________________
प्रेक्षाध्यान और शक्ति-जागरण | ११७
' एक जैन ग्रंथ में हृदय-कमल पाठ पंखुड़ियों वाला बतलाया गया है। प्रत्येक पंखुड़ी में एक-एक वृत्ति रहती है, जैसे-कुमति, जुगुप्सा, भक्षिणी, माया, शुभमति, साता, कामिनी, असाता। इन पंखुड़ियों पर मनुष्य के भाव का परिवर्तन होता रहता है। उसके प्राधार पर नाना प्रकार की वृत्तियां प्रकट होती रहती हैं।
विशुद्धि केन्द्र का स्थान कंठदेश है। यह थायराइड ग्रंथि का प्रभाव-क्षेत्र है। मन का इस केन्द्र के साथ गहरा संबंध है। योगविद्या के अनुसार इसके सोलह दल माने गए हैं।
__ ब्रह्म केन्द्र का एक स्थान है जीभ का अग्रभाग । उसकी स्थिरता जननेन्द्रिय के नियंत्रण में सहायक बनती है। कुछ केन्द्र अनुकंपी और परानुकंपी नाड़ी संस्थान के संगम पर बनते हैं, जैसे-तैजस केन्द्र, प्रानंद केन्द्र और विशुद्धि केन्द्र । कुछ केन्द्र ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों से संबद्ध हैं। जीभ एक ज्ञानेन्द्रिय है। उसका अग्रभाग चंचलता और स्थिरता दोनों का संवाहक बनता है।
प्राण केन्द्र का स्थान नासाग्र है। यह प्राणशक्ति का मुख्य स्थान है। निर्विकल्प ध्यान के लिए इसका प्रयोग बहुत महत्त्वपूर्ण है।
अप्रमाद केन्द्र का स्थान कान है। इसका जागरूकता से बहुत संबंध है। आज के विज्ञान ने नाक और कान के विषय में काफी जानकारी विकसित की है । ये दोनों मनुष्य की बहुत सारी वत्तियों का नियंत्रण करने वाले हैं और मस्तिष्क के साथ जुड़े हुए हैं।
चाक्षुष केन्द्र का स्थान चक्षु है। इसका जीवनी शक्ति के साथ गहरा संबंध है।
दर्शन केन्द्र दोनों आंखों और दोनों भकूटियों के बीच में अवस्थित है। यह पिच्युटरी ग्लैण्ड का प्रभावक्षेत्र है। हठयोग में इसे प्राज्ञाचक्र कहा जाता है। योगविद्या के अनुसार इसके दो दल होते हैं । यहाँ ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना तीनों प्राणप्रवाहों का संगम होता है।
ज्योति केन्द्र ललाट के मध्य भाग में स्थित है। यह पीनियल ग्लैण्ड का प्रभाव क्षेत्र है। हठयोग के कुछ प्राचार्यों ने नौ चक्र माने हैं। उनके अनुसार तालु के मूल में चौंषठ दलवाला ललना चक्र विद्यमान है। इससे ज्योति केन्द्र की तुलना की जा सकती है। .
___ शान्ति केन्द्र अग्रमस्तिष्क में स्थित है। इसका संबंध मनुष्य की भावधारा से है। यह अवचेतक मस्तिष्क (हायपोथेलेमस) का प्रभाव क्षेत्र है।
ज्ञान केन्द्र केन्द्रीय नाड़ीसंस्थान का प्रमुख स्थान है । लघु मस्तिष्क बृहत् मस्तिष्क एवं पश्चमस्तिष्क के विभिन्न भाग इससे संबद्ध हैं। यह अतीन्द्रिय चेतना का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। हठयोग के सहस्रार चक्र से इसकी तुलना की जा सकती है।
चैतन्य-केन्द्रों की शक्ति को जागृत करने के अनेक उपाय हैं। उनमें प्रासन, प्राणायाम जप आदि उल्लेखनीय हैं। इनसे भी अधिक शक्तिशाली उपाय है-प्रेक्षा । एकाग्रता के साथ जिस चैतन्य केन्द्र को देखा जाता है, उसमें प्रकम्पन शुरू हो जाते हैं। ये प्रकम्पन सुप्त शक्ति को जगा देते हैं। प्रेक्षा की पद्धति यह है-पद्मासन, वज्रासन अथवा मुखासन, किसी एक सुविधाजनक प्रासन का चुनाव करें। प्रासन में प्रासीन होकर कायोत्सर्ग (जागरूकता) पूर्ण शिथिलीकरण करें। फिर प्रेक्षा के लिए चैतन्य केन्द्र का चुनाव करें, धारणा से अभ्यास शुरू करें, निरन्तर लक्षीकृत केन्द्रों को देखते-देखते गहन एकाग्रता के बिन्दु पर पहुँच जाएं,
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org