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चतुर्थखण्ड / ११४
(४) अन्य दार्शनिक मान्यताओं में निहित सस्यों को एवं इनकी मूल्यवत्ता को स्वीकार जैन दृष्टि के साथ उनके समन्वय का प्रयत्न ।
(५) अन्य दार्शनिक परम्पराओं के ग्रन्थों का निष्पक्ष अध्ययन और उन पर व्याख्या और टीका का प्रणयन ।
(६) उदार और समन्वयवादी दृष्टि रखते हुए भी धार्मिक एवं पौराणिक ग्रन्थविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन ।
करते हुए
(७) दर्शन और धर्म के क्षेत्र में प्रास्था या श्रद्धा की अपेक्षा तर्क एवं युक्ति पर अधिक बल; किन्तु शर्त यह कि तर्क और युक्ति का प्रयोग अपने मत की पुष्टि के लिए नहीं, अपितु सत्य की खोज के लिए हो।
(८) धर्म साधना को कर्मकाण्ड के स्थान पर चरित्र की निर्मलता के साथ जोड़ने
का प्रयत्न ।
(९) मुक्ति के सम्बन्ध में एक उदार और व्यापक दृष्टिकोण ।
(१०) उपास्य के नाम-भेद को गौण मानकर उनके गुणों पर बल ।
अन्य दार्शनिक एवं धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण
जैन परम्परा में अन्य परम्पराधों के विचारकों के दर्शन एवं धर्मोपदेश के प्रस्तुतीकरण का प्रथम प्रयास हमें ऋषिभाषित (इसिभा सियाई लगभग ई० पू० ३ शती) में परिलक्षित होता है । इस ग्रंथ में अन्य धार्मिक और दार्शनिक परम्पराम्रों के प्रवर्तकों—यथा नारद, असितदेवल, याज्ञवल्क्य, सारिपुत्र आदि को अर्हत् ऋषि कहकर सम्बोधित किया गया है और उनके विचारों को निष्पक्ष रूप में प्रस्तुत किया गया है। निश्चय ही वैचारिक उदारता एवं अन्य परम्पराम्रों के प्रति समादर भाव का यह अति प्राचीनकाल का अन्यतम और मेरी दृष्टि में एकमात्र उदाहरण है । अन्य परम्पराओं के प्रति ऐसा समादरभाव वैदिक और बौद्ध परम्परा के प्राचीन साहित्य में हमें कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। स्वयं जैन परम्परा में भी यह उदार दृष्टि अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकी। परिणामस्वरूप यह महान् ग्रंथ जो कभी अंग साहित्य का एक भाग था, वहां से अलग कर परिपार्श्व में दाल दिया गया। यद्यपि सूत्रकृतांग, भगवती श्रादि श्रागम ग्रंथों में तत्कालीन अन्य परम्पराओं के विवरण उपलब्ध होते हैं, किंतु उनमें अन्य दर्शनों और परम्परानों के प्रति वह उदारता और शालीनता परिलक्षित नहीं होती, जो ऋषिभाषित में थी। ऋषिभाषित में जिस मंखलि गोशालक को महंत ऋषि के रूप में संबोधित किया गया था, भगवती में उसी का अशोभनीय चित्र प्रस्तुत किया गया है, यहाँ यह चर्चा मैं केवल इसलिए कर रहा हूँ कि हम हरिभद्र की उदारदृष्टि का सम्यक् मूल्यांकन कर सकें और यह जान सकें कि न केवल जैन परम्परा में अपितु समग्र भारतीय दर्शन में उनका अवदान कितना महान् है ।
ज़ैन दार्शनिकों में सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर ने अपने ग्रन्थों में अन्य दार्शनिक मान्यताओं का विवरण प्रस्तुत किया है। उन्होंने बत्तीस द्वात्रिंशिकाएँ लिखी हैं, उनमें नवीं में 'वेदवाद, दसवीं में योगविद्या बारहवीं में स्वायदर्शन, तेरहवीं में सांख्यदर्शन, चौदहवीं में वैशेषिकदर्शन, पन्द्रहवीं में बौद्धदर्शन और सोलहवीं में नियतिवाद की चर्चा है, किन्तु
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