________________
चतुर्थ खण्ड /२६२
प्रशुभ मन
पाप का सृजन करता है । क्रोध, मान, माया, लोभ जैसे दुर्गुण स्वीकार करता है। हिंसा झूठ चोरी कुशील परिग्रह पाप बटोरता है । जुया खेलना, मांस खाना, मदिरापान करना, वैश्या-गमन करना, शिकार खेलना, चोरी करना, परकीया रमणी से रमण करना जैसे नशा व्यसन करता है। ज्ञान, पूजा, जाति, कुल, बल, ऋद्धि, तप वपु, के मद में मतवाला होता है । खानो, पिनो और मस्त रहो का परमविश्वासी होता है। 'लेकर दिया, कमाकर खायातो तुं व्यर्थ जगत में आया' का अपार आस्थावान होता है। यह भौतिक संस्कृति व पाश्चात्य सभ्यता का परम उपासक होता है। स्वर्ग और नरक, धर्म और कर्म का अतीव अविश्वासी होता है। यह प्रबल स्वार्थी बहभाग में आत्मकेन्द्रित होता है।
शुभ मन
पुण्य का सृजन-संचयन करता है। क्षमा, मदुता, सरलता, निर्लोभता जैसे सद्गुण स्वीकारता है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह को भी अपूर्णतया अथवा पूर्णतया स्वीकारता है। यह विपरीत मान्यतामूलक मिथ्यात्व से बचता है, मिथ्या प्राचार विचार इसे सुहाते नहीं हैं। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य, मोक्षमूलक सम्यक्त्व इसे रुचता है, यह श्रमणोपासक बनकर श्रमण भी बनने को उत्सुक रहता है। यह लोक-परलोक का विश्वासी होता है। सहधर्मी बन्धुओं के प्रति अनुरागी होता है। शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य पर इसकी अखण्ड आस्था होती है। यह अल्पल्पारम्भी, अल्पपरिग्रही, स्वदारसन्तोषी होकर लोक-जीवन में प्रामाणिक व्यक्ति होता है । यह श्रद्धा-विवेक-क्रियावान् होने से शुद्ध मन लिए परोपकारपरायण होता है व जीव-दया का केन्द्र-बिन्दु होता है।
शुद्ध मन
अशुभ मन रागो-द्वेषी होता है, शुभमन राग-द्वेष से बचने के लिए प्रयत्नशील होता है, पर शुद्ध मन लोक में रह अलौकिक जीवन्मुक्त होता है। यह वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोपदेशी बनने के लिए सर्वस्व समर्पण करता है। शुद्ध मन तो समता दर्शन का जनक होता है । शुद्ध मन समभाव के धर्म का उत्स होता है शुद्ध मन सद्य:शिशु सा अतीव निर्विकार होता है। यह काँच-कंचन, महल-मसान, निन्दा-प्रशंसा, सुख-दुःख, शत्र-मित्र जैसे भेद-भावों से ऊपर उठता है । समाज से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहकर बहुत कुछ देने के लिए कृतसंकल्प होता है। इसकी जिजीविषा, अनुभूति, आचरणशीलता अद्भुत अनोखी होती है। लोग इसे पाकर अपना अहोभाग्य समझते हैं । यह बाहर-भीतर एक होता है ।
नियमन की दृष्टि से मन को दो विभागों में विभक्त किया जा सकता है :(१) नियन्त्रित मन (२) अनियन्त्रित मन ।
नियन्त्रित मन-पूर्वापर विचारक होता है। लोक-लाज से भयभीत होता है । धर्मभीरुता को गुण मानता है। पाप से डरता है, पुण्य पर प्राण देता है। संयम और साहस को स्वीकारने वाला नियन्त्रित मन अपनी गति (गमन-शक्ति) को सुगति बना लेता है । अपने स्वामी को मनुष्य और देवगति में ही नहीं बल्कि ऊर्ध्वमुखी होने से लोकाग्रत्तिनी सिद्ध-शिला पर भी आसीन कराता है। जन्म, जरा और मरण के दुखों से मुक्ति के लिए नियन्त्रित मन रामबाण ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org