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चतुर्थ खण्ड / १६६
कि मच्छे मारसि । न सक्के मि पातु ।
अरे ! तुम मज्जं पियसि। उत्तराध्ययनचूणि-जिनदास महत्तर ने इस चूणि में संस्कृत और प्राकृत को मिश्रित कर दिया है। इसमें लोककथाओं की बहुलता है। प्रसंगवश तत्त्वचर्चा भी की गई है।
व्युत्पत्तियों के लिए यह चूणि प्रसिद्ध है। काश्यप शब्द की एक व्युत्पत्ति द्रष्टव्य है
"काशं उच्छ, तस्य विकारः, कास्यः रसः स यस्य पानं, काश्यप-उसमसामी, तस्य जोगा जे जाता ते कासवा, वद्धमाणो सामी कासवो"
नंदिचूणि-इस चूणि में पांच ज्ञानों का वर्णन है। इस चूणि में माथुरीवाचना तथा प्राचार्य स्कंदिल के द्वारा श्रमण संघ को दी गई शिक्षा का उल्लेख मिलता है। इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री और लोक-कथाओं की बहुलता है।
अनुयोगद्वारचूणि-इसमें चार अनुयोग और उनमें प्रतिपाद्य विषय का विवेचन है । भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है। इसमें विभिन्न सभाओं, रथ, यान आदि का वर्णन है।
व्याख्याप्रज्ञप्तिचूर्णि-व्याख्याप्रज्ञप्ति का दूसरा नाम भगवतीसूत्र है। इसमें मात्र शब्दों की व्युत्पत्ति ही की गई है। __जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिचूर्णि-जंबूद्वीप के क्षेत्र, विस्तार का सांगोपांग वैज्ञानिक एवं गणित की दृष्टि से इस चूणि में विवेचन किया गया है।
जीवाभिगमणि-इस चूणि में जीव और अजीव की व्याख्या प्रस्तुत करने के लिए इनके भेदप्रभेदों का वर्णन किया है। इसमें गौतम गणधर द्वारा महावीर से जीव आदि तत्त्वों के विषय में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर है। इस पर मलयगिरि ने टीका और हरिभद्रसूरि ने लघुवृत्ति लिखी है।
वशाथ तस्कंधचूणि-भद्रबाहु ने इस चणि में प्राचार्य कालक की कथा सातवाहन की कथा एवं सिद्धसेन तथा गोशालक का भी उल्लेख किया है। कई श्रमणों की तपश्चर्या का भी इसमें उल्लेख है।
ओघणि-इसमें अोष की व्याख्या प्रस्तुत करके साधु जीवन का उल्लेख किया है।
निशीथचूर्णि-प्राकृत भाष्य पर जो व्याख्या प्रस्तुत की गई, वह निशीथ चूर्णि कहलाई । चूर्णिकार ने कहा है
"पुटवायरिय-कयं चिय अहं पि तं चेव उ विसेसा" इसमें मधुर और सूवाच्य शैली में विशेष व्याख्या प्राकृत में ही की गई है। और अल्प मात्र ही संस्कृत में व्याख्या प्रस्तुत की गई है।
जिनदास महत्तर ने बड़ी गंभीरता से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की है, सुन्दर वार्तालाप द्वारा इस चुणि को अधिक रोचक बनाया है:
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