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चतुर्थखण्ड / २८८
से
युद्ध करने के लिए तन कर खड़ी हो जाती है। वह द्रव्य और भाव दोनों दृष्टियों से उचित है । अतः वह प्रथम श्र ेणी का साधक है ।
२. उत्थित - उपविष्ट
कुछ साधक इस श्रेणी के भी होते हैं, जो आँख मूंदकर खड़े हो जाते हैं । वे शारीरिक दृष्टि से खड़े हुए दिखाई देते हैं किन्तु मानसिक दृष्टि से उनमें किञ्चित् मात्र भी जागृति नहीं होती है। उनका मन प्रार्तध्यान और रौद्रध्यान में रहता है। वह द्रव्य से खड़े रहते हैं, पर भाव से गिर जाते हैं। ध्यान की अपकृष्ट भावधारा में अवगाहन करते हैं वह तन से उत्ति है, किन्तु मन और आत्मा से उपविष्ट है।
३. उपविष्ट उस्थित
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कभी-कभी शारीरिक अस्वस्थता या वृद्धावस्था आदि के कारण साधक कायोत्सर्ग की साधना के लिए खड़ा नहीं हो पाता है वह शारीरिक सुविधा की दृष्टि से पद्मासन, सुखासन आदि से बैठ कर ही धर्मध्यान और शुक्लध्यान की परिणति में रत रहता है। वह साधक तन की दृष्टि से बैठा हुआ है किन्तु उसके अन्तर्मानस में शुभ-शुद्ध भावधारा तीव्रता से प्रवाहित हो रही है, बैठने पर भी वह मन से उस्थित है ।
४. उपविष्ट- उपविष्ट
साधक शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ और समर्थ होने पर भी घालस्य के कारण खड़ा नहीं होता है। बैठे-बैठे ही कायोत्सर्ग करता है और प्रातंध्यान और रौद्रध्यान में लीन रहता है। धर्मध्यान की परिणति में रत न होकर सांसारिक विषय भोगों की कल्पनाओं में उलझा रहता है । राग-द्वेष में फंसा हुआ है । उसका तन और मन दोनों बैठे हुए हैं । उसमें भाव की दृष्टि से कोई जागृति नहीं है। यह कायोत्सर्ग नहीं, मात्र कायोत्सर्ग का दम्भ है।
उपर्युक्त कायोत्सर्ग - चतुष्टय में साधक जीवन के लिए प्रथम और तृतीय कायोत्सर्ग हो उपादेय हैं। ये दोनों ही वस्तुतः कायोत्सर्ग हैं। इन द्वारा ही जन्म-मृत्यु का बन्धन कटता है और प्रात्मा अपने ज्योतिर्मय स्वरूप में पहुँच कर वास्तविक प्राध्यात्मिक श्रानन्द की अनुभूति प्राप्त करता है । परम-पद मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।
उत्थित उपविष्ट के स्थान पर "उत्थित निविष्ट" का प्रयोग साहित्य में तो और हो प्रकार के नाम निर्दिष्ट किये गये हैं, अर्थगत अभिप्राय एक जैसा ही है ।
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यह कायोत्सर्ग मन, वचन और काय इन तीनों ही योगों के द्वारा किया जाना चाहिये । तात्पर्य यह है कि घुटनों तक दोनों हाथों को लटका कर, दोनों पाँवों के बीच में चार अंगुल का अन्तर रखते हुए खड़ा होना काया के द्वारा किया गया "कायिक कायोत्सर्ग" होता है । उसके पश्चात् ध्यान में लीन होने से पहले, वाणी से यह उच्चारणपूर्वक कहना “मैं शरीर का
३८. मूलाचार-६७३-६७७
३९. आवश्यकनिर्मुक्ति, गाथा - १४५९-१४६०
३८
मिलता है। नियुक्ति
फिर भी इन शब्दों का
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