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"तान्त्रिक योग": स्वरूप एवं मीमांसा / २०५ तान्त्रिक योग के अंग और उपांगों का ज्ञान
साधना के लिए शरीर और उसके अंग-अवयवों का ज्ञान अत्यावश्यक माना गया है । शारीरिक-रचना की स्थलदष्टि से विवेचना साधना-मार्ग में से कोई विशेष महत्त्व नहीं रखती है किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से शरीर के अन्तर्गत अवयवों का परिज्ञान किये बिना साधना अपूर्ण ही रहती है, यह एक शाश्वत सत्य है। उपर्युक्त कथन की पुष्टि के लिए आद्यशङ्कराचार्यप्रणीत 'यतिदण्डेश्वर्य-विधान' में स्पष्टत: कहा गया है कि:
यतिदण्डे साधनाया ये ये मार्गाः प्रदशिताः।
तेषां सम्यक्-सिद्धिलब्ध्य योगज्ञानमपेक्षितम् ॥३॥ और इसी प्रसङ्ग को पल्लवित करके समझाते हुए १- शरीरस्थ चक्र, २- नाडो, ३- वायु, ४- वायु के स्थान, वर्ण, कार्य, इन्द्रिय-परिवार ५- आधारादि चक्र, (कल्पानुसार), ६- चक्रों की अधिष्ठात्री देवियां, ७- चक्रों के सृष्ट्यादिक्रम, ८- चक्रों की देवियाँ, ९- नाड़ियों के द्वारा चक्रों के निर्माण की प्रक्रिया, १०- प्रमुख सोलह नाड़ियों के स्थान, ११- नाड़ियों की गति, १२- नाड़ियों के विभिन्न समूहों की स्थिति, आकार और उनसे निमित चक्रों के स्वरूप, १३- ग्रन्थिभेदन तथा १४- भिन्न-भिन्न चक्रों में जप का प्रकार और फल वणित किया है। वहीं एक स्थान पर यह भी कहा गया है कि:--
जपाच्छान्तः पुनायेद् ध्यानाच्छान्तः पुनर्जपेत् । जपध्यानादि-संयुक्तः क्षिप्रं मन्त्रः प्रसिद्धयति ॥३॥१५४।।
यद्यपि योग के प्रकारों में यत्र-तत्र उपर्युक्त विषयों का भी वर्णन प्राप्त होता है, तथापि 'तान्त्रिक-योग' की यह प्रक्रिया जैसी उपर्युक्त ग्रन्थ में निर्दिष्ट है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। आचार्यपाद ने सम्पूर्ण-शरीर के स्वरूप का परिज्ञान कराते हुए नौ शरीरों का वर्णन किया है, जो कि क्रमशः मस्तिष्क में तीन, प्रांख और कान में एक-एक तथा हाथों और पैरों में दो-दो के रूप में स्थित हैं। समस्त नाडीजाल शक्ति के नामों से व्यवहृत है तथा उनके बीजमन्त्र, नाम-मन्त्र आदि से उस जाल के प्रत्येक अवयव को तान्त्रिक-योग से ही प्रबुद्ध कर अभिलषित कर्म में प्रयुक्त किया जा सकता है, यह रहस्य 'यतिदण्डैश्वर्य-विधान' से यत्किचित अंश में प्राप्त होता है।
इतना ही नहीं, योग में वणित विभूतियों का रहस्य भी इस ग्रन्थ में सजीव नाड़ियों के रूप में चित्रित है । साधक शरीरस्थ नाड़ी को प्रबुद्ध कर किसी भी विभूति को हस्तामलकवत प्राप्त कर सकता है। वस्तुतः यौगिक विभूतियों की उपलब्धि का गुरुगम मार्ग ही तन्त्रपथ है और वही "तान्त्रिक-योग' नाम से अभिप्रेत है। जिस लक्ष्य की उपलब्धि के लिए योगमार्ग कठोर साधना का निर्देश करता है उसी लक्ष्य की उपलब्धि तन्त्रविधि द्वारा सहज और सरलरूप से प्राप्त की जा सकती है। साथ ही तन्त्रविधि के द्वारा उपलब्ध की जाने वाली विभूतियाँ योग की अपेक्षा कहीं अधिक सूगम और चिरस्थायिनी हैं।
१. इस ग्रन्थ का संशोधन, सम्पादन तथा हिन्दी अनुवाद हमने किया है जो कि प्रकाशनाधीन है।
–(लेखक)
आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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