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अर्चनार्चन
पंचम खण्ड / १०६ प्राचार्य हरिभद्र सूरि का योग-विज्ञान और जैन योग के आचार्य
प्राचार्य हरिभद्र जैन योग के सबसे प्रथम प्राचार्य हैं। उन्होंने जैन योग पर जिन चार ग्रन्थों की रचना की, उनका उल्लेख हम पहिले कर चुके हैं।
प्राचार्य हरिभद्र के योग-विज्ञान को जिन प्राचार्यों ने आगे बढ़ाया, उनमें प्रमुख प्राचार्य हैं-हेमचन्द्र, शुभचन्द्र एवं उपाध्याय यशोविजय। प्राचार्य हेमचन्द्र (विक्रम की १२ वीं शताब्दी) ने अपने 'योगशास्त्र' नामक ग्रन्थ में पातंजल अष्टांग योग के क्रम से गहस्थ एवं साधूजीवन की प्राचार-साधना का जैन-दष्टि से वर्णन किया है। प्राचार्य शुभचन्द्र ने 'ज्ञानार्णव' (सर्ग २९ से ४२ तक) में प्राणायाम, ध्यान आदि यौगिक विषयों के स्वरूप एवं भेदों का जैन शास्त्रीय दृष्टि से वर्णन किया है।
उपाध्याय यशोविजय ने 'अध्यात्मसार', 'अध्यात्मोपनिषद्' और सटीक बत्तीस 'बत्तीसियां' लिखी हैं, जिनमें जैन-योग की विवेचना है। उपाध्यायजी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है प्राचार्य हरिभद्र की 'योगविशिका' एवं 'षोडशक' पर लिखी टीकाएँ । हम निःसंकोच यह कह सकते हैं कि उपाध्याय यशोविजय ने प्राचार्य हरिभद्र की समन्वयात्मक जैन-योगदष्टि को पल्लवितपुष्पित कर उसे आगे बढ़ाया ।' आचार्य हरिभद्र के योग-ग्रन्थों का विषय-विवेचन
प्राचार्य हरिभद्र के योग-विषयक चार ग्रन्थ हैं-(१) योगबिन्दु, (२) योगदृष्टिसमुच्चय, (३) योगशतक एवं (४) योगविशिका। इन चारों के विषयों का हम संक्षेप में विवेचन करते हैं१. योगबिन्दु
योग की निरुक्ति एवं उसकी पाँच भूमिकाएँ-ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्राचार्य योग की निरुक्ति पर विचार करते हुए, उसके क्रमिक विकास की पांच भूमिकाओं पर प्रकाश डालते हैं। वे कहते हैं कि 'मोक्षेण योजनाद् योगः' अर्थात् योग एक सार्थक शब्द है, क्योंकि वह आत्मा को मोक्ष से जोड़ देता है।
प्रात्मा के मोक्ष से योजन की इस प्रक्रिया में पांच बातों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है(१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) ध्यान, (४) समता एवं (५) वृत्तिसंक्षय ।
अध्यात्म-प्रात्मानुभूति, भावना-अात्मानुभूति का बार-बार चितवन, ध्यान-चित्त की एकाग्रता, समता-इष्टानिष्ट पदार्थों के विषय में तटस्थवत्ति तथा वत्तिसंक्षय-विजातीय द्रव्य से उत्पन्न चित्तवृत्तियों का समूल नाश--ये पांचों उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं।२।।
प्राचार्य हरिभद्र ने इन पांचों में से प्रथम चार भूमिकाओं की पांतजल-योगसूत्र में वर्णित संप्रज्ञातसमाधि से एवं अन्तिम पांचवीं भूमिका को असंप्रज्ञातसमाधि से तुलना की है।
१. उपाध्याय अमरमुनि 'जैनयोग: एक परिशीलन', पृष्ठ ७२।७४ २. अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः ।
मोक्षेण योजनाद योगः एष श्रेष्ठो यथोत्तरम । -योगबिन्दु ३१
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