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चतुर्थ खण्ड | २९०
किया जाय, वह स्थान एकान्त हो, शान्त हो तथा जीव-जन्तुओं से रहित होना चाहिये। ४२
श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दोनों परम्पराओं के साहित्य के पर्यवेक्षण से यह सूर्य के प्रकाश की तरह सुस्पष्ट है कि प्राचीन काल में श्रमण-साधकों के लिए कायोत्सर्ग का विधान विशेष रूप से रहा है। श्रमण को पुन: पुन: कायोत्सर्ग करना चाहिये । ४३ उसे दिन और रात में कुल अट्ठाइस बार कायोत्सर्ग करना चाहिये। स्वाध्यायकाल में बारह बार, वन्दनकाल में छ: बार, प्रतिक्रमण काल में पाठ बार और योग भक्तिकाल में दो बार इस प्रकार कुल अट्ठाईस बार कायोत्सर्ग करना चाहिए । ४४
कायोत्सर्ग के अनेक फल हैं, संक्षेप में उनका वर्णन इस प्रकार है
१.देहजाड्य शुद्धि-श्लेष्म आदि के द्वारा शरीर में जड़ता पा जाती है, कायोत्सर्ग की साधना से श्लेष्म आदि दोष विनष्ट हो जाते हैं। इसलिए उनसे उत्पन्न होने वाली जड़ता भी समाप्त हो जाती है।
२. मतिजाड्य शुद्धि-कायोत्सर्ग में मानसिक प्रवृत्तियाँ केन्द्रित हो जाती हैं । उससे चित्त एकाग्र होता है, बौद्धिक-जड़ता विनष्ट होकर उसमें तीक्ष्णता आती है ।
३. सुख-दुःख-तितिक्षा-कायोत्सर्ग से सुख और दुःख सहन करने की अद्भुत क्षमता उत्पन्न होती है।
४. अनुप्रेक्षा-कायोत्सर्ग में अवस्थित साधक अनुप्रेक्षा अर्थात् भावना का स्थिरतापूर्वक अभ्यास करता है।
५. ध्यान-कायोत्सर्ग में धर्मध्यान और शुक्लध्यान का सहज अभ्यास हो जाता है।
वास्तविकता यह है कि इसकी साधना से जीवन में निर्ममत्व, निस्पृहता और अनासक्ति की भव्य-भावना लहराने लगती है। शरीर में ममत्व का निरास करना ४७ परिमित काल
४२. तत्र शरीरनिस्पृहः स्थाणु रिवोर्ध्वकाय: प्रलम्बितभुज: प्रशस्तध्यानपरिणतोऽनुन्न मितानतकायः परीषहानुपसर्गाश्च सहमानः तिष्ठन्निर्जन्तुके कर्मापायाभिलाषी विविक्ते वेशे ।
-मूलाराधना २-११३, विजयोदया पृ२७८-७९ प्राचार्य अपराजित । ४४. क-उत्तराध्ययन सूत्र अ-२६ गाथा-३९ से ५१ तक
ख-अभिक्खणं काउसग्गकाऽरी। -दशवकालिक चलिका २-७ ४५. अष्टविंशति संख्याना: कायोत्सर्गा मता जिनः ।
अहोरात्रगता सर्वे षडावश्यककारिणाम् ।। स्वाध्याये द्वादश प्राज्ञैः वन्दनायां षडीरिताः। अष्टौ प्रतिक्रमे योग भक्तौ तौ द्वावदाहृतौ ॥
-आचार्य अमितगति श्रावकाचार ८१६६-६७ ४६. क-कायोत्सर्ग शतक, गाथा-१३ ।
ख-व्यवहारभाष्यपीठिका गाथा-१२५ ४७. देहे ममत्वनिरास: कायोत्सर्गः -भगवती अराधना वि-६।३२
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