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ज्योतिर्धर आचार्य : संक्षिप्त जीवन-रेखा | ३
अधिकारी जैनधर्म का अहिंसाव्रती मुनि कैसे बन गया ? इससे जनता पर जैनधर्म के त्याग एवं वैराग्य की गहरी छाप पड़ी । वास्तव में देखा जाय तो जैनधर्म तो वीरों का ही धर्म है।
आचार्य श्री भूधरजी म. सा. के शिष्यों में कुछ शिष्य बड़े ही मेधावी, तेजस्वी और चारित्रसम्पन्न थे। पू. श्री रघुनाथजी म. पू. श्री जयमल्लजी म. सा. तथा पू. श्री कुशलोजी म. सा. आदि के नाम जैन जगत में श्रद्धा और गौरव के साथ स्मरण किए जाते हैं। वस्तुतः अठारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध एवं उन्नीसवीं शताब्दी का आदिकाल स्थानकवासी परम्परा का उत्कर्ष काल कहा जा सकता है। इस समय में प्रभावशाली प्राचार्य और प्रतिभासम्पन्न संतों का उदय हुआ है। पू. आचार्य श्री जयमल्लजी म. सा. एवं उनके उत्तरवर्ती प्राचार्यों की संक्षिप्त जीवन रेखा ही हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं । इसका मूल कारण यह है कि इन प्राचार्यों का परिचय अनेक ग्रंथों में प्रकाशित हो चुका है। वह सब वैसा का वैसा ही देकर पुनरावृत्ति ही करना है । अस्तु वैसा करना उचित नहीं लगता। प्राणवान व्यक्तित्व : पूज्य श्री जयमल्लजी
जन्मतिथि–भादवा सुदी त्रयोदशी, वि. सं. १७६५ माता-श्रीमती महिमादेवी पिता-श्री मोहनलालजी मेहता (समदड़िया) जन्मस्थान-ग्राम लांबिया, विवाह-सं. १७८७ पत्नी-श्रीमती लक्ष्मीदेवी वैराग्य का कारण-मेड़ता में पू. प्रा. श्री भूधरजी म. सा. का प्रवचन सुनकर
वैराग्य उत्पन्न हुआ। दीक्षा-मृगसर कृष्णा द्वितीया, सं. १७८७ दीक्षास्थान-मेड़ता दीक्षागुरु-पू. प्राचार्यश्री भूधरजी म. सा. प्राचार्य पद- सं० १८०५, अक्षय तृतीया स्वर्गवास--वैशाख शुक्ला चतुर्दशी (नृसिंह चौदस), सं. १८५३ स्वर्गवासस्थान-नागौर
विशेषताएँ-कुशल प्रवचनकार एवं धर्मप्रचारक, कठोर तपस्वी, प्रखर स्मरण‘शक्ति के धनी, संकल्प में वज्र के समान कठोर एवं उच्चकोटि के साहित्यकार,
आपके द्वारा रचित ७०-७५ ग्रंथ उपलब्ध हैं। आपके ५१ शिष्य बताये जाते हैं। विवरण नहीं मिलता।
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