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योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण |८१
__ गीता के १७वें अध्याय में यज्ञ, दान, तप तथा कर्म के सत्स्वरूप एवं असत्स्वरूप का विशद विश्लेषण किया गया है। वहाँ अन्त में श्रद्धा के सम्बन्ध में एक बड़ी मार्मिक बात कही गई है। श्रद्धा के बिना किया हुमा हवन, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप और आचरित शुभ कर्म असत् कहलाता है । अर्थात् यज्ञ, दान, तपश्चरण और सत्कर्म अन्त:श्रद्धा और विश्वास के बिना जहाँ होते हैं, वहाँ वे केवल यांत्रिक होते हैं, कर्ता का अन्तर्मन उनसे नहीं जुड़ता। मुख मंत्रोच्चारण करता हैं, हाथ हिलते हैं, द्रव्य, पदार्थ प्रयुक्त होते हैं-प्रदत्त होते हैंहोता यह सब है, पर इस होने के साथ भावना का साहचर्य नहीं है। इसलिए यह सबका सब होना निष्प्राण है। गीताकार इतना और कहते हैं कि इनका न मरने के पश्चात् और न इस लोक में ही सुखप्रद फल होता है।'
गीता के अन्तिम १८वें अध्याय में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को संबोधित कर कहा है कि हमारा यह धर्म्य-धर्मानुप्राणित, धर्ममय संवाद जो पढ़ेगा, उसका यह ज्ञानयज्ञ एक प्रकार से मेरी पूजा या उपासना ही होगा । इस तथ्य को श्रद्धा के साथ जोड़ते हुए उन्होंने विशेष रूप से कहा कि जो श्रद्धावान् ईर्ष्यादि दोषवजित पुरुष इसको सुन भी लेगा, वह पाप-कर्मों से मुक्त होकर पुण्यात्मा पुरुषों को मिलने वाले शुभ लोक प्राप्त कर लेगा।
प्राचार्य शंकर ने यहाँ प्रयुक्त 'अपि' शब्द की व्याख्या करते हुए यह संकेत किया है कि जो पुरुष श्रद्धा से मात्र सुन लेता है, वह भी इतना महान् फल पा लेता है, समझने वाले की तो बात ही क्या?3
श्रद्धा वास्तव में बड़ा दुर्लभ गुण है । यह जीवन-विकास के लिए अत्यन्त उपयोगी है, पर इसे आत्मसात् करना सरल नहीं। श्रद्धा में अन्तर्मन को किसी तत्त्व में समर्पित करना होता है। समर्पण के बिना तादात्म्य नहीं सधता । समर्पित होने के लिए बहुत प्रकार के प्रवलेपों को मन से निकालना होता है, अहंकार, मान, तथाकथित प्रतिष्ठा, प्रशस्ति जिनमें शामिल है। श्रद्धा विनय-सापेक्ष है। उसके लिए विनीत भाव की अत्यन्त आवश्यकता है। उद्धत और उइंड व्यक्ति बहुत बड़ा ज्ञानी भले ही हो जाय, प्रशस्त श्रद्धालु नहीं हो सकता । शास्त्रयोगी की यह विशेषता है, उसमें तीव्र ज्ञान होता है और दृढ़ श्रद्धा होती है । आत्मोन्नयन का सही पथ उसे प्राप्त होता ही है, जिस पर आगे बढ़ने में ये दो गुण उसके लिए एक प्रेरणाशक्ति के रूप में काम करते हैं।
शास्त्रकारों ने बताया है, श्रद्धा दो प्रकार की हैं-संप्रत्ययात्मक तथा प्राज्ञाप्रधान । संप्रत्यय का अर्थ सम्यक रूपेण तत्त्व-प्रतीति है। यह गहन अध्ययन, चिन्तन, मनन एवं परीक्षण१. अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ ! न च तत्प्रेत्य नो इह ।। -श्रीमद्भगवद्गीता १७.२८ २. श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः । सोऽपि मुक्तः शुभल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ।।
-श्रीमद्भगवद्गीता १८-७१ ३. श्रद्धावान् श्रदधानः अनसूयः च असूया वजितः सन् इमं ग्रन्थं शृणुयाद् अपि यो नरः
अपि शब्दात् किमुत अर्थज्ञानवान् सः अपि पापाद् मुक्तः शुभान् प्रशस्तान् लोकान् प्राप्नुयात् पुण्यकर्मणाम् अग्निहोत्रादिकर्मवताम् ।
-श्रीमद्भगवद्गीताशांकरभाष्य १८,७१
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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