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ध्येय-प्राप्ति का हेतु 'भावना' / २५७
होता है । आध्यात्मिक विकास में अनित्य, अन्यत्व, अशरण, अशुचि, प्रास्रव, एकत्व, धर्म, निर्जरा, बोधिदुर्लभ, लोक, संवर और संसार-बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाएँ परम सहायक हैं।
कविवर मंगतराय इन अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन, मनन से संसार-सागर तरने की बात कहते हैं-यथा
मोहनींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को। हो दयाल उपदेश करें गुरु, बारह भावन को। इनका चिन्तवन बार-बार कर श्रद्धा उर धरना ।
मंगत इसी जतन तें इक दिन, भव सागर तरना ॥ भक्तकवि भूधरदास ने बारह भावनाओं को संक्षिप्त लेकिन सरल सारभित रूप में दोहा, सोरठा छन्द में शब्दित किया है जो बाल, वृद्ध, युवा सभी के लिए चिन्तन-मनन करने योग्य हैंअनित्यभावना
राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार ।
मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ॥ अशरणभावना
दल बल देई देवता, मात पिता परिवार ।
मरती विरियाँ जीव को, कोई न राखनहार ॥ संसारभावना
दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णावश धनवान । कहूं न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ॥
एकत्वभावना
आप अकेला अवतर, मरै अकेला होय । यू कबहूं इस जीव को, साथी सगा न कोय ॥
अन्यत्वभावना
जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय । घर सम्पति पर प्रकट ये, पर हैं परिजन लोय ॥
अशुचिभावना
दिप चाम-चादर मढ़ी, हाड़ पीजरा देह । भीतर या सम जगत में, अवर नहीं घिन गेह ॥
प्रास्त्रवभावना
मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमै सदा। कर्म चोर चहुं ओर, सरवस लूट सुध नहीं ॥
संवरभावना
सतगुरु देय जगाय, मोहनींद जब उपशमैं । तब कछु बने उपाय, कर्म चोर आवत रुकै ॥
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीय है
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