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चतुर्थखण्ड / ३१८
मुनि की बात सुनकर व्याध वहाँ से खिसक गया और इस प्रकार एक प्राणी की हिंसा होते होते भी नहीं हुई । तो सत्य और असत्य भाषण की द्विविधात्मक स्थिति में भी युक्तिपूर्वक सत्य का पालन करना प्रत्येक सुजान व्यक्ति के लिए अपेक्षित है ।
प्रसिद्ध जैनाचार ग्रन्थ 'बारस प्रणुदेवखा' की गाथा सं. ७४ में लिखा है, "जो मुनि दूसरों को क्लेश पहुँचाने वाले वचनों का त्यागकर अपने और दूसरे का हित करने वाला वचन बोलता है, वह सत्य धर्म का पालक होता है ।"
यों, सत्य की परिभाषाएँ अनेक हैं किन्तु मोटे तौर पर असत्य के विरुद्ध वाणी के समस्त प्रकार का प्रयोग सत्य है जैनाचार्य पद्मनन्दिकृत 'पंचविंशतिका' में कहा गया है कि मुनियों को सदैव स्व पर हितकारक परिमित तथा प्रमृत-सदृश सत्यवचन बोलना चाहिए। यदि कदाचित् सत्य वचन बोलने में बाधा प्रतीत हो, तो मौन रहना चाहिए। स्थूल सत्यव्रत तो यह है कि राग और द्व ेष से विवश होकर श्रसत्य नहीं बोलना चाहिए और सत्य भी हो, लेकिन प्राणीहिंसक हो, तो उसे भी नहीं बोलना चाहिए ।
अनेकान्तवादी जैन दार्शनिकों की दृष्टि में विशुद्ध सत्य कुछ भी नहीं होता । श्रपेक्षया सत्य भी असत्य होता है और अपेक्षया असत्य भी सत्य होता है । अर्थात्, एक ही वस्तु अपेक्षया सत्य और अपेक्षया असत्य भी हो सकती है । उदाहरण के लिए कोई सच्ची किन्तु कड़वी बात किसी से कह दी गई, घोर उससे उसके हृदय को चोट पहुंची, तो उक्त सच्ची बात अपनी यथार्थता की अपेक्षा से सच्ची (महिंसाकारक) होते हुए भी कहने की अपेक्षा से झूठी ( हिंसाकारक) बन गई और फिर शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'पंकज' का सामान्य लोकरूढि अर्थ है 'कमल' । किन्तु कमल केवल पंक से ही तो नहीं उत्पन्न होता, अपितु उसके लिए पंचभूत के सम्मिलित प्रभाव की अपेक्षा होती है। इस प्रकार कमल को पंकज कहना लोकरूढि की अपेक्षा से सस्य होते हुए भी पंचभौतिक प्रभाव की अपेक्षा से असत्य है। इसलिए जैन दृष्टि किसी भी वस्तु को केवल सत्य न मानकर उसे सत्यासत्य यानी उभयात्मक या अनेकात्मक मानती है। स्पष्ट है कि हिंसा की अपेक्षा से सत्य भी ग्राह्य है और अहिंसा की अपेक्षा से असत्य भी ग्राह्य है और यहीं तब व्यास की पूर्वोद्धृत उक्ति चरितार्थ होती है कि 'यल्लोक हितमत्यन्तं तत्सत्यमिति नः श्रुतम् । अर्थात् अधिकाधिक लोकहित हो, चाहे वह जिस किसी प्रकार से हो, सत्य है ।
महाभारत युद्ध में युधिष्ठिर के द्वारा भंग्यन्तर से कही गई उक्ति, 'अश्वत्थामा हतः कुञ्जरो वा नरो वा' असत्यगन्धी होते हुए भी लोकहित की दृष्टि से असत्य नहीं थी। युधिष्ठिर के लिए श्रात्महित की अपेक्षा से उनकी उक्ति यदि असत्य ( हिंसक ) थी, तो व्यापक लोकहित की अपेक्षा से सत्य (अहिंसक ) थी । अपने पुत्र प्रश्वत्थामा की मृत्यु-सूचना से, चाहे वह गलत ही थी, द्रोणाचार्य शोकाहत हुए और उनके द्वारा की जाने वाली भीषण विरोधी प्राणिहिंसा में शोक से चित्यवश सहज ही न्यूनता था गई, जो लोकहित या युद्धशान्ति के प्रयास के रूप में ही मूल्यांकित हुई।
प्राचीन 'युग में सत्य और अहिंसा के बहुत बडे प्रववत्ता भगवान् महावीर हुए और अर्वाचीन युग में महात्मा गांधी ने भगवान् महावीर के सत्य और अहिंसा की प्रासंगिकता को लोकतांत्रिक दृष्टि से अधिक से अधिक विकासात्मक व्याख्या की और दोनों ही महात्मा इस
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