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अन्य योग साधनाएं और महर्षि अरविन्द की सर्वांग योगसाधना / १९१
नहीं होता। इसके बिना अनन्त की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। गीता में भगवान् ने स्वयं कहा है
'देवान् देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ।'
अर्थात जो लोग ज्ञान-देवता की उपासना करते हैं, वे मेरी ही एक विभूति को प्राप्त करते हैं। उसी प्रकार हृदय के देवता को, मन के देवता, प्राण-देवता या देह-देवता को परितृप्त करते हैं, वे सब मेरे ही एक ऐश्वर्य के अधिकारी होते हैं; परन्तु मुझको, पूर्ण मुझको वे ही प्राप्त करने के अधिकारी हो सकते हैं जो केवल मुझे ही पाना चाहते हैं ।
वास्तव में देखा जाय तो ऊर्ध्व और अधो क्षेत्र का सत्य अलग-अलग नहीं है। अनन्त आकाश पृथ्वी की ओर से मुंह फेर कर दूर नहीं गया है वरन् पृथ्वी को घेरे हुए पृथ्वी की ओर ही झुका हुअा है। Convex और Concave का ही संयोग है। नतोदर और उन्नतोदर का संयोग है।
महर्षि अरविंद ने अपनी साधना के लिए दो सोपान विधियां आवश्यक बतलाई हैं। प्रथम एकाग्रता तथा द्वितीय वैराग्य । एकाग्रता अभ्यास क्रम ही है जिससे साधक क्रमशः धारणा, ध्यान द्वारा समाधि में लीन हो जाता है। वैराग्य निवृत्ति है, विशुद्धि क्रम । देह-प्राण-बुद्धिमन के कल्मष को धोकर ही या इनको परिशुद्ध कर ही विज्ञानमय क्षेत्र में पहुँचा जा सकता है। यहां भी 'अहं' का मोह उसे पददलित करता रहता है, अत: इससे भी पार जाना होगा। एक-एक क्रम ऊपर उठना तथा एक-एक क्रम को परिशुद्ध बनाकर साधक भागवती सत्ता का अनन्य सदस्य बनता है । उसे कुछ भी खोना नहीं पड़ता। संदर्भ ग्रन्थ (१) योगसमन्वय पूर्वाद्धं-[अध्याय १, २, भूमिका ४ प्रथम भाग]
[अध्याय १-३,४,५,६-९,१०-१३,द्वितीय भाग] (२) योगसमन्वय उत्तरार्द्ध-[अध्याय १, ४-५, ६, ७, तृतीय भाग] [अध्याय १-९,
चतुर्थ भाग] (३) श्री अरविंद के पत्र भाग २ [अध्याय १-२ एवं ३] (४) योगसूत्र (५) हठयोगप्रदीपिका (६) कुलार्णवतंत्र (७) दिव्य जीवन प्रथम दो भाग
प्रवाचक
दर्शन विभाग, सागर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.)
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आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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