________________
योगदृष्टिसमुच्चय एक विश्लेषण / ९१
आठ दृष्टियां स्वरूप
प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने पाठ योग दृष्टियों को संक्षेप में परिभाषित करते हुए
लिखा है-
" तृण के अग्निकण, गोबर या उपले के अग्निकण, काठ के अग्निकण, दीपक की प्रभा, रत्न की प्रभा, तारे की प्रभा, सूर्य की प्रभा तथा चन्द्र की प्रभा के सदृश साधक की दृष्टि आठ प्रकार की होती है ||""
आचार्य ने प्रकाशमूलक विभिन्न उपमानों द्वारा दृष्टियों का स्वरूप प्रकट करने का प्रयत्न किया है ।
मित्रा
मित्रा पहली दृष्टि है, जिसे तृण के अग्निकणों से उपमित किया गया है। तिनकों की अग्नि नाम से अग्नि तो कही जाती है, पर उसके सहारे किसी वस्तु का स्पष्टरूप से दर्शन हो नहीं पाता । उसका प्रकाश क्षण भर के लिए होता है, फिर मिट जाता है, बहुत मन्द, धुंधला या हलका होता है । मित्रा दृष्टि के साथ भी इसी प्रकार की बात है । उसमें बोध की एक हलकी-सी ज्योति एक झलक के रूप में पाती तो है, पर वह टिकती नहीं इसलिए तात्त्विक और पारमार्थिक दृष्ट्या उससे अभीप्सित बोध हो नहीं पाता। वह प्रल्पस्थितिक होती है । मन्द, हल्की, धुंधली और स्वल्पशक्तिक होती है, इसलिए कोई संस्कार निष्पन्न कर नहीं पाती, जिसके सहारे व्यक्ति आध्यात्मिक बोध की ओर गति कर सके । केवल इतना-सा उपयोग इसका है, बोधमय प्रकाश की एक हल्की रश्मि-सी प्राविर्भूत हो जाती है, जो मन में माध्यात्मिक बोध के प्रति बहुत हल्का सा आकर्षण पैदा कर जाती है। संस्कार बनता नहीं, इसलिए ऐसे व्यक्ति द्वारा भावात्मक दृष्टि से शुभ कार्य का समाचरण यथावत् रूप में सधता नहीं, बाह्य या द्रव्यात्मक दृष्टि से वैसा होता है अर्थात् प्रान्तरिक वृत्ति में अध्यात्मोन्मुख स्पन्दन प्रविष्कृत नहीं होता ।
तारा
तारा दूसरी दृष्टि है। इसका बोध गोवर या उपले के अग्निकणों से उपमित किया गया है । तिनकों के अग्निकण और उपले के अग्नि-कण प्रकाश और उष्मा की दृष्टि से कुछ तरतमता लिए रहते हैं। तिनकों की अग्नि की अपेक्षा उपलों की पग्नि प्रकाश की दृष्टि से कुछ विशिष्ट होती है, पर बहुत अन्तर नहीं होता । उपलों की अग्नि का प्रकाश भी अल्पकालिक होता है, लम्बे समय तक टिक नहीं पाता मन्द और अल्पशक्तिक होता है, इसलिए उसके सहारे भी किसी पदार्थ का सम्यक्तया दर्शन हो नहीं पाता। ताश दृष्टि की ऐसी ही स्थिति है। उसमें बोधमय प्रकाश की जो झलक उद्भासित होती है, यद्यपि वह मित्रा दृष्टि में होने वाले प्रकाश से कुछ तीव्र अवश्य होती है, पर स्थिरता, शक्ति आदि अपेक्षा से अधिक
१. तृणगोमयकाष्ठाग्निकण दीपप्रभोषमा ।
रत्नताराकं चन्द्राभासद्दृष्टेर ष्टिरष्टधा ॥ योगदृष्टिसमुच्चय १५
Jain Education International.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org