________________
चतुर्थ खण्ड / २८४
१. ज्ञानावरणीय
२. दर्शनावरणीय ३. वेदनीय
४. मोहनीय ५. आयु
६. नाम ७. गोत्र
८. अन्तराय उक्त अष्ट प्रकार के कर्मों एवं कर्मबन्ध के कारणों को नष्ट करने के लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह कर्मव्युत्सर्ग है ।२८
कायोत्सर्ग के जो विभिन्न प्रकार बताये गये हैं, वे शारीरिक दृष्टि और विचार की दृष्टि से हैं। पर प्रयोजन की अपेक्षा से कायोत्सर्ग दो रूप में किया जाता है। एक है-चेष्टाकायोत्सर्ग और दूसरा है-अभिभव-कायोत्सर्ग । २६
इन दोनों में जो चेष्टाकायोत्सर्ग है वह दोषशुद्धि के लिए किया जाता है। जब श्रमण शौच या भिक्षा आदि के लिए बाहर जाता है अथवा निद्रा आदि में जो प्रवृत्ति होती है, उसमें दोष लगने पर उसकी विशुद्धि के लिए किया जाता है। यह कायोत्सर्ग परिमित काल के लिए प्रायश्चितस्वरूप होता है। दूसरा अभिभवकायोत्सर्ग दो स्थितियों में किया जाता है-प्रथम दीर्घकाल तक प्रात्म-चिन्तन के लिए साधक प्रात्मशुद्धि हेतु मन को एकाग्र करने का प्रयास करता है। और दूसरा संकट पाने पर, जैसे राजा अग्निकाण्ड, दुर्भिक्ष, विप्लव आदि । यह कायोत्सर्ग यावज्जीवन के लिए होता है। उपसर्ग-विशेष के आने पर जीवनपर्यन्त के लिए जो सागारी संथारा रूप कायोत्सर्ग किया जाता है उसमें यह भावना भी रहती है कि यदि मैं इस उपसर्ग के कारण मर जाऊँ तो मेरा यह कायोत्सर्ग यावज्जीवन के लिए है। यदि मैं जीवित बच जाऊँ तो उपसर्ग रहने तक कायोत्सर्ग है। अभिभव कायोत्सर्ग का दूसरा रूप संस्तारक अर्थात् संथारे का है। यावज्जीवन संथारा करते समय जो काय का उत्सर्ग किया जाता है वह भवचरिम अर्थात् आमरण अनशन के रूप में होता है। प्रथम चेष्टा कायोत्सर्ग, उस अन्तिम अभिभव कायोत्सर्ग के लिए अभ्यास-स्वरूप होता है। नित्य प्रति कायोत्सर्ग-साधना का अभ्यास करते रहने से एक दिन वह आत्मबल उपलब्ध हो सकता है, जिसके फलस्वरूप अध्यात्मसाधक एक दिन मृत्यु के सन्मुख निर्भीक खड़ा हो जाता है। वह मर कर भी मरण पर विजय प्राप्त कर लेता है।
२७. (ख) स्थानांगसूत्र ८।३।५९६
(ग) भगवतीसूत्र शतक-६, उद्धेशा-९ (घ) प्रज्ञापनासूत्र २३३१
(ङ) प्रथमकर्मग्रन्थ, गाथा-३ २८. (क) स्थानांगसूत्र-४१८
(ख) समवायांगसूत्र, समवाय-५
(ग) तत्त्वार्थसूत्र, अध्ययन-८१ २९. जो उसग्गो दुविहो चिट्ठए अभिभवे य नायव्यो । भिक्खायरियाइ पढमो उवसग्गभिजुजणे बिइयो ।
-प्रावश्यकनियुक्ति, गाथा-१४५२ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org