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चतुर्थ खण्ड / १५२
३. जहाँ श्रमण वर्षावास रह रहे हैं वहाँ पाकर यदि कोई उनसे प्रार्थना करे कि जिस भाई ने आपके सन्निध्य में रहकर ज्ञानार्जन किया है वह भाई-अभी इसी चातुर्मास में प्रव्रज्या लेना चाहता है किन्तु उसके स्वजन-परिजनों की हार्दिक अभिलाषा अपने गांव में ही प्रव्रज्याप्रदान का प्रायोजन करने की है-प्रतः आप विहार करके वहाँ पधारें। वह पापका ही अन्तेवासी रहकर संयमसाधना करने के लिए कृतसंकल्प है, इस प्रकार प्रव्रज्या प्रदान का प्रसंगउपस्थित होने पर श्रमण वर्षावास में भी विहार करके वहाँ जा सकते हैं ।
इस अपवाद विधान के मूल में-"संयम-साधना में सहयोग करने की भावना" निहित है।
जो संयमी जीवन जीकर अनेकानेक आत्माओं को सन्मार्गगमन की प्रेरणा प्रदान करने का संकल्प रखता है उसे सहयोग करना भी एक सर्वोत्तम कर्तव्य है।
४. जहाँ श्रमण वर्षावास रह रहे हों वहां बाढ़ आने की सम्भावना हो या बाढ़ प्रा जाए तो सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने के प्राप्त साधनों से वर्षावास में भी अन्यत्र जा सकते हैं।
जहाँ बाढ़ आती है वहाँ का सारा जनजीवन अस्तव्यस्त हो जाता है। अतः वहां के निवासी प्रायः सुरक्षित स्थान पर वसने के लिए चले जाते हैं।
ऐसी स्थिति में श्रमणों का अन्यत्र चला जाना ही उपयुक्त माना गया है। इस अपवाद विधान के मूल में-"आत्मानं सततं रक्षेत्" का संकल्प सन्निहित है।
५. जहाँ श्रमण वर्षावास रह रहे हों वहाँ या उस प्रान्त तथा राष्ट्र पर अनार्यों का आक्रमण होने की सम्भावना हो या आक्रमण प्रारम्भ हो गया हो तो वे वर्षावास में भी अन्यत्र जा सकते हैं। ___ इस अपवादविधान के मूल में-"अशान्त क्षेत्र से दूर रहने का" विधान चरितार्थ हो रहा है।' परोषह और उपसर्ग सहने की सीमा
इन अपवादविधानों से यह स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है कि जहां तक समाधिभाव रहे वहीं तक परीषह और उपसर्ग सहना संगत माना जा सकता है।
परीषह या उपसर्ग सहते हुए यदि असमाधि भाव आ जाय तो उस परीषह-उपसर्ग को सहने का कोई औचित्य नहीं है। क्योंकि उत्तम संहनन वालों में जितनी सहिष्णुता होती है उतनी सामान्य संहनन वालों में प्रायः नहीं देखी जाती है।
आगमों में परीषह-उपसर्ग सहने के जितने वर्णन उपलब्ध हैं वे प्रायः उसी भव से मुक्त होनेवालों के ही हैं । वे सभी वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले ही थे। अत: सामान्य संहननवालों से उनके अनुकरण का आग्रह करना विवेकपूर्ण कैसे कहा जाय ?
वर्षावास में विहार कर सकने का विधान करनेवाले ये पांच अपवाद और भी हैं
१. संकिलेसकरं ठाणं, दूरग्रो परिवज्जए।
- दश. अ. ५, उ. १, गा. १६ ।
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