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अर्चनार्चन
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पंचम खण्ड / १८६
का अपूर्व समन्वय पाया जाता है। कर्ममलों को क्षरित करता हुआ साधक मानसिक उद्वेगों को उपशान्त करके एक-एक करके चौदहवे गुणस्थान तक आरोहण मार्ग पर ग्राहढ होता जाता है । यही इसकी विशिष्टता है । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यगुचारित्र की सम्यक्साधना के कठोर अनुपालन के कारण ही जैनसाधना कभी भी वाममार्ग की भ्रष्ट पंचमार्ग साधना में भाज तक नहीं भटक पायी चरित्रगत ऊंचाइयां लांघ कर ही साधक केवली या तीर्थंकर बन अपना कल्याण या समस्त मानवजाति को कल्याणमार्ग सुझाने का उपक्रम रच सकता है ।
बोद्धसाधना भी न्यूनाधिक रूप में शीलप्रधान रही है। इसकी हीनयानी साधना व्यक्तिगतसाधना या अद्वैतसाधना तक केन्द्रित रही है किन्तु महायानी साधना करुणा पर प्राधारित होकर बोधिसत्व साधना वन समस्त प्राणी जगत् के कल्याण की कामना करती है। राजयोग पर ही मुख्यतः ये दोनों साधनाएँ आधारित हैं। कुछ दिनों वज्रयान की वाममार्गी साधना की अपकीर्ति से भी यह व्यथित रही । ध्यान और शीलगत आचार इस साधना के प्रबल साधन रहे हैं ।
उक्त दोनों साधनाएँ किसी न किसी रूप में पातंजल योगसाधना की अनुगामिनी अवश्य रही हैं पर इन दोनों ने उन साधन प्रक्रियाओं को अपने-अपने ढंग से संवारा है, परिमार्जित किया है एवं संशोधित किया है। फिर भी अन्य साधनाओंों की भांति ये भी साधक को एकाकी किसी गिरिकन्दरा या शान्त उपत्यका वासी बनाने का उपक्रम अधिक करती हैं। जैनसाधना की उग्रता, कठोरता और सर्वथा अपरिग्रही साधना सभी के बस की बात नहीं है । शीलगत प्राचार विधान का शास्ता जब तक रहता है तभी तक कारगर साबित होता है। शास्ता के प्रयाण करते ही उसमें ढील पोल माने लगती है, स्वैराचार, अपवाद सुविधाएं भोगने की अदम्य लालसा जाग्रत होने लगती है । यही कारण है कि जैन-बौद्ध और वैदिक साधनानों में काफी स्खलन-पतन और अधोगमन होता रहा है। युग की मांग के अनुरूप इसीलिए महर्षि अरविंद ने उन सभी प्रणालियों से सार ग्रहण करते हुए पूर्णयोग की साधना पद्धति नूतन रूप से संजोने का प्रयास किया है।
इसी प्रकार उन्होंने समकालीन चिन्तन में फैली हुई अनेक भ्रान्तियों का भी निराकरण किया है। जैसे प्राजकल कतिपय व्यापारियों ने योग प्रशिक्षणकेन्द्र खोल कर इसे शारीरिक व्यायाम में ही केन्द्रित कर दिया है । अन्य कुछ चिकित्सा प्रेमियों ने इसे शारीरिक और मानसिक रोगों की रामवाण अचूक दवा घोषित किया है। कहीं-कहीं मानसिक तनाव, कुष्ठा, उद्विनता, शान्ति से छुटकारा पाने के लिए योगिक क्रियाओं का मखौल बनाया जाता है। आसन-प्राणायाम व ध्यानकेन्द्र की स्थापना के द्वारा यही नहीं वरन् पाश्चात्य देशों में प्रचारप्रसार के बहाने अनेक योगाचार्य, संन्यासी, योगी बन दोनों हाथों से पैसा बटोरने में लगे हुए हैं। महर्षि अरविंद ने अपनी दीर्घकालीन साधना के द्वारा जहाँ योगसाधना रूपी नवनीत को गिरिकन्दरा के एकान्त कानन से बाहर निकाल कर सरल-सुगम धौर व्यावहारिक बनाया है। वहीं 'योग समन्वय' तथा अनेक मार्मिक और गूढ़ रहस्यों को खोजने वाले लेख लिखकर एन. सी. पाल, फरुखर, म्यूलर आदि योगविद्या का 'क' 'ख' न जानने वाले पाश्चात्य विद्वानों का मुंहतोड़ उत्तर दिया है।
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