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पंचम खण्ड | १३६ ज्ञानार्णव का निम्नांकित श्लोक दृष्टव्य है, जो लगभग इसीके समकक्ष है
"विन्ध्यपर्वत जिनका नगर है, गुफाएँ जिनकी वसति है, पर्वत की शिला जिनकी शय्या है, चन्द्रमा की किरणें जिनके दीपक हैं, मृग-पशु जिनके सहचर हैं, प्राणीमात्र के साथ मित्रता जिनकी उत्तम अंगना है, विज्ञान-विशिष्ट ज्ञान जिनके लिए जल है, तप जिनका सात्त्विक भोजन है, ऐसे प्रशान्तात्मा पुरुष धन्य हैं। वे हमें संसार के कीचड़ से निकलने का पथ उपदिष्ट
अर्चनार्चन
ज्ञानार्णव की भाषा, शैली, शब्द-संरचना प्रादि देखने से प्रतीत होता है कि प्राचार्य शुभचन्द्र की प्रतिभा बहुत उर्वर एवं उत्कृष्ट थी। उन्होंने अध्यात्म तथा योग जैसे विषय को अत्यन्त सुन्दर, सरस एवं प्रसादपूर्ण भाषा में सफलतापूर्वक उपस्थित करने का प्रयास किया है। उन्होंने अपना ग्रन्थ सर्गात्मक शैली में लिखा है, जिसका प्रयोग कवि महाकाव्यों में करते रहे हैं । ज्ञानार्णव एक विस्तृत ग्रन्थ है। इसमें ४२ सर्ग हैं । आचार्य शुभचन्द्र ने अपने इस ग्रन्थ में पद्यात्मक शैली के साथ-साथ गद्यात्मक शैली का भी प्रयोग किया है। उनके पद्यों में सरसता है, प्रवाह है । भाषा विषय को सहज रूप में अपने से समेटे हुए सरिता की थिरकती हुई लहर की तरह गतिशील है। अनुष्टुप, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, मालिनी, शिखरिणी, शार्दूलविक्रीडित, स्रग्धरा, मन्दाक्रान्ता, आर्या, वंशस्थ, पृथ्वी, वसन्ततिलका, इन्द्रवंशा आदि छन्दों का इसमें बड़ी सुन्दरता व सफलतापूर्वक प्रयोग हुअा है। गद्य में प्रौढता, शब्द-सौष्ठव और भाव-गांभीर्य है।
प्राचार्य ने पहले सर्ग में मंगलाचरण के पश्चात सत्श्रुत-सद्ज्ञान तथा सत्पुरुषों की गरिमा और प्रशस्ति का वर्णन किया है, साथ ही साथ संसार के मायाजाल से विमुक्त होने की प्रेरणा दी है। सर्ग के अन्त में उन्होंने संसार की दुःख-दारुणता तथा विनश्वरता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है
"यह जगत् भयावह वन है। दुःख रूपी अग्नि की ज्वाला से यह परिव्याप्त है। इन्द्रियसुख परिणामविरस है, अर्थात् उसका परिणाम दुःखात्मक होता है। काम-सांसारिक भोग, अर्थ-धन, वैभव अनित्य हैं, जीवन बिजली के समान चंचल-अस्थिर है। इस सम्बन्ध में गहराई से चिन्तन कर जो अपने स्वार्थ-प्रात्मा के लक्ष्य को साधने में सुकृती-सत्प्रयत्नशील है, वह क्यों इसमें विमूढ़ बनेगा।"
दूसरे सर्ग में प्राचार्य ने अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म, लोक, बोधदुर्लभ, इन बारह भावना का विवेचन किया है। इस विवेचन के अन्तर्गत उन्होंने ऐसी प्राणवत्ता भर दी है कि पाठक या श्रोता पढ़कर या सुनकर अन्त:स्फुरणा का अनुभव किये बिना नहीं रहता। अशरण भावना के विवेचन के अन्तर्गत
१. विन्ध्याद्रिनगरं गुहा वसतिका: शय्या शिला पार्वती,
दीपाश्चन्द्रकरा मृगाः सहचरा मैत्री कुलीनांगना । विज्ञानं सलिलं तपः सदशनं येषां प्रशान्तात्मनां, धन्यास्ते भवपंकनिर्गमपथप्रोद्देशकाः सन्तु नः ।।
-ज्ञानार्णव ५-२१
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