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चतुर्थ खण्ड / ११२
अर्चमार्चम
गाथा १४-पद्मलेश्या का रस वैसा ही होता है जैसा उत्तम सुरा, फूलों से बने विविध पासव, मधु (मद्यविशेष) तथा मैरेयक का रस अम्ल-कसला होता है। उदाहरण है तथा 'रसो' शब्द दो बार पाया, अतः यमक है।
गाथा १५-शुक्ल लेश्या का रस मोठा होता है जैसा खजूर, दाख, क्षीर, खाँड और शक्कर का रस होता है। उदाहण तथा 'रसो' शब्द दो बार वाया है, अतः यमक है।
__ गाथा १६-१७-गाय, कुत्ते और सर्प के मृतक शरीर से जैसी दुर्गन्ध आती है वैसी कृष्ण, नील और कापोतलेश्याओं की गन्ध होती है तथा सुगन्धित पुष्प और पीसे जा रहे सुगन्धित पदार्थों की जैसी गन्ध है वैसी तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्याओं की गन्ध होती है । अतः उदाहरण है।
गाथा १८-१९-कवच (करवत), गाय की जीभ और शाक वृक्ष के पत्रों का स्पर्श जैसे कर्कश होता है वैसा कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओं का स्पर्श होता है। तथा बूर (वनस्पति विशेष), नवनीत, सिरीष के फूल का स्पर्श कोमल होता है वैसा ही तेज, पद्म और शुक्ललेश्या का होता है। इनमें भी उदाहरण अलंकार है।
अध्ययन ३५-गाथा १२-मत्थि जोइसमे सत्थे'-अग्नि के समान दूसरा कोई नहीं है। उपमालंकार ।
अध्ययन ३६-गाथा ५७-६०---'ईसीपब्भारनामा उ, पुढवो छत्तसंठिया'ईषत्प्राग्भारा नामक पृथ्वी छत्राकार है। रूपकालंकार ।
गाथा ६१-'संखंक-कुदसंकासा, पण्डुरा निम्मला सुहा'--शंख, अंकरत्न और कुन्द पुष्प के समान श्वेत/निर्मल और शुभ है । उपमालंकार।
गाथा ६६-'अउलं सुहं संपत्ता, उवमा जस्स नत्थि-जिसकी कोई उपमा नहीं है ऐसा अतुल सुख उन्हें प्राप्त है । अनुपमेय ।
इस प्रकार क्रमश: ३६ ही अध्ययनों में मेरी अबोध दृष्टिगत जो अलंकार उपलब्ध हुए उनका यहाँ निरूपण किया गया है।
यदि सम्पूर्ण कलात्मक दृष्टि से इस सूत्र पर विचार किया जाये तो निबन्ध के रूप में लिखना अतीव कठिन है। क्योंकि जितना विशद यह सूत्र भावात्मक दृष्टि से है उतना ही विशद इसका कलात्मक परिवेश भी है। अतः केवल अलंकार पक्ष को लेकर यह निबन्ध प्रस्तुत किया गया है। फिर भी निबन्ध काफी विस्तृत हो गया है।
इस निबन्ध को तैयार करने में 'श्री उत्तराध्ययनसूत्र' पूज्य प्राचार्य प्रवर श्री आत्मारामजी म. एवं महासती श्री चंदनाजी के द्वारा अनूदित सूत्र का आधार लिया गया है । तथा अलंकारों के लिए संक्षिप्त अलंकार मंजरी' (ले. सेठ कन्हैयालाल पोद्दार) का सहारा लिया है।
प्रस्तुत निबन्ध में भूल होने की संभावना हो सकती है । अतः उसके लिये मैं उत्तरदायी हूँ। वीतराग-वाणी का कलात्मक दृष्टि से मनन करते हुए यदि पाशातना हुई हो तो 'मिच्छा मि-दुक्कडं।'
-मालवकेसरी पूज्य श्री सौभाग्यमलजी के शिष्य
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