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जैनधर्म में अहिंसा | ३१९
बिन्दु पर एकमत दिखाई पड़ते हैं कि अहितकारी सत्य भी असत्य और हितकारी प्रसत्य भी सत्य है । उदाहरण के लिए, अगर किसी रोगी की हालत बिगडने लगती है, तो डॉक्टर हितभावना से उसकी तसल्ली के लिए उसके हृदय को मृत्यु के पातंक से बचाने के लिए उसके ठीक हो जाने का झूठा आश्वासन देता है । यह हितकारी होने के कारण असत्य होते हुए भी सत्य ही है। ठीक इसके विपरीत रोग की भीषणता की सत्य बात कहकर रोगी को प्रातंकित करने वाला व्यक्ति सत्य बोलते हुए भी अहितकारी होने के कारण असत्य या हिंसक वाणी बोलता है। इसी सन्दर्भ में 'लाटीसंहिता' में जिन-वचन का उल्लेख प्राप्त होता है:
सत्यमसत्यतां याति क्वचिद् हिसानुबन्धतः ।
असत्यं सत्यतां याति क्वचिद् जीवस्य रक्षणात् ॥ अर्थात् जिस बात से जीव हिंसा संभव हो, वह सत्य होकर भी प्रसत्य हो जाता है। इसी प्रकार, क्वचित् जीवों की रक्षा होने से असत्य वचन भी सत्य हो जाता है। 'अनगारधर्मामृत' में इसी सिद्धान्त का समर्थन किया है:
सत्यं प्रियं हितं चाहुः सूनृतं सूनृतव्रताः।
तत्सत्यमपि नो सत्यमप्रियं चाहितं च यत् ।। जो वचन प्रशस्त, कल्याणकारक आह्लादक तथा उपकारी हो, ऐसे वचन को सत्यव्रत पुरुषों ने सत्य कहा है, किन्तु वह वाणी सत्य होकर भी सत्य नहीं है जो प्रप्रिय और अहितकर अर्थात् हिंसक है।
जैनधर्म की अहिंसा की यह व्याख्या अतिशय व्यावहारिक होने के कारण वर्तमान सन्दर्भ में भी अपना ततोऽधिक मूल्य रखती है ।
-पी० एन० सिन्हा कॉलोनी,
मिखना पहाड़ी, पटना-८००००६
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