितन्यमानमपरै दृष्ट्वा द्युम्नस्य स व्ययं / शिरोरुजाक्रमं प्राप्य, सादयत्यङ्गसंस्क्रियाम् // 41 // शृण्वानोऽसौ परैश्चीर्ण, दान भोगं व्ययं शुचिं / श्रद्दधीत न यत्स्वस्याकृतिः काचेऽपि निर्मले // 42 // उपदिष्टे दधीतासौ, क्रुधं दानादि सद्विधौ। आलोचते यतोऽसौ द्राग्मोमोषिषति मामयम् / / 43 // कथान्तरेऽपि प्रकृते, शङ्कां नोज्झति तन्मनः। दग्धो दुग्धेन तक्रं किं, न फूत्कृत्य पिबेच्छिशुः ? // 44 // नाप्नोत्यसौ समं भावं, न बोधं न चरित्रितां / स्वमेऽपि नेक्षतेऽसौ यद्धर्म द्रव्यावबद्धहत् // 45 // वितन्वानो जिनेन्द्रााँ , क्षणं वा समहर्दिकं / प्रतिष्ठा वा | सुनिष्ठाङ्गा, नासौ लुब्धो विमन्यते // 46 // नाऽस्यान्तःकरणे धर्मः, स्फुरेत्स्वर्गापवर्गदः। पौद्गलिकं यतो लाभ, पुरस्कुर्यात्स पापधीः // 47 // शुभायतिर्न संस्कारो, जायेतास्य तु मानसे / न भावना शुभा चेत्स्वा, कथं सा च तथाविधे // 48 // अभव्या आप्तचारित्रा, नापुर्यत्पदमव्ययं / कारणं नापरं तत्र, विना पौद्गलिकेच्छया // 49 // घातिकर्मक्षयो धर्मः, क्रमवृद्धः श्रुतेरितः / निर्वाणान्तफलोनेता, नित्यं चेयो मुमुक्षुभिः // 50 // अत एवोदितं सम्यगार्षे बोधिर्विवुध्यते / प्रत्याख्यानाद्वधद्रव्ययुग्मस्य ध्रुवसौख्यदः ॥५१॥तनालोच्य व्ययं कुर्या M P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust