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चतुर्थ खण्ड / १०२
अध्ययन १४-गाथा १-'देवा भवित्ताणं........' (देव लोक के समान) उपमा अलंकार । तथा 'पुरे' गाथा में शब्द दो बार आया अतः यमक और अनप्रास है।।
गाथा १५–में स्वभावोक्ति तथा 'इयं शब्द' ४ बार आया अत: यमक अलंकार है। गाथा १७–'धम्मधुरा'-धर्म की धुरा । इसमें रूपक ।। गाथा १८-'जहा य अग्गी अरणीउऽसन्तो, खीरे घयं तेल्ल महातिलेसु ।
एमेव जाया ! सरीरंसि सत्ता ........॥' जैसे अरणि में आग, दूध में घी, तिल में तेल है वैसे शरीर में प्रात्मा है। इसमें उदाहरण अलंकार है। गाथा २२-२३-केण अब्भाहओ लोगो, केण वा परिवारिओ?
का वा अमोहा वुत्ता ?........................ परिसंख्या तथा यमक अलंकार ! २२ गाथा में प्रश्न और २३ में उत्तर है।
गाथा २४-२५–'जा-जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई'-जो जो रात्रि जा रही है वह फिर लौट कर नहीं आती है। इसमें स्वभावोक्ति, यमक तथा मानवीय अलंकार है।
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गाथा २७--'जस्स त्थि मच्चणा सक्खं'—जिसकी मृत्यु के साथ मैत्री है। इसमें असंभव, अनुप्रास तथा 'जस्स' शब्द दो बार आया है अतः यमक अलंकार है।
गाथा २९–'साहाहि रुक्खो लहए समाहि'--वृक्ष शाखा से सुंदर लगता है । यहाँ यह बात इस संदर्भ में कही गयी है कि पुत्र से पिता का घर शोभा पाता है। इसमें रूपक अलंकार है।
गाथा ३०-'पंखहीन पक्षी, सेना रहित राजा और धन रहित व्यापारी जैसे असहाय होते हैं वैसे भृगु भी पुत्र विना असहाय है।' इसमें उदाहरण तथा अनुप्रास है।
गाथा ३३.--'जुण्णो व हंसोपडिसोत्तगामी'प्रतिस्रोत में तैरनेवाले बूढ़े हंस की तरह। इसमें उपमा अलंकार है जो भगु पुरोहित को दी गई है। क्योंकि वह भी प्रौढ़ हो गया है। गाथा ३४ --'जहा य भोई ! तणुयं भुयंगो, निम्मोणि हिच्च पलेइ मुत्तो'
एमए जाया पयहं ति भोए.............. .............।' जैसे सांप अपने शरीर की केंचुली को छोड़कर मुक्तमन से चलता है वैसे ही दोनों पुत्र भोगों को छोड़कर जा रहे हैं । इसमें उदाहरण अलंकार है।
गाथा ३५-'छिदित्त जालं अबलं व रोहिया' रोहित मत्स्य जैसे कमजोर जाल को तोड़कर निकल जाते हैं वैसे 'मच्छा जहा कामगुणे पहाय' साधक कामगुणों को छोड़कर निकल जाते हैं। इसमें उदाहरण अलंकार है।
गाथा ३६-'जहेव कुचा समइक्कमंता, तयाणि जालाणि दलित्त हसा'--जैसे क्रौंच पक्षी और हंस बहेलियों के द्वारा बिछाया गया जाल काटकर आकाश में स्वतंत्र उड़ जाते हैं वैसे ही भगु और दोनों पुत्र संसार-जाल को तोड़कर संयमी बनने जा रहे हैं। इसमें भी उदाहरण अलंकार है।
गाथा ४०--'जया-तयवा' छेकानुप्रास तथा गाथा में स्वभावोक्ति है। .
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