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आज के जीवन में अपरिग्रह का महत्त्व /३२१
मनुष्य की सामान्य आवश्यकता है भोजन, वस्त्र और मकान । यदि ये वस्तुएँ सभी को सामान्य रूप से उपलब्ध हो जाएं तो व्यक्ति का बहुत कुछ दुःख कम हो सकता है। किन्तु परिग्रह-वृत्ति वाले लोग समाज में कृत्रिम प्रभाव उत्पन्न कर देते हैं और इन वस्तुओं के दाम
आसमान छूने लग जाते हैं, जो सामान्य जन के दुःख का कारण होते हैं । इस तरह से समाज में कुछ ही परिग्रह-वृत्ति वाले लोग अधिकांश लोगों को दुःखी करने में सफल हो जाते हैं।
परिग्रह-वृत्ति का एक आयाम मुनाफाखोरी भी है। इसके वशीभूत होकर व्यक्ति अत्यधिक मुनाफा कमाने लग जाता है और उसे जनजीवन के सुख का कोई भान नहीं रहता है । इसका भी सबसे बड़ा कारण व्यक्ति की अपनी भोग-विलास की प्राकाँक्षा की पूर्ति है। अत्यधिक प्रासक्ति के कारण जीवन में भोग-विलास की प्रवत्ति बढ़ती है और व्यक्ति इस कारण से अत्यधिक मुनाफा कमा करके धन-संचय की ओर अग्रसर हो जाता है।
परिग्रह-वृत्ति से मानसिक क्षमता एवं शांति नष्ट हो जाती है । व्यक्ति में राग-द्वेष की वृत्ति बढ़ने से इसका सामाजिक समायोजन विकृत हो जाता है और समता के अभाव में मनुष्य आत्महित की ओर अग्रसर नहीं हो सकता । जीवन में अशांति होने से मनुष्य में उच्च विचारों का ग्रहण कठिन हो जाता है। व्यसनों के मूल में भी परिग्रहवत्ति ही उपस्थित रहती है।
यदि हम विभिन्न राष्ट्रों के आपसी संबंधों की ओर ध्यान दें तो परिग्रह-वत्ति के कारण शक्तिसंग्रह ही संघर्षों में तनाव उत्पन्न करता है। शक्तिसंग्रह भी परिग्रह-वृत्ति का एक रूप है। विभिन्न राष्ट्र अपनी सीमावृद्धि के लिए तथा वैचारिक मतभेद के कारण दूसरे राष्ट्रों को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं और अपनी शक्ति-संवर्धन के लिए दूसरे राष्ट्रों के साथ युद्ध में उतर जाते हैं। परमाण बम, सेना, हथियार आदि सभी का संग्रह मनुष्य की परिग्रह-वृत्ति से उत्पन्न कलुषित भावना के उदाहरण हैं। परिग्रह-वृत्ति के कारण राष्ट्र अपने विज्ञान एवं वैज्ञानिकों का भी दुरुपयोग करता है। मानव-कल्याण की भावना उनके लिए गौण होती है और अपने राष्ट्र को सर्वोपरि बनाना उनके लिए मुख्य होता है । जिस तरह से व्यक्ति का अहंकार उसको दूसरे व्यक्तियों का शोषण करने में लगाता है उसी प्रकार राष्ट्रों का अपना अहंकार भी दूसरे राष्ट्रों के शोषण में लग जाता है । यह शोषण राष्ट्रों के स्तर पर परिग्रहवृत्ति का ही परिणाम है।
___ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मनुष्य की अधिकांश बुराई के मूल में परिग्रहवृत्ति ही उपस्थित रहती है। मानवीय विकास के लिए इस वृत्ति को नष्ट करना व्यक्तिगत एवं सामाजिक हित में है। जैन-दर्शन ने इस वत्ति की भीषणता को समझा है और उसको समाप्त करने के लिए सम्यक्चारित्र का उपदेश दिया है। यह सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान सहित होना चाहिए । गृहस्थ के लिए परिग्रह-परिमाणवत की व्याख्या की है, जिसका पालन करने से व्यक्तिगत शान्ति एवं सामाजिक विकास दोनों ही संभव हैं। इसलिए हमारे जीवन में अपरिग्रह का अत्यन्त महत्त्व है।
-जैनविद्या एवं प्राकृतविभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय,
उदयपुर (राज.)
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