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अर्चनान
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अभिनन्दित होती, शरीर के अणु-अणु को अपनी दिव्यचेतना के स्फुरण से रूपान्तरित करती ब्रह्मनाड़ी की पालकी में बैठ चित्रिनी का
झिलमिलाता
घूंघट डाल
चिनी के उत्तरीय को
धारण कर सुषुम्ना के रास्ते चक्रों के बन्दनवारों के मध्य होती हुई अपने संरक्षक देवी देवताओं की छत्रछाया में बीज मंत्रों की स्तुतियों के बीच, अपनी अक्षराम्रों के लोक-गीतों से उल्लसित हो बंक-नाल स्थित भ्रमर-गुहा के गुह्य मार्ग से अनन्तकाल
से बिछुड़े अपने दिव्य प्रियतम
से चिर-मिलन हेतु सहस्रार की ओर बढ़ जाती है ।
चक्रों का विशद परिचय निम्न सारिणी द्वारा स्पष्ट हो सकता है
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पंचम खण्ड / १७०
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प्राज्ञा चक्र
विशुद्धारव्य
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अनाहत चक्र
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