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चतुर्थ खण्ड / ८४
अपनाचन
वस्तु तो अनन्तधर्मात्मक है, अतः उनका कथन करने वाले शब्द भी अनन्त होंगे। फिर भी उन सब कथनों का समाहार स्यादस्ति आदि उक्त सप्तभंगी में हो जाता है।'
इस प्रकार स्यादवाद संकुचित एवं अनुदार दृष्टि को विशाल बनाता है। यह विशालता, उदारता ही पारस्परिक सौहार्द, सहयोग, सदभावना एवं समन्वय का मूल प्राण है। प्राज के युग में तो इसकी और भी अधिक आवश्यकता है। समानता और सहअस्तित्व का सिद्धान्त स्याद्वाद को स्वीकार किये बिना फलित नहीं हो सकता है। उदारता और सहयोग की भावना तभी बलवती बनेगी जब हमारा चिन्तन कथन अनेकान्तवादी होगा। सत्य के मार्ग पर प्राया हुअा व्यक्ति हठी नहीं होता है बल्कि स्याद्वादी होता है। जब तक विश्व अनेकांत दृष्टिस्याद्वाद को स्वीकार नहीं करेगा तब तक संसार में शान्ति होना संभव नहीं है। विश्व को अपने विकास के लिए स्याद्वाद का शाश्वत सरल मार्ग स्वीकार करना आवश्यक है। वास्तव में यही विश्वमंगल की आद्य इकाई है । यही स्यादवाद की लोकमंगलदृष्टि है।
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१. पुच्छावसेण भंगा सत्तेव दु संभवदि जस्स जया।
वत्थत्ति तं पउच्चदि सामण्णविसेसदो नियदं।
-तत्त्वार्थराजवार्तिक
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