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जैन साधना-पद्धति में ध्यान | ५१
(१) आध्यान-अनिष्ट विषयों का संयोग होने पर उनके वियोग की जो चिन्ता होती है और उनका वियोग हो जाने पर भी जो भविष्य में उनके पुन: संयोग न होने की चिन्ता होती है, उसे प्रार्तध्यान माना गया है । रोगजनित पोड़ा के होने पर उसके वियोग की चिन्ता के साथ भविष्य में उसके पुनः संयोग न होने की जो चिन्ता होती है, उसे प्रार्तध्यान कहा गया है। यह दूसरे प्रकार का है । अभीष्ट विषयों का संयोग होने पर उनका भविष्य में कभी वियोग न होने विषयक और वर्तमान में यदि उनका संयोग नहीं है तो उनकी प्राप्ति किस प्रकार से हो इसके लिए भी जो चिन्ता होती है, उसे तीसरा पातध्यान माना जाता है । यदि संयम का परिपालन अथवा तपश्चरण आदि कुछ अनुष्ठान किया गया है तो उसके फलस्वरूप इन्द्र व चक्रवर्ती आदि की विभूतिविषयक प्रार्थना करना इसे चौथे प्रार्तध्यान का लक्षण कहा गया है । ध्यानशतक की तरह तत्त्वार्थ सूत्र में भी अप्रिय वस्तु का संयोग हो जाने पर उसका वियोग होने के लिए पुनः पुनः विचार करना अनिष्टसंयोग नामक प्रथम प्रार्तध्यान है । २० वेदना-पीड़ा से छूटने के लिए जो चित्त की एकाग्रता होती है वह पीड़ा-चिंतन नामक दूसरा पार्तध्यान है। इष्ट (प्रिय) वस्तु का वियोग हो जाने पर उसका संयोग होने के लिए पुनः पुनः विचार करना इष्टवियोग नामक तीसरा प्रार्तध्यान है। २. तपश्चर्या आदि के फलस्वरूप परलोक में सांसारिक विषयों का संकल्प करना निदान नामक चौथा प्रार्तध्यान है। २३ ये चार प्रकार के प्रार्तध्यान अविरत, देशविरति और प्रमत्तसंयत जीवों को ही हुमा करते हैं । २४ प्रार्तध्यान का स्वरूप वणित करते हए उसके फल, लेश्या, लिंग और स्वामियों का निर्देश किया गया है।
(२) रौद्रध्यान-हिंसा, असत्य, चोरी और विषयों की रक्षा के लिये सतत चिन्तन रौद्रध्यान है। यह अविरत और देशविरत जीवों के ही सम्भव हैं । २५ अथवा जिसका मन क्रोध व लोभ के वशीभूत होकर दूसरों की धन-सम्पत्ति आदि के अपहरण में लगा रहता है उसे रौद्रध्यान समझना चाहिये ।
(३) धर्मध्यान-धर्मध्यान के कुल चार प्रकार हैं--(१) प्राज्ञा-विचय, (२) अपाय-विचय, (३) विपाक-विचय और (४) संस्थान-विचय । मन की एकाग्रता धर्मध्यान है।
आत्मा के उद्धार के लिये इसका चिन्तन किया जाय और इस पर मन को एकाग्र कर लिया जाय तब धर्मध्यान के प्रथम प्रकार 'प्राज्ञा-विचय' की निष्पत्ति होती है। राग, द्वेष और कषाय के दोषों से क्या-क्या हानियां होती हैं, जब इनका चिन्तन किया जाय और इन दोषों की शुद्धि के लिये दृढ़ विचार करते हुए उन पर मन को एकाग्र कर लिया जाय तो 'अपाय-विचय'-धर्मध्यान का दूसरा प्रकार सिद्ध होता है ।
२०. पार्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय-स्मृतिसमन्वाहारः ॥ त. सू. ९।३१ २१. वेदनायाश्च ॥ त. सू. ९।३२ २२. विपरीतं मनोज्ञानाम् ॥ त. सू. ९।३३ २३. निदानं च ।। त. सू. ९।३४ २४. तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥ त. सू. ९।३५ २५. हिंसानतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥ त. सू. ९.३६
आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जन
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