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आज के जीवन में अपरिग्रह का महत्व
D डॉ० हुकुमचन्द जैन
एम. ए., पी-एच. डी., सहायक आचार्य
यह बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । उसको अपना जीवनयापन करने के लिए विभिन्न प्रकार की वस्तुनों की श्रावश्यकता होती है। उन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु समाज में रहकर विभिन्न प्रकार के प्रयत्न करता है और आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त करके अपने जीवन को सुचारु रूप से चलाता है। किन्तु मनुष्य में बुराई वहाँ से प्रारम्भ होती है, जहाँ से वह अपनी इच्छाओं को संयमित करने के बजाय उनकी वृद्धि करता है और उनकी पूर्ति हेतु कुमार्ग पर चल पड़ता है। यही उसके जीवन का अन्धकारमय पक्ष है । इसी अन्धकारमय पक्ष के वशीभूत होकर वह वस्तुओं का अनावश्यक संग्रह प्रारम्भ कर देता है और इस तरह से उसमें परिग्रह-वृत्ति जन्म से लेती है। इसी परिग्रह-वृत्ति से मानसिक विकारों की परम्परा प्रारम्भ हो जाती है । इन मानसिक विकारों की परम्परा के मूल में इच्छा - तृष्णा विद्यमान रहती है । उत्तराध्ययन सूत्र में ठीक ही कहा है, यदि कैलाश पर्वत के समान सोने चाँदी के असंख्य पर्वत हों फिर भी तृष्णावान् मनुष्य को उन पर्वतों से कुछ भी संतोष नहीं मिलता । निश्चय ही इच्छा प्राकाश के समान अनन्त है। मनुष्य की कुछ प्रवृत्ति ऐसी होती है कि लाभ होने के साथ लोभ की वृत्ति बढ़ जाती है श्रोर लोभ-वृत्ति ही परिग्रहवृत्ति को बढ़ाती है। यह परिग्रह वृत्ति जब सीमा को लांघ जाती है तो व्यक्ति वस्तुओं की प्राप्ति के लिए हिंसा, चोरी, प्रसत्य श्रादि का दास हो जाता है । जो व्यक्ति उसकी परिग्रहवृत्ति के पोषण में सहायक होता है, उसको ही वह अपना समझता है और जो व्यक्ति उसकी परिग्रह-वृत्ति पर रोक लगाना चाहते हैं उनसे उनका वैर हो जाता है। इस कारण से उसके जीवन में क्रोध कषाय प्रबल हो जाता है । जैसे उसके लिए क्रोध प्रबल हो जाता है वैसे अत्याचार करने में उसको कोई हिचकिचाहट नहीं होती। इसी परिग्रह-वृत्ति के कारण वह अनेक प्रकार के दुःखों से ग्रस्त हो जाता है । सदैव एक मानसिक क्षोभ का अनुभव करता है । इसी मानसिक क्षोभ का उदाहरण नेमिचन्द्रसूरि कृत रयणचूडरायचरियं में देखा जा सकता है । हिण्डोला-क्रीड़ा के समय मानसिक काम - विकार की पूर्ति हेतु धन का अनावश्यक संचय करने के लिए सोमप्रभ ब्राह्मण जंगल-जंगल भटक कर मानसिक दुःखों से पीड़ित रहता है।
परिग्रहवृत्ति का प्रबलतम कारण मनुष्य की प्रासक्तिमय मानसिक अवस्था है। इस श्रासक्ति के परिणामस्वरूप व्यक्ति जीवन में अनावश्यक संग्रह को महत्त्व देने लगता है । यह संग्रहवृत्ति एक ओर जहाँ व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है, वहाँ दूसरी और सामाजिक जीवन को भी गड़बड़ा देती है। संप्रवृत्ति से बाजार में कृत्रिम प्रभाव पैदा हो जाता है, वस्तुनों के भावों में तेजी आने लगती है जिससे सामान्य जन कठिनाई का अनुभव करता है । इससे गरीब और अधिक गरीब हो जाता है और अधिक अमीर हो जाते हैं। समाज में एक प्रार्थिक विषमता शोषणवृत्ति फैलती है एवं भ्रष्टाचार को प्रश्रय मिलता है।
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परिग्रह - वृत्ति वाले श्रमीर उत्पन्न हो जाती है । इससे
१. उत्तराध्ययनसूत्र, नमिपवज्जा अध्ययन, गा० नं० ४८ २. समणसुत्त, गा० नं० ९७
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