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चतुर्थ खण्ड | २८६
प्राचार्य अपराजित का अभिमत है कि पंच महाव्रत सम्बन्धी अतिक्रमण होने पर एक सौ पाठ उच्छ्वासों का कायोत्सर्ग करना चाहिए । कायोत्सर्ग करते समय मानसिक चंचलता से अथवा उच्छ्वासों की संख्या की परिगणना में संदेह उत्पन्न हो जाय तो पाठ श्वासोच्छ्वासों का और अधिक कायोत्सर्ग करना चाहिए । ३४
कायोत्सर्ग की साधना में मानसिक एकाग्रता सर्वप्रथम आवश्यक है। कायोत्सर्ग अनेक प्रयोजनों से किया जाता है। इसका मुख्य और मूल प्रयोजन है-क्रोध, मान, माया और लोभ का उपशमन करना । ३५ विघ्न, बाधा, अमंगल आदि के परिहार के लिए भी कायोत्सर्ग का विधान है। किसी शुभ कार्य के प्रारम्भ में यदि किसी भी प्रकार का उपसर्ग, अपशकुन हो जाए तो पाठ श्वास-प्रश्वास का कायोत्सर्ग करना चाहिए और उस कायोत्सर्ग में महामंत्र "नमस्कार" का चिन्तन करना अपेक्षित है।
दूसरी बार पुनः बाधा उपस्थित हो जाय तो सोलह श्वास-प्रश्वास का कायोत्सर्ग कर दो बार नमस्कार महामन्त्र का चिन्तन करना चाहिए। यदि तीसरी बार भी विघ्न-बाधा उपस्थित हो जाय तो बत्तीस श्वास-प्रश्वास का कायोत्सर्ग कर चार बार नमस्कार महामन्त्र का चिन्तन करना चाहिए। यदि चौथी बार भी बाधा उपस्थित हो तो विघ्न अवश्य होगा ऐसी संभावना समझकर विहार यात्रा को और शुभ कार्य को प्रारम्भ नहीं करना चाहिए।
हमारे शरीर में जितनी भी शक्तियां विद्यमान हैं उन समस्त शक्तियों से भलीभांति परिचित होने का सबसे सुगम मार्ग "कायोत्सर्ग" है। कायोत्सर्ग एक ऐसी साधनापद्धति है जिसमें श्वास शनैः शनैः सूक्ष्म होता चला जाता है । श्वास, प्रश्वास को सूक्ष्मता से कायोत्सर्ग घटित हो जाता है। उसके साथ ही साधक को यह स्पष्टतः ज्ञात होता है कि मैं अन्य हैं और यह शरीर मेरे से भिन्न है; और ऐसा क्षण प्राता है जब साधक तन एवं मन इन दोनों से ऊपर उठकर प्रात्मरूप हो जाता है।
श्वास की कुछ स्थितियां हैं, जिनका बोध होना अतिआवश्यक है-वे स्थितियां इस प्रकार हैं।
१. सहज श्वास २. शान्त श्वास ३. उखड़ी श्वास ४. विक्षिप्त श्वास ५. तेज श्वास ।
अध्यात्म-साधक सर्वप्रथम श्वास को गहरी और लम्बी करता है। उसके बाद लयबद्ध श्वास का अभ्यास करता है । फिर सूक्ष्म शान्त एवं जमी हुई श्वास का अभ्यास करता है। चतुर्थ अभ्यास में वह साधक अपने आप को सहज-कुम्भक स्थिति में पाता है। इसी सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि तेज श्वास लेना, साधक के लिए उपयोगी नहीं है। कारण यह है कि
३४. मूलाराधना २, ११६ विजयोदया वृत्ति ३५. कायोत्सर्गशतक गाथा-८ ३९. व्यवहारभाष्य, पीठिका, गाथा-११८, ११९
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