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चतुर्थ खण्ड | १३४
प्रकार तथा उसके पर्यायों के कहने से वस्तुतत्व के स्वरूप को अधिक स्पष्ट व विस्तार से बताया जा सकता है। प्रत्येक पर्याय की अपनी निरुक्ति (व्युत्पत्ति) होती है जो वस्तुगत किसी विशेषता को उद्घाटित करती है। पद्मपुराण (रविषेण) में भी श्रमण के पर्यायों की निरुक्ति करते हुए श्रमण-चर्या के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है । ५६
६. पदावयव का पूरे पद के लिए प्रयोग-(पदेऽपि पदावयव-प्रयोग-दर्शनम्)
इस न्याय का उल्लेख नन्दी सूत्र (७६ गाथा) पर की गई वृत्ति में हुआ है । इस न्याय के अनुसार सत्यभामा के स्थान पर 'भामा' पद का प्रयोग लोक में जैसे प्रचलित है, उसी तरह आगमों में भी समझना चाहिए। उदाहरणार्थ, 'विश्रेणिस्थित' की जगह 'विश्रेणि' पद नन्दी सूत्र (गाथा-७६) में प्रयुक्त हुआ है ।५७ प्रा. हरिभद्र के ग्रन्थों में प्रयुक्त प्रमुख दृष्टान्त/उदाहरण:
प्रा. हरिभद्र ने अपने ग्रन्थों में अनेक जगह दृष्टान्तों/उपमानों के माध्यम से विषयवस्तु में अधिक रोचकता व स्पष्टता उत्पन्न की है। अनेक दृष्टान्तों का प्रयोग उन्होंने किया है, उनमें से कुछ प्रमुख दृष्टान्तों का उल्लेख आगे किया जा रहा है
१. गोवत्सदुग्धपान-दृष्टान्त चारित्र-सम्पन्न व्यक्ति के मुख से सुने उपदेश लाभकारी होते हैं। इस तथ्य को स्पष्ट करने हेतु प्रा. हरिभद्र ने गौ माता व स्तनपायी बछड़े का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। उन्होंने प्रतिपादित किया कि जैसे बछड़ा गौ के थन से दूध पीता है, वह उसके लिए लाभकारी होता है, किन्तु यदि पात्र में दहे गए गो-दग्ध को पीता है तो वह उतना लाभकारी नहीं होता, वैसे हो गुणी-सच्चरित्रव्यक्ति से प्राप्त उपदेश अधिक लाभदायक होता है और चारित्रहीन व्यक्ति से प्राप्त उपदेश लाभकारी नहीं होता ।५८
२. अन्धव्यक्ति-दृष्टान्त अन्धा व्यक्ति देखना चाहते हुए भी नहीं देख पाता, भले ही सूर्य का या सैकड़ों दीपकों का प्रकाश कर दिया जाये । कभी-कभी चिकित्सा (पापरेशन) या पुण्योदय से अन्धा भी देखने लग जाता है। संयोगवश पुण्य-प्रभाव से ऐसा भी होता है कि भयंकर बीहड़ जंगल को भी बिना किसी विपत्ति में पड़े पार कर जाता है। उसी तरह शास्त्र-भक्ति (सद्दर्शन) से हीन व्यक्ति निर्दुष्ट व उत्तम फलदायी व्रतादि-आचरण नहीं कर पाता५६ भले ही सैकड़ों ग्रन्थ उसे पढ़ाये जायें। किन्तु वहीं व्यक्ति मिथ्यात्व की ग्रन्थि को तोड़ देता है तब सत्योन्मुखी दृष्टि पा लेता है। शास्त्र-ज्ञान से रहित व्यक्ति भी सातावेदनीय कर्मों के प्रभाव से धर्म-पथ पर निरापद अग्रसर होता जाता है।"
३-४. उत्पलशतपत्रमेद तथा जीर्णपट्टशाटिकापाटन दृष्टान्त
जिस प्रकार कमल पुष्प के सौ पत्तों को एक साथ रख कर उन्हें सुई से छेदा जाये तो प्रत्येक पत्र के छिन्न होने का पृथक-पृथक् काल निर्धारित करना कठिन है, वस्तुत: छेदने की क्रिया अत्यन्त शीघ्र होती है और काल-व्यवधान बहुत सूक्ष्म होता है-यद्यपि छेदन-क्रिया
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