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पंचम खण्ड | ३८
अर्चनार्चन
ध्यानावस्था में भीतर में स्थित पूर्वकृत भोग-विकार उदीरित होकर उदय में प्राते हैं या ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ, विभूतियाँ प्रकट होती हैं। इन सब के प्रति अपनी ओर से कुछ नहीं करना है न इन्हें बुरा मानना है, न अच्छा मानना, न समर्थन या सहयोग करना है और न विरोध या प्रतिरोध करना है, केवल तटस्थ रहना है, ज्ञाता-द्रष्टा रहना है। इससे कर्म त्वरित गति से उदय में पाते हैं, वे कर्म सघन व जड़तायुक्त होते हैं। उन कर्मों की सघनता, जड़ता को दूर करने के लिए उनका वेधन करना है, उन्हें धुनना है। जिस प्रकार रुई को धुनने से उसके तार बिखर जाते हैं, रुई की सघनता मिट जाती है, फिर उन तारों में बल व मल नहीं रहता है, वे हल्के होकर तितर-बितर हो जाते हैं, इसी प्रकार ध्यान-साधना कर्म धुनने की प्रक्रिया है। जिससे कर्म खंड-खंड होकर बिखर जाते हैं, क्षय हो जाते हैं। इससे सघनता व जड़ता मिटकर चिन्मयता का बोध होता है। ध्यानप्रक्रिया
यहाँ हम ध्यान की प्रक्रिया को बौद्धदर्शन की 'विपश्यना' ध्यान-साधना तथा जैनदर्शन के 'धर्मध्यान' के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर रहे हैं। पानापानसति के अभ्यास से, श्वासोच्छ्वास को देखने से चित्त कुछ समय के लिए बार-बार एकाग्र, शान्त व विकल्प-रहित हो जाय तथा नासिका के अग्रभाग पर श्वास के आवागमन के कारण होने वाली संवेदना का अनुभव हो । तदनतर ध्यान की प्रक्रिया प्रारम्भ की जाय, जो इस प्रकार है
. सर्वप्रथम नासिकाग्र की संवेदना पर एकाग्र हुए चित्त को और अधिक गहरा शांत करके मस्तिष्क पर स्थित तालुरंध्र पर लगाया जाय। जिससे तालुरंध्र पर होने वाली संवेदना का अनुभव होता है। फिर शनैः शनैः मन को खिसकाकर तालुरंध्र के चारों ओर मस्तिष्क पर लगाया जाय, इससे मस्तिष्क पर होने वाली संवेदना का अनुभव होगा। फिर मन को मस्तिष्क से आगे बढ़ाते हुए क्रमशः ललाट, भौंहों, पलकों, बरौनियों, नासिका, दोनों गाल, कान, टोडी पर लगाया जाय एवं दाहिने हाथ के कंधे, भुजा, हाथ, कलाई, हथेली, अंगुलियों के पैरवों, पर मन को लगाया जाय । इसी प्रकार बायें हाथ के कंधे से पैरवों तक मन को लगाया जाय । तदनन्तर गला, सीना, पेट व समस्त सामने के शरीर के भाग पर मन को लगाया जाय । फिर गर्दन, पीठ, कमर पर, पूरे शरीर के पीछे के भाग पर मन को लगाया जाय। फिर दाहिने पैर के कल्हे, जंघा, घटना, पिण्डली, एडी, फाबा व अंगलियों व उनके पैरवों तक लगाया जाय, तदनन्तर बायें पैर में भी इसी क्रम से मन को लगाया जाय ।
इस प्रकार मन देह में सिर से पैर के पैरवों तक चलता ही रहे और जहाँ-जहाँ जो व जैसी संवेदनाएं उस क्षण हो रही हैं, उनको देखता रहे । उन संवेदनाओं के प्रतिक्षण बदलाव का अनुभव कर 'वे अनित्य हैं' इस अनुभतिपरक बोध से समता को पूष्ट करता रहे। संवेदना अनुकूल हो या प्रतिकूल, सुखद हो या दुःखद अथवा असुखद-प्रदुःखद, उनके प्रति समता बनाये रखें, हर्ष-शोक न करें।
ध्यान की इस प्रक्रिया में पहले अपने स्थल शरीर की उपरी सतह पर प्रकट होने वाली संवेदनाओं का अनुभव होता है। उनके प्रति समभाव रखने से अर्थात् समताभाव पुष्ट होने से चित्त स्वत: अधिक से अधिक शान्त, सूक्ष्म व तीक्ष्ण होता जाता है। चित्त के सूक्ष्म व तीक्ष्ण होने से शरीर में सिर से लेकर पैर तक के भीतरी भाग में प्रकट होने वाली सूक्ष्म संवेदनाओं
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