________________
पंचम खण्ड / १३० -
| अर्चनार्चन
इसका तात्पर्य यह हुआ कि आचार्य शुभचन्द्र से ये सब पूर्ववर्ती हैं। प्राचार्य जिनसेन अन्तिम हैं । यद्यपि श्लोक-क्रम में जिनसेन का उल्लेख आचार्य अकलंक से पहले किया गया है, पर उनका काल जिनसेन से पूर्ववर्ती है। आदिपुराण में जिनसेन ने स्वयं प्रकलंकदेव का स्मरण किया है। जिनसेन का समय ई० स० ८९८ से कुछ पूर्व सिद्ध होता है ।
प्राचार्य जिनसेन ने महापुराण लिखना शरू किया था, पर वे उसका पूर्वभाग-- आदिपुराण ही लिख सके, वह भी थोड़ा सा बाकी रह गया, स्वर्गवासी हो गए । तब उनके प्रधान शिष्य प्राचार्य गुणभद्र ने आदिपुराण का अवशिष्ट अंश तथा महापुराण का उत्तरभाग उत्तरपुराण के नाम से लिखा । उत्तरपुराण ई० स० ८९८ में पूर्ण हुआ।
अनुमान किया जा सकता है कि उत्तरपुराण की संपूर्णता से कुछ ही वर्ष पूर्व प्राचार्य जिनसेन ने देह-त्याग किया हो। यों काल की पूर्व सीमा तो प्राप्त होती है, पर उत्तर सीमा प्राप्त नहीं होती। प्राचार्य शुभचन्द्र से उत्तरवर्ती कोई लेखक वैसा उल्लेख करता तो कालनिर्धारण में परिपुष्ट ऐतिहासिक आधार मिल पाता। .
आचार्य शुभचन्द्र के जीवन-वत्त को जानने के लिए केवल एक कथात्मक प्राधार हमें प्राप्त है। आचार्य विश्वभूषण द्वारा रचित भक्तामरचरित नामक एक संस्कृत ग्रन्थ उपलब्ध है। उसकी उत्थानिका में शुभचन्द्र और भर्तृहरि की कथा वर्णित है । वैसे भारतीय इतिहास में भर्तृहरि भी एक ऐसे पुरुष हैं, जिनका इतिवृत्त असंदिग्ध नहीं है। वाक्यपदीय के रचनाकार, शतकत्रय के लेखक और योगिवर्य भर्तृहरि क्या एक ही व्यक्ति थे या भिन्न ? ऐतिहासिक प्रमिति की भाषा में निश्चित शब्दावली में कुछ नहीं कहा जा सकता। उज्जयिनी-नरेश सम्राट विक्रमादित्य के ज्येष्ठ भ्राता के रूप में इनका उल्लेख आता है। धाराधीश महाराजा भोज के भी ये समसामयिक कहे जाते हैं। कुछ इन्हें भोज का भाई भी बतलाते हैं। कहां विक्रम संवत् के प्रतिष्ठापक विक्रमादित्य का समय, और कहाँ भोज का ? ११०० वर्षों का अन्तर ? शुभचन्द्र के साथ भी इसी तरह के अनेक वृत्त जुड़े हुए हैं। उन्हें मानतुंग, कालिदास, वररुचि और धनंजय, जिनका समय भिन्न-भिन्न है, का समसामयिक कहा जाता है । इतिहास की ये उलझी हुई गुत्थियां यथावत् रूप में कब सुलझ पाएंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। भक्तामरचरित के अनुसार प्राचीन काल में मालव प्रदेश में सिंह नामक एक प्रतापी व धर्मनिष्ठ राजा था। उज्जयिनी राजधानी थी। वह अपनी संतति के तुल्य प्रजा का पालन करता था। राज्य में सब सुखी एवं प्रानन्दित थे । राजा को केवल एक बात का दु:ख था, उसके कोई सन्तान नहीं थी। जब भी राजा अपनी व्यस्तता से कुछ मुक्त होता, विश्राम की मुद्रा में होता, झट उसे यह चिन्ता प्रा घेरती, मेरे पुत्र नहीं है। इस धन, राज्य, वैभव का क्या होगा ? मेरी वंश
प्रपाकुर्वन्ति यद्वाच: कायवाकचित्तसम्भवम् । कलंकमंगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥ जयन्ति जिनसेनस्य वाचस्त्रविद्यवन्दिताः । योगिभिर्यत्समासाद्य स्खलितं नात्मनिश्चये ।। श्रीमद्भट्टाकलंकस्य पातु पुण्या सरस्वती। अनेकान्तमरुन्मार्गे चन्द्रलेखायितं यया ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org