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चतुर्थखण्ड / २९८ (१६) बंधन और मुक्ति उसी के पुरुषार्थ श्रौर संकल्प पर निर्भर करते हैं। इसके लिए उसे बाहरी शक्तियों का कोई योग सहयोग प्राप्त नहीं हुआ करता
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आध्यात्मिक दृष्टि से म्रात्मा को तीन कोटियों में बांटा गया है— बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा (१७) बहिरात्मा अपने शरीर को ही अपनी आत्मा समझता है और शरीरविनाश में स्वयं का विनाश मान लेता है । (१८) ऐसा जीव इन्द्रियों के व्यापार में सक्रिय रहता है, प्रासक्त रहता है । जब उसे अनुकूलता होती है तब प्रसन्नता अनुभूत करता है और जब उसे प्रतिकूलता होती है तब अनुभव करता है दुःखातिरेक (१९) उसे मृत्यु अर्थात् मरण का अतिशय भय रहता है। (२०) उसके शरीर में प्रसन्न ज्ञान के बोध न होने से वह प्राणी अनन्त काल तक संसार के चंक्रमण में गतिशील रहता है ।
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(२१) अन्तरात्मा अपनी आत्मा और शरीर में भिन्नता अनुभव करता है । (२२) इसी लिए उसमें किसी प्रकार का भय नहीं होता है अर्थात् लोकभय, परलोक भय मृत्युभय, आदि से वह सर्वथा मुक्त रहता है उसमें किसी प्रकार का मद नहीं रहता अर्थात् कुल, जाति, रूप, ज्ञान, धन, बल, तप तथा प्रभुता श्रादि के मदों से रहित होता है । (२३) अन्तरात्मा अवस्था में जीव को सांसारिक पदार्थों और उनके भोग में किसी प्रकार की श्रासक्ति नहीं रहती । साथ ही ऐसे अनासक्त प्राणी को जन्म-मरण के दुःखों से यथाशीघ्र निवृत्ति मिल जाती है ।
(२४) बहिरात्मा और अन्तरात्मा के पश्चात् जीव की विशिष्ट अवस्था है-परमात्मा । परमात्मा वह जिसने अपनी आत्मा का पूर्ण उत्थान कर लिया हो और जो काम, क्रोध प्रादि दोषों से सर्वथा मुक्त हो चुका हो । (२५) उसमें अनन्त चतुष्टय जाग जाते हैं और वह आवागमन के चक्र से परिमुक्त हो जाता है । पहला, दूसरा और तीसरा गुणस्थान बहिरात्मा श्रवस्था का चित्रण है। चौथे से बारहवें गुणस्थान अन्तरात्मा अवस्था का दिग्दर्शन हैं और तेरहवां चौदहवाँ गुणस्थान परमात्मा प्रवस्था का है।
(२६) आत्मा का स्वभाव है ज्ञानमय । वह स्वभाव कर्म करें तो प्रकट हो । ध्यान से कर्म विपाक बंधते और कटते भी हैं अशुभ ध्यान संसार का कारण है और शुभ ध्यान मोह का कारण पहिले तीन गुणस्थानों में घातं और शेद्र ये दो ध्यान ही पाए जाते हैं। चौथे और पाँचवें गुणस्थान में श्रार्त्त और रौद्र ध्यान के प्रतिरिक्त सम्यक्त्व की प्रभावना से धर्मध्यान भी होता है । छठे गुणस्थान में प्रार्त्त और धर्मध्यान की संभावना रह जाती हैं । यहाँ रौद्रध्यान छूट जाता है। सातवें गुणस्थान में केवल धर्मध्यान होता है। यहाँ तक आते-जाते रौद्र और प्रार्त्तध्यान छूट जाता है। घाट से बारहवें गुणस्थानों तक अर्थात् इन पाँच गुणस्थानों में केवल धर्मध्यान के साथ एक ध्यान और जागता है वह है शुक्ल । यह शुक्लध्यान मूलाधार है मोक्ष की प्राप्ति का इसीलिए अगले गुणस्थानों में केवल शुक्लध्यान होता है।
(२७) जो स्थान योगवाशिष्ठ २८ में तथा पातंजल योगसूत्र में (२७) मज्ञानी जीव का है वही लक्षण जैन धर्म में मिथ्यादृष्टि अथवा बहिरात्मा के नाम से उल्लिखित है । (३०) जीव को परमात्म अवस्था प्राप्त्यर्थं अपनी मिध्यादृष्टि का परिष्कार करना आवश्यक है । वह मिध्यादृष्टि से सम्यक् दृष्टि हो जाता है तभी उसमें विकसित होकर परमात्म-लक्षण मुखर होते हैं।
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