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तत्त्व-चिन्तन के सन्दर्भ में अनुभूतिपरक सत्य का एक अद्भुत उपक्रम | ३४३
जगत् की तो गिनती ही क्या है ? शेषनाग से लेकर ब्रह्मा पर्यन्त सभी इसे ध्याते हैं, प्राप्त करने की कामना करते हैं । बन्धावस्था तथा बाह्य दष्टि से मुक्तता इन दोनों के आगे मोक्ष स्वरूप की अवस्थिति है। यहाँ तक की खबर तो सब ले आये, यहाँ तक की गति, प्रगति, स्थिति आदि तक को तो सबने समझा किन्तु इससे आगे क्या है ? इसे कोई नहीं जान पाया । मुख राम कहते हैं कि यथार्थता-वास्तविकता, असलियत तब प्राप्त हो, जव जैसा यहाँ बताया गया है, उस पद का अवलम्बन किया जाय । वैराग्य और अभ्यास द्वारा सत्-स्वरूप को अधिगत किया जाय । वैसी स्थिति में ब्रह्मानन्द या शुद्ध चैतन्यानुभूति प्राप्त होती है, जिसका प्राप्त होना जीवन का साफल्य है।
एक पद में वे पुन: केवलज्ञान की चर्चा करते हैं, लिखते हैं
बांदा ! केवल को घर न्यारो। करामात क्रिया सब झूठी सांचो नांव विचारो। करामात सू सब कोई रीझे, ग्यानी दरसण सारा ।
ओ सुण अर्थ न सूझे किसक, माया चरित विचारा ॥१॥ मायी जहां राम सुण नाहि, राम जहाँ नहीं माया । ओ सुण भेद न जाणे कोई, परचा कहाँ सु आया ॥२॥ देखो भूल ग्यान दरसण में परचा सकल सरावे। जिण जनक माया बिध मारचो, ताकी शोभा गावे ॥३॥ ब्रह्मलोक जाता • बीचे, माया है बट फाड़ी।
सतगुरुशरण तत जहाँ भ्यासे, जिण जन पटक पछाड़ी ॥४॥ इस पद्य में संत ने कैवल्य की महिमा का बड़े मार्मिक तथा सशक्त शब्दों में विवेचन किया है । साधनोत्सुक पुरुष को सम्बोधित कर वे कहते हैं-मानव ! कैवल्य का स्थान, कैवल्यमयी स्थिति वास्तव में सबसे न्यारी, अनठी है। यह परम उत्कृष्टतम सिद्धि है। लौकिक लक्ष्य से प्राचीर्ण साधनाक्रम, ध्यान, योगाभ्यास, मन्त्राराधन से प्राप्त चामत्कारिक सिद्धियाँ वास्तव में मिथ्या हैं । चमत्कार प्रस्तुत करना साधक का लक्ष्य नहीं होता। चमत्कार-प्रदर्शन द्वारा साधना विकृत, दूषित और क्षीण हो जाती है। अतएव सन्त बड़े स्पष्ट शब्दों में "करामात क्रिया सब झूठी" यों कहते हुए उसका नैरर्थक्य प्रकट करते हैं। वे जानते हैं कि जगत् चमत्कारों से प्रभावित होता है। वह चमत्कारों को नमस्कार करता है, क्योंकि वह एषणामों तथा कामनाओं से प्रापूर्ण होता है, अतएव वह मन में प्राशा संजोये रहता है कि चमत्कारी पुरुष उसे लाभान्वित करेंगे। यह चमत्कार की दुनिया बड़ी विचित्र है। जन-साधारण तो इससे प्रभावित होते ही हैं, जिन्हें हम विद्वान् कहते हैं, वे भी चमत्कारों के प्रभाव से अछूते नहीं रहते, यह बड़े दुःख का विषय है। ऐसे व्यक्ति अक्षरज्ञ कहे जा सकते हैं, वस्तुतः विद्वान् नहीं । विद्या प्राप्त हो जाए और ऐसी एषणापूर्ण, लुब्धतापूर्ण हीनवृत्ति बनी रहे, यह कदापि संगत नहीं होता। संत के अनुसार यह माया है, प्रवंचना है, अविद्या है, प्रज्ञान है। जहाँ माया का अस्तित्व होता है, वहाँ प्रभु नहीं मिलते ।
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