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प्राकृत बोलियों की सार्थकता | २४७
पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्राकृत का अध्ययन
पाश्चात्य विद्वानों, विशेषकर जर्मन विद्वानों का, हमें ऋणी होना चाहिए जिन्होंने सर्वप्रथम प्राकृत बोलियों का आधुनिक ढंग से वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत किया, खास कर उस युग में जबकि प्राकृत ग्रन्थों की केवल हस्तलिखित पांडुलिपियाँ ही उपलब्ध थीं। इस संबंध में पाल ब्रत वेबर, हर्मन याकोबी, होग, कॉवेल, रिचर्ड प्रिशल, हॉर्नेल आदि के नामों का उल्लेख किया जा सकता है। सर्वप्रथम प्रालबर्ट होएफर ने De Prakrita dialecto libri duo (प्राकृत बोलियाँ, दो भागों में, बलिन, १८३६) पुस्तक का प्रकाशन किया । लगभग इसी समय १८३७ में क्रिस्तिएन ला स्सेन की Institutiones Linguae Prakriticae रचना प्रकाशित हुई जिसमें प्राकृत बोलियों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सामग्री एकत्रित की गई। इस क्षेत्र में प्रालब्र श्त वेबर ने महाराष्ट्री, अर्धमागधी और अपभ्रश बोलियों पर सराहनीय कार्य किया। एडवर्ड म्यूलर ने अर्धमागधी पर कार्य किया। तत्पश्चात् वेबर के प्रतिभाशाली शिष्य याकोबी ने जैन महाराष्ट्री का अध्ययन प्रस्तुत किया। Ausgewete Erzelungen in
Maharastri (महाराष्ट्री से चुनी हुई कहानियाँ) में जैन महाराष्ट्री प्राकृत कथाओं का सम्पादन कर उसे भाषाशास्त्रीय टिप्पणियों से सज्जित किया। तत्पश्चात् ई. बी. कॉवेल ने वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश को १८५४ में प्रकाशित किया। इसी का द्वितीय संस्करण अंग्रेजी अनुवाद और टिप्पणियों तथा भामह की टीका के साथ १८६८ में प्रकाशित हुआ। कॉवेल महोदय ने १८७५ में वररुचि के प्राकृत-प्रकाश पर आधारित 'ए शॉर्ट इण्ट्रोडक्शन टु द प्रॉडिनरी प्राकृत व द संस्कृत ड्रामाज विद ए लिस्ट ऑव कॉमन इरेगुलर प्राकृत वर्डस' पुस्तक प्रकाशित की। होग ने Vergleichurg des Prakrita mit den Romanischen spra cher (रोमन भाषाओं के साथ प्राकृत का तुलनात्मक अध्ययन) नामक पुस्तक का १८६९ में प्रकाशन किया जिसमें प्राकृत तथा स्पैनिश, पोर्चुगीज़ फ्रेंच और इतालवी आदि भाषाओं के रूपों में समान ध्वनि परिवर्तन के नियमों की तुलना की गई। ए. एफ. होएनले ने प्राकृत भाषाविज्ञान के सामान्य सर्वेक्षण के इतिहास पर कार्य किया। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य किया रिचर्ड पिशल ने जिन्होंने अप्रकाशित हस्तलिखित प्राकृत ग्रन्थों के गम्भीर अध्ययन के पश्चात् १८७४ में Grammatik der Prakrit Sprachen(प्राकृत भाषायों का व्याकरण); सुभद्र झा द्वारा Comparative Grammar of the Prakrat Languages नाम से १९५७ में अंग्रेजी में तथा हेमचन्द जोशी द्वारा 'प्राकृत भाषाओं का व्याकरण'' (शीर्षक के अन्तर्गत बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना द्वारा १९५८ में हिन्दी में प्रकाशित) नामक महत्त्वपूर्ण रचना प्रस्तुत की। कहना न होगा कि इस रचना में प्राकृत भाषाओं के स्वरूप-निर्णय के लिए आवश्यक प्राचीनतम जैन आगम और उन पर लिखी गई प्राचीन व्याख्याओं एवं हाल में प्रकाशित जैन कथा-साहित्य प्रादि से संबंधित महत्त्वपूर्ण रचनाओं को सम्मिलित नहीं किया
१. दुर्भाग्य से हिन्दी के इस संस्करण में बहुत-सी अशुद्धियाँ रह गई हैं। अडसठ पन्नों का
शुद्धाशुद्धि पत्र अन्त में दिया गया है, फिर भी जैन आगमों के प्रयोगों एवं पाठों की काफी अशुद्धियाँ देखने में आती हैं। देखिये 'ज्ञानांजलि' (पूज्य मुनि श्री पुण्य विजय जी अभिवादन ग्रन्थ, १९६९) में, हिन्दी विभाग के अन्तर्गत मुनि पूण्य विजय जी द्वारा लिखित 'जैन आगमधर और प्राकृत वाङ्मय' पृ० ५८-६१ ।
धम्मो दीवो संसार समुद्र में Laर्म ही दीय
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