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अर्चनार्चन
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पंचम खण्ड / २
साधक शब्दानुरूप भावानुभूति का प्रयत्न करता हुआ निम्नांकित वाक्यों का उच्चारण करे -
मुझे सिद्धि की कामना है,
प्रसिद्धि की नहीं ।
मुझे प्रेम चाहिए, दया नहीं।
अपने पुरुषार्थ से प्राप्य को पाना है,
किसी की दया से नहीं ।
आत्मा में समग्र, सर्वव्यापी प्रेम, विश्ववात्सल्य के उद्रेक द्वारा संकीर्ण स्वार्थ का परिहार और वीतरागभाव के स्वीकार का उत्साह इनसे ध्वनित होता है ।
यह अभ्यास की प्रथम भूमिका है, जिससे साधक निर्विकार और निर्मल भावापन मन:स्थिति पाने की ओर अग्रसर होता है।
२. योगमुद्रा
यह मुद्रा ध्यान-साधना की दूसरी स्थिति है। साधक पद्मासन या सुखासन में संस्थित हो । दोनों हाथों की मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका - तीनों अंगुलियां सीधी रहें। अंगुष्ठ घोर तर्जनी परस्पर संयुक्त रहें। यह कायस्थिति एक विशेष भाव-प्रोध की उद्भाविका है। तीनों सीधी अंगुलियां मानसिक शुद्धि वाचिक शुद्धि और काविक शुद्धि की प्रतीक है। जिससे आधि, व्याधि श्रोर उपाधि अपगत होती हैं। आधि मानसिक रुग्णता, वेदना या व्यथा के अर्थ में है । व्याधि का आशय दैहिक अस्वस्थता, पीड़ा या कष्ट है । उपाधि मन, वचन एवं देह की संकल्पविकल्पापन्नता का असन्तुलित, अस्थिर और अव्यवस्थित दशा का द्योतक है । मानव की ये बहुत बड़ी दुर्बलताएं है। इन्हें पराभूत करने का अर्थ सत्य पथ पर अग्रसर होना है । सत्य को ग्रात्मसात् करना, उस पर सुप्रतिष्ठ होना ही वस्तुतः सम्यक्त्व है, जो मात्मोत्कर्ष का प्राथ सोपान है।
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