________________
Jain Education International
चतुर्थखण्ड / २४० यद्यपि कभी-कभी इनके द्वारा आयुः फल भी प्राप्त होता है । एक दो उदाहरण ऐसे भी प्राप्त हैं जहाँ दृष्ट जन्मवेदनीयकर्म का विकास जन्म के रूप में भी हुआ है । नन्दीश्वर और नहुष् के कथानक इसके उदाहरण हैं।"
व्यास के अनुसार अदृष्ट जन्मवेदनीय कर्म पुनः दो प्रकार के हैं-- नियत विपाक, और. अनियतविपाक नियतविपाक कर्माशय वह है जिसके फल का प्रतिबन्धन अन्य किन्हीं सबल कर्मों द्वारा नहीं होता, बल्कि उसका फल अवश्य ही भोगना है। प्रनियतविपाक कर्माशय के फल का प्रतिबन्धन अन्य कर्माशय द्वारा हो सकता है । इसकी तीन स्थितियाँ हो सकती हैं। (१) विपाक के बिना ही नाश, (२) प्रधान कर्म के साथ उसका भी फलभोग, (३) नियतविपाक प्रधानकर्म के द्वारा अभिभूत होने से चिरकाल तक भोग के बिना अवस्थिति । विपाक के बिना ही कर्म का नाश तब होता है, जब उस कर्म के विपरीत फल वाले कर्मों का समूह विद्यमान हो । प्रायश्चित्त के फलस्वरूप अनियतविपाक कर्म का ही नाश होता है, उपनिषद् वाक्य भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं ।
योगसूत्र के टीकाकार नागोजि भट्ट कर्माशय का विभाजन कुछ भिन्न प्रकार से करते हैं। उनके अनुसार प्रथमतः कर्माशय के दो भेद हैं : प्रारब्ध फलवाला और अनारब्ध फल वाला । इनमें प्रारब्ध फल वाले कर्माशय का भोग इसी जन्म में होता है । अनारब्ध फलवाले कर्माशय का विभाजन उन्होंने तीन भेदों में किया है—शुक्ल, कृष्ण एवं शुक्लकृष्ण स्वाध्याय जप आदि शुक्ल कर्माशय कहे जाते हैं, जिनके सम्पादन के क्रम में परपीड़ा आदि का अवसर कभी उपस्थित नहीं होता । ये कर्म ( शुक्ल कर्म) परिणाम के आधार पर अत्यन्त सबल कहे जा सकते हैं, क्योंकि इनका उदय होने से अन्य कृष्ण अथवा शुक्लकृष्ण कर्मों का प्रभाव नष्ट हो जाता है। शुक्ल कर्मों के द्वारा जिन कर्मों का प्रभाव नष्ट होता है, उन्हें अनारब्ध फल वाले कर्म कहा जाता है। वैदिक पशुहिंसा आदि कर्म कृष्ण कर्म है, किन्तु जब ये कृष्ण कर्म वैदिक यज्ञों के साथ किये जाते हैं, तब इन कृष्ण कर्मों के फल का भोग प्रधान कर्म यज्ञ आदि के फल के भोग के साथ ही होता है ये अप्रधान कर्म स्वतन्त्र रूप से कर्मफल का आरम्भ करने में समर्थ नहीं होते। जिन कर्मों में हिंसा यादि कृष्ण कर्म एवं दान यादि शुक्त कर्मों का सहभाव होता है, जैसे हिसामिश्रित वैदिक याग आदि ने शुक्लकृष्ण कर्म कहलाते हैं। इन कर्मों का फल भी सदा मिश्रित ही होता है।
1
अवस्थाभेद से भी कर्मों का वर्गीकरण किया जा सकता है। इसके अनुसार कर्मों के तीन वर्ग होंगे - प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण । कर्माशय में विद्यमान अनन्त कर्मों में से जिनका
१. दृष्टजन्म वेदनीयस्त्वैकविपाकारम्भी भोगहेतुत्वात् द्विविपाकारम्भी या प्रायुर्भौगहेतुत्वात्, नन्दीश्वरषवद् वा इति । यो० भा० २.१३.
२. यो दृष्टजन्मवेदनीयो नियतविपाकस्तस्य त्रयोगतिः कृतस्याविपक्वस्य नाश:, प्रधानकर्मण्यावापगमनं वा नियतविपाकप्रधानकर्मणाऽभिभूतस्य वा चिरमवस्थानम् ।
,
-
वही, २.१३ २. हे कर्मणी वेदितव्यं पापकस्यैको राशिः पुण्यकृतोपहन्ति । योगभाष्य, पृ० १७१ से उब त द्वे द्वे ४. सः कर्माशयो द्विविधः, प्रारब्धफलोऽनारब्धफलश्च । तत्रारब्धफलः उक्त एकजन्मावच्छिन्नः । अनारब्धफलोऽपि त्रिविधः, शुक्लः कृष्णः शुक्लकृष्णश्च । नागोजिवृत्ति २.१३
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org