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स्यादवाद की लोकमंगल दृष्टि एवं कथनशैली |८३
'रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है, स्यात् आत्मा नहीं, स्यात् प्रवक्तव्य ! ' स्व की अपेक्षा अस्तित्व है, पर की अपेक्षा अस्तित्व नहीं है, युगपत्-दोनों की अपेक्षा प्रवक्तव्य है। इन तीनों विकल्पों के संयोग से शेष चार विकल्प बनते हैं। उनमें से स्यात्-अस्ति-नास्ति, स्यादस्तिप्रवक्तव्य और स्यात-नास्ति-प्रवक्तव्य यह तीन द्विसंयोगी तथा स्यादस्ति-नास्ति-अवक्तव्य यह एक त्रिसंयोगी भंग है।
सप्तभंगों के समूह को सप्तभंगी कहते हैं। उनकी निर्माण प्रक्रिया का मुख्य आधार यह है-प्रश्नकर्ता द्वारा प्रश्न उपस्थित किये जाने पर उत्तरदाता एक वस्तु में परस्पर अविरुद्ध नाना धर्मों का निश्चय कराने के लिए विवक्षापूर्वक वाक्य का प्रयोग करता है और इस वाक्यप्रयोग के लिए शर्त यह है कि एक ही वस्तु में जो सत् और असत् प्रादि धर्मों की कल्पना को जाती है वह प्रमाण से अविरुद्ध हो।४
सप्तभंगों के लक्षण इस प्रकार हैं
(१) स्यात्-अस्ति-यह अन्य धर्मों का निषेध न करते हुए विधि-विषयक बोध उत्पन्न करनेवाला वचन होता है । जैसे--कथंचित् यह घट है।
(२) स्यात-नास्ति-धर्मान्तर का निषेध न करते हुए निषेधविषयक बोधजनक कथन को स्यात्-नास्ति कहते हैं। जैसे-कथंचित् घट नहीं है।
(३) स्यात-अस्ति-नास्ति—यह एक धर्मी में क्रम से प्रायोजित विधि प्रतिषेध विशेषण का जनक वाक्य होता है । जैसे---किसी अपेक्षा से घट है और किसी अपेक्षा से नहीं है।
(४) स्यात्-प्रवक्तव्य-निर्दिष्ट परिगृहीत स्व-रूप तथा अविवक्षित पर-रूप प्रादि की विवक्षा करने पर अवक्तव्य विशेषण वाले बोध का जनक वाक्य । जैसे-घट का कथंचित वचन के द्वारा कथन नहीं किया जा सकता है।
(५) स्यात-अस्ति-प्रवक्तव्य-धर्मी विशेष्य में सत्वसहित प्रवक्तव्य विशेषण वाले ज्ञान का जनक वाक्य । जैसे-कथंचित घट है किन्तु उसका कथन नहीं किया जा सकता है।
(६) स्यात्-नास्ति-प्रवक्तव्य-धर्मी विशेष्य में असत्व सहित प्रवक्तव्य विशेषण वाले ज्ञान का जनक वाक्य जैसे-कथंचित् घट नहीं है और प्रवक्तव्य है।
(७) स्यात्-अस्ति-नास्ति-प्रवक्तव्य-एक धर्मी में सत्व-असत्व सहित प्रवक्तव्य विशेषण वाले ज्ञान का जनक वाक्य । जैसे-कथंचित् है, नहीं है, इस रूप से घट अवक्तव्य है।
१. भगवती १२।१० . २. अमीषामेव त्रयाणां मुख्यत्वाच्छेषभंगानां च संयोगजत्वेनामीष्वेवान्तर्भावादिति ।
-स्याद्वादमंजरी, श्लोक २४ की व्याख्या ३. सप्तानां भंगानां समाहारः सप्तभंगीति ।-न्यायदीपिका ४. एकस्मिन् वस्तुनि प्रश्नवशाद् दृष्टेनेष्टेन च प्रमाणेनाविरुद्धा विधि-प्रतिषेध-विकल्पना सप्त
भंगी विज्ञेया ।--तत्वार्थराजवार्तिक ११६
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है।
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