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जैन योग का एक महान् प्राथ-ज्ञानार्णव एक विश्लेषण / १३९
भावना में प्राबल्य, चिन्तन में शक्तिमत्ता, गति में अत्यधिक तीव्रता, स्थिति में धीरता और दृढ़ता का समावेश करने का प्रभिप्रेत लिए संभवतः योगियों ने गरुतश्व परिकल्पित किया हो। पौराणिक विवेचन के अनुसार जैसा ऊपर संकेत किया गया है, गरुड़ की ये विशेषताएं हैं ही। तीनों लोकों के पालक भगवान् विष्णु को अपनी पीठ पर बिठाकर विद्युत् वेग से उड़ने वाले गरुड़ की अत्यधिक शीघ्रगामिता, स्फूर्तिमयता एवं बलशालिता सहज ही अनुमेय है । सर्प जैसे विषाक्त जन्तु को वह एक साधारण कीड़े की तरह नष्ट कर डालता है। यह उसकी असाधारण विशेषता है। इतना ही नहीं, वह जहरीले सांपों को निगल जाता है, उन्हें हजम कर लेता है। गरुड़ को बाह्य प्रतीक मानकर प्रान्तरिक अभ्युत्थान, ऊध्र्वीकरण और उन्नयन के लिए विधि-विशेष के साथ ध्यान में उद्यम रत होना एक रहस्यमयी साधना से जुड़ा है । ग्रात्म-शक्ति के स्फोट के लिए जो विशेष तीव्र उत्कण्ठा, चेष्टा, क्रिया और गति चाहिए, उसमें इसकी प्रेरकता है । योगनिरत साधक निरन्तर इस अनुचिन्तन और ध्यान में रहता है कि वह साधना में गरुड़ की सी गतिशीलता एवं ऊर्ध्वगामिता श्रात्मसात् करें। गरुड़ की चोंच द्वारा पकड़े हुए पेट की ओर लटकते हुए एवं मुख के ऊपर से मेरुदंड की घोर लटकते हुए सर्पों के प्रतीक से वह यह प्रेरणा ले उसे अपनी कुंडलिनीशक्ति जागरित कर ऊर्ध्वमुखी बनानी है, जिससे सहस्रारदल कमल में उसका मुंह खुल जाय। हठयोग के अनुसार उससे प्रमृत टपकता है ।
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यहाँ परिकल्पित गरुड़ के स्वरूप में दोनों प्रोर भीषण नागों का लटकना यह भी संकेत करता है कि काम भोगात्मक विषाक्तता से घिरा रहता हुआ भी योगी उससे सर्वथा श्रप्रभावित रह उन्हें श्रात्मबल - प्रसूत उज्ज्वल परिणामों द्वारा भीतर ही भीतर जीर्ण कर डाले 19
प्राचार्य ने गरुड़ के स्वरूप में सन्निविष्ट पृथ्वी बादि तत्वों की विस्तार से चर्चा की है पृथ्वी, जल, वायु तथा प्रग्नि के पौराणिक स्वरूप का वर्णन करते हुए उन्हें गरुड़ गत ध्येय आलम्बनों के रूप में व्याख्यात किया है।
कामतत्त्व
पुरुषार्थ-चतुष्ट में काम का अपना विशेष महत्त्व है। सारे सांसारिक व्यवहार के मूल में काम की प्रेरणा है। काम रूप साध्य को प्राप्त करने के लिए ही व्यक्ति धनार्जन करना चाहता है । धनार्जन के लिए श्रम, क्लेश, अपमान, तिरस्कार सब कुछ सहता है । जगत् में मानव की जो अविश्रान्त दौड़ दिखाई देती है, उसके पीछे काम काम्य भोग एवं सुख की लिप्सा ही है । भावना की तीव्रता अध्यवसाय की गति में निश्चय ही वेग लाती है । कामोन्मुख वेग को उधर से निकालकर योग में संभूत कर देने के अभिप्राय से ध्यान के हेतु काम-तत्व की परिकल्पना वास्तव में विचित्र है। विवेचन के अन्तर्गत बाह्यरूप में वे सभी उपकरण रूपक शैली में वर्णित किये गए हैं, जो कात्म व्यापार में दृश्यमान होते हैं पर उनका प्रान्तरिक मोड़ १. गगनगोचरामुतं जय विजय भुजंगभूषणोऽनन्ताकृतिपरम विभुनभस्तलनिलीनसमस्तत स्वात्मकः समस्तज्वररोगविषधरोड् डामरडा किनी ग्रह्यक्ष किनी ग्रहयक्ष किन रनरेन्द्र। रिमारिपरयन्त्रतन्त्रमुद्रा मण्डलज्वलनहरिशरभशार्दूल द्विपदैत्यदुष्टप्रभृतिसमस्तोपसर्ग - निर्मूलनकारिसामर्थ्यः परिकलित समस्त गारुडमुद्रामण्डलाडम्बरसमस्ततत्त्वात्मकः सन्नात्मैव गरुडगी गचिरत्वमवगाहते । -- ज्ञानार्णव २१.९५ " गद्य भाग"
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आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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