________________
वीतराग-योग | २७
सुख, अमरत्व, स्वाधीनता, चिन्मयता, सामर्थ्य, पूर्णता प्राप्त करने एवं दुःख, मृत्यु, पराधीनता, जड़ता, असमर्थता, अभाव आदि अवांछनीय, अनिष्ट स्थितियों से मुक्त होने रूप साध्य का ऊपर वर्णन किया गया। उस पर गहराई से विचार करने पर यह बात सामने आती है कि इन सब अनिष्ट स्थितियों की उत्पत्ति का सम्बन्ध शरीर से है, अर्थात शरीर के साथ ये सब दुःख लगे हुए हैं। शरीर और संसार एक ही जाति के पदार्थ-पुद्गल से बने हैं । अतः दोनों एक ही जाति, गुण व धर्म के हैं । अतः शरीर का सम्बन्ध संसार से है।
चेतना का शरीर और संसार से वियोग अवश्यंभावी है। जो सदा साथ न दे, जिसका वियोग हो जावे वह 'पर' है। 'पर' पर जीवन निर्भर करना पराधीनता है, बंधन है। पर से परे होना अर्थात शरीर और संसार से परे होना, प्रतीत होना ही सब बन्धनों से, सब दोषोंदुःखों, बुराइयों से छुटकारा पाना है, मुक्त होना है। मुक्त होने का अर्थ है शरीर और संसार आदि 'पर' के प्राधीन व प्राश्रित न रहना, स्वाधीन होना । कहा भी है
"बुद्धि वीर जिन हरि हर ब्रह्मा, या उनको स्वाधीन कहो।
भक्तिभाव से प्रेरित हो, चित्त उसी में लीन रहो।" -मेरी भावना अत: 'मुक्त' होने में दुःख, मृत्यु, अभाव आदि समस्त दोषों व दु:खों से मुक्ति मिल जाती है एवं सुख, अमरता, पूर्णता प्रादि सब इष्ट गुणों व साध्यों की उपलब्धि हो जाती है, अर्थात् एक ही 'मुक्ति' शब्द में सब साध्यों का समावेश हो जाता है। इसीलिए साध्य हुमा 'मुक्ति' प्राप्त करना । मुक्ति की प्राप्ति वीतरागता से ही संभव है। कारण कि राग ही बन्धन का कारण है । प्रतः साधना है वीतरागमार्ग। इसीलिए यहां प्रागे वीतरागता के परिप्रेक्ष्य में जैन, बौद्ध व योग साधनाओं का प्रति संक्षेप में विवेचन किया जा रहा है। वर्तमान में 'योग' शब्द का साधना के अर्थ में प्रयोग हो रहा है, जैसे ज्ञानयोग, कर्मयोग, समत्वयोग, उपासनायोग, आदि । इसी अर्थ में यहां वीतराग-साधना को 'वीतराग-योग' के रूप में प्रस्तुत किया जा
साधना
प्राणी में तीन शक्तियां हैं-(१) जानने की शक्ति, (२) संवेदन (अनुभवन, विश्वास) करने की शक्ति और (३) क्रिया करने की शक्ति । इन तीनों शक्तियों को क्रमशः ज्ञान, दर्शन और चारित्र कहा जाता है । इन ही तीनों शक्तियों का दुरुपयोग बंधन व दु:ख का तथा सदुपयोग मुक्ति व सुख का कारण है । इन शक्तियों के दुरुपयोग को दोष कहा जाता है, जो दुःख व संसार परिभ्रमण का कारण है और इन्हीं शक्तियों के सदुपयोग को साधना कहा जाता है, जिसे अपनाकर मानव राग, द्वेष, मोह, विषय, कषाय आदि समस्त दोषों एवं पराधीनता, अभाव आदि समस्त दु:खों से सदा के लिए मुक्त हो सकता है। इसी तथ्य को जैनागम उत्तराध्ययनसत्र के २८वें अध्ययन में प्रतिपादन करते हुए कहा है
नाणं च बंसणं चेव, चरित्तच तवो तहा ।
एस मग्गोति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि ॥२॥ अर्थात् श्रेष्ठ द्रष्टा जिनेन्द्रों ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मुक्ति का मार्ग कहा है अर्थात साधनापथ बताया है। यहाँ क्रियाशक्ति को चारित्र और तप इन दो रूपों में प्रस्तुत किया गया है।
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org