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द्वितीय खण्ड / १०८
पाकर स्वयं उबुद्ध हो जाते हैं, व्यक्ति योग-साधना में सहज रस की अनुभूति करने लगता है। जो योगी अपने पिछले जन्म में अपनी योग-साधना सम्पूर्ण नहीं कर पाते, बीच में ही आयुष्य पूरा कर जाते हैं, आगे वे उन संस्कारों के साथ जन्म लेते हैं । अतएव उनमें स्वयं योग-चेतना जागरित हो जाती है। कुलयोगी शब्द यहाँ कुल-परम्परा या वंश-परम्परा के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है। क्योंकि योगियों का वैसा कोई कुल या वंश वहीं होता पर महासतीजी के साथ इस शब्द से नहीं निकलने वाला यह तथ्य भी घटित हो जाता है, ऐसा एक विचित्र संयोग उनके साथ है। महासतीजी के पूज्य पितृचरण भी एक संस्कारनिष्ठ योगी थे। घर में रहते हुए भी वे आसक्ति और वासना से ऊपर उठकर साधनारत रहते थे। यों आनुवंशिक या पैतृकदृष्टि से भी महासतीजी को योग प्राप्त रहा। इस प्रकार कुलयोगी का प्रायः अन्यत्र अघटमान अर्थ भी पूजनीया महासतीजी के जीवन में सर्वथा घटित होता है। ऐसे व्यक्तित्व के संदर्शन तथा सान्निध्य से सत्त्वोन्मुख अन्तःप्रेरणा जागरित हो, यह स्वाभाविक ही है। न यह अतिरंजन है और न प्रशस्ति ही, जब भी मैं महासतीजी के दर्शन करता हूं, कुछ ऐसा अध्यात्म-संपृक्त पवित्र वात्सल्य प्राप्त करता हूं, जिससे मुझे अपने जीवन की रिक्तता में आपूर्ति का अनुभव होता है। मैं इसे अपना पुण्योदय ही मानता हूं कि मुझे इस साहित्यिक कार्य के निमित्त से समादरणीया महासतीजी का इतना नैकट्य प्राप्त हो सका।
महासतीजी के जीवन के सम्बन्ध में गहराई से परिशीलन कर जैसा मैंने पाया, निश्चय ही वह पवित्र उत्क्रान्तिमय जीवन रहा है । एक सम्पन्न, सम्भ्रान्त परिवार में उन्होंने जन्म पाया। केवल वे सात दिन की थीं, तभी मातृवियोग हो गया। देवदुर्लभ मातृ-वात्सल्य से विधि ने उन्हें सदा के लिए वंचित कर दिया। पिता की स्नेहमयी गोद में उनका लालन-पालन हुआ । मातृत्व एवं पितत्व के दुहरे स्नेह का केन्द्र केवल उनके पितृचरण थे, जिन्होंने अपने अन्तरतम की स्निग्धता से उसे फलवत्ता देने में कोई कसर नहीं रखी। पिता की छत्रछाया में परिपोषण, संवर्धन प्राप्त करते हए ज्यों ही उन्होंने अपना ग्यारहवाँ वर्ष पूरा कर बारहवें में प्रवेश किया, केवल थोड़े से समय में बाद (साढ़े ग्यारह वर्ष की अवस्था में) वे परिणय-सूत्र में आबद्ध कर दी गईं। विधि की कैसी विडम्बना थी, अभी गौना भी नहीं हो पाया था, मात्र दो वर्ष बाद उनके पतिदेव दिवंगत हो गये। वह एक ऐसा भीषण दुःसह वज्रपात था, जिसकी कोई कल्पना तक नहीं की जा सकती। पर विधि-विधान के आगे किसका क्या वश ! फूल सी कोमल बालिका यह समझ तक न सकी, क्या से क्या हो गया । सारे परिवार में अपरिसीम शोक व्याप्त हो गया। हिमाद्रि जैसे सुदढ़ एवं सबल हृदय के धनी पिता भी सहसा विचलित से हो गये।
यह वर स्थिति थी. जिसमें जीवन भर रोने-बिलखने के अतिरिक्त और कछ बाकी रह नहीं पाता । पर यह सामान्य जनों की बात है। महासतीजी तो विपुल सत्त्वसंभृत संस्कारवत्ता के साथ जन्मी थीं, उनके चिन्तन ने एक नया मोड़ लिया, जो उन जैसी बोधि-निष्पन्न आत्माओं को लेना ही होता है । उन्होंने अपने जीवन की दिशा ही बदल दी । उनके मन में निर्वेद का जो बीज सुषुप्तावस्था में था,
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